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मुण्डमालातन्त्र चतुर्थ पटल में बलि
के भेद, बलिदान की विधि एवं फल का वर्णन है।
मुण्डमालातन्त्रम् चतुर्थः पटलः
मुंडमाला तन्त्र पटल ४
‘मुण्डमालातन्त्र'
श्रीदेव्युवाच -
केवलं बलिदानेन तुष्टा भवति चण्डिका
।
कथितं पूर्वमस्मभ्यं प्रकाशं कुरु
शङ्कर ! ।।1।।
श्रीदेवी ने कहा - चण्डिका
केवल बलिदान के द्वारा तुष्ट हो जाती है - इस बात को आपने पहले कहा है। हे शङ्कर
! इस समय उस बात को स्पष्ट रूप से बतायें ।
श्रीईश्वर उवाच -
अत्यन्तगुह्यं देवेशि ! विधानं
बलिपूजयोः ।
कथयामि वरारोहे! सुस्थिरा भव सर्वदा
॥2॥
श्रीईश्वर ने कहा - हे देवेशि !
बलिपूजा का विधान अत्यन्त गोपनीय है । हे वरारोहे ! मैं बलि एवं पूजा के विषय में
बता रहा हूँ। आप सर्वदा स्थिर होकर रहें ।
दधि क्षीरं प्रतनान्नं पायसं
शर्करान्वितम् ।
पायसं क्षौद्रं मांसञ्च
नारिकेल-गतोदकम् ।।3।।
शर्करं मेषखण्डञ्च आर्द्रकं
सहशर्करम् ।
रम्भाफलं लड्डकञ्च भर्जितान्नञ्च
पिष्टकम् ।।4।।
शालमत्स्यञ्च पाठीनं शकुलं चेटुकं
तथा ।
मद्रञ्च बलिं दद्याद् मांसं
महिष-मेषकम् ॥5॥
दधि, क्षीर, पुरातन, अन्न, शर्करायुक्त पायस, क्षौद्र (=मधु) युक्त पायस,
मांस, नारियल का पानी, चीनी,
मेष-खण्ड, शर्करा के साथ अदरक, रम्भाफल, लड्डू, भार्जित
तण्डुल का अन्न, पिष्टक, शाल-मत्स्य,
पाठीन (एक प्रकार का मत्स्य), शकुल (महाशाल
नामक मत्स्य), चेटुक मद्दर ('मागुर'
नामक मत्स्य) एवं महिष तथा मेष के मांस की बलि को प्रदान करें।
पक्षिमांसं महादेवि! डिम्बं
नाना-समुद्रभवम् ।
कृष्णछागं महामांस-गोधिकां हरिणीं
तथा ।।6।।
हे महादेवि ! पक्षि के मांस को एवं
नाना प्राणिजात डिम्बों को, कृष्णछाग को,
महामांस गोधिका को एवं हरिणी को बलि-रूप में प्रदान करें ।
जलजे मत्स्य-मांसे च गण्डकी-मांसमेव
च ।
नानाव्यञ्जन दग्धानि व्यञ्जनानि
मधूनि च ।।7।।
जलज मत्स्य एवं मांस को,
गण्डकी के मांस को, नाना व्यञ्जनों के
दग्धांशों को, नाना व्यञ्जनों को एवं नाना प्रकार के मधुओं
को बलि-रूप में प्रदान करें ।
ईषद्-दग्धं घृतेनाक्तं निशायां
दिवसेऽपि वा ।
बलिं दद्याद् विशेषेण कृष्णपक्षे
शुभे दिने ॥8॥
रात्रि में,
दिन में एवं विशेषतः कृष्णपक्ष के शुभ दिन में, ईषत्-रूप में दग्ध बलि-द्रव्य को घृत के द्वारा आप्लुत करके बलि-प्रदान
करें ।
छागे दत्ते भवेद् वाग्मी मेषे दत्ते
कविर्भवेत् ।
महिषे धनवृद्धिः स्याद् मृगे
मोक्षफलं भवेत् ॥9॥
छाग की बलि देने पर वाग्मी बनता है,
मेष की बलि देने पर कवि बनता है। महिष की बलि देने पर धन की वृद्धि
होती है। हरिण की बलि देने पर मोक्ष-फल का लाभ होता है ।
दत्ते पक्षिणि ऋद्धिः स्याद्
गोधिकायां महाफलम् ।
नरे दत्ते महर्द्धिः स्याद् यतः
सिद्धिरनुत्तमा ॥10॥
पक्षी की बलि देने पर समृद्धि आती
है,
गोधिका की बलि देने पर महाफल की प्राप्ति होती है । मनुष्य की बलि
देने पर महासमृद्धि आती है। इससे (= इस नर-बलि से) अति उत्तम सिद्धि की प्राप्ति
होती है ।
ललाट-हस्त-हृदय-शिरो-भ्रूमध्य-देशतः
मा ।
स्वहृदो-रुधिरे दत्ते रुद्रदेह
इवापरः ।।11।
नर के ललाटदेश,
हस्तदेश, हृदयदेश, मस्तकदेश,
भ्रूमध्यदेश एवं अपने हृदयदेश से रुधिर की बलि देने पर साधक द्वितीय
रुद्र-देह के समान बन जाता है ।
चण्डाल-बलिदानेन महासिद्धिः
प्रजायते ।
सुरादानेन देवेशि! महायोगीश्वरो
भवेत् ।।12।।
चण्डाल की बलि देने से महासिद्धि
उत्पन्न होती है। हे देवेशि ! सुरादान के द्वारा महायोगीश्वर बन जाता है ।
सुरा ते विविधा प्रोक्ता स्फाटिकी
डाकिनी तथा ।
काञ्चिकी च महादेवि ! कथिता भुवि
दुर्लभा ।।13।।
आपसे मैंने बहुविध सुरा के विषय में
बताया है। हे महादेवि ! इस पृथिवी पर स्फाटिकी,
डाकिनी एवं काञ्चिकी सुरा दुर्लभ है - ऐसा कहा गया है ।
स्फाटिकी-दानमात्रेण
धनवृद्धिरनुत्तमा ।
डाकिनी-दानयोगेन सर्ववश्यो भवेद्
ध्रुवम् ।।14।।
स्फाटिकी सुरा के दान करने मात्र से
अत्युत्तम धन-वृद्धि होती है। डाकिनी सुरा के दान करने मात्र से समस्त जीव निश्चय
ही वश्य बन जाते हैं ।
काञ्चिकी-सुरया देवि! योऽर्चयेत्
परमेश्वरीम् ।
गुटिकाञ्जन-स्तम्भादि-मारणोच्चाटनादिभिः
।
महासिद्धीश्वरो भूत्वा वसेत्
कल्पायुतं दिवि ॥15॥
हे देवि ! जो साधक काञ्चिकी सुरा के
द्वारा परमेश्वरी की अर्चना करता है, वह
गुटिकाञ्जन स्तम्भादि एवं मारण उच्चाटनादि के साथ महासिद्धि की अधिपति बनकर दस
हजार कल्पकाल पर्यन्त स्वर्ग में वास करता है ।
अर्योदके महेशानि!
महासिद्धिरनुत्तमा ।
रक्तचन्दन-बिल्वादि-जवाकुसुम-बर्बरैः
।
अयं दत्त्वा महेशानि!
सर्वकामार्थसाधनम् ॥16॥
हे महेशानि ! अर्ध्यॊदक से
अत्युत्तम महासिद्धि होती है। रक्तचन्दन, बिल्वादि
फल, जवाकुसुम एवं बर्बरा के द्वारा अर्घ्य देने से समस्त काम
एवं अर्थ की सिद्धि होती है ।
सुरया चार्घ्यदानेन योगिनीनां
प्रियो भवेत् ।
पुरः पात्रं घटस्यान्ते तदन्ते
भोज्यपात्रकम् ।।17।
सुरा के द्वारा अर्घ्यदान देने पर
(साधक) योगिनीगणों का प्रिय बन जाता है । घट के शेषभाग में (प्रान्तभाग में),
सम्मुख में पात्र को स्थापित करें । उसके प्रान्तभाग में भोज्यपात्र
को स्थापित करें ।
तदन्ते वीरपात्रञ्च बलेः पात्रं
तदन्तिके ।
पाद्यार्थ्याचमनीयानां पात्राणि
स्थापयेद् बुधः ॥18॥
उसके प्रान्त में वीरपात्र,
उसके प्रान्त में बलि के पात्र को स्थापित करें । साधक पाद्य,
अर्घ्य एवं आचमनीयों के पात्रों को स्थापित करें ।
महायोगी भवेद देवि!
पीठ-प्रक्षालितैर्जलैः।
स्वयम्भूकुसुमे दत्ते भवेत्
षष्टकर्मभाजनम् ।।19।।
हे देवि ! पीठ-प्रक्षालित जल के
द्वारा अर्घ्य देने पर महायोगी बनता है। स्वयम्भूकुसुम का दान करने पर,
षट्-कर्म-साधन का अधिकारी बन जाता है ।
सुशीतलजलैरवँ कस्तुरी-कुसुमान्वितैः
।
कुण्डगोलोत्थबीजैर्वा
सर्वसिद्धिश्वरो भवेत् ।।20।
कस्तूरी एवं कुङ्कमयुक्त सुशीतल जल
के द्वारा अथवा कुण्ड तथा गोल के बीज के द्वारा अर्घ्य देने पर,
सर्वसिद्धि का अधिपति बन जाता है ।
सधवारति-सम्भूतं कुण्डमुत्तमभूतिदम्
।
विधवारति-सम्भूतं गोलमृद्धिप्रदं
भुवि ।।21 ।।
साधवा के साथ रति-सम्भूत कुण्ड
उत्तम ऐश्वर्यप्रद है एवं विधवा के साथ रति-सम्भूत गोल इस पृथिवी पर समृद्धि-प्रद
है - ऐसा जानें ।
मुलमन्त्रेण देवेशि ! आकृष्य
निर्भयः शुचिः।
अर्घ्यं दद्याद् विशेषेण चक्रवातेन
पुजिता ॥22।।
हे देवेशि ! शूचि साधक निर्भय बनकर
मूलमन्त्र के द्वारा बीज का आकर्षण कर, अर्घ्य
का दान करें। देवी विशेषरूप से चक्रवात के द्वारा पूजिता होने पर प्रीता बन जाती
है ।
स्वयम्भूकुसुमं देवि! त्रिविधं भुवि
जायते ।
आषोडशादनूढ़ा या उत्तमा
सर्वसिद्धिदा ।।23।।
हे देवि ! इस पृथ्विी पर
स्वयम्भूकुसुम तीन प्रकार का होता है । षोडश वर्ष पर्यन्त अनूढ़ा कन्या उत्तमा एवं
सर्वसिद्धिप्रदा है ।
रजोयोगवशादन्या मध्यमा सुखदायिनी ।
बलात्कारेण देवेशि! अधमा
भोगवर्द्धिनी ।।24।।
अन्य स्त्री रजो-योगवश,
मध्यमा होने पर भी सुखदायिनी है । हे देवेशि ! अन्य स्त्री बलात्कार
के द्वारा अधमा होने पर भी भोगवर्धिनी है ।
कुमारीपूजने शक्तो नारी स्वप्नेऽपि
न स्मरेत् ।
आकृष्य बद्धयोगेन गोलोऽथ पुष्पकं
न्यसेत् ॥25॥
कुमारी-पूजन
में समर्थ व्यक्ति स्वप्न में भी नारी का (=अन्य स्त्री का) स्मरण न करे । अनन्तर
गोल बद्ध-योग के द्वारा पुष्प (स्त्रीरजः) को आकर्षित करके स्थापित करें ।
शुद्धं कुर्यात् प्रयत्नेन निर्भयः
शुचिमानसः ।
ताम्रपाने कपाले वा
श्मशानकाष्ठ-निर्मिते ।।26।।
शनि-भौम-दिने वापि शरीरे मृतसम्भवे
।
स्वर्णे रौप्येऽथ लोहे वा चक्रं
कार्यं यथाविधि ।
पुष्पान्यपि तथा दद्याद्
रक्त-कृष्ण-सितानि च ॥27।।
साधक निर्भय बनकर पवित्र मन से
यत्नपूर्वक उस पुष्प को शुद्ध करें । ताम्रपात्र में,
नर-कपाल में, श्मशान-काष्ठ से निर्मित पात्र
में, मृतशरीर में, सुवर्णपात्र में,
रौप्यपात्र में अथवा लौहपात्र में, शनिवार या मङ्गलवार को चक्र की रचना करनी चाहिए । रक्त, कृष्ण एवं शुक्ल पुष्पों का आहरण कर, यथाविधान से
दान करें ।
श्वेतरक्तं जवापुष्पं करबीरं तथा
प्रिये !।
तगरं मालती जाती सेवन्ती यूथिका तथा
।।28।।
धूस्तुराशोकवकुलाः
श्वेतकृष्णापराजिताः ।
वकपुष्पं विल्वपत्रं चम्पकं
नागकेशरम् ।।29।।
मल्लिका झिण्टिका काञ्ची रक्तं यत्
परिकीर्तितम् ।
अर्कपुष्पं जवापुष्पं बर्बरञ्च
प्रियंवदे ॥30॥
हे प्रिये ! हे प्रियम्वदे ! श्वेत
एवं रक्त जवापुष्प, उसी प्रकार श्वेत
एवं रक्त करबीर, तगर, मालती, जाति, सेवन्ती, यूथिका,
(जूही), धूसर, अशोक,
बकुल, श्वेत एवं कृष्ण अपराजिता, बक-पुष्प, बिल्वपत्र, चम्पा,
नागकेशर, मल्लिका, काञ्ची,
झिण्टिका, रक्तवर्ण पुष्प, अर्क-पुष्प, जवापुष्प एवं बर्बर पुष्प का आहरण करें
।
अष्टम्यान्त विशेषेण तुष्टा भवति
पार्वती ।
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नाना
पुष्पैः समर्चयेत् ॥31॥
अष्टमीतिथि में इन समस्त पुष्पों का
आहरण करने पर उसके प्रति पार्वती विशेषरूप से सन्तुष्ट बन जाती हैं। अष्टमी
एवं चतुर्दशी में नाना पुष्पों के द्वारा पार्वती की अर्चना करें ।
रक्तपुष्पेण रक्तेन सन्तुष्टाः
सर्वदेवताः।
कृष्णा वा यद्रि वा शुक्ला बालिका
वरदा भवेत् ।।32।।
रक्त पद्मपुष्प के द्वारा समस्त
देवता सन्तुष्ट बन जाते हैं । बालिका कुमारी कृष्णा या शुक्ला होने पर भी
वरदा बन जाती हैं ।
श्मशानधूस्तुरेणैव तुष्टा मधुमती
परा ।
श्मशानजात-पुष्पेण सन्तुष्टा कालिका
परा ।।33॥
श्मशान-धतूरा-पुष्प के द्वारा मधुमती
विशेष रूप से सन्तुष्टा बन जाती है । श्मशान-जात पुष्प के द्वारा कालिका-विशेष
रूप से सन्तुष्टा बन जाती हैं ।
वन्यपुष्पैश्च विविधैः सन्तुष्टा
पार्वती परा ।
आमलक्यास्तु पत्रेण तुष्टा पुष्पेण
पार्वती ।।34।।
विविध वन्य पुष्प के द्वारा पर्वती
विशेष-रूप से सन्तुष्टा बन जाती है। पार्वती आमलक के पत्र एवं पुष्प के द्वारा
तुष्टा बन जाती हैं ।
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां
नानापुष्पैः सदार्चयेत् ।
श्मशाने रात्रिशेषे च शनि-भौमदिने
निशि ॥35॥
अष्टमी एवं चतुर्दशी तिथि में शनि
एवं मंगलवार को, श्मशान में, रात्रि में या रात्रि के अन्त में सर्वदा अर्चना करें।
इति मुण्डमालातन्त्रे चतुर्थः पटलः ॥4॥
मुण्डमालातन्त्र के चतुर्थ पटल का
अनुवाद समाप्त ॥4॥
आगे जारी............. मुण्डमालातन्त्र पटल ५
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