भगवच्छरण स्तोत्र
जो मनुष्य विनीत भाव से इस भगवच्छरण
नामक स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे संसार की आसक्ति त्याग कर परमशान्ति और
परमात्मा की साक्षात् भक्ति प्राप्त करते हैं ।
श्रीभगवच्छरणस्तोत्रम्
सच्चिदानन्दरूपाय भक्तानुग्रहकारिणे
।
मायानिर्मितविश्वाय महेशाय नमो नमः
॥१॥
भक्तों पर दया करनेवाले और माया
से संसार की रचना करानेवाले सच्चिदानन्दरूप महेश्वर को बारम्बार नमस्कार
है॥१॥
रोगा हरन्ति सततं प्रबलाः शरीरम् ।
कामादयोऽप्यनुदिनं प्रदहन्ति
चित्तम् ।
मृत्युश्च नृत्यति सदा कलयन्
दिनानि तस्मात्त्वमद्य शरणं मम
दीनबन्धो ॥२॥
हे भगवन् ! इस संसार में प्रबल रोग
सर्वदा शरीर को क्षीण करते रहते हैं, काम
आदि भी प्रतिदिन हृदय को जलाते रहते हैं और मृत्यु भी दिनों को गिनती हुई पास ही
नृत्य करती रहती है। इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥२॥
देहो विनश्यति सदा परिणामशील-
श्चित्तं च खिद्यति सदा विषयानुरागि
।
बुद्धिः सदा हि रमते विषयेषु नान्तः
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥३॥
सदा ही परिवर्तनशील यह शरीर नष्ट
होता जा रहा है और विषयों में आसक्त रहनेवाला चित्त सदा ही खिन्न रहा करता है।
मेरी बुद्धि भी सदा विषयों में ही रमती है, अन्तरात्मा
में नहीं। इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरी आप ही शरण हैं ॥ ३॥
आयुर्विनश्यति यथामघटस्थतोयम्
विद्युत्प्रभेव चपला बत यौवनश्रीः ।
वृद्धा प्रधावति यथा मृगराजपत्नी
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥४॥
कष्ट की बात है कि कच्चे घड़े में
रखे हए जल की तरह आय का नाश हो रहा है, यौवन
की शोभा बिजली की चमक-सी क्षणभङ्गुर है और वृद्धावस्था सिंहनी का भाँति (खाने के
लिये) दौड़ी चली आ रही है, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे
लिये आप ही शरण हैं ॥४॥
आयाद्व्ययो मम भवत्यधिकोऽविनीते
कामादयो हि बलिनो निबलाः
शमाद्याः ।
मृत्युर्यदा तुदति मां बत किं
वदेयम्
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥५॥
हे भगवन् ! मेरे पास आय से व्यय ही
अधिक है,
क्योंकि मुझ अविनीत पर कामादि ही बली होते हैं [ उन्हीं का मुझ पर
प्रभाव है ] और शम आदि निर्बल रहते हैं [ इनका मुझ पर वश नहीं चलता] | खेद है कि जब मुझे मृत्यु पीड़ित करेगी, उस समय मैं
क्या कह सकूँगा? इसलिये हे दीनबन्धो! अब मेरे लिये आप ही शरण
हैं॥५॥
तप्तं तपो नहि कदापि मयेह तन्वा
वाण्या तथा नहि कदापि तपश्च तप्तम्
।
मिथ्याभिभाषणपरेण न मानसं हि
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥६॥
हे भगवन् ! मैंने इस जीवन में कभी
शरीर से तप नहीं किया, सदा असत्य भाषण में
लगे रहकर कभी वाणी से भी तप नहीं किया और मानस तप तो कभी किया ही नहीं, अतः हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥६॥
स्तब्धं मनो मम सदा नहि याति
सौम्यम्
चक्षुश्च मे न तव पश्यति विश्वरूपम्
।
वाचा तथैव न वदेन्मम सौम्यवाणीम्
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥७॥
हे भगवन् ! मेरा मन सदा ही
स्तब्ध-जडवत् ज्ञानशून्य रहा है, इस कारण सौम्य
(विशुद्ध एवं विनम्र) नहीं हो रहा है और मेरी आँखें आपके विश्वरूप का दर्शन नहीं
कर पातीं, *अर्थात् 'जगत्' रूप में भगवान् ही विराजमान हैं, ऐसी प्रतीति इन आँखों को नहीं हो रही है। इसी
प्रकार मेरी जिह्वा भी कोमल वाणी नहीं बोलती। अतः हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप
ही शरण हैं ॥ ७॥
सत्वं न मे मनसि याति रजस्तमोभ्याम्
विद्धे तथा कथमहो शुभकर्मवार्ता ।
साक्षात् परंपरतया सुखसाधनम्
तत् तस्मात्त्वमद्य शरणं मम
दीनबन्धो ॥८॥
रजोगुण और तमोगुण से विद्ध हुए मेरे
हृदय में सत्त्वगुण नहीं आने पाता। अहो ! ऐसी स्थिति में शुभ कर्मों का करना तो
दूर रहा उनकी बात भी कैसे की जा सकती है और साक्षात् अथवा परम्परा से वह (शुभ कर्म)
ही सुख का साधन है, [ सो मुझमें नहीं
है ] इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ।। ८॥
पूजाकृता नहि कदापि मया त्वदीया
मन्त्रं त्वदीयमपि मे न जपेद्रसज्ञा
।
चित्तं न मे स्मरति ते चरणौ
ह्यवाप्य तस्मात्त्वमद्य शरणं मम
दीनबन्धो ॥९॥
हे भगवन् ! मैंने कभी भी आपकी पूजा
नहीं की,
मेरी जिह्वा आपके मन्त्र को भी नहीं जपती और न मेरा चित्त आपके
चरणों को पाकर उनका चिन्तन ही करता है; इसलिये हे दीनबन्धो !
अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥ ९॥
यज्ञो न मेऽस्ति हुतिदानदयादियुक्तो
ज्ञानस्यसाधनगणो न विवेकमुख्यः ।
ज्ञानं क्व साधनगणेन विना क्व
मोक्षः
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१०॥
हे भगवन् ! मैंने हवन,
दान, दया आदि से युक्त यज्ञ नहीं किया और न
ज्ञान के साधनसमूह विवेक आदि को ही प्राप्त किया। साधनसमूह के बिना ज्ञान कैसे हो
सकता है? और बिना ज्ञान के मोक्ष कैसे हो सकता है? इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥ १०॥
सत्सङ्गतिर्हि विदिता तव भक्तिहेतुः
साप्यद्य नास्ति बत पण्डितमानिनो मे
।
तामन्तरेण नहि सा क्वच बोधवार्ता
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥११॥
हे भगवन् ! यह प्रसिद्ध है कि आपकी
भक्ति का कारण सत्सङ्ग है, पर खेद है कि अपने को
पण्डित माननेवाले मुझमें वह (सत्सङ्ग) भी नहीं है। सत्सङ्ग के बिना भगवद्भक्ति
नहीं होती; फिर ज्ञान की तो बात ही कहाँ हो सकती है ?
इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥११ ।।
दृष्टिर्न भूतविषया समताभिधाना
वैषम्यमेव तदियं विषयीकरोति ।
शन्तिः कुतो मम भवेत् समता न
चेत्स्यात्
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१२॥
हे भगवन् ! मेरी दृष्टि प्राणियों में
समान नहीं रहती है, अपितु यह प्राणियों
में विषम भावना को ही अपनाती है। यदि मेरी दृष्टि में समता नहीं हुई तो मुझमें
शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? इसलिये हे दीनबन्धो ! अब
मेरे लिये आप ही शरण हैं।॥ १२॥
मैत्री समेषु न च मेऽस्ति कदापि नाथ
दीने न तथा न करुणा मुदिता च पुण्ये
।
पापेऽनुपेक्षणवतो मम मुद्कथं स्यात्
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१३॥
हे नाथ! अपने बराबरवालों में मेरी मित्रता
नहीं है और मैंने न तो कभी दीनों पर दया दिखायी और न कभी पुण्य के विषय में
प्रसन्नता ही प्रकट की। जब मैंने पाप में उपेक्षा नहीं दिखायी तो मुझे प्रसन्नता
कैसे मिले? इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे
लिये आप ही शरण हैं॥ १३ ॥
नेत्रादिकं मम बहिर्विषयेषु सक्तम्
नान्तर्मुखं भवति तानविहाय तस्य ।
क्वान्तर्मुखत्वमपहाय सुखस्य वार्ता
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१४॥
हे भगवन् ! मेरी नेत्रादि
इन्द्रियाँ बाह्य-विषयों में ही आसक्त हैं, इनकी
वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं होती, भला विषयों को त्यागे बिना ही
इन्द्रियों में अन्तर्मुखता कहाँ से होगी? और इन्द्रियों के
अन्तर्मुख हुए बिना सुख की वार्ता कहाँ ? इसलिये हे दीनबन्धो
! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥ १४ ॥
त्यक्तं गृहाद्यपि मया
भवतापशान्त्यै
नासीदसौ हृतहृदो मम मायया ते ।
सा चाधुना किमु विधास्यति नेति
जाने तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१५॥
हे भगवन् ! मैंने सांसारिक दुःखों की
शान्ति के लिये स्त्री-गृह आदि सबका परित्याग कर दिया,
किन्तु आपकी माया ने मेरे मन को हर लिया, इससे दुःखों की शान्ति नहीं हुई। अब समझ में नहीं आता इस समय आपकी माया और
क्या-क्या करेगी? इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही
शरण हैं ॥१५॥
प्राप्ता धनं गृहकुटुम्बगजाश्वदारा
राज्यं यदैहिकमथेन्द्रपुरश्च नाथ ।
सर्वं विनश्वरमिदं न फलाय कस्मै
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१६॥
हे प्रभो ! प्राप्त हुए धन,
गृह, परिवार, हाथी एवं
घोड़े, स्त्री आदि तथा इस पृथ्वी अथवा इन्द्रपुरी का
राज्य-ये सब वस्तुएँ नश्वर हैं, किसी भी अच्छे फल को
देनेवाली नहीं हैं। इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥ १६॥
प्राणान्निरुद्ध्य विधिना न कृतो हि
योगो
योगं विनास्ति मनसः स्थिरता कुतो मे
।
तां वै विना मम न चेतसि शान्तिवार्ता
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१७॥
हे भगवन् ! मैंने प्राणायाम के
द्वारा योग (ध्यान) नहीं किया; बिना योग के
मेरा मन स्थिर कैसे हो सकता है और स्थिरता के बिना चित्त में शान्ति कथन मात्र के
लिये भी नहीं हो सकती, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये
आप ही शरण हैं ।। १७ ॥
ज्ञानं यथा मम भवेत् कृपया गुरूणाम्
सेवां तथा न विधिनाकरवं हि तेषाम् ।
सेवापि साधनतयाविदितास्ति चित्ते
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१८॥
हे भगवन् ! मैंने गुरुजनों की ऐसी
सेवा भी कभी नहीं की, जिससे उनकी कृपा
प्राप्त होकर उसके द्वारा मुझमें यथावत् ज्ञान होता, गुरुजनों
की सेवा भी ज्ञान का साधन है ऐसा मैंने कभी मन में जाना ही नहीं, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥१८॥
तीर्थादि सेवनमहो विधिना हि नाथ
नाकारि येन मनसो मम शोधनं स्यात् ।
शुद्धिं विना न मनसोऽवगमापवर्गौ
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥१९॥
हे नाथ ! यह दु:ख की बात है कि
मैंने विधि से तीर्थ आदि का सेवन नहीं किया. जिससे मेरे मन की शुद्धि हो,
मन की शुद्धि के बिना ज्ञान और मोक्ष नहीं होते; इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥ १९ ॥
वेदान्तशीलनमपि प्रमितिं करोति
ब्रह्मात्मनः प्रमिति साधन संयुतस्य
।
नैवास्ति साधन लवो मयि नाथ तस्याः
तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो
॥२०॥
हे प्रभो ! आत्मा ही ब्रह्म
है,
इसके यथार्थ ज्ञान के साधन में लगे हुए पुरुष को वेदान्त
ब्रह्मतत्त्व का यथावत् ज्ञान करा देता है, परन्तु मुझमें तो
उस सत्य ज्ञान के साधन का अंशमात्र भी नहीं है, इस कारण हे
दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ॥२०॥
गोविन्द शंकर हरे गिरिजेश मेश
शंभो जनार्दन गिरीश मुकुन्द साम्ब ।
नान्या गतिर्मम कथञ्चन वां
विहाय तस्मात् प्रभो मम गतिः कृपया
विधेया ॥२१॥
हे गोविन्द ! हे शङ्कर ! हे हरे !
हे गिरिजापते ! हे लक्ष्मीपते ! हे शम्भो ! हे जनार्दन ! हे पार्वती-माता के सहित
गिरीश ! हे मुकुन्द ! मेरे लिये आप दोनों (इष्टदेवों) के अतिरिक्त किसी प्रकार कोई
भी दूसरा सहारा नहीं है, इसलिये हे प्रभो !
कृपा करके मुझे सद्गति प्रदान कीजिये ॥ २१ ॥
एवं स्तवं भगवदाश्रयणाभिधानम्
ये मानवा प्रतिदिनं प्रणताः पठन्ति
।
ते मानवाः भवरतिं परिभूय शान्तिम्
गच्छन्ति किं च परमात्मनि
भक्तिमद्धा ॥२२॥
जो मनुष्य विनीतभाव से इस भगवच्छरण
नामक स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करेंगे वे संसार की आसक्ति त्याग कर परमशान्ति और
परमात्मा की साक्षात् भक्ति प्राप्त करेंगे ॥२२॥
इति श्रीब्रह्मानन्दविरचितं भगवच्छरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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