दुर्गा स्तुति

दुर्गा स्तुति

दुर्गम दैत्य का वध करने वाली माँ दुर्गा की नित्य स्तुति पाठ करने से साधक के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है ।

दुर्गा स्तुति

दुर्गा स्तुतिः

श्रुतय ऊचुः

दुर्गे विश्वमपि प्रसीद परमे सृष्ट्यादिकार्यत्रये

ब्रम्हाद्याः पुरुषास्त्रयो निजगुणैस्त्वत्स्वेच्छया कल्पिताः ।

नो ते कोऽपि च कल्पकोऽत्र भुवने विद्येत मातर्यतः

कः शक्तः परिवर्णितुं तव गुणांल्लोके भवेद्दुर्गमान् ॥ १ ॥

वेदों ने कहा- दुर्गे ! आप सम्पूर्ण जगत्पर कृपा करे । परमे आपने ही अपने गुणों के द्वारा स्वेच्छानुसार सृष्टि आदि तीनों कार्यों के लिये ब्रह्मा आदि तीनों देवों की रचना की है, इसलिये इस जगत में आपको रचनेवाला कोई भी नहीं है । मातः आपके दुर्गम गुणों का वर्णन करने में इस लोक में भला कौन समर्थ हो सकता है ।

त्वामाराध्य हरिर्निहत्य समरे दैत्यान् रणे दुर्जयान्

त्रैलोक्यं परिपाति शम्भुरपि ते धृत्वा पदं वक्षसि ।

त्रैलोक्यक्षयकारकं समपिबद्यत्कालकूटं विषं

किं ते वा चरितं वयं त्रिजगतां ब्रूमः परित्र्यम्बिके ॥ २ ॥

भगवान् विष्णु आपकी आराधना के प्रभाव से ही दुर्जय दैत्यों को युद्धस्थल में मारकर तीनों लोकों की रक्षा करते हैं । भगवान् शिव ने भी अपने हृदय पर आपका चरण धारण कर तीनों लोकों का विनाश करनेवाले कालकूट विष का पान कर लिया था । तीनों लोकों की रक्षा करनेवाली अम्बिके ! हम आपके चरित्र का वर्णन कैसे कर सकते हैं ।

या पुंसः परमस्य देहिन इह स्वीयैर्गुणैर्मायया

देहाख्यापि चिदात्मिकापि च परिस्पन्दादिशक्तिः परा ।

त्वन्मायापरिमोहितास्तनुभृतो यामेव देहास्थिता

भेदज्ञानवशाद्वदन्ति पुरुषं तस्यै नमस्तेऽम्बिके ॥ ३ ॥

जो अपने गुणों से माया के द्वारा इस लोक में साकार परम पुरुष के देहस्वरुप को धारण करती हैं और जो पराशक्ति ज्ञान तथा क्रियाशक्ति के रुप में प्रतिष्ठित हैं; आपकी उस माया से विमोहित शरीरधारी प्राणी भेदज्ञान के कारण सर्वान्तरात्मा के रुप में विराजमान आपको ही पुरुष कह देते है; अम्बिके ! उन आप महादेवी को नमस्कार है।

स्त्रीपुंस्त्वप्रमुखैरुपाधिनिचयैर्हीनं परं ब्रह्म यत्

त्वत्तो या प्रथमं बभूव जगतां सृष्टौ सिसृक्षा स्वयम् ।

सा शक्तिः परमाऽपि यच्च समभून्मूर्तिद्वयं शक्तित-

स्त्वन्मायामयमेव तेन हि परं ब्रह्मापि शक्त्यात्मकम् ॥ ४ ॥

स्त्री-पुरुषरुप प्रमुख उपाधि समूहों से रहित जो परब्रह्म है, उसमें जगत की सृष्टि के निमित्त सर्वप्रथम सृजन की जो इच्छा हुई, वह स्वयं आपकी ही शक्ति से हुई और वह पराशक्ति भी स्त्री-पुरुषरुप दो मूर्तियों मे आपकी शक्ति से ही विभक्त हुई है । इस कारण वह परब्रह्म भी मायामय शक्तिस्वरुप ही है ।

तोयोत्थं करकादिकं जलमयं दृष्ट्वा यथा निश्चय-

स्तोयत्वेन भवेद्ग्रहोऽप्यभिमतां तथ्यं तथैव ध्रुवम् ।

ब्रह्मोत्थं सकलं विलोक्य मनसा शक्त्यात्मकं ब्रह्म त-

च्छक्तित्वेन विनिश्चितः पुरुषधीः पारं परा ब्रह्मणि ॥ ५ ॥

जिस प्रकार जल से उत्पन्न ओले आदि को देखकर मान्यजनों को यह जल ही है -ऐसा ध्रुव निश्चय होता है, उसी प्रकार ब्रह्म से ही उत्पन्न इस समस्त जगत्को देखकर यह शक्त्यात्मक ब्रह्म ही है - ऐसा मन में विचार होता है और पुनः परात्पर परब्रह्म में जो पुरुषबुद्धि है, वह भी शक्तिस्वरुप ही है, ऐसा निश्चित होता है ।

षट्चक्रेषु लसन्ति ये तनुमतां ब्रह्मादयः षट्शिवा-

स्ते प्रेता भवदाश्रयाच्च परमेशत्वं समायान्ति हि ।

तस्मादीश्वरता शिवे नहि शिवे त्वय्येव विश्वाम्बिके

त्वं देवि त्रिदशैकवन्दितपदे दुर्गे प्रसीदस्व नः ॥ ६ ॥

जगदम्बिके ! देहधारियों के शरीर में स्थित षट्चक्रों मे ब्रह्मादि जो छः विभूतियॉं सुशोभित होती हैं, वे प्रलयान्त में आपके आश्रय से ही परमेशपद को प्राप्त होती हैं । इसलिये शिवे ! शिवादि देवों मे स्वयं की ईश्वरता नहीं है, अपितु वह तो आपमें ही है । देवि ! एकमात्र आपके चरणकमल ही देवताओं के द्वारा वन्दित हैं । दुर्गे ! आप हम पर प्रसन्न हों ।

॥ इति श्रीमहाभागवते महापुराणे वेदैः कृता दुर्गास्तुतिः सम्पूर्णा ॥

॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत वेदों द्वारा की गयी दुर्गास्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

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