काली कवचम्
देवी काली शक्ति का उग्र रूप है जो भय और नकारात्मकता से रक्षा करती हैं। काली कवचम् (सुरक्षात्मक ढाल) में भक्त देवी कालिका से शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं। इस कवच का पाठ करने से व्यक्ति को सभी प्रकार की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा मिलती है, भय, नकारात्मकता और अज्ञात संकटों से बचाने के लिए इसे पढ़ा जाता है। यह मंत्र देवी से प्रार्थना है कि वह हर दिशा से भक्त की रक्षा करें। माता कालिका के दक्षिण काली, शमशान काली, महाकाली, श्यामा काली, गुह्य काली, अष्ट काली और भद्रकाली आदि अनेक रूप है। सभी रूपों की अलग अलग पूजा और उपासना पद्धतियां हैं। यहाँ माँ दक्षिण कालिका के कवच को दिया जा रहा है।
श्रीमद्दक्षिणकालिकाकवचम्
Dakshin kali kavach
काली कवचं
श्री दक्षिणकालिका कवच
भैरव उवाच -
कालिका या महाविद्या कथिता भुवि
दुर्लभा ।
तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां
कुरु ॥ १॥
भैरव ने कहा- हे देवी,
आपने काली को इस पृथ्वी पर दुर्लभ महाविद्या के रूप में वर्णित किया
है, फिर भी मेरे हृदय में एक पीड़ा है, कृपया मुझ पर कृपा करें।
कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया ।
यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि
तदा तनुं ॥ २॥
हे महादेवी,
मुझ पर अपनी कृपा इस कवच (सुरक्षा कवच) का वर्णन करें। यदि आप मुझे
नहीं बताती हैं, तो मैं अपना शरीर त्याग दूंगा।
श्रीदेव्युवाच -
शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात्
प्रकाशितं ।
न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं
महत् ॥ ३॥
देवी ने कहा- हे वत्स,
शंका होने पर भी तुम्हारे स्नेहवश इस कवच को प्रकाशित कर रही हूँ ।
यह अत्यंत गुप्त है, इसे न देखी, न कही गई है।
कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी
।
विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४॥
कालिका जगत की माता और शोक-दुःख का
नाश करने वाली हैं। विशेषकर कलियुग में, वे
महापापों का नाश करने वाली हैं।
अथ काली कवचम्
काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च
कपालिनी ।
कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला
तथोत्तरे ॥ ५॥
काली सामने से और कपालिनी पीछे से,
कुल्ला दाईं ओर और कुरुकुल्ला बाईं ओर से मेरी रक्षा करें।
विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु
चक्षुषी ।
उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ
चोग्रप्रभा मता ॥ ६॥
विरोधिनी देवी सिर की,
विप्रचित्ता देवी आँखों की, उग्रा देवी नाक की
और उग्रप्रभा देवी कानों की रक्षा करें।
वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं
सदा ।
घना ग्रीवां सदा पातु बलाका
बाहुयुग्मकं ॥ ७॥
जीभ की दीप्ता, ठुड्डी की नीला,
गर्दन की घना और दोनों भुजाओं की बलाका सदैव रक्षा करें।
मात्रा पातु करद्वन्द्वं वक्षोमुद्रा
सदावतु ।
मिता पातु स्तनद्वन्द्वं
योनिमण्डलदेवता ॥ ८॥
मात्रा दोनों हाथों की, वक्षोमुद्रा
छाती की, मिता मेरे दोनों स्तनों की और योनिमण्डल देवता मेरी योनि की सदा रक्षा
करे।
ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं
नारायणी तथा ।
ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु
लिङ्गकं ॥ ९॥
ब्राह्मी मेरे पेट की, नारायणी नाभि
की, माहेश्वरी जांघों की और चामुंडा लिंग की सदैव रक्षा करें।
कौमारी च कटीं पातु तथैव
जानुयुग्मकं ।
अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु
चाङ्गुलीन् ॥ १०॥
कौमारी कमर और घुटनों की, अपराजिता
पैरों की और वाराही मेरी उंगलियों की रक्षा करें।
सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था
देवतावतु ।
संधि के स्थान (जोड़ों) पर नारसिंही
देवी पत्र (पर्ण) में स्थित होकर रक्षा करें।
रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्जितं
कवचेन तु ॥ ११॥
तत्सर्वं रक्ष मे देवि कालिके
घोरदक्षिणे ।
ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी
स्वयं वपुः ॥ १२॥
हे देवि! भयंकर दक्षिण कालिके जो
स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अथवा रक्षा से
रहित है, उन सब की अर्थात् ऊपर, नीचे
और हर दिशा में देवी स्वयं मेरे शरीर की रक्षा करें।
हिंस्रेभ्यः सर्वदा पातु साधकञ्च
जलाधिकात् ।
दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे
सदावतु ॥ १३॥
हिंसक और बाढ़ से देवी दक्षिणकलिका व्यापक
रूप से सदैव साधक की रक्षा करें।
काली कवच महात्म्य
इदं कवचमज्ञात्वा यो
जपेद्देवदक्षिणां ।
न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे
पदे ॥ १४॥
इस कवच को जाने बिना जो कोई भी
दक्षिणकलिका का जप करता है, उसे पूजा का फल
नहीं मिलता है और उसके हर कदम पर बाधाएँ आती हैं।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव
गच्छति ।
तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं
विद्यते क्वचित् ॥ १५॥
जो व्यक्ति इस काली कवच का पाठ करता
है,
वह जहाँ कही भी जाता है उसे किसी भी प्रकार के भय या अशांति का
सामना नहीं करना पड़ता है। अर्थात् वह देवी काली की सुरक्षा में सदैव रहता है।
इति कालीकुलसर्वस्वे कालीकवचं अथवा श्रीमद्दक्षिणकालिकाकवचम् समाप्तम् ॥

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