वज्रदन्ती कल्प

वज्रदन्ती कल्प

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्र में औषिधीयों के विषय में कहा गया है। काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् के इस भाग में वज्रदन्ती कल्प को कहा गया है।

वज्रदन्ती कल्प

वज्रदन्तीकल्पः

Vajradanti kalpa

काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्

अथ वज्रदन्तीकल्पः

दृष्टा सञ्चीविनी काचित् सतां भाग्यततिः क्षिती ।

आषाढकाले प्रथमे पुनर्जाता सपल्लवा ॥ १ ॥

पृथ्वी में जीवन प्रदान करने वाली सज्जनों की भाग्यपुंजस्वरूपा कोई ओषधि देखी गई है जो कि प्रथम आषाढ के समय में पल्लवयुक्त होती है ॥१॥

परीक्ष्य सम्यक् तच्चर्म निशि वक्त्रेण धारयेत् ।

एकविंशदिनैस्तस्य दन्ता नैव पतन्ति च ॥ २ ॥

अच्छी प्रकार पहचान कर उसका छिलका (चर्म) मुख में धारण करे । इक्कीस दिन तक इस प्रकार धारण करने से दाँत कभी नहीं गिरते ॥ २ ॥

तन्मूलसाधितं क्षीरं पिवेद्वीर्यविवर्धनम् ।

अर्धाशेन जटाक्षीरे क्षरति त्वरया पिवेत् ॥ ३ ॥

उसके मूल से सिद्ध दुग्ध पीने से वीर्य की वृद्धि होती है। अर्धांश जटा सृत दुग्ध का पान करने से शुक्रवृद्धि होती है, शीघ्रता से पान करे ।। ३ ॥

एकविंशदिनैर्मत्यों सर्वरोगाद्विमुच्यते ।

अदृश्यो मण्डलेनैव कामरूपी त्रिमासतः ॥ ४ ॥

इक्कीस दिन तक सेवन करने से मनुष्य सभी रोग से मुक्त होता है । तीन मास तक सेवन करने से मण्डल से इच्छानुसार रूप धारण करने वाला अदृश्य हो सकता है ॥ ४ ॥

शत्रुवाणगणो नश्येत् पण्मासात्पण्डितेन सः ।

अपण्डावयवो भूत्वा सेचनाद्वर्तते सदा ॥ ५ ॥

छह मास तक सेवन करने से शत्रु का बाणसमूह नष्ट होता है। सेचन करने से पुंस्त्वसम्पन्न अवयव से युक्त चिरकाल तक वर्त्तमान रहता है ॥ ५ ॥

मृतसञ्जीविनी भूत्वा तद्रसान्तश्च पारदम् ।

वज्रं निक्षिप्य मूषायां ध्माते वज्रमृतिप्रदम् ॥ ६ ॥

मृतसञ्जीवन करने वाली है, उसके रस में पारद मिश्रित कर, वज्र डालकर मूषा में आँच (धमन ) देने से वज्र मृत होता है ।। ६ ।।

वज्रदन्तोभवं वक्त्रे न्यसेद्यस्तु फलं पुमाम् ।

वेगस्तम्भो भवेत्तेन विघातश्चैव वह्निना ॥ ७ ॥

वज्रदन्ती का फल जो मनुष्य मुख में रखता है, उससे वेगस्तम्भ होता है ॥ ७ ॥

तन्मूलान्तरिताकारः पश्यत्यम्वरचारिणः ।

तिलपुष्परसः प्रस्थो धामार्गवरसोत्तरः ॥ ८ ॥

निशापुष्परसः प्रस्थस्त्रितयेन समन्वितम् ।

विपाचितं तु तेलं तदभ्यङ्गात् सप्तवासरैः ॥ ९ ॥

कमनीयं स्निग्धनीलं कुन्तलं जायते ध्रुवम् ।

अत्यन्तदीर्घमखिलनारी जनमनोहरम् ।। १० ।।

इसके मूल के ओट में अपने शरीर को छिपाकर आकाशचारी ( देव ) आदि को देखता है। तिलपुष्प का रस एक प्रस्थ, धामार्गव का रस एक प्रस्थ, निशापुष्प का रस एक प्रस्थ, इन तीनों रसों से पकाये तेल का सात दिन तक अभ्यंग करने से सुन्दर, चिक्कण नील, अत्यन्त लम्बा, सम्पूर्ण स्त्रियों के मन को वश में करने वाला (केश) निश्चित ही होता है ।। ८-१० ।।

इति काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् वज्रदन्तीकल्पः॥

आगे जारी पढ़ें ............ हस्तिकर्णीकल्प

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