कंकालमालिनीतन्त्र तृतीय पटल

कंकालमालिनीतन्त्र तृतीय पटल 

कंकालमालिनीतन्त्र तृतीय पटल गुरु अर्चना से सम्बद्ध है। इसमें अमित फलप्रदायक गुरु-कवच गुरु तथा गीता का भी समावेश है । गुरुतत्त्व की महनीयता से यह पटल ओतप्रोत है।

कंकालमालिनीतन्त्र तृतीय पटल

कङ्कालमालिनी तंत्र पटल ३     

कङ्कालमालिनी तंत्र तृतीयः पटलः

कंकालमालिनीतन्त्र तीसरा पटल 

श्री देव्युवाच

इदानीं श्रोतुमिच्छामि गुरुपूजनमुत्तमम् ॥१॥

श्री देवी कहती है-अब मैं उत्तम गुरु पूजन की विधि सुनना चाहती हूँ॥१॥

श्री ईश्वर उवाच

कथयामि महादेवी अप्रकाश्यं वरानने ।

निर्गुणञ्च परब्रह्म गुरुरित्यक्षरद्वयम् ॥२॥

महामंत्र महेशानी गोपनीयं परात्परम ।

तत्र ध्यानं प्रवक्ष्यामि शृणु पार्वति सादरम् ॥३॥

सहस्त्रदलपद्मस्थमन्तरात्मानमुज्वलम् ।।

तस्योपरि नादविन्दोर्मध्ये सिंहासनोज्वले ॥४॥

चिन्तयेन्निजगुरुं निन्य रजताचलसन्निभम् ।

वीरासनसमासीनं मुद्राभरणभूषितम् ॥५॥

श्री महादेव कहते हैं- हे वरानने ! इस अप्रकाश्य विद्या को कहता हूँ । गुरु रूपी अक्षरद्वय को निर्गुग परब्रह्मस्वरूप कहा जाता है।

हे महेशानी ! यह महामंत्र सर्वापेक्षा श्रेष्ठ है। इसे गुप्त रखना चाहिये। । हे पार्वती ! पहले ध्यान प्रक्रिया कहता हूँ। एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो।

सहस्त्रदल पद्य के मध्य में ज्योति स्वरूप अन्तरात्मा विद्यमान है। उसके ऊपर नाद एवं विन्दु मध्य में उज्वल सिंहासन पर श्रीगुरु विराजमान है।

रजताचल के समान शुभ्र निज गुरु का नित्य ध्यान करना चाहिये । वहाँ गुरुदेव वीरासन में आसीन है और मुद्राभरणादि से विभूषित है ॥२-५।।

शुभ्रमाल्याम्बरधरं वरदाभयपाणिनम् ।

वामोरुशक्तिसहितं कारुण्येनावलोकितम् ॥६॥

प्रियया सव्यहस्तेन धृतचारुकलेवरम् ॥७॥

वामेनोत्पलधारिण्या रक्ताभरणभूषया ।

ज्ञानानन्दसमायुक्तं स्मरेतन्नामपूर्वकम् ॥८॥

वे शुभ्र माला धारण करके स्थित हैं। उनका परिधान शुभ्र है। हाथों में वरद अभय मुद्रा है। वाम उरु पर शक्ति है। वे करुणा नेत्रों से अवलोकन कर रहे है।

रक्ताभरण भूषिता तथा हाथों में उत्पलधारिणी प्रिया के द्वारा दक्षिण हस्तों से उनका चारु कलेवर घृत है । वामहस्त में उत्पलधारिणी एवं रक्ताभरणभूषिता ज्ञानानन्दप्रदा शक्ति द्वारा वे समायुक्त है। ऐसे गुरु को उनके नाम के साथ स्मरण करे ॥६-८॥

मानसरुपचारश्च सम्पूज्य कल्पयेत् सुधीः ।।९।।

गन्धं भूम्यात्मकं दद्यात् भावपुष्पैस्ततः परम् ।

धूपं वाव्यात्मकं देवि तेजसा दीपमेव च ॥१०॥

नैवेद्यममृतं दद्यात् पानीयं परुणात्मकम् ।

अम्बरं मुकुट दद्याद् वस्त्रंञ्चैव मम प्रिये ॥११॥

चामर पादुकाच्छत्रं तथालङ्कारभूषणः ।

तत्तन्मद्राविधानेन सम्पूज्याथ गुरुं यजेत् ॥१२॥

यथाशक्ति जपं कृत्वा समयं कवचं पठेत् ॥१३॥

सुधी साधक मानसोपचार द्वारा मानसपूजा की कल्पना करे । पृथ्वी तत्व को गंधरूप में, वायु को धूप रूप में, अग्नि को दीप रूप में कल्पित करे । भावरूपी पूजन करे । अमृत को नैवेद्य रूप में, वरुण को पानीय रूप में, आकाश को मुकुट रूप में तथा आकाश को ही वस्त्र रूप में कल्पित करे। हे प्रिये ! इस प्रकार मानस पूजन करे । पादुका, चामर, छत्र तथा अलंकार प्रभृति की मुद्रा के द्वारा कल्पना करते हुये मानस पूजन करे। मानस पूजा के अनन्तर यथाशक्ति जप करके जप समर्पण करे । अन्त में गुरु कवच पढ़े ॥९-१३॥

कङ्कालमालिनी तंत्र तीसरा पटल के श्लोक १४-२७ में गुरु कवच वर्णित है।

इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- गुरु कवच

कङ्कालमालिनी तंत्र पटल ३ गुरु गीता     

कङ्कालमालिनी तंत्र तृतीयः पटलः

कंकालमालिनीतन्त्र तीसरा पटल 

श्री पार्वत्युवाच

लोकेन कथ्यतां देव ग रूगीता मयि प्रभो ॥२८॥

श्री पार्वती कहती है-हे देव ! हे प्रभो ! आप कृपया गुरुगीता का उपदेश करिये ॥२८॥

श्री शिव उवाच

शृणु तारिणि वक्ष्यामि गीतां ब्रह्ममयी पराम् ।

गुरुस्त्वं सर्वशास्त्राणा महमेव प्रकाशकः ।।२९।।

त्वमेव गुरुरूपेण लोकानां त्राणकारिणी ।

गया गंना काशिका च त्वमेव सकलं जगत् ॥३०॥

कावेरी यमना रेवा करतोया सरस्वती ।

चन्द्रभागा गौतमी च त्वमेव कुलपालिका ।।३१।।

श्री शिव कहते हैं-हे भामिनी ! सुनो। मैं तुमसे उत्कृष्ट ब्रह्ममयी गीता का वर्णन करता हूँ। तुम समस्त शास्त्रों की गुरु हो, किन्तु मैं उनका प्रकाशक हूँ। तुम ही गुरु रूप से समस्त जगत् का ऋण करते हो । गंगा, गया, काशी, कावेरी, नर्मदा, करतोया, सरस्वती, चन्द्रभागा, गौतमी रूप से तुम ही कुलपालिका भी हो ॥२९-३१॥

ब्रह्माण्डं सकलं देवी कोटिब्रह्माण्डमेव च ।

नहि ते वक्तुमर्हामि क्रियाजालं महेश्वरी ॥३२॥

उक्त्वा उक्त्वा भावयित्वा भिक्षुकोऽयं नगात्मजे ।

कथं त्वं जननी भूत्वा वधुस्त्वं मम देहिनाम् ॥३३॥

हे महेश्वरी ! हे देवी! समस्त ब्रह्माण्ड, यहाँ तक कि कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड में भी तुम्हारे क्रिया साधन का अन्त नहीं है, उन्हें कहा नहीं जा सकता।

हे नगात्मजे ! उन सब क्रिया समूह को कहते-कहते, उनकी भावना करते- करते, यह शिव भिक्षुक सा हो गया है । तुम तो समस्त प्राणियों की जननी हो । तुम कैसे मेरी पत्नी होकर विराजित हो ? ॥३२-३३॥

तव चक्र महेशानी अतीत: परमात्मनः ।

इति ते कथिता गीता गरूदेवस्य ब्रह्मणः । ३४॥

संक्षेपेण महेशानि प्रभुरेव गुरू: स्वयम् ।

जगत समस्तमस्थेयं गुरूग्थेयो हि केवलं ॥३॥

हे महेशानी ! तुम्हारा चक्र परमेश्वर के लिये भी ज्ञानातीत है । इस प्रकार से ब्रह्मस्वरूप गुरु गीता कही गयी है।

हे महेशानी ! संक्षेप में यह सारतत्व है कि गुरु स्वयं ही प्रभु है। यह समस्त जगत अस्थिर है । एकमात्र गुरु ही स्थिर है ॥३४-३५।।

तं तोषयित्वा देवेशी नतिभिः स्तुतिभिस्तथा ।

नानाविधद्रव्यदानः सिद्धिः स्यात् साधकोत्तमः ॥३६॥

हे देवेशी ! उस गुरु को प्रणति तथा स्तुति के द्वारा तथा नाना प्रकार के द्रव्यदान द्वारा संतुष्ट करना चाहिये । तभी साधकोत्तम सिद्धि प्राप्त कर लेते है ॥३६॥

॥ इति श्री दक्षिणाम्नाये कङ्कालमालिनीतन्त्रे तृतीयः पटलः ।।

॥श्री दक्षिणाम्नाय के कंकालमालिनीतंत्र का तृतीय पटल समाप्त ।।

आगे जारी............. कंकालमालिनीतंत्र पटल 4  

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