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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कुमारी स्तोत्र
इस स्तोत्र को पञ्चतत्त्व नामक
स्तोत्र अथवा मोक्ष स्तोत्र अथवा कुमारीस्तव अथवा कुमारी स्तोत्र कहते हैं । इस
स्तोत्र के प्रभाव से साधक कवि और महान् सिद्धियों का स्वामी हो जाता है । वह
सर्वत्र विजय प्राप्त करता है । उसे
अष्टसिद्धि प्राप्त हो जाती है और वह धनवान्, पुत्रवान् तथा मरने के बाद वह मोक्ष
प्राप्त करता है । यह स्तोत्र रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र अष्टम पटल में वर्णित है ।
पञ्चतत्त्व स्तोत्र अथवा मोक्ष स्तोत्र अथवा कुमारीस्तव अथवा कुमारी स्तोत्र
आनन्दभैरव उवाच
देवेन्द्रादय इन्दुकोटिकिरणां
वाराणसीवसिनीं
विद्यां वाग्भवकामिनीं त्रिनयनां
सूक्ष्मक्रियाज्वलिनीम् ।
चण्डोद्योगनिकृन्तिनीं त्रिजगतां
धात्रीं कुमारी वरां
मूलाम्भोरुहवासिनीं शशिमुखीं
सम्पूजयामि श्रिये ॥१५॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा ---
देवेन्द्रादि जिन्हें नित्य प्रणाम करते हैं । जिनके शरीर की कान्ति करोड़ों
चन्द्रमा के समान सुशीतल है । जो वाराणसी सिद्धपीठ में निवास करने वाली हैं ।
महाविद्या स्वरुपा, वाणी स्वरुपा,
त्रिनेत्रा, जो सूक्ष्मक्रिया से उज्ज्वल हैं,
चण्डदैत्य के उद्योग को निष्फल करने वाली, तोनों
जगत् का पोषणा करने वाली, श्रेष्ठ कुमारीस्वरुपा, मूलाधार में स्थित कमल पर निवास करने वाली, ऐसी शशिमुखी
देवी को मैं श्री की कामना से पूजा कर रहा हूँ ॥१५॥
भाव्यां देवगणैः
शिवेन्द्रयतिभिर्मोक्षार्थिभिर्वलिकां
सन्ध्यां नित्यगुणोदया द्विजगणे
श्रेष्ठोदयां सारुणाम् ।
शुक्लाभां परमेश्वरीं शुभकरी भद्राम
विशालाननां
गायत्रीं गनमातरं दिनगति कृष्णाञ्च
वृध्दां भजे ॥१६॥
जो देवगणों से शिवेन्द्रादि यतियों
से तथा मोक्षार्थियों से पूजनीय हैं, जो
बालिका स्वरुपा हैं, सन्ध्यासमय नित्यगुणों से उदय
होने वाली, द्विजगणों श्रेष्ठ, अभ्युदय
देने वाली, अरुणवर्ण की कान्ति से युक्त, शुक्ल आभा वाली परमेश्वरी सब का कल्याण करने वाली, स्वयं कल्याणस्वरुपा, विशालमुख वाली, गायत्री स्वरुपा, सभी गणों
की माता, सूर्योदय रुप से दिन में गति प्रदान करने वाली,
कृष्णा तथा वृद्धा स्वरुपा उन देवी का
मैं भजन करता हूँ ॥१६॥
बालां बालकपूजितां गनभृतां
विद्यावताम मोक्षदां
धात्रीम शुक्लसरस्वतीं नववरा
वाग्वादिनीं चण्डिकाम् ।
स्वाधिष्ठाननहरिप्रियां प्रियकरीं
वेदान्तविद्याप्रदां
नित्यं मोक्षाहिताय योगवपुषा
चैतन्यरुपां भजे ॥१७॥
जो बाला हैं,
बालकों से पूजित हैं, गणेश्वरों एवं विद्वानों
को मोक्ष प्रदान करने वाली हैं, सब का पोषण करने वाली हैं,
जो शुक्लवर्णा सरस्वती हैं वाणी की उपासना करने वालों को
नवीन वर देने वाली हैं, चण्डिका
(कोपनशीला) है स्वाधिष्ठान में रहने वाले हरि की प्रिया है सब का प्रिय
करने वाली एवं वेदान्त विद्या प्रदान करने वाली हैं, ऐसी
योगशरीर से मोक्ष रुप हित के लिए चैतन्य स्वरूप भगवती का मैं भजन करता हूँ
॥१७॥
नानारत्नसमूहनिर्मितगृहे पूज्यां
सूरैर्बालिकां
वन्दे नन्दनकानने मनसिजे
सिद्धान्तबीजानने ।
अर्थं देहि निरर्थकाय पुरुषे हित्वा
कुमारीं कलाम्
सत्यं पातु कुमारिके
त्रिविधमूर्त्या च तेजोमयीम् ॥१८॥
सिद्धान्त बीज रुप आनन वाले,
मनसिजरूप नन्दन कानन में नाना रत्न समूहों द्वारा निर्मित गृह में
देवताओं से परिपूजित - बालिका स्वरुपा भगवती की मैं वन्दना करता हूँ ।
हमारे जैसे अर्थ हीन को अपनी तेजोमयी कुमारी (षोडश) कला से परिवेष्टित कर
पुरुष रुप में अर्थ प्रदान कीजिए और हे कुमारिके ! आप अपनी त्रिविधमूर्ति से सत्य
की रक्षा कीजिए ॥१८॥
वरानने सकलिका
कुलपथोल्लासैकबीजोद्वहां
मांसामोदकरालिनीं हि भजतां
कामातिरिक्तप्रदाम् ।
बालोऽहं वटुकेश्वरस्य
चरनाम्भोजाश्रितोऽहं सदा
हित्वा बालकुमारिके शिरसि
शुक्लम्भोरुहेशं भजे ॥१९॥
हे वरानने ! आप कुलपथ को प्रकाशित
करने के लिए बीजधारण करने वाली दीप की कलिका के समान हैं । आप मांस के
उपहार से संतुष्ट रहने वाली करालिनी हैं तथा भजन करने वालों को उनको वाञ्छा
से भी अधिक फल प्रदान करती हैं । हे बाल कुमारिके ! मैं बालक हूँ और सर्वदा बटुकेश्वर
के चरणाम्भोज का आश्रय लेने वाला हूँ । किन्तु अब शिर पर शुक्ल वर्ण का कमल धारण
करने वाले आपके जैसे समर्थ का भजन करता हूँ ॥१९॥
सूर्याहलाद्वलाकिनी
कलिमहापापादितापापहा
तेजोऽङा भुवि सूर्यगां भयहरां
तेजोमयीं बालिकाम् ।
वन्दे ह्रत्कमले सदा रविदले वालेन्द्रविद्याम
सतीं
साक्षात् सिद्धिकरीं कुमारि
विमलेऽन्वासाद्यं रुपेश्वरीम् ॥२०॥
आप सूर्य के समान कलि कि
महापापादि तापों को हरण करने वाली हैं, आप
तेजोमयी अङ्कवाली हैं, पृथ्वी में
तथा सूर्य में निवास करने वाली हैं और भय को हरण करने वाली, तेजोमयी
बालिका स्वरूपा हैं । आप के द्वापशपत्र वाले ह्रत्कमल के मध्य में बालेन्द्रविद्या
सती साक्षात् सिद्धि प्रदान करने वाली हे कुमारि ! हे विमले ! हे रूपेश्वरि !
आपको प्राप्त कर मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥२०॥
नित्यं श्रीकुलकामिनीं कुलवतीं
कोलामुमामम्बिकां
ननायोगानिवसिनीं सुरमणीं नित्याम
तपस्यान्विताम् ।
वेदान्तार्थविशेषदेशवसना
भाषाविशेषस्थितां
वन्दे पर्वतराजराजतनयां कालप्रियो
त्वामकम् ॥२१॥
आप नित्य श्री कुल की कामिनी
हैं,
कुलवती हैं, कोला,
उमा तथा अम्बिका हैं , नाना योग में निवास करने वाली, सुन्दर रमण करने वाली,
नित्य स्वरूपा, तपस्या में निरत रहने वाली हैं
। आप वेदान्तार्थ रुप विशेष देश में रहने वाली तथा आशा के विशेष स्थान में रहने
वाली पर्वतराज हिमालय की राजतनया हैं । अतः आपके काल को प्रिय लगने वाला
मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥२१॥
कौमारीं कुलमामिनीं
रिपुगणक्षोभाग्निसन्दोहिनीं
रक्ताभानयनां शुभाम
परममार्गमुक्तिसंज्ञाप्रदाम् ।
भार्या भागवतीं मति
भुवनमामोदपञ्चाननां
पञ्चास्यप्रियकामिनीं भयहरां
सर्पदिहारां भजे ॥२२॥
कौमारि,
कुलकामिनी (मूलाधार में स्त्रीरुप से रहने वाली), शत्रुगण में क्षोभ रुप अग्नि का संदोहन करने वाली, रक्तवर्ण
नेत्रों वाली, कल्याणकारिणी परममार्ग में मुक्ति संज्ञा
प्रदान करने वाली, भगवान् की भार्यास्वरुपा, बुद्धिस्वरूपा, पृथ्वी के वन प्रदेश में आमोद(प्रमोद) मनाने वाली, पञ्चानना पञ्चमुख भगवान्
सदाशिव की प्रिय कामिनी भयहारिणी तथा सर्पादि का हार धारण करने वाली कुमारी भगवती का मैं भजन करता हूँ ॥२२॥
चन्द्रास्यां
चरणद्वयाम्बुजमहाशोभाविनोदीं नदीं
मोहादिक्षयकारिणीं वरकराम
श्रीकुब्जिका सुन्दरीम् ।
ये नित्यं परिपूजयन्ति सह्सा
राजेन्द्रचूडामणिं
सम्पादं धनमायुषो जनयतो
व्यांप्येश्चरत्वं जगुः ॥२३॥
चन्द्र के समान मनोहर मुख मण्डल
वाली,
अपने चरणाम्भोज की महाशोभा से भक्त जनों का विनोद करने वाली,
नदी के समान, मोहादि का क्षय करने वाली,
मनोहर करों वाली, सुन्दरी श्रीकुब्जिका का
जो लोग पूजन करते हैं वे सहसा राजेन्द्र चूडामणि पद सम्पादन कर धन और आयुष्य
प्राप्त कर ईश्वरत्व में व्याप्त हो जाते हैं ॥२३॥
योगीशं भुवनेश्वरं प्रियकरं
श्रीकालसन्दर्भया
शोभासागरगामिनं हरभवं वाञ्छाफलोद्दीपनम्
।
लोकानामघनाशनाय शिवया श्रीसंज्ञया
विद्यया
धर्मप्राणसदैवतां प्रणमतां
कल्पद्रुमं भावये ॥२४॥
योगीश्वर,
भुवनेश्वर, सब का प्रिय करने वाले, श्री काल स्वरुप, शोभासागर में जाने वाले, शिवस्वरुप, वाञ्छाफल को प्रकाशित करने वाले, जो समस्त लोक के पाप का नाश करने वाले शिव, श्रीसंज्ञक
महाविद्या से अभिहित होते हैं ऐसे धर्मप्राण की देवता स्वरुपा तथा प्रणाम करने
वालों के लिए कल्पद्रुम स्वरुपा श्री भगवती का मैं ध्यान करता हूँ ॥२४॥
विद्यां तामराजितां मदन
भावमोदमत्ताननां
ह्रत्पद्मस्थितपादुकां कुलकलां
कात्यायनीं भैरवीम् ।
ये ये पुण्यधियो भजन्ति
परमानन्दाब्धिमध्ये मुदा
सर्व्वाच्छापितेजसा भयकरी मोक्षाय
सङ्कीर्तये ॥२५॥
मैं मदनभाव के आमोद से उन्मत्त
लोगों के मोक्ष के लिए उस अपराजिता विद्या का सङ्कीर्तन करता हूँ जो हृदय
रुप कमल में पादुका स्वरुप से विद्यमान हैं, जो
कुलोपासकों की कला हैं । कात्यायनी और भैरवी स्वरुपा हैं और
परमानन्द के समुद्र के मध्य में रहने वाली जिन देवी का पुण्यात्मा लोग
प्रसन्नतापूर्वक भजन करते है, जो अपने तेज से सब को शान्त
करने वाली तथा अभय प्रदान करने वाली हैं, उनका मैं संकीर्तन
करता हूँ ॥२५॥
रुद्राणीं प्रणमामि पद्मवदनां
कोट्यर्कतेजोमयीं
नानालङ्भूषणां कुलभुजामानन्दयिनीम्
।
श्री मायाकमलान्विता ह्रदिगतां
सन्तानबीजक्रियां
आनन्दैकनिकेतनां ह्रदि भजे
साक्षादलब्धामहम् ॥२६॥
मैं अपने हृदय में आनन्द रुप एक
निकेतन में निवास करने वाली, किन्तु
साक्षात रुप में उपलब्ध न होने वाली, हृदयस्थल में निवास
करने वाली, जगत् के सन्तान के लिए बीज क्रिया स्वरुपा,
उन रुद्राणी के मुखकमल को प्रणाम करता हूँ, जिनके पॉच मुख हैं, जो करोड़ों सूर्य के समान तेजोमयी
हैं, जो कुलोपासकों को आनन्द प्रदान करने वाली नाना प्रकार
के आभूषणों से अलंकृत हैं ॥२६॥
नमामि वरभैरवीं
क्षितितलाद्यकालानलां
मृणालसुकुमारारुणां
भुवनदोषसंशोधिनीम्।
जगद्भयहराम हरां हरति या च
योगेश्वरी
महापदसहस्त्रकम् सकलभोगदान्तामहम्
॥२७॥
मैं सकल भोग प्रदान करने वाली,
हजारों महापद धारण करने वाली, संसार के भय को
हरण करने वाली तथा हरपत्नी होकर जगत् का हरण करने वाली, योगीश्वरी
उन श्रेष्ठ भैरवीस्वरुपा भगवती को नमस्कार करता हूँ जो मृणाल तन्तु के समान
अत्यन्त सुकुमार तथा अरुण कान्ति वाली तथा त्रिभुवन के दोषों को शुद्ध करने वाली
हैं ॥२७॥
साम्राज्यं प्रददाति याचितवती
विद्या महालक्षणा
साक्षादष्टासमृद्धिदातरि
महालक्ष्मीः कुलक्षोभहा ।
स्वाधिष्ठानसुपङ्कजे विवसितां
विष्णोरनन्तप्रिये
वन्दे राजपदप्रदाम शुभकरीं
कौलश्वरीं कौलिकीम् ॥२८॥
जो महालक्षण युक्त अपने महाविद्यास्वरूप
से याचना करने पर साम्राज्य प्रदान करती हैं, जो
साक्षादष्टसमृद्धि के दाता विष्णु महालक्ष्मीस्वरुपा है, जो कुल (मूलाधार) में होने वाले क्षोभ को नष्ट करने वाली हैं तथा
स्वाधिष्ठान कमल में विष्णु के साथ निवास करतीं हैं, ऐसी
हे अनन्त प्रिये भगवति ! राज्यपद प्रदान करने वाली, कल्याणकारिणी,
कौलेश्वरी, कौलिकी
को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२८॥
पीठानामधिपाधिपाम् असुवहां विद्यां
शुभां नायिकां
सर्वालङ्करनान्विताम त्रिजगतां
क्षोभापहां वारुणीं ।
वन्दे पीठनायिका
त्रिभुवनच्छायाभिराच्छादितां
सर्वेषां हितकारिणीं जयवतामन्दरुपेश्वरीम्
॥२९॥
जो पीठाधिपतियों की अधिपा हैं,
प्राण का सञ्चार करने वाली हैं, विद्या और
कल्याणकारिणी नायिका हैं, सभी प्रकारा के अलङ्कारों
से अलंकृत हैं, तीनों लोकों में होने वाले क्षोभ को हरण करने
वाली हैं, वारुणीस्वरुपा है त्रिभुवन की छाया से आच्छादित रहने वाली,
प्रच्छन्न स्वरुप पीठ में निवास करने वाली, सभी
का हित करने वाली, जय करने वालों के मन में आनन्दस्वरुपा
ईश्वरी की मैं वन्दना करता हूँ ॥२९॥
क्षेत्रज्ञां मदविहवलां कुलवतीं
सिद्धिप्रियां प्रेयसीम् ।
शम्भोः श्री वटुकेश्वरस्य
महतामनन्दसञ्चारिणीम् ॥३०॥
क्षेत्रज्ञ स्वरुपा,
मद से विह्वल, कुलवती, सिद्धियों
की प्रिय, सदाशिव की प्रेयसी,
श्री बटुकेश्वर तथा महान् लोगों में आनन्द का सञ्चार करने वाली,
भगवती की मैं वन्दना करता हूँ ॥३०॥
साक्षादात्मपरोद्गमां
कमलमध्यसंभाविनीं
शिरो दशशते दलेऽमृतमहाब्धिधाराधराम्
।
निजमनः क्षोभापहां शाकिनीम्
बाह्यर्थ प्रकटामहं रजतभा वन्दे
महाभैरवीम् ॥३१॥
साक्षात् आत्मा में परमात्मारुप से
निवास करने वाली, कमल के मध्य में
ध्यान करने के योग्य, शिर में रहने वाले सहस्त्रदल वाले कमल
चक्र में अमृत महा समुद्र की धारा को धारण करने वाली, साधक
के मन के क्षोभ को अपहरण करने वाली साकिनी स्वरुपा बाह्म जगत् में
अर्थ रुप से प्रगट होने वाली सुर्वणमयीं महाभैरवी की मैं वन्दना करता हूँ
॥३१॥
प्रणामफलदायिनीं सकलबाह्यवश्यां
गुणां
नमामि परमम्बिकां विषयदोषसंहारिणीम्
।
सम्पूर्णाविधुवन्मुखीं
कमलमध्यसम्भाविनीं
शिरो दशशते दलेऽमृतमहाब्धिधाराधराम्
॥३२॥
जो मात्र प्रणाम से ही फल प्रदान
करने वाली हैं, सम्पूर्ण बाह्य वस्तुओं को वश
में रखने वाली गुणवती हैं, विषय दोषों का संहार करने वाली,
पूर्वचन्द्र निभानना, कमल के मध्य में संभावना
(ध्यान) किए जाने योग्य, शिर में संस्थित सहस्त्र दल वाले
कमल में अमृत महासमुद्र की धारा धारण करने वाली भगवती की मैं वन्दना करता
हूँ ॥३२॥
साक्षादहं त्रिभुवनामृतपूर्णदेहां
सन्ध्यादि देवकमलां
कुलपण्डितेन्द्राम् ।
नत्वा भजे दशशते दलमध्यमध्ये
कौलेश्वरीं सकलदिव्यजनाश्रयां ताम्
॥३३॥
तीनों लोकों में अमृत से पूर्ण शरीर
वाली सन्ध्या, आदिदेव (विष्णु) की कमला,
कुल कुण्डलिनी में रहने वाली, पण्डितों की इन्द्राणी भगवती को नमस्कार कर सहस्त्रदल कमल के मध्य
के बीच में रहने वाली कौलेश्वरी जो समस्त दिव्यजनों को आश्रय देने वाली हैं,
मैं उनका साक्षात् भजन करता हूँ ॥३३॥
विश्वेश्वरीं स्वरकुले वरबालिके
त्वां
सिद्धासने प्रतिदिनं प्रणमामि
भक्त्या ।
भक्तिं धनं जयपदं यदि देहि दास्यं
तस्मिन् महाधुमतीं लघुनाहताः स्यात्
॥३४॥
हे स्वरकुले ! हे वर बालिके ! हे
सिद्धासने ! आप समस्त विश्व की ईश्वरी हैं । मैं भक्तिपूर्वक प्रतिदिन आपको प्रणाम
करता हूँ । हे भगवती ! मुझे भक्ति धन, जयपद
तथा अपना दास्यभाव प्रदान कीजिए । यदि मुझ सेवक में आप महामधुमती विद्या
प्रदान करें तो मेरी लघुता समाप्त हो जायेगी ॥३४॥
कुमारी स्तोत्र फलश्रुति
एतत्स्तोत्रप्रसादेन कविता
वाक्पतिर्भवेत् ।
महासिद्धीश्वरो दिव्यो वीरभावपरायणः
॥३५॥
सर्वत्र जयमाप्नोति स हि स्याद्
देववल्लभः ।
वाचामीशो भवेत् क्षिप्रं कामरुपो
भवेन्नरः ॥३६॥
इस स्तोत्र के प्रभाव से साधक कविता
रूपी वाणी का पति हो जाता है और महान् सिद्धियों का ईश्वर,
दिव्य तथा वीरभाव परायण हो जाता है । वह सर्वत्र विजय प्राप्त करता
है, देवी का परम प्रिय हो जाता है और शीघ्र ही वाचस्पतित्त्व
प्राप्त कर लेता है तथा इच्छानुसार रुप धारण कर सकता है ॥३५ - ३६॥
पशुरेव महावीरो दिव्यो भवति
निश्चितम् ।
सर्वविद्याः प्रसीदन्ति तुष्टाः
सर्वे दिगीश्वराः ॥३७॥
वहिनः शीतलतां याति जलस्तम्भं स
कारयेत् ।
धनवान् पुत्रवान राजा इह काले
भवेन्नरः ॥३८॥
यदि स्तुति करने वाला पशुभाव वाला
हो तो वह निश्चय ही इस स्तोत्र के प्रभाव से दिव्यभाव सम्पन्न हो जाता है । क्रमशः
उसे अष्टसिद्धि प्राप्त हो जाती है और वह निश्चित रुप से वाग्मी ( सत्य वाणी वाला
) हो जाता है । इस स्तोत्र का पाठ करने वाले के लिए अग्नि शीतल हो जाती है । वह जल
स्तम्भन भी कर सकता है और इसी जन्म में धनवान् पुत्रवान् तथा राजा बन सकता है ॥३७
- ३८॥
परे च याति वैकुण्ठे कैलासे
शिवसन्निधौ ।
मुक्तिरेव महादेव यो नित्यं सर्वदा
पठेत् ॥३९॥
महाविद्यापदाम्भोजं स हि पश्यति
निश्चितम् ।
मरने के बाद वह वैकुण्ठ में अथवा
कैलास में जहाँ शिव जी का निवास है वहाँ जाता है । किं बहुना जो सर्वदा
नित्य इसका पाठ करता है, उसकी मुक्ति ही
समझनी चाहिए । वह निश्चित रुप से महाविद्या के चरण कमलों का दर्शन प्राप्त करता है
॥३९ - ४०॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने कुमार्युपचर्याविलासे सिद्धमन्त्रप्रकरण दिव्यभावनिर्णये कुमारी स्तोत्र: अष्टमः पटलः ॥८॥
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