श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, नवाँ विश्राम
श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, नवाँ विश्राम
श्री रामचरित
मानस
प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
सीय स्वयंबरू
देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस
भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
चलकर सीता के
स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मण ने कहा - हे
नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को
प्राप्त होगा)।
हरषे मुनि सब
सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृंद
समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥
इस श्रेष्ठ
वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियों
के समूह सहित कृपालु राम धनुष यज्ञशाला देखने चले।
रंगभूमि आए
दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह
काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
दोनों भाई
रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाई,
तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए।
देखी जनक भीर
भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल
लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥
जब जनक ने
देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा -
तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो।
दो० - कहि
मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम
नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥ 240॥
उन सेवकों ने
कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने
योग्य स्थान पर बैठाया॥ 240॥
राजकुअँर तेहि
अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर
बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
उसी समय
राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही
उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्र,
चतुर और उत्तम वीर हैं।
राज समाज
बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही
भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
वे राजाओं के
समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चंद्रमा हों। जिनकी जैसी
भावना थी,
प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी।
देखहिं रूप
महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप
प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
महान रणधीर
(राजा लोग) राम के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु
को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो।
रहे असुर छल
छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा।
पुरबासिन्ह
देखे दोउ भाई। नर भूषन लोचन सुखदायी॥
छल से जो
राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर
निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देनेवाला
देखा।
दो० - नारि
बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत
सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥ 241॥
स्त्रियाँ
हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो
श्रृंगार-रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥ 241॥
बिदुषन्ह
प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं
कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
विद्वानों को
प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत-से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनक के सजातीय (कुटुंबी) प्रभु को किस
तरह (कैसे प्रिय रूप में) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं।
सहित बिदेह
बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम
तत्त्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
जनक समेत
रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे
शांत,
शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्त्व के रूप में दिखे।
हरिभगतन्ह
देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव
भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥
हरि भक्तों ने
दोनों भाइयों को सब सुखों के देनेवाले इष्ट देव के समान देखा। सीता जिस भाव से राम
को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता।
उर अनुभवति न
कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा
जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥
उस (स्नेह और
सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह
सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश राम को वैसा ही देखा।
दो० - राजत
राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल
गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥ 242॥
सुंदर,
साँवले और गोरे शरीरवाले तथा विश्वभर के नेत्रों को
चुरानेवाले कोसलाधीश के कुमार राजसमाज में (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं॥ 242॥
सहज मनोहर
मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक
मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
दोनों
मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरनेवाली हैं। करोड़ों
कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुंदर मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा
की भी निंदा करनेवाले (उसे नीचा दिखानेवाले) हैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत
ही भाते हैं।
चितवनि चारु
मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल
श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
सुंदर चितवन
(सारे संसार के मन को हरनेवाले) कामदेव के भी मन को हरनेवाली है। वह हृदय को बहुत
ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुंदर गाल हैं,
कानों में चंचल (झूमते हुए) कुंडल हैं। ठोड़ी और अधर (ओठ)
सुंदर हैं, कोमल वाणी है।
कुमुदबंधु कर
निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल
तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
हँसी,
चंद्रमा की किरणों का तिरस्कार करनेवाली है। भौंहें टेढ़ी
और नासिका मनोहर है। (ऊँचे) चौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे
हैं)। (काले घुँघराले) बालों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं।
पीत चौतनीं
सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर
कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥
पीली चौकोनी
टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियाँ बनाई (काढ़ी) हुई हैं।
शंख के समान सुंदर (गोल) गले में मनोहर तीन रेखाएँ हैं,
जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा (को बता रही) हैं।
दो० - कुंजर
मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध
केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥ 243॥
हृदयों पर
गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलों के
कंधे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐंड़ (खड़े होने की शान) सिंह की-सी है और भुजाएँ विशाल एवं
बल की भंडार हैं॥ 243॥
कटि तूनीर पीत
पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य
उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
कमर में तरकस
और पीतांबर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर धनुष तथा
पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं,
उन पर महान शोभा छाई हुई है।
देखि लोग सब
भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु
देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
उन्हें देखकर
सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते।
जनक दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के चरण कमल पकड़
लिए।
करि बिनती निज
कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं
कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥
विनती करके
अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। (मुनि के साथ) दोनों
श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं।
निज निज रुख
रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि
नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥
सबने राम को
अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परंतु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने
राजा से कहा - रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है (विश्वामित्र - जैसे निःस्पृह,
विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर) राजा
प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला।
दो० - सब
मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ
बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥ 244॥
सब मंचों से
एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं) राजा ने मुनि सहित दोनों
भाइयों को उस पर बैठाया॥ 244॥
प्रभुहि देखि
सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति
सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
प्रभु को
देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण
चंद्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकर) सबके मन
में ऐसा विश्वास हो गया कि राम ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं।
बिनु भंजेहुँ
भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि
गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
(इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिव के विशाल धनुष को
(जो संभव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीता राम के ही गले में जयमाल डालेंगी
(अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय राम के हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे
कहने लगे -) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो।
बिहसे अपर भूप
सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु
ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥
दूसरे राजा,
जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे,
यह बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होंने कहा -) धनुष तोड़ने पर
भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे),
फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है।
एक बार कालउ
किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर
महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥
काल ही क्यों
न हो,
एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह
घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराए।
सो० - सीय
बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक
संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥ 245॥
(उन्होंने कहा -) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे
तोड़कर) राम सीता को ब्याहेंगे। (रही युद्ध की बात, सो) महाराज दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो
जीत ही कौन सकता है॥ 245॥
ब्यर्थ मरहु
जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि
सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥
गाल बजाकर
व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है?
हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीता को अपने जी
में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो),
जगत पिता
रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद
सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥
और रघुनाथ को
जगत का पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छवि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं
मिलेगा)। सुंदर, सुख देनेवाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिव के हृदय में बसनेवाले
हैं (स्वयं शिव भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं,
वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं)।
सुधा समुद्र
समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा
कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥
समीप आए हुए
(भगवद्दर्शनरूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में
पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो?
फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो। हमने तो (राम
के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर लिया)।
अस कहि भले
भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ
चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥
ऐसा कहकर
अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर राम का अनुपम रूप देखने लगे। (मनुष्यों की तो बात ही
क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान
करते हुए फूल बरसा रहे हैं।
दो० - जानि
सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं
सुंदर सकल सादर चलीं लवाइ॥ 246॥
तब सुअवसर
जानकर जनक ने सीता को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा
चलीं॥ 246॥
सिय सोभा नहिं
जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि
लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
रूप और गुणों
की खान जगज्जननी जानकी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे (काव्य की)
सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखनेवाली
हैं (अर्थात वे जगत की स्त्रियों के अंगों को दी जाती हैं)। (काव्य की उपमाएँ सब
त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति जानकी के अप्राकृत,
चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने
को उपहासास्पद बनाना है)।
सिय बरनिअ तेइ
उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ
तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
सीता के वर्णन
में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात सीता के
लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है,
कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा।) यदि
किसी स्त्री के साथ सीता की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ
(जिसकी उपमा उन्हें दी जाए)।
गिरा मुखर तन
अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी
बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
(पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो उनमें) सरस्वती
तो बहुत बोलनेवाली हैं, पार्वती अर्धांगिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप
में उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष - शिव का है),
कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर
बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते)
प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकी को कहा ही कैसे जाए।
जौं छबि सुधा
पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु
मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥
(जिन लक्ष्मी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठवाले कच्छप का रूप
धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और उसे
मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम
सुंदरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक
ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी जानकी की समता को कैसे पा सकती
हैं। हाँ,
इसके विपरीत) यदि छविरूपी अमृत का समुद्र हो,
परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृंगार (रस) पर्वत हो और (उस छवि के समुद्र को) स्वयं
कामदेव अपने ही करकमल से मथे,
दो० - एहि
बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच
समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥ 247॥
इस प्रकार (का
संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो,
तो भी कवि लोग उसे (बहुत) संकोच के साथ सीता के समान
कहेंगे॥ 247॥
चलीं संग लै
सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु
सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
सयानी सखियाँ
सीता को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीता के नवल शरीर पर सुंदर
साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छवि अतुलनीय है।
भूषन सकल
सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
रंगभूमि जब
सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥
सब आभूषण
अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भली-भाँति सजाकर पहनाया है।
जब सीता ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री,
पुरुष सभी मोहित हो गए।
हरषि सुरन्ह
दुंदुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह
जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥
देवताओं ने
हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीता के करकमलों में
जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे।
सीय चकित चित
रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप
देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥
सीता चकित
चित्त से राम को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीता ने मुनि के पास (बैठे
हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (राम में)
जा लगे (स्थिर हो गए)।
दो० - गुरजन
लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन
सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥ 248॥
परंतु
गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीता सकुचा गईं। वे राम को हृदय
में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं॥ 248॥
राम रूपु अरु
सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल
कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥
राम का रूप और
सीता की छवि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक झपकाना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को
देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन-ही-मन वे विधाता से विनय करते हैं-
हरु बिधि बेगि
जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार
पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥
हे विधाता!
जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि
जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीता का विवाह राम से कर दें।
जगु भल कहिहि
भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ
मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥
संसार उन्हें
भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अंत में भी हृदय जलेगा।
सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकी के योग्य वर तो यह साँवला ही है।
तब बंदीजन जनक
बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह नृपु जाइ
कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥
तब राजा जनक
ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए।
राजा ने कहा - जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था।
दो० - बोले
बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर
कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥ 249॥
भाटों ने
श्रेष्ठ वचन कहा - हे पृथ्वी की पालना करनेवाले सब राजागण! सुनिए। हम अपनी भुजा
उठाकर जनक का विशाल प्रण कहते हैं - ॥ 249॥
नृप भुजबल
बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु
महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
राजाओं की
भुजाओं का बल चंद्रमा है, शिव का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस
धनुष को देखकर गौंसे (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा,
छूने तक की हिम्मत न हुई)।
सोइ पुरारि
कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय
समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
उसी शिव के
कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकी बिना किसी विचार
के हठपूर्वक वरण करेंगी।
सुनि पन सकल
भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि
उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥
प्रण सुनकर सब
राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने
इष्टदेवों को सिर नवाकर चले।
तमकि ताकि तकि
सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु
बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥
वे तमककर
(बड़े ताव से) शिव के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं,
करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं,
पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है,
वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते।
दो० - तमकि
धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट
बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥ 250॥
वे मूर्ख राजा
तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परंतु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं,
मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी
होता जाता है॥ 250॥
भूप सहस दस
एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु
सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
तब दस हजार
राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिव का वह धनुष कैसे नहीं
डिगता था,
जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं
होता।
सब नृप भए
जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय
बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
सब राजा उपहास
के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति,
विजय, बड़ी वीरता - इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए।
श्रीहत भए
हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि
जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
राजा लोग हृदय
से हारकर हीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफल)
देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे।
दीप दीप के
भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि
मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥
मैंने जो प्रण
ठाना था,
उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य
भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत-से रणधीर वीर आए।
दो० - कुअँरि
मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार
बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥ 251॥
परंतु धनुष को
तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यंत सुंदर कीर्ति को पानेवाला मानो ब्रह्मा
ने किसी को रचा ही नहीं॥ 251॥
कहहु काहि यहु
लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ चढ़ाउब
तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥
कहिए,
यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता,
परंतु किसी ने भी शंकर का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई!
चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका।
अब जनि कोउ
माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज
निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
अब कोई वीरता
का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई है। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर
जाओ,
ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं।
सुकृतु जाइ
जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ
बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥
यदि प्रण
छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से
शून्य है,
तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता।
जनक बचन सुनि
सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे लखनु
कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
जनक के वचन
सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकी की ओर देखकर दुःखी हुए,
परंतु लक्ष्मण तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, ओठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए।
दो० - कहि न
सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद
कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥ 252॥
रघुवीर के डर
से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण-से लगे। (जब न रह सके तब) राम के
चरण कमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले - ॥ 252॥
रघुबंसिन्ह
महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि
अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुलमनि जानी॥
रघुवंशियों
में कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता,
जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि राम को उपस्थित जानते हुए
भी जनक ने कहे हैं।
सुनहु भानुकुल
पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि
अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
हे सूर्य
कुलरूपी कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूँ।
काचे घट जिमि
डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप
महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥
और उसे कच्चे
घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ,
हे भगवन! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो
कौन चीज है।
नाथ जानि अस
आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि
चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥
ऐसा जानकर हे
नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ
योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ।
दो० - तोरौं
छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं
प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥ 253॥
हे नाथ! आपके
प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ। यदि ऐसा न
करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा॥ 253॥
लखन सकोप बचन
जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब
भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
ज्यों ही
लक्ष्मण क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी
लोग और सब राजा डर गए। सीता के हृदय में हर्ष हुआ और जनक सकुचा गए।
गुर रघुपति सब
मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति
लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥
गुरु
विश्वामित्र, रघुनाथ और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। राम ने
इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया।
बिस्वामित्र
समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम
भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥
विश्वामित्र
शुभ समय जानकर अत्यंत प्रेमभरी वाणी बोले - हे राम! उठो,
शिव का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ।
सुनि गुरु बचन
चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि
सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥
गुरु के वचन
सुनकर राम ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ,
न विषाद और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) से जवान सिंह
को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए।
दो० - उदित
उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत
सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥ 254॥
मंचरूपी
उदयाचल पर रघुनाथरूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और
नेत्ररूपी भौंरे हर्षित हो गए॥ 254॥
नृपन्ह केरि
आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप
कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
राजाओं की
आशारूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचनरूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया। (वे
मौन हो गए)। अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गए।
भए बिसोक कोक
मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बंदि
सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥
मुनि और
देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम
सहित गुरु के चरणों की वंदना करके राम ने मुनियों से आज्ञा माँगी।
सहजहिं चले
सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब
पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥
समस्त जगत के
स्वामी राम सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की-सी चाल से स्वाभाविक ही चले। राम के चलते
ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए।
बंदि पितर सुर
सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु
मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥
उन्होंने पितर
और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का कुछ
भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! राम शिव के धनुष को कमल की डंडी की भाँति तोड़ डालें।
दो० - रामहि
प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु
सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥ 255॥
राम को
(वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीता की माता स्नेहवश
बिलखकर (विलाप करती हुई-सी) ये वचन बोलीं - ॥ 255॥
सखि सब कौतुक
देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ
कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥
हे सखी! ये जो
हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखनेवाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु
विश्वामित्र को समझाकर नहीं कहता कि ये (राम) बालक हैं,
इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण - जैसे
जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका, उसे तोड़ने के लिए मुनि विश्वामित्र का राम को आज्ञा देना
और राम का उसे तोड़ने के लिए चल देना रानी को हठ जान पड़ा,
इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्र को कोई समझाता भी
नहीं।)
रावन बान छुआ
नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु
राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥
रावण और
बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए,
वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस
के बच्चे भी कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं?
भूप सयानप सकल
सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी
मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥
(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं,
उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी,
परंतु मालूम होता है) राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो
गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)।
तब एक चतुर (राम के महत्त्व को जाननेवाली) सखी कोमल वाणी से बोली - हे रानी!
तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिए।
कहँ कुंभज कहँ
सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत
लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥
कहाँ घड़े से
उत्पन्न होनेवाले (छोटे-से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र?
किंतु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमंडल देखने
में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है।
दो० - मंत्र
परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज
कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥ 256॥
जिसके वश में
ब्रह्मा,
विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यंत छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को
छोटा-सा अंकुश वश में कर लेता है॥ 256॥
काम कुसुम धनु
सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥
देबि तजिअ
संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥
कामदेव ने
फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा
जानकर संदेह त्याग दीजिए। हे रानी! सुनिए, राम धनुष को अवश्य ही तोड़ेंगे।
सखी बचन सुनि
भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब रामहि
बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥
सखी के वचन
सुनकर रानी को (राम के सामर्थ्य के संबंध में) विश्वास हो गया। उनकी उदासी मिट गई
और राम के प्रति उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। उस समय राम को देखकर सीता भयभीत हृदय
से जिस-तिस (देवता) से विनती कर रही हैं।
मनहीं मन मनाव
अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि
सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥
वे व्याकुल
होकर मन-ही-मन मना रही हैं - हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए,
मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर
लीजिए।
गननायक बर
दायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती
सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥
हे गणों के
नायक,
वर देनेवाले देवता गणेश! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा
की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए।
दो० - देखि
देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन
प्रेम जल पुलकावली सरीर॥ 257॥
रघुनाथ की ओर
देख-देखकर सीता धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू
भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है॥ 257॥
नीकें निरखि
नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात
दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥
अच्छी तरह
नेत्र भरकर राम की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीता का मन क्षुब्ध हो उठा।
(वे मन-ही-मन कहने लगीं -) अहो! पिता ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है,
वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं।
सचिव सभय सिख
देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ धनु
कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥
मंत्री डर रहे
हैं,
इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता,
पंडितों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्र
से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुंदर!
बिधि केहि
भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै
मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥
हे विधाता!
मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ, सिरस के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभा की
बुद्धि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे शिव के धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है।
निज जड़ता
लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप
सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥
तुम अपनी
जड़ता लोगों पर डालकर, रघुनाथ (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) हल्के हो जाओ।
इस प्रकार सीता के मन में बड़ा ही संताप हो रहा है। निमेष का एक लव (अंश) भी सौ
युगों के समान बीत रहा है।
दो० - प्रभुहि
चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज
मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥ 258॥
प्रभु राम को
देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीता के चंचल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं,
मानो चंद्रमंडलरूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही
हों॥ 258॥
गिरा अलिनि
मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह
लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥
सीता की
वाणीरूपी भ्रमरी को उनके मुखरूपी कमल ने रोक रखा है। लाजरूपी रात्रि को देखकर वह
प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने (कोये) में ही रह जाता है।
जैसे बड़े भारी कंजूस का सोना कोने में ही गड़ा रह जाता है।
सकुची
ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर
पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥
अपनी बढ़ी हुई
व्याकुलता जानकर सीता सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं कि यदि तन,
मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और रघुनाथ के चरण कमलों
में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है,
तौ भगवानु सकल
उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि
पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥
तो सबके हृदय
में निवास करनेवाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ राम की दासी अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस
पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
प्रभु तन चितइ
प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि
तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥
प्रभु की ओर
देखकर सीता ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात यह निश्चय कर लिया कि यह
शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं) कृपानिधान राम सब जान गए। उन्होंने
सीता को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़ छोटे-से साँप की ओर देखते हैं।
दो० - लखन
लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात
बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥ 259॥
इधर जब
लक्ष्मण ने देखा कि रघुकुलमणि राम ने शिव के धनुष की ओर ताका है,
तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्मांड को चरणों से दबाकर
निम्नलिखित वचन बोले - ॥ 259॥
दिसिकुंजरहु
कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं
संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥
हे दिग्गजो!
हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो,
जिससे यह हिलने न पाए। राम शिव के धनुष को तोड़ना चाहते
हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ।
चाप समीप रामु
जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु
अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥
राम जब धनुष
के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया। सबका संदेह और अज्ञान,
नीच राजाओं का अभिमान,
भृगुपति केरि
गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु
जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥
परशुराम के
गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीता का सोच, जनक का पश्चात्ताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल,
संभुचाप बड़
बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहुबल
सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥
ये सब शिव के
धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढ़े। ये राम की भुजाओं के बलरूपी अपार
समुद्र के पार जाना चाहते हैं, परंतु कोई केवट नहीं है।
दो० - राम
बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय
कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥ 260॥
राम ने सब
लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए-से देखकर फिर कृपाधाम राम ने सीता
की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना॥ 260॥
देखी बिपुल
बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि
बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥
उन्होंने
जानकी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा
आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?
का बरषा सब
कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि
जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
सारी खेती के
सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?
जी में ऐसा समझकर राम ने जानकी की ओर देखा और उनका विशेष
प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए।
गुरहि प्रनामु
मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि
जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
मन-ही-मन
उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ
में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल-जैसा (मंडलाकार) हो गया।
लेत चढ़ावत
खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम
मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
लेते,
चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये
तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा); सबने राम को (धनुष खींचे) खड़े देखा। उसी क्षण राम ने धनुष
को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए।
छं० - भरे
भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं
दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
सुर असुर मुनि
कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदंड खंडेउ
राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥
घोर,
कठोर शब्द से (सब) लोक भर गए, सूर्य के घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे। दिग्गज चिग्घाड़ने
लगे,
धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे। देवता,
राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने
लगे। तुलसीदास कहते हैं; (जब सब को निश्चय हो गया कि) राम ने धनुष को तोड़ डाला,
तब सब 'राम की जय' बोलने लगे।
सो० - संकर
चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड़ सो सकल
समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस॥ 261॥
शिव का धनुष
जहाज है और राम की भुजाओं का बल समुद्र है। (धनुष टूटने से) वह सारा समाज डूब गया,
जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था। (जिसका वर्णन ऊपर आया
है)॥ 261॥
प्रभु दोउ
चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
कौसिकरूप
पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥
प्रभु ने धनुष
के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए। यह देखकर सब लोग सुखी हुए। विश्वामित्ररूपी
पवित्र समुद्र में, जिसमें प्रेमरूपी सुंदर अथाह जल भरा है,
रामरूप राकेसु
निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
बाजे नभ गहगहे
निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥
रामरूपी
पूर्णचंद्र को देखकर पुलकावलीरूपी भारी लहरें बढ़ने लगीं। आकाश में बड़े जोर से
नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएँ गान करके नाचने लगीं।
ब्रह्मादिक
सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा॥
बरिसहिं सुमन
रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥
ब्रह्मा आदि
देवता,
सिद्ध और मुनीश्वर लोग प्रभु की प्रशंसा कर रहे हैं और
आशीर्वाद दे रहे हैं। वे रंग-बिरंगे फूल और मालाएँ बरसा रहे हैं। किन्नर लोग रसीले
गीत गा रहे हैं।
रही भुवन भरि
जय जय बानी। धनुष भंग धुनि जात न जानी॥
मुदित कहहिं
जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥
सारे
ब्रह्मांड में जय-जयकार की ध्वनि छा गई, जिसमें धनुष टूटने की ध्वनि जान ही नहीं पड़ती। जहाँ-तहाँ
स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि राम ने शिव के भारी धनुष को तोड़ डाला।
दो० - बंदी
मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि
लोग सब हय गय धन मनि चीर॥ 262॥
धीर
बुद्धिवाले, भाट,
मागध और सूत लोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब
लोग घोड़े, हाथी,
धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥ 262॥
झाँझि मृदंग
संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु
बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥
झाँझ,
मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकार के सुंदर बाजे बज
रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मंगल गीत गा रही हैं।
सखिन्ह सहित
हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु
सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥
सखियों सहित
रानी अत्यंत हर्षित हुईं, मानो सूखते हुए धान पर पानी पड़ गया हो। जनक ने सोच त्याग
कर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष ने थाह पा ली हो।
श्रीहत भए भूप
धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि
बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥
धनुष टूट जाने
पर राजा लोग ऐसेहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीता का सुख किस
प्रकार वर्णन किया जाए, जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो।
रामहि लखनु
बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद तब
आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥
राम को
लक्ष्मण किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चंद्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा हो। तब शतानंद ने
आज्ञा दी और सीता ने राम के पास गमन किया।
दो० - संग
सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल
गति सुषमा अंग अपार॥ 263॥
साथ में सुंदर
चतुर सखियाँ मंगलाचार के गीत गा रही हैं, सीता बालहंसिनी की चाल से चलीं। उनके अंगों में अपार शोभा
है॥ 263॥
सखिन्ह मध्य
सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल
सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
सखियों के बीच
में सीता कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत-सी छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुंदर
जयमाला है, जिसमें विश्व विजय की शोभा छाई हुई है।
तन सकोचु मन
परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम
छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥
सीता के शरीर
में संकोच है, पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़ रहा है।
समीप जाकर, राम की शोभा देखकर राजकुमारी सीता जैसे चित्र में लिखी-सी रह गईं।
चतुर सखीं लखि
कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर
माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
चतुर सखी ने
यह दशा देखकर समझाकर कहा - सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीता ने दोनों हाथों से
माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती।
सोहत जनु जुग
जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि
अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चंद्रमा को
डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीता ने राम के
गले में जयमाला पहना दी।
सो० - रघुबर उर
जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल
भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥ 264॥
रघुनाथ के
हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो
सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड़ गया हो॥ 264॥
पुर अरु ब्योम
बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किंनर नर
नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
नगर और आकाश
में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता,
किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं।
नाचहिं गावहिं
बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र
बेद धुनि करहीं। बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं॥
देवताओं की
स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अंजलियाँ छूट रही हैं।
जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेद ध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे
हैं।
महिं पाताल नाक
जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती
पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
पृथ्वी,
पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि राम ने धनुष
तोड़ दिया और सीता का वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी
(हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं।
सोहति सीय राम
कै जोरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं
प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥
सीताराम की
जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ
कह रही हैं - सीते! स्वामी के चरण छुओ; किंतु सीता अत्यंत भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं।
दो० - गौतम
तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे
रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥ 265॥
गौतम की
स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीता राम के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर
रही हैं। सीता की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि राम मन में हँसे॥ 265॥
तब सिय देखि
भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि
सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
उस समय सीता
को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर,
कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे।
लेहु छड़ाइ
सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु
चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥
कोई कहते हैं,
सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकड़कर बाँध लो।
धनुष तोड़ने से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन
ब्याह सकता है?
जौं बिदेहु
कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले
सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥
यदि जनक कुछ
सहायता करें, तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले -
इस (निर्लज्ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई।
बलु प्रतापु
बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि
अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥
अरे! तुम्हारा
बल,
प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही
वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी।
दो० - देखहु
रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।।
लखन रोषु
पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥ 266॥
ईर्ष्या,
घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर राम (की छवि) को देख लो।
लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो॥ 266॥
बैनतेय बलि
जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल
अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
जैसे गरुड़ का
भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करनेवाला अपनी कुशल चाहे,
शिव से विरोध करनेवाला सब प्रकार की संपत्ति चाहे,
लोभी लोलुप कल
कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख
परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
लोभी-लालची
सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता (चाहे तो) क्या पा सकता है?
और जैसे हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे,
हे राजाओ! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है।
कोलाहलु सुनि
सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ
चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
कोलाहल सुनकर
सीता शंकित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ रानी (सीता की माता) थीं। राम मन में सीता के प्रेम का
बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरु के पास चले।
रानिन्ह सहित
सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि
इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥
रानियों सहित
सीता (दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर) सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या
करनेवाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मण इधर-उधर ताकते हैं,
किंतु राम के डर से कुछ बोल नहीं सकते।
दो० - अरुन
नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त
गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥ 267॥
उनके नेत्र
लाल और भौंहें टेढ़ी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे,
मानो मतवाले हाथियों का झुंड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ
गया हो॥ 267॥
खरभरु देखि
बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर
सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥
खलबली देखकर
जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं।
उसी मौके पर शिव के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुलरूपी कमल के सूर्य परशुराम आए।
देखि महीप सकल
सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर
भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥
इन्हें देखकर
सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर
विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुंड विशेष शोभा दे रहा है।
सीस जटा
ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल
नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥
सिर पर जटा है,
सुंदर मुखचंद्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें
टेढ़ी और आँखें क्रोध से लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं।
बृषभ कंध उर
बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन
तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥
बैल के समान
(ऊँचे और पुष्ट) कंधे हैं; छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुंदर यज्ञोपवीत धारण किए,
माला पहने और मृगचर्म लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र
(वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथ में धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण किए
हैं।
दो० - सांत
बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु
जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥ 268॥
शांत वेष है,
परंतु करनी बहुत कठोर हैं; स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो वीर रस ही मुनि का
शरीर धारण करके, जहाँ सब राजा लोग हैं, वहाँ आ गया हो॥ 268॥
देखत भृगुपति
बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि
कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥
परशुराम का
भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम
कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करने लगे।
जेहि सुभायँ
चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ
सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥
परशुराम हित
समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनक ने आकर सिर
नवाया और सीता को बुलाकर प्रणाम कराया।
आसिष दीन्हि
सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु
मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥
परशुराम ने
सीता को आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और (वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न
समझकर) वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मंडली में ले गईं। फिर विश्वामित्र आकर मिले और
उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया।
रामु लखनु
दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ
रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥
(विश्वामित्र ने कहा -) ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुंदर
जोड़ी देखकर परशुराम ने आशीर्वाद दिया। कामदेव के भी मद को छुड़ानेवाले राम के
अपार रूप को देखकर उनके नेत्र चकित (स्तंभित) हो रहे।
दो० - बहुरि
बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि
अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥ 269॥
फिर सब देखकर,
जानते हुए भी अनजान की तरह जनक से पूछते हैं कि कहो,
यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है? उनके शरीर में क्रोध छा गया॥ 269॥
समाचार कहि जनक
सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि
अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥
जिस कारण सब
राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन सुनकर परशुराम ने फिरकर दूसरी
ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखाई दिए।
अति रिस बोले
बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ
मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥
अत्यंत क्रोध
में भरकर वे कठोर वचन बोले - रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है,
वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा।
अति डरु उतरु
देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग
नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
राजा को
अत्यंत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मन में बड़े प्रसन्न हुए।
देवता,
मुनि, नाग और नगर के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे,
सबके हृदय में बड़ा भय है।
मन पछिताति
सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर
सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥
सीता की माता
मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी-बनाई बात बिगाड़ दी। परशुराम का
स्वभाव सुनकर सीता को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतने लगा।
दो० - सभय
बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु
बिषादु कछु बोलेरघुबीरु॥ 270॥
तब राम सब
लोगों को भयभीत देखकर और सीता को डरी हुई जानकर बोले - उनके हृदय में न कुछ हर्ष
था न विषाद - ॥ 270॥
श्री राम चरित
मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, नवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष
जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- बालकाण्ड मासपारायण,
दसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, आठवाँ विश्राम
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