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प्रथम सोपान
(बालकाण्ड)
स्याम सरीरु
सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल
सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥
राम का साँवला
शरीर स्वभाव से ही सुंदर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेवों को लजानेवाली है। महावर
से युक्त चरण कमल बड़े सुहावने लगते हैं, जिन पर मुनियों के मनरूपी भौंरे सदा छाए रहते हैं।
पीत पुनीत
मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किंकिनि
कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥
पवित्र और
मनोहर पीली धोती प्रातःकाल के सूर्य और बिजली की ज्योति को हरे लेती है। कमर में
सुंदर किंकिणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओं में सुंदर आभूषण सुशोभित हैं।
पीत जनेउ
महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह
साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥
पीला जनेऊ
महान शोभा दे रहा है। हाथ की अँगूठी चित्त को चुरा लेती है। ब्याह के सब साज सजे
हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौड़ी छाती पर हृदय पर पहनने के सुंदर आभूषण सुशोभित हैं।
पिअर उपरना
काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल
कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निदाना॥
पीला दुपट्टा
काँखासोती (जनेऊ की तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरों पर मणि और मोती लगे हैं। कमल के समान
सुंदर नेत्र हैं, कानों में सुंदर कुंडल हैं और मुख तो सारी सुंदरता का खजाना
ही है।
सुंदर भृकुटि
मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु
मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥
सुंदर भौंहें
और मनोहर नासिका है। ललाट पर तिलक तो सुंदरता का घर ही है। जिसमें मंगलमय मोती और
मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहर मौर माथे पर सोह रहा है।
छं० - गाथे
महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर
सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन
वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर सुमन
बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥
सुंदर मौर में
बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अंग चित्त को चुराए लेते हैं। सब नगर की स्त्रियाँ और
देवसुंदरियाँ दूलह को देखकर तिनका तोड़ रही हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि,
वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मंगलगान कर
रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं।
कोहबरहिं आने
कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति
लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि
सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास
बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥
सुहागिनी
स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियों को कोहबर (कुलदेवता के स्थान) में लाईं और
अत्यंत प्रेम से मंगल गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वती राम को लहकौर
(वर-वधू का परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वती सीता को सिखाती हैं। रनिवास
हास-विलास के आनंद में मग्न है, (राम और सीता को देख-देखकर) सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर
रही हैं।
निज पानि मनि
महुँ देखि अति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न
भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद
प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि
सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥
अपने हाथ की
मणियों में सुंदर रूप के भंडार राम की परछाईं दिख रही है। यह देखकर जानकी दर्शन
में वियोग होने के भय से बाहुरूपी लता को और दृष्टि को हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस
समय के हँसी-खेल और विनोद का आनंद और प्रेम कहा नहीं जा सकता,
उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनंतर वर-कन्याओं को सब सुंदर
सखियाँ जनवासे को लिवा चलीं।
तेहि समय
सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ
जोरीं चारु चार्यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगींद्र
सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि
प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥
उस समय नगर और
आकाश में जहाँ सुनिए, वहीं आशीर्वाद की ध्वनि सुनाई दे रही है और महान आनंद छाया
है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि सुंदर चारों जोड़ियाँ चिरंजीवी हों। योगीराज,
सिद्ध, मुनीश्वर और देवताओं ने प्रभु राम को देखकर दुंदुभी बजाई और
हर्षित होकर फूलों की वर्षा करते हुए तथा 'जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुए वे अपने-अपने लोक को चले।
दो० - सहित
बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मंगल मोद
भरि उमगेउ जनु जनवास॥ 327॥
तब सब (चारों)
कुमार बहुओं सहित पिता के पास आए। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा,
मंगल और आनंद से भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो॥ 327॥
पुनि जेवनार
भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवड़े
बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥
फिर बहुत
प्रकार की रसोई बनी। जनक ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथ ने पुत्रों सहित
गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवड़े पड़ते जाते हैं।
सादर सब के
पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
धोए जनक
अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥
आदर के साथ
सबके चरण धोए और सबको यथायोग्य पीढ़ों पर बैठाया। तब जनक ने अवधपति दशरथ के चरण
धोए। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता।
बहुरि राम पद
पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम
सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥
फिर राम के
चरणकमलों को धोया, जो शिव के हृदय-कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को राम
के समान जानकर जनक ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोए।
आसन उचित सबहि
नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन
पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥
राजा जनक ने
सभी को उचित आसन दिए और सब परसने वालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पड़ने
लगीं,
जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनाई गई थीं।
दो० - सूपोदन
सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब
कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥ 328॥
चतुर और विनीत
रसोइए सुंदर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गाय का (सुगंधित) घी क्षण भर में सबके सामने
परस गए॥ 328॥
पंच कवल करि
जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।
भाँति अनेक
परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥
सब लोग पंचकौर
करके (अर्थात 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा'
इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन
करने लगे। गाली का गाना सुनकर वे अत्यंत प्रेममग्न हो गए। अनेकों तरह के अमृत के
समान (स्वादिष्ट) पकवान परसे गए, जिनका बखान नहीं हो सकता।
परुसन लगे
सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥
चारि भाँति
भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥
चतुर रसोइए
नाना प्रकार के व्यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकार के (चर्व्य,
चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीना-खाने योग्य) भोजन की विधि कही गई है,
उनमें से एक-एक विधि के इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्णन
नहीं किया जा सकता।
छरस रुचिर
बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवँत देहिं
मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥
छहों रसों के
बहुत तरह के सुंदर (स्वादिष्ट) व्यंजन हैं। एक-एक रस के अनगिनत प्रकार के बने हैं।
भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से गाली दे
रही हैं (गाली गा रही हैं)।
समय सुहावनि
गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि
सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥
समय की
सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाज सहित राजा दशरथ हँस रहे हैं। इस
रीति से सभी ने भोजन किया और तब सबको आदर सहित आचमन (हाथ-मुँह धोने के लिए जल)
दिया गया।
दो० - देइ पान
पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने
मुदित सकल भूप सिरताज॥ 329॥
फिर पान देकर
जनक ने समाज सहित दशरथ का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती) दशरथ
प्रसन्न होकर जनवासे को चले॥ 329॥
नित नूतन मंगल
पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बड़े भोर
भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥
जनकपुर में
नित्य नए मंगल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओं
के मुकुटमणि दशरथ जागे। याचक उनके गुणसमूह का गान करने लगे।
देखि कुअँर बर
बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया
करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥
चारों कुमारों
को सुंदर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनंद है,
वह किस प्रकार कहा जा सकता है?
वे प्रातः क्रिया करके गुरु वशिष्ठ के पास गए। उनके मन में
महान आनंद और प्रेम भरा है।
करि प्रनामु
पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ
सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥
राजा प्रणाम
और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले - हे मुनिराज! सुनिए,
आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया।
अब सब बिप्र
बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि गुर करि
महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनिबृंद बोलाई॥
हे स्वामिन्!
अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह (गहनों-कपड़ों) से सजी हुई गाएँ दीजिए। यह
सुनकर गुरु ने राजा की बड़ाई करके फिर मुनिगणों को बुलवा भेजा।
दो० - बामदेउ
अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर
निकर तब कौसिकादि तपसालि॥ 330॥
तब वामदेव,
देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियों के
समूह-के-समूह आए॥ 330॥
दंड प्रनाम
सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
चारि लच्छ बर
धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥
राजा ने सबको
दंडवत-प्रणाम किया और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिए। चार लाख उत्तम
गाएँ मँगवाईं, जो कामधेनु के समान अच्छे स्वभाववाली और सुहावनी थीं।
सब बिधि सकल
अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
करत बिनय बहु
बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥
उन सबको सब
प्रकार से (गहनों-कपड़ों से) सजाकर राजा ने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणों को
दिया। राजा बहुत तरह से विनती कर रहे हैं कि जगत में मैंने आज ही जीने का लाभ
पाया।
पाइ असीस
महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥
कनक बसन मनि
हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥
(ब्राह्मणों से) आशीर्वाद पाकर राजा आनंदित हुए। फिर याचकों के समूहों को बुलवा
लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ (जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुल को आनंदित करनेवाले
दशरथ ने दिए।
चले पढ़त गावत
गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि बिधि राम
बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥
वे सब
गुणानुवाद गाते और 'सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुए चले। इस प्रकार राम के विवाह का उत्सव हुआ,
जिन्हें सहस्र मुख हैं, वे शेष भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
दो० - बार बार
कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु
मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥ 331॥
बार-बार
विश्वामित्र के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं - हे मुनिराज! यह सब सुख आपके
ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है॥ 331॥
जनक सनेहु
सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा
अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥
राजा दशरथ जनक
के स्नेह,
शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन
(सबेरे) उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनक उन्हें प्रेम से रख लेते हैं।
नित नूतन आदरु
अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर
अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥
आदर नित्य नया
बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित्य नया
आनंद और उत्साह रहता है, दशरथ का जाना किसी को नहीं सुहाता।
बहुत दिवस
बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानंद
तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥
इस प्रकार
बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्र
और शतानंद ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा -
अब दसरथ कहँ
आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ
कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥
यद्यपि आप
स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथ को आज्ञा दीजिए। 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर जनक ने मंत्रियों को बुलवाया। वे आए और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया।
दो० - अवधनाथु
चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस
सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥ 332॥
(जनक ने कहा -) अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर (रनिवास में) खबर कर दो। यह सुनकर मंत्री,
ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गए॥ 332॥
पुरबासी सुनि
चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥
सत्य गवनु
सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥
जनकपुरवासियों
ने सुना कि बारात जाएगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य
है,
यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो संध्या के समय कमल सकुचा
गए हों।
जहँ जहँ आवत
बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति
मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥
आते समय
जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा गया।
अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती -
भरि भरि बसहँ
अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ
सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥
अनगिनत बैलों
और कहारों पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गई। साथ ही जनक ने अनेकों सुंदर शय्याएँ
(पलंग) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तक (ऊपर से नीचे तक)
सजाए हुए,
मत्त सहस दस
सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
कनक बसन मनि
भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥
दस हजार सजे
हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं,
गाड़ियों में भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहरात) और भैंस,
गाय तथा और भी नाना प्रकार की चीजें दीं।
दो० - दाइज अमित
न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत
लोकपति लोक संपदा थोरि॥ 333॥
(इस प्रकार) जनक ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की
संपदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥ 333॥
सबु समाजु एहि
भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात
सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥
इस प्रकार सब
सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी,
यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गईं,
मानो थोड़े जल में मछलियाँ छटपटा रही हों।
पुनि पुनि सीय
गोद करि लेहीं। देह असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु संतत
पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥
वे बार-बार
सीता को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं - तुम सदा अपने पति की
प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशीष है।
सासु ससुर गुर
सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस
सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥
सास,
ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का
पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यंत स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म
सिखलाती हैं।
सादर सकल
कुअँरि समुझाईं। रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि बहुरि
भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं॥
आदर के साथ सब
पुत्रियों को (स्त्रियों के धर्म) समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें हृदय से
लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों
रचा।
हित प्रसन्न
होकर विदा कराने के लिए जनक के महल को चले॥ 334॥
चारिउ भाइ
सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन
चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥
स्वभाव से ही
सुंदर चारों भाइयों को देखने के लिए नगर के स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है - आज
ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है।
लेहु नयन भरि
रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को जानै केहिं
सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥
राजा के चारों
पुत्र,
इन प्यारे मेहमानों के (मनोहर) रूप को नेत्र भरकर देख लो।
हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का
अतिथि किया है।
मरनसीलु जिमि
पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
पाव नारकी
हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥
मरनेवाला जिस
तरह अमृत पा जाए, जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाए और नरक में रहनेवाला (या नरक
के योग्य) जीव जैसे भगवान के परमपद को प्राप्त हो जाए,
हमारे लिए इनके दर्शन वैसे ही हैं।
निरखि राम
सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि बिधि सबहि
नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥
राम की शोभा
को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को मणि बना लो। इस
प्रकार सबको नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गए।
दो० - रूप
सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं निछावरि
आरती महा मुदित मन सासु॥ 335॥
रूप के समुद्र
सब भाइयों को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान प्रसन्न मन से निछावर
और आरती करती हैं॥ 335॥
देखि राम छबि
अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही न लाज
प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥
राम की छवि
देखकर वे प्रेम में अत्यंत मग्न हो गईं और प्रेम के विशेष वश होकर बार-बार चरणों
लगीं। हृदय में प्रीति छा गई, इससे लज्जा नहीं रह गई। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस
तरह किया जा सकता है।
भाइन्ह सहित
उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
बोले रामु
सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥
उन्होंने
भाइयों सहित राम को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से षट्रस भोजन कराया।
सुअवसर जानकर राम शील, स्नेह और संकोचभरी वाणी बोले -
राउ अवधपुर
चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु मुदित मन
आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥
महाराज
अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के लिए यहाँ भेजा है। हे माता!
प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए और हमें अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाए रखिएगा।
सुनत बचन
बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ लगाई
कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥
इन वचनों को
सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंने सब
कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की।
छं० - करि
बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाउँ तात
सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन
मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु
सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥
विनती करके
उन्होंने सीता को राम को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा - हे तात! हे
सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति (हाल) मालूम है। परिवार को,
पुरवासियों को, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है,
ऐसा जानिएगा। हे तुलसी के स्वामी! इसके शील और स्नेह को
देखकर इसे अपनी दासी करके मानिएगा।
सो० - तुम्ह
परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन गुन गाहक
राम दोष दलन करुनायतन॥ 336॥
तुम पूर्ण काम
हो,
सुजान शिरोमणि हो और भावप्रिय हो (तुम्हें प्रेम प्यारा
है)। हे राम! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करनेवाले,
दोषों को नाश करनेवाले और दया के धाम हो॥ 336॥
अस कहि रही
चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥
सुनि सनेहसानी
बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥
ऐसा कहकर रानी
चरणों को पकड़कर (चुप) रह गईं। मानो उनकी वाणी प्रेमरूपी दलदल में समा गई हो। स्नेह
से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर राम ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया।
राम बिदा मागत
कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ असीस
बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥
तब राम ने हाथ
जोड़कर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर
भाइयों सहित रघुनाथ चले।
मंजु मधुर
मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि धीरजु
धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहि महतारीं॥
राम की सुंदर
मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गईं। फिर धीरज धारण
करके कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें (गले लगाकर) भेंटने लगीं।
पहुँचावहिं
फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि पुनि
मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥
पुत्रियों को
पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्पर में कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी (अर्थात बहुत प्रीति
बढ़ी)। बार-बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल की ब्यायी
हुई गाय को कोई उसके बालक बछड़े (या बछिया) से अलग कर दे।
दो० -
प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह
बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥ 337॥
सब
स्त्री-पुरुष और सखियों सहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता
है) मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है॥ 337॥
सुक सारिका
जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥
ब्याकुल कहहिं
कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥
जानकी ने जिन
तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था,
वे व्याकुल होकर कह रहे हैं - वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे
वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात सबका धैर्य जाता रहा)।
भए बिकल खग
मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बंधु समेत
जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥
जब पक्षी और
पशु तक इस तरह विकल हो गए, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाई सहित जनक
वहाँ आए। प्रेम से उमड़कर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया।
सीय बिलोकि
धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ
उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥
वे परम
वैराग्यवान कहलाते थे; पर सीता को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकी को
हृदय से लगा लिया। (प्रेम के प्रभाव से) ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई (ज्ञान का
बाँध टूट गया)।
समुझावत सब
सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार
सुता उर लाईं। सजि सुंदर पालकीं मगाईं॥
सब बुद्धिमान
मंत्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया।
बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुंदर सजी हुई पालकियाँ मँगवाईं।
दो० -
प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुअँरि चढ़ाईं
पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥ 338॥
सारा परिवार
प्रेम में विवश है। राजा ने सुंदर मुहूर्त जानकर सिद्धि सहित गणेश का स्मरण करके
कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया॥ 338॥
बहुबिधि भूप
सुता समुझाईं। नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥
दासीं दास दिए
बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥
राजा ने
पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति
सिखाई। बहुत-से दासी-दास दिए, जो सीता के प्रिय और विश्वासपात्र सेवक थे।
सीय चलत
ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
भूसुर सचिव
समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥
सीता के चलते
समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और
मंत्रियों के समाज सहित राजा जनक उन्हें पहुँचाने के लिए साथ चले।
समय बिलोकि
बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र
बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥
समय देखकर
बाजे बजने लगे। बारातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाए। दशरथ ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और
उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया।
चरन सरोज धूरि
धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु
कीन्ह पयाना। मंगल मूल सगुन भए नाना॥
उनके चरण
कमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशीष पाकर राजा आनंदित हुए और गणेश का स्मरण करके
उन्होंने प्रस्थान किया। मंगलों के मूल अनेकों शकुन हुए।
दो० - सुर
प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति
अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥ 339॥
देवता हर्षित
होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथ नगाड़े बजाकर
आनंदपूर्वक अयोध्यापुरी चले॥ 339॥
नृप करि बिनय
महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि
गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥
राजा दशरथ ने
विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मंगनों को बुलवाया। उनको
गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी दिए और प्रेम से पुष्ट करके सबको संपन्न अर्थात बलयुक्त कर दिया।
बार बार
बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि
कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥
वे सब बारंबार
विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और राम को हृदय में रखकर लौटे। कोसलाधीश दशरथ
बार-बार लौटने को कहते हैं, परंतु जनक प्रेमवश लौटना नहीं चाहते।
पुनि कह भूपत
बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि
उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥
दशरथ ने फिर
सुहावने वचन कहे - हे राजन! बहुत दूर आ गए, अब लौटिए। फिर राजा दशरथ रथ से उतरकर खड़े हो गए। उनके
नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ आया (प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली)।
तब बिदेह बोले
कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौं कवन बिधि
बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तब जनक हाथ
जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले - मैं किस तरह बनाकर (किन शब्दों
में) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है।
दो० - कोसलपति
समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर
बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥ 340॥
अयोध्यानाथ
दशरथ ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में
अत्यंत विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी॥ 340॥
मुनि मंडलिहि
जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि
भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥
जनक ने मुनि
मंडली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप,
शील और गुणों के निधान सब भाइयों से,
अपने दामादों से मिले,
जोरि पंकरुह
पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौं केहि
भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥
और सुंदर कमल
के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों। हे राम! मैं
किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूँ! आप मुनियों और महादेव के मनरूपी मानसरोवर के हंस
हैं।
करहिं जोग
जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु
ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥
योगी लोग
जिनके लिए क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योगसाधन करते हैं,
जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानंद, निर्गुण और गुणों की राशि हैं,
मन समेत जेहि
जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु
नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥
जिनको मन सहित
वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते; जिनकी महिमा को वेद 'नेति' कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानंद) तीनों कालों में
एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं;
दो० - नयन
बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग
जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥ 341॥
वे ही समस्त
सुखों के मूल (आप) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत में जीव
को सब लाभ-ही-लाभ है॥ 341॥
सबहि भाँति
मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस
सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥
आपने मुझे सभी
प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों
और करोड़ों कल्पों तक गणना करते रहें
मोर भाग्य
राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मैं कछु कहउँ
एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥
तो भी हे
रघुना! सुनिए, मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ
कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बल पर कि आप अत्यंत थोड़े प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं।
बार बार मागउँ
कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन
प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥
मैं बार-बार
हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोड़े। जनक के
श्रेष्ठ वचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किए हुए थे,
पूर्णेकाम राम संतुष्ट हुए।
करि बर बिनय
ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि
भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥
उन्होंने
सुंदर विनती करके पिता दशरथ, गुरु विश्वामित्र और कुलगुरु वशिष्ठ के समान जानकर ससुर जनक
का सम्मान किया। फिर जनक ने भरत से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर फिर उन्हें
आशीर्वाद दिया।
दो० - मिले
लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परसपर प्रेमबस
फिरि फिरि नावहिं सीस॥ 342॥
फिर राजा ने
लक्ष्मण और शत्रुघ्न से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर
बार-बार आपस में सिर नवाने लगे॥ 342॥
बार बार करि
बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥
जनक गहे कौसिक
पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥
जनक की
बार-बार विनती और बड़ाई करके रघुनाथ सब भाइयों के साथ चले। जनक ने जाकर
विश्वामित्र के चरण पकड़ लिए और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में लगाया।
सुनु मुनीस बर
दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥
जो सुखु सुजसु
लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥
(उन्होंने कहा -) हे मुनीश्वर! सुनिए, आपके सुंदर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है,
मेरे मन में ऐसा विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते
हैं;
परंतु (असंभव समझकर) जिसका मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं,
सो सुखु सुजसु
सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय
पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥
हे स्वामी!
वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात पीछे-पीछे
चलनेवाली हैं। इस प्रकार बार-बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर
राजा जनक लौटे।
चली बरात
निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि
ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
डंका बजाकर
बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष
राम को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं।
दो० - बीच बीच
बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप
पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥ 343॥
बीच-बीच में
सुंदर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में
अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची॥ 343॥
हने निसान पनव
बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि बिरव
डिंडिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥
नगाड़ों पर
चोटें पड़ने लगीं; सुंदर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है;
हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द करनेवाली झाँझें,
सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले राग से शहनाइयाँ बज रही हैं।
पुर जन आवत
अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज निज सुंदर
सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥
बारात को आती
हुई सुनकर नगर निवासी प्रसन्न हो गए। सबके शरीरों पर पुलकावली छा गई। सबने
अपने-अपने सुंदर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया।
गलीं सकल
अरगजाँ सिंचाईं। जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं॥
बना बजारु न
जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥
सारी गलियाँ
अरगजे से सिंचाई गईं, जहाँ-तहाँ सुंदर चौक पुराए गए। तोरणों ध्वजा-पताकाओं और
मंडपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
सफल पूगफल
कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥
लगे सुभग तरु
परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥
फल सहित
सुपारी,
केला, आम, मौलसिरी, कदंब और तमाल के वृक्ष लगाए गए। वे लगे हुए सुंदर वृक्ष
(फलों के भार से) पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के थाले बड़ी सुंदर कारीगरी
से बनाए गए हैं।
दो० - बिबिध
भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर ब्रह्मादि
सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥ 344॥
अनेक प्रकार
के मंगल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए हैं। रघुनाथ की पुरी (अयोध्या) को देखकर ब्रह्मा
आदि सब देवता सिहाते हैं॥ 344॥
भूप भवनु तेहि
अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मंगल सगुन मनोहरताई।
रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥
उस समय राजमहल
(अत्यंत) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव का भी मन मोहित हो जाता था।
मंगल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी संपत्ति।
जनु उछाह सब
सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन हेतु राम
बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥
और सब प्रकार
के उत्साह (आनंद) मानो सहज सुंदर शरीर धर-धरकर दशरथ के घर में छा गए हैं। राम और
सीता के दर्शनों के लिए भला कहिए, किसे लालसा न होगी?
जूथ जूथ मिलि
चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल सुमंगल
सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥
सुहागिनी
स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छवि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही
हैं। सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं,
मानो सरस्वती ही बहुत-से वेष धारण किए गा रही हों।
भूपति भवन
कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि राम
महतारीं। प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥
राजमहल में
(आनंद के मारे) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता।
कौसल्या आदि राम की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गईं।
दो० - दिए दान
बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।
प्रमुदित परम
दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥ 345॥
गणेश और
त्रिपुरारि शिव का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान दिया। वे ऐसी परम
प्रसन्न हुईं, मानो अत्यंत दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥ 345॥
मोद प्रमोद
बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम दरस हित
अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥
सुख और महान
आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं,
उनके चरण चलते नहीं हैं। राम के दर्शनों के लिए वे अत्यंत
अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं।
बिबिध बिधान
बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद दूब दधि
पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥
अनेकों प्रकार
के बाजे बजते थे। सुमित्रा ने आनंदपूर्वक मंगल साज सजाए। हल्दी,
दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल की मूल वस्तुएँ,
अच्छत अंकुर
लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥
छुहे पुरट घट
सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥
तथा अक्षत
(चावल),
अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुंदर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगों
से चित्रित किए हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं,
मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाए हों।
सगुन सुगंध न
जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥
रचीं आरतीं
बहतु बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥
शकुन की
सुगंधित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियाँ संपूर्ण मंगल साज सज रही हैं।
बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुंदर मंगलगान कर रही हैं।
दो० - कनक थार
भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित
परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥ 346॥
सोने के थालों
को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए माताएँ
आनंदित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं॥ 346॥
धूप धूम नभु
मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन
माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥
धूप के धुएँ
से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए हों। देवता
कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं,
मानो बगुलों की पाँति मन को (अपनी ओर) खींच रही हो।
मंजुल मनिमय
बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं
दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥
सुंदर मणियों
से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इंद्रधनुष सजाए हों। अटारियों पर सुंदर और चपल
स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं);
वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो बिजलियाँ चमक रही हों।
दुंदुभि धुनि
घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगंध
सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥
नगाड़ों की
ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेंढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगंधरूपी जल बरसा रहे हैं,
जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे
हैं।
समउ जानि गुर
आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि संभु
गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥
(प्रवेश का) समय जानकर गुरु वशिष्ठ ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथ ने
शिव,
पार्वती और गणेश का स्मरण करके समाज सहित आनंदित होकर नगर
में प्रवेश किया।
दो० - होहिं
सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदभीं बजाइ।
बिबुध बधू
नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥ 347॥
शकुन हो रहे
हैं,
देवता दुंदुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की
स्त्रियाँ आनंदित होकर सुंदर मंगल गीत गा-गाकर नाच रही हैं॥ 347॥
मागध सूत बंदि
नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल
बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥
मागध,
सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देनेवाले
परम प्रकाश स्वरूप) राम का यश गा रहे हैं। जय ध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ
वाणी सुंदर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड़ रही है।
बिपुल बाजने
बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती
बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥
बहुत-से बाजे
बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं। बाराती ऐसे
बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनंदित हैं,
सुख उनके मन में समाता नहीं है।
पुरबासिन्ह तब
राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि
मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥
तब अयोध्यावसियों
ने राजा को जोहार (वंदना) की। राम को देखते ही वे सुखी हो गए। सब मणियाँ और वस्त्र
निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं।
आरति करहिं
मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग
ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥
नगर की
स्त्रियाँ आनंदित होकर आरती कर रही हैं और सुंदर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो
रही हैं। पालकियों के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं।
दो० - एहि
बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु
परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥ 348॥
इस प्रकार
सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आए। माताएँ आनंदित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन
कर रही हैं॥ 348॥
करहिं आरती
बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन मनि पट
नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥
वे बार-बार
आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार के
आभूषण,
रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकार की अन्य वस्तुएँ निछावर कर
रही हैं।
बधुन्ह समेत
देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी॥
पुनि पुनि सीय
राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी॥
बहुओं सहित
चारों पुत्रों को देखकर माताएँ परमानंद में मग्न हो गईं। सीता और राम की छवि को
बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनंदित हो रही हैं।
सखीं सीय मुख
पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं सुमन
छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥
सखियाँ सीता
के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गान कर रही हैं। देवता
क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं।
देखि मनोहर
चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥
देत न बनहिं
निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥
चारों मनोहर
जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला;
पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी
राम के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गईं।
दो० - निगम
नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह सहित
सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥ 349॥
वेद की विधि
और कुल की रीति करके अर्घ्य-पाँवड़े देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके
माताएँ महल में लिवा चलीं॥ 349॥
चारि सिंघासन
सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर
कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥
स्वाभाविक ही
सुंदर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर माताओं ने
राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए।
धूप दीप नैबेद
बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगल निधि॥
बारहिं बार
आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥
फिर वेद की
विधि के अनुसार मंगलों के निधान दूल्हों की दुलहिनों की धूप,
दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएँ बारंबार आरती
कर रही हैं और वर-वधुओं के सिरों पर सुंदर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं।
बस्तु अनेक
निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम
तत्त्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं॥
अनेकों
वस्तुएँ निछावर हो रही हैं; सभी माताएँ आनंद से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो
योगी ने परम तत्त्व को प्राप्त कर लिया। सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया,
जनम रंक जनु
पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु
सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥
जन्म का
दरिद्री मानो पारस पा गया। अंधे को सुंदर नेत्रों का लाभ हुआ। गूँगे के मुख में
मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली।
दो० - एहि सुख
ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।
भाइन्ह सहित
बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥ 350(क)॥
इन सुखों से
भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएँ पा रही हैं। क्योंकि रघुकुल के चंद्रमा राम
विवाह कर के भाइयों सहित घर आए हैं॥ 350 (क)॥
लोक रीति
जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु
बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं॥ 350(ख)॥
माताएँ
लोकरीति करती हैं और दूल्हे-दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान आनंद और विनोद को देखकर
राम मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं॥ 350(ख)॥
देव पितर पूजे
बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥
सबहि बंदि
माँगहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥
मन की सभी
वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भली-भाँति पूजन किया। सबकी वंदना करके
माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयों सहित राम का कल्याण हो।
अंतरहित सुर
आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं॥
भूपति बोलि
बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥
देवता छिपे
हुए (अंतरिक्ष से) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनंदित हो आँचल भरकर ले रही हैं।
तदनंतर राजा ने बारातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ,
वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिए।
आयसु पाइ राखि
उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर नर नारि
सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥
आज्ञा पाकर,
राम को हृदय में रखकर वे सब आनंदित होकर अपने-अपने घर गए।
नगर के समस्त स्त्री-पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाए। घर-घर बधावे बजने
लगे।
जाचक जन
जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक सकल
बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥
याचक लोग जो-जो
माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं। संपूर्ण सेवकों और बाजे
वालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से संतुष्ट किया।
दो० - देहिं
असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर
सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥ 351॥
सब जोहार (वंदन)
करके आशीष देते हैं और गुणसमूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणों सहित
राजा दशरथ ने महल में गमन किया॥ 351॥
जो बसिष्ट
अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर भीर
देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥
वशिष्ठ ने जो
आज्ञा दी,
उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया।
ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठीं।
पाय पखारि सकल
अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
आदर दान प्रेम
परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥
चरण धोकर
उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भली-भाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर,
दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे संतुष्ट मन से आशीर्वाद देते
हुए चले।
बहु बिधि
कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि
प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥
राजा ने
गाधि-पुत्र विश्वामित्र की बहुत तरह से पूजा की और कहा - हे नाथ! मेरे समान धन्य
दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को
ग्रहण किया।
भीतर भवन
दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे गुर पद
कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥
उन्हें महल के
भीतर ठहरने को उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात जिसमें
राजा और महल की सारी रानियाँ स्वयं उनकी इच्छानुसार उनके आराम की ओर दृष्टि रख
सकें),
फिर राजा ने गुरु वशिष्ठ के चरणकमलों की पूजा और विनती की।
उनके हृदय में कम प्रीति न थी। (अर्थात बहुत प्रीति थी।)
दो० - बधुन्ह
समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि
बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥ 352॥
बहुओं सहित सब
राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार-बार गुरु के चरणों की वंदना करते हैं और
मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं॥ 352॥
बिनय कीन्हि
उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥
नेगु मागि
मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥
राजा ने
अत्यंत प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी संपत्ति को सामने रखकर (उन्हें
स्वीकार करने के लिए) विनती की। परंतु मुनिराज ने (पुरोहित के नाते) केवल अपना नेग
माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया।
उर धरि रामहि
सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू सब
भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं॥
फिर सीता सहित
राम को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठ हर्षित होकर अपने स्थान को गए। राजा ने सब
ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुंदर वस्त्र तथा आभूषण पहनाए।
बहुरि बोलाइ
सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी नेग जोग
जब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥
फिर अब
सुआसिनियों को (नगर भर की सौभाग्यवती बहन, बेटी, भानजी आदि को) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर (उसी के
अनुसार) उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओं के
शिरोमणि दशरथ उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं।
प्रिय पाहुने
पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव देखि
रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥
जिन मेहमानों
को प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजा ने भली-भाँति सम्मान किया। देवगण रघुनाथ का विवाह
देखकर,
उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए -
दो० - चले
निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम
जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥ 353॥
नगाड़े बजाकर
और (परम) सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले। वे एक-दूसरे से राम का यश कहते
जाते हैं। हृदय में प्रेम समाता नहीं है॥ 353॥
सब बिधि सबहि
समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु
तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥
सब प्रकार से
सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथ के हृदय में पूर्ण
उत्साह (आनंद) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा।
लिए गोद करि
मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम
गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥
राजा ने आनंद
सहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता
है?
फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर,
बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार
(लाड़-चाव) किया।
देखि समाजु
मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू॥
कहेउ भूप जिमि
भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥
यह समाज
(समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनंद ने निवास कर लिया। तब
राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब किसी को हर्ष होता है।
जनक राज गुन
सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप
भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥
राजा जनक के
गुण,
शील, महत्त्व, प्रीति की रीति और सुहावनी संपत्ति का वर्णन राजा ने भाट की
तरह बहुत प्रकार से किया। जनक की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं।
दो० - सुतन्ह
समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह
अनेक बिधि घरी पंच गइ राति॥ 354॥
पुत्रों सहित
स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुंबियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किए। (यह
सब करते-करते) पाँच घड़ी रात बीत गई॥ 354॥
मंगलगान करहिं
बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
अँचइ पान सब
काहूँ पाए। स्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥
सुंदर
स्त्रियाँ मंगलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गई। सबने
आचमन करके पान खाए और फूलों की माला, सुगंधित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गए।
रामहि देखि
रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥
प्रेम प्रमोदु
बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥
राम को देखकर
और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घर को चले। वहाँ के प्रेम,
आनंद, विनोद, महत्त्व, समय, समाज और मनोहरता को -
कहि न सकहिं
सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू॥
सो मैं कहौं
कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥
सैकड़ों
सरस्वती,
शेष, वेद, ब्रह्मा, महादेव और गणेश भी नहीं कह सकते। फिर भला मैं उसे किस
प्रकार से बखानकर कहूँ? कहीं केंचुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है!
नृप सब भाँति
सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं
पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाईं॥
राजा ने सबका
सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा - बहुएँ अभी बच्ची
हैं,
पराए घर आई हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें
रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख
पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना)।
दो० - लरिका
श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे
बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥ 355॥
लड़के थके हुए
नींद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा राम के चरणों में
मन लगाकर विश्राम भवन में चले गए॥ 355॥
भूप बचन सुनि
सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय
फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥
राजा के
स्वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाए।
(गद्दों पर) गौ के दूध के फेन के समान सुंदर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछाईं।
उपबरहन बर बरनि
न जाहीं। स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥
रतनदीप सुठि
चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥
सुंदर तकियों
का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मंदिर में फूलों की मालाएँ और सुगंध द्रव्य
सजे हैं। सुंदर रत्नों के दीपकों और सुंदर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने
उन्हें देखा हो, वही जान सकता है।
सेज रुचिर रचि
रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥
अग्या पुनि
पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥
इस प्रकार
सुंदर शय्या सजाकर (माताओं ने) राम को उठाया और प्रेम सहित पलँग पर पौढ़ाया। राम
ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गए।
देखि स्याम
मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात
भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥
राम के साँवले
सुंदर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं - हे तात! मार्ग
में जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा?
दो० - घोर
निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे सहित
सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥ 356॥
बड़े भयानक
राक्षस,
जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते
थे,
उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?॥ 356॥
मुनि प्रसाद
बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
मख रखवारी करि
दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥
हे तात! मैं
बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत-सी बलाओं को टाल दिया। दोनों
भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरु के प्रसाद से सब विद्याएँ पाईं।
मुनितिय तरी
लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ पीठि पबि
कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥
चरणों की धूलि
लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गई। विश्व भर में यह कीर्ति पूर्ण रीति से व्याप्त
हो गई। कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिव के धनुष को राजाओं के समाज
में तुमने तोड़ दिया।
बिस्व बिजय
जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल अमानुष
करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥
विश्वविजय के
यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आए। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी
हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्र की कृपा ने सुधारा है (संपन्न
किया है)।
आजु सुफल जग
जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे दिन गए
तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥
हे तात!
तुम्हारा चंद्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो
दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें)।
दो० - राम
प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु
गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन॥ 357॥
विनय भरे
उत्तम वचन कहकर राम ने सब माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिव,
गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद
के वश किया। (अर्थात वे सो रहे)॥ 357॥
नीदउँ बदन सोह
सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर घर करहिं
जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥
नींद में भी
उनका अत्यंत सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो संध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर
जागरण कर रही हैं और आपस में (एक-दूसरी को) मंगलमयी गालियाँ दे रही हैं।
पुरी बिराजति
राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुंदर बधुन्ह
सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥
रानियाँ कहती
हैं - हे सजनी! देखो, (आज) रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई)
सासुएँ सुंदर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया
है।
प्रात पुनीत
काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
बंदि मागधन्हि
गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥
प्रातःकाल
पवित्र ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुंदर बोलने लगे। भाट और मागधों ने
गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए।
बंदि बिप्र
सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर
बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥
ब्राह्मणों,
देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वंदना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न
हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर)
पधारे।
दो० - कीन्हि
सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया
करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥ 358॥
स्वभाव से ही
पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया
और प्रातःक्रिया (संध्या-वंदनादि) करके वे पिता के पास आए॥ 358॥
भूप बिलोकि
लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब
सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥
राजा ने देखते
ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनंतर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए। राम के
दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई। (अर्थात सबके तीनों
प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गए।)
पुनि बसिष्टु
मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत
पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥
फिर मुनि
वशिष्ठ और विश्वामित्र आए। राजा ने उनको सुंदर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत
उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु राम को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गए।
कहहिं बसिष्टु
धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि मन अगम
गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥
वशिष्ठ धर्म
के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं। जो मुनियों के मन को भी
अगम्य है,
ऐसी विश्वामित्र की करनी को वशिष्ठ ने आनंदित होकर बहुत
प्रकार से वर्णन किया।
बोले बामदेउ
सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि आनंदु
भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥
वामदेव बोले -
ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्र की सुंदर कीर्ति तीनों लोकों में छाई हुई है।
यह सुनकर सब किसी को आनंद हुआ। राम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह (आनंद) हुआ।
दो० - मंगल
मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनंद
भरि अधिक अधिक अधिकाति॥ 359॥
नित्य ही मंगल,
आनंद और उत्सव होते हैं; इस तरह आनंद में दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनंद से भरकर
उमड़ पड़ी, आनंद की अधिकता अधिक-अधिक बढ़ती ही जा रही है॥ 359॥
सुदिन सोधि कल
कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु
सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥
अच्छा दिन
(शुभ मुहूर्त) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस
प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए
ब्रह्मा से याचना करते हैं।
बिस्वामित्रु
चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन
भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥
विश्वामित्र
नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर राम के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनों-दिन राजा का
सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्र उनकी सराहना करते हैं।
मागत बिदा राउ
अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ सकल संपदा
तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥
अंत में जब
विश्वामित्र ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए।
(वे बोले -) हे नाथ! यह सारी संपदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक
हूँ।
करब सदा
लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ
सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥
हे मुनि!
लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों
और रानियों सहित राजा दशरथ विश्वामित्र के चरणों पर गिर पड़े,
(प्रेमविह्वल हो जाने के
कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती।
दीन्हि असीस
बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम
संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥
ब्राह्मण
विश्वमित्र ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पड़े,
प्रीति की रीति कही नहीं जाती। सब भाइयों को साथ लेकर राम
प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे।
दो० - राम
रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
जात सराहत
मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥ 360॥
गाधिकुल के
चंद्रमा विश्वामित्र बड़े हर्ष के साथ राम के रूप, राजा दशरथ की भक्ति, (चारों भाइयों के) विवाह और (सबके) उत्साह और आनंद को
मन-ही-मन सराहते जाते हैं॥ 360॥
बामदेव रघुकुल
गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि
सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥
वामदेव और
रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठ ने फिर विश्वामित्र की कथा बखानकर कही। मुनि का
सुंदर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे।
बहुरे लोग
रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम
ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥
आज्ञा हुई तब
सब लोग (अपने-अपने घरों को) लौटे। राजा दशरथ भी पुत्रों सहित महल में गए।
जहाँ-तहाँ सब राम के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। राम का पवित्र सुयश तीनों लोकों
में छा गया।
आए ब्याहि
रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ
जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥
जब से राम
विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु
के विवाह में जैसा आनंद-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेष भी नहीं कह सकते।
कबिकुल वनु
पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी॥
तेहि ते मैं
कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥
सीताराम के यश
को कविकुल के जीवन को पवित्र करनेवाला और मंगलों की खान जानकर,
इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए कुछ (थोड़ा-सा)
बखानकर कहा है।
छं० - निज
गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित
अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह
उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम
प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
अपनी वाणी को
पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) रघुनाथ का चरित्र अपार
समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के
साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग जानकी और राम की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
सो० - सिय
रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ
सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥ 361॥
सीता और
रघुनाथ के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे,
उनके लिए सदा उत्साह(आनंद)-ही-उत्साह है;
क्योंकि राम का यश मंगल का धाम है॥ 361॥
श्री राम चरित
मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, बारहवाँ विश्राम समाप्त॥
इतिमद्रामचरितमानसे
सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के
संपूर्ण पापों को विध्वंस करनेवाले रामचरितेमानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ।
(बालकांड समाप्त)
शेष
जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- अयोध्या काण्ड
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, पहला विश्राम, दूसरा विश्राम, तीसरा विश्राम, चौथा विश्राम, पाँचवाँ विश्राम, छठाविश्राम, सातवाँ विश्राम, आठवाँ विश्राम, नवाँ विश्राम, दसवाँ विश्राम, ग्यारहवाँविश्राम
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