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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
काली कवचम्
माता कालिका के अनेक रूप हैं जिनमें
से प्रमुख है- 1.दक्षिण काली, 2.शमशान काली,
3.मातृ काली और 4.महाकाली। इसके अलावा श्यामा काली, गुह्य काली, अष्ट काली और भद्रकाली आदि अनेक रूप भी
है। सभी रूपों की अलग अलग पूजा और उपासना पद्धतियां हैं।यहाँ माँ दक्षिण कालिका कवच
जो की काली कवचम् नाम से प्रसिद्ध है दिया जा रहा है।
श्रीमद्दक्षिणकालिकाकवचम्
भैरव् उवाच -
कालिका या महाविद्या कथिता भुवि
दुर्लभा ।
तथापि हृदये शल्यमस्ति देवि कृपां
कुरु ॥ १॥
कवचन्तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया ।
यदि नो कथ्यते मातर्व्विमुञ्चामि
तदा तनुं ॥ २॥
श्रीदेव्युवाच -
शङ्कापि जायते वत्स तव स्नेहात्
प्रकाशितं ।
न वक्तव्यं न द्रष्टव्यमतिगुह्यतरं
महत् ॥ ३॥
कालिका जगतां माता शोकदुःखविनाशिनी
।
विशेषतः कलियुगे महापातकहारिणी ॥ ४॥
काली मे पुरतः पातु पृष्ठतश्च
कपालिनी ।
कुल्ला मे दक्षिणे पातु कुरुकुल्ला
तथोत्तरे ॥ ५॥
विरोधिनी शिरः पातु विप्रचित्ता तु
चक्षुषी ।
उग्रा मे नासिकां पातु कर्णौ
चोग्रप्रभा मता ॥ ६॥
वदनं पातु मे दीप्ता नीला च चिबुकं
सदा ।
घना ग्रीवां सदा पातु बलाका
बाहुयुग्मकं ॥ ७॥
मात्रा पातु करद्वन्द्वं
वक्षोमुद्रा सदावतु ।
मिता पातु स्तनद्वन्द्वं
योनिमण्डलदेवता ॥ ८॥
ब्राह्मी मे जठरं पातु नाभिं
नारायणी तथा ।
ऊरु माहेश्वरी नित्यं चामुण्डा पातु
लिङ्गकं ॥ ९॥
कौमारी च कटीं पातु तथैव
जानुयुग्मकं ।
अपराजिता च पादौ मे वाराही पातु
चाङ्गुलीन् ॥ १०॥
सन्धिस्थानं नारसिंही पत्रस्था
देवतावतु ।
रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं वर्जितं
कवचेन तु ॥ ११॥
तत्सर्वं रक्ष मे देवि कालिके
घोरदक्षिणे ।
ऊर्द्धमधस्तथा दिक्षु पातु देवी
स्वयं वपुः ॥ १२॥
हिंस्रेभ्यः सर्वदा पातु साधकञ्च
जलाधिकात् ।
दक्षिणाकालिका देवी व्यपकत्वे
सदावतु ॥ १३॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देवदक्षिणां
।
न पूजाफलमाप्नोति विघ्नस्तस्य पदे
पदे ॥ १४॥
कवचेनावृतो नित्यं यत्र तत्रैव
गच्छति ।
तत्र तत्राभयं तस्य न क्षोभं
विद्यते क्वचित् ॥ १५॥
इति कालीकुलसर्वस्वे कालीकवचं अथवा श्रीमद्दक्षिणकालिकाकवचम् समाप्तम् ॥
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