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कर्मकाण्ड

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प्रपन्नगीतम्

प्रपन्नगीतम्

कृष्णलालद्विज द्वारा रचित इस श्रीप्रपन्नगीतम् के पाठ से प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त होता है।

श्रीप्रपन्नगीतम्

श्रीप्रपन्नगीतम्

(पञ्चमस्वरमेकतालं भजनम्, विहागरागेण गीयते)

परमसखे श्रीकृष्ण भयङ्करभवार्णवेऽव्यय विनिमग्नम् ।

मामुद्धर ते श्रीकरलालितचरणकमलपरिधौ लग्नम् ।।(ध्रुवपदम्)

गणमृगतृष्णाचलितधियं विषयार्थसमुत्सुकदशकरणम् ।

परिभूतं दुर्मतिनरनिकरैर्मतिभ्रमार्जितगुणशरणम् ॥

सततं सभयमनो निवहन्तं षड्रिपुभिर्निखिलेड्यगुरुम् ।

कालिन्दीहृदयप्रियविष्णोश्चरणकमलरजसो विधुरम् ॥

मनःशोकमतिमोहक्षतयेऽभिकाङ्क्षन्तमजमुखपद्मम् ।

मामुद्धर ते श्रीकरलालितचरणकमलपरिधौ लग्नम् ॥१॥

हे परमसखे ! श्रीकृष्ण ! हे अच्युत ! श्रीलक्ष्मीजी के करकमलों द्वारा सेवित आपके चरणारविन्दों की शरण में आये हुए एवं भयंकर भवसागर में डूबते हुए मेरा उद्धार कीजिये । त्रिगुणमयी मायारूपिणी मृगतृष्णा से जिसकी बुद्धि चञ्चल हो रही है, जिसकी दसों इन्द्रियाँ विषयभोगों के लिये उत्कण्ठित रहा करती हैं, जो दुष्ट मनुष्यों द्वारा अपमानित हो चुका है, अपनी बुद्धि मारी जाने के कारण जिसने भगवान की शरण छोड़ गुणों की शरण ली है; उस सदा भयभीत मनवाले, कामादि छः शत्रुओं के जाल में फँसकर सबकी खुशामद करनेवाले, कालिन्दी के प्राणनाथ आप (श्रीकृष्ण) के चरणारविन्द पराग से शून्य, मन के शोक और बुद्धि के भ्रम को नाश करने के लिये अजन्मा आपके मुखकमल के दर्शनाभिलाषी तथा लक्ष्मीजी के करकमलों द्वारा सेवित आपके चरणकमलों की शरण में आये हुए मेरा आप उद्धार कीजिये ॥१॥

कालिन्दीरुक्मिणीराधिकासत्याजाम्बवतीसुहदम् ।

निजशरणागतभक्तजनेभ्यः कृपया गतभवभयवरदम् ॥

गोपीजनवल्लभरासेश्वरगोवर्धनधरमधुमथनम् ।

वन्देऽहं निखिलाधिपतिं त्वामतिशयसुन्दरगुणभवनम् ॥

कृष्णलालजीद्विजाधिपं हे मनोऽनिशं त्वं भज यज्ञम् ।

मामुद्धर ते श्रीकरलालितचरणकमलपरिधौ लग्नम् ॥ २ ॥

कालिन्दी, रुक्मिणी, राधा, सत्यभामा और जाम्बवती के सहृद, अपने शरणागत भक्तजनों पर कृपा करके उन्हें भव-भय से मुक्त करनेवाला वर देनेवाले, गोपबालाओं के प्रियतम, रास के अधिनायक, गोवर्धनधारी, मधुसूदन, सर्वेश्वर, अत्यन्त कमनीय गुणों के आश्रय, आपको मैं नमस्कार करता हूँ, हे मन ! तू सर्वदा कृष्णलालद्विज के स्वामी यज्ञेश्वर कृष्ण का भजन कर; हे परमसखे ! लक्ष्मीजी के करकमलों द्वारा सेवित आपके चरणारविन्दों की शरण में आये हुए मेरा उद्धार कीजिये ॥२॥

इति श्रीकृष्णलालद्विजविरचितायां गीताभजनसप्तशत्यां प्रपन्नगीतं सम्पूर्णम्।

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