योनि कवच

योनि कवच

योनि कवच का पाठ करने से समस्त शक्तियाँ तथा सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है । 

योनि कवच

योनिकवच

श्री ईश्वरी उवाच

सुरासुरजगद्वन्द्य पार्वतीभगसेवक ।

इदनीं श्रोतुमिच्छामि योनेः कवचमुत्तमम् ।।८१।।

श्री ईश्वरी कहती है-हे सुरासुर जगत्वन्द्य ! पार्वती के भग का सेवन करने वाले ! मैं उत्तम योनिकवच सुनना चाहती हूँ ॥८१॥

श्री महादेव उवाच

यद् घृत्वा पठनात् सर्वाः शक्तयो वरदा प्रिये ।

एतस्य कवचस्यापि ऋषिश्च श्री सदाशिवः ।।८२।।

छन्दोगायत्रीदेवता योनिरूपा सनातनी ।

चतुर्वर्गेषु देवेशि विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।।८३।।

श्री ईश्वर कहते हैं-हे प्रिये ! जिसे धारण करने तथा पाठ करने से समस्त शक्तियाँ वरदा हो जाती है, उस कवच के ऋषि है सदाशिव । छन्द गायत्री है और देवता है साक्षात् योनिरूपा सनातनी देवी। हे देवेशी! इसका विनियोग है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।।८२-८३।।

योनिकवचम्

विनियोगः

ॐ अस्य श्रीयोनिकवचम् श्री सदाशिवः ऋषि: गायत्री छन्द: योनिरूपा सनातनी देवता चतुर्वर्गेषु विनियोगः ।।

।। अथ योनिकवचम् ।।

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

( दक्षपादः ) मम शिरो रक्षन्तु स्वाहा  ।

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

ॐ मां ॐ आकूटां मम रक्षन्तु स्वाहा मं मां  ।।८४ ॥

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

मम हृदयादि दक्ष बाहुँ रक्षन्तु ।

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

मम हृदयादि वामबाहुँ रक्षन्तु  ।।८५ ॥

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

दक्षपादं रक्षन्तु मम ।

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

वामपादं रक्षन्तु मम सदा स्वाहा स्वाहा ।।८६ ॥

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

मम हृदयादि नासां रक्षन्तु स्वाहा ।

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

मम उपस्थं रक्षन्तु मम सदा स्वाहा  ।।८७ ॥

ॐ मं मां मिं मीं मुं मूं में मैं मों मौं मं मः

इदं हि योनि कवचं रहस्यं परमाद्भुतम् ।।८८।।

अज्ञात्वा यो जपेन्मन्त्रं सर्वं निष्फलतां ब्रजेत ।

रहस्यं परमं दिव्यं सावधानावधारय ।।८९॥

मूलाधारे महेशानि जपेद्यस्तु वरानने ।

मूलाधारे महेशानि वरारोहेऽन्तरात्मनि ॥९० ॥

जो साधक इस योनिकवच के बिना जप करता है, उसके समस्त मंत्र निष्फल हो जाते हैं। अतएव इस परम दिव्य रहस्य को सावधानी पूर्वक स्मरण रखे । हे महेशानी ! हे वरानने ! जो साधक मूलाधार में अन्तरात्मा के कवच का जप करता है, उसे मन्त्रसिद्धि हो जाती है ।।८९-९०

प्रतिचक्रे महेशानि पठेद् योनिं सनातनीम् ।

चन्द्रसूर्यपरागे च पठेद्वा कवचं प्रिये ॥९१ ॥

स्वनारीं रमयेत् यस्तु परनारीयथापि वा ।

कवचस्य प्रसादेन योनिमुद्रा हि सिद्ध्यति ॥९२॥

हे महेशानी! प्रत्येक चक्र में सनातनी योनिकवच का पाठ करे। हे प्रिये ! चन्द्र सूर्य ग्रहण में भी इसका पाठ करना चाहिये।

स्वकीया नारी अथवा परकीया नारी में रमण करते समय कवच के अनुग्रह से योनिमुद्रा सिद्ध हो जाती है ।।९१-९२।।

इदं हि कवचं देवी पठित्वा कमलानने ।

मैथुनं महदाख्यानं त्वया सह मया कृतम् ।।९३॥

कवचस्य प्रसादेन जना यान्ति परां गतिम् ।

भूर्जपत्रे समालिख्य स्वरम्भु कुसुमेन तु ।।९४॥

शुक्लेन कुसुमेमापि रोचनालक्तकेन च ।

स्वर्णस्थां गुटिकां कृत्वा धारयेद् यस्तु मानवः ।।९५ ।।

हे कमल नेत्रों वाली! हे देवी? इस कवच का पाठ करके मैंने तुम्हारे साथ महत् आख्यान युक्त मैथुन किया है।

कवच के अनुग्रह से लोग परमगति प्राप्त करते हैं। इसे भूर्जपत्र पर कुमकुम से लिखे। अथवा शुभ्र पुष्प द्वारा, गोरोचन अथवा अलक्तक से लिखकर सुवर्ण निर्मित ताबीज में रखकर मनुष्य इसे धारण करे ।।९३-९५।।

इहलोके परत्रच स एव श्रीसदाशिवः।

अष्टोत्तरशतश्चास्य प्रपठेत् सिद्धिवांञ्च्छया ।।९६।।

किमत्र बहुनोक्तेन अस्मात् परतरो नहि ।

नमो योन्यै नमो योन्यै कुण्डलिन्यै नमो नमः ॥९७॥

वह व्यक्ति इस लोक में तथा परलोक में श्री सदाशिवरूप में विराजित हो जाता है। सिद्धि की आकांक्षा रहने पर प्रतिदिन अष्टोत्तरशतबार योनिकवच का पाठ करे।

अब और क्या कहूँ? इसकी अपेक्षा श्रेष्ठ कुछ भी नहीं । अतः योनि को बारम्बार नमस्कार करता हूँ। साथ में कुण्डलिनी को भी नमस्कार करता हूँ॥९६-९७॥

॥ इति दक्षिणाम्नाये कङ्कालमालिनीतन्त्रे योनिकवचम् सम्पूर्णम् 

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