दशावतार स्तोत्र
कवि जयदेव की कही हुई इस मनोहर, आनन्ददायक, कल्याणमय तत्त्वरूप दशावतार स्तोत्र स्तुति का पाठ करने से सभी कलङ्क मिटता है, क्लेश, ताप और पापों का नाश होता है ।
श्रीदशावतारस्तोत्रम्
दशावतारस्तवः जयदेवकृत
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं,
विहितवहित्रचरित्रमखेदम् ।
केशव धृतमीनशरीर,
जय जगदीश हरे ॥ १॥
हे मीनावतारधारी केशव ! हे
जगदीश्वर ! हे हरे ! प्रलयकाल में बढ़े हुए समुद्रजल में बिना क्लेश नौका चलाने की
लीला करते हुए आपने वेदों की रक्षा की थी, आपकी
जय हो॥१॥
क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे,
धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे ।
केशव धृतकच्छपरूप जय जगदीश हरे ॥ २॥
हे केशव ! पृथ्वी के धारण
करने के चिह्न से कठोर और अत्यन्त विशाल तुम्हारी पीठ पर पृथ्वी स्थित है,
ऐसे कच्छपरूपधारी जगत्पति आप हरि की जय हो॥२॥
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना,
शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना ।
केशव धृतसूकररूप,
जय जगदीश हरे ॥ ३॥
चन्द्रमा
में निमग्न हुई कलङ्करेखा के समान यह पृथ्वी आपके दाँत की नोक पर अटकी हुई सुशोभित
हो रही है, ऐसे सूकररूपधारी जगत्पति
हरि केशव की जय हो ॥ ३ ॥
तव करकमलवरे नखमद्भुतश्रृङ्गम्
,
दलित हिरण्यकशिपुतनुभृङ्गम् ।
केशव धृतनरहरिरूप,
जय जगदीश हरे ॥ ४॥
हिरण्यकशिपुरूपी तुच्छ भृङ्ग को चीर
डालनेवाले विचित्र नुकीले नख आपके करकमल में हैं, ऐसे नृसिंहरूपधारी जगत्पति हरि केशव की जय हो ॥ ४ ॥
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन,
पदनखनीरजनितजनपावन ।
केशव धृतवामनरूप,
जय जगदीश हरे ॥ ५॥
हे आश्चर्यमय वामनरूपधारी
केशव ! आपने पैर बढ़ाकर राजा बलि को छला तथा अपने चरण-नखों के जल से लोगों को
पवित्र किया, ऐसे आप जगत्पति हरि की जय हो ॥
५॥
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं,
स्नपयसि पयसि शमितभवतापम् ।
केशव धृतभृगुपतिरूप,
जय जगदीश हरे ॥ ६॥
हे केशव ! आप जगत्के ताप और पापों का
नाश करते हुए, उसे क्षत्रियों के रुधिररूप जल से
स्नान कराते हैं, ऐसे आप परशुरामरूपधारी
जगत्पति हरि की जय हो ॥६॥
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं,
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम् ।
केशव धृतरघुपतिवेष,
जय जगदीश हरे ॥ ७॥
जो युद्ध में सब दिशाओं में
लोकपालों को प्रसन्न करनेवाली, रावण के सिर की
सुन्दर बलि देते हैं, ऐसे श्रीरामावतारधारी आप
जगत्पति भगवान् केशव की जय हो ॥ ७॥
वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभं,
हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम् ।
केशव धृतहलधररूप,
जय जगदीश हरे ॥ ८॥
जो अपने गौर शरीर में हलके भय से
आकर मिली हुई यमुना और मेघ के सदृश नीलाम्बर धारण किये रहते हैं,
ऐसे आप बलरामरूपधारी जगत्पति भगवान् केशव की जय हो॥८॥
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं,
सदयहृदयदर्शितपशुघातम् ।
केशव धृतबुद्धशरीर,
जय जगदीश हरे ॥ ९॥
सदय हृदय से पशुहत्या की कठोरता दिखाते
हुए यज्ञविधान सम्बन्धी श्रुतियों की निन्दा करनेवाले आप बुद्धरूपधारी
जगत्पति भगवान् केशव की जय हो ॥९॥
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं,
धूमकेतुमिव किमपि करालम् ।
केशव धृतकल्किशरीर,
जय जगदीश हरे ॥ १०॥
जो म्लेच्छसमूह का नाश करनेके लिये
धूमकेतु के समान अत्यन्त भयंकर तलवार चलाते हैं, ऐसे कल्किरूपधारी आप जगत्पति भगवान् केशव की जय हो ॥१०॥
श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारं,
शृणु सुखदं शुभदं भवसारम् ।
केशव धृतदशविधरूप,
जय जगदीश हरे ॥ ११॥
[हे भक्तो !] इस जयदेव कवि की कही
हुई मनोहर, आनन्ददायक, कल्याणमय
तत्त्वरूप स्तुति को सुनो, हे दशावतारधारी ! जगत्पति,
हरि केशव ! आपकी जय हो ॥११॥
इति श्रीजयदेवविरचितं श्रीदशावतारस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
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