नागदमनी कल्प
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्र में औषिधीयों के विषय में कहा गया है। काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्
के इस भाग में नागदमनी कल्प को कहा गया है।
नागदमनीकल्पः
Nag damani kalpa
काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्
अथ नागदमनीकल्पः
नागस्य दमनी नाम्ना विख्याता
भुवनत्रये ।
लक्षणं तस्य वक्ष्यामि भद्रे
गोत्रेशसुन्दरि ॥ १ ॥
नागदमनी नामक तीनों लोक में विख्यात
एक ओषधि है। हे प्रिय पर्वतनन्दिनी ! उसका लक्षण कहता हूँ ॥ १ ॥
कृष्णनाला भवेत् सा तु पत्रं
ताम्बूलसन्निभम् ।
पीतपुष्पा भवेदेवं
लक्षणैर्लक्षयेन्नरः ॥ २ ॥
उसका नाल कृष्ण वर्णं का,
पत्ता पान के पत्ता के समान और फूल पीत वर्ण का होता है, इन लक्षणों से उसे मनुष्य पहचान करे ।। २ ।।
नागानां दमनी यस्मान्नागदमनीति
विश्रुता ।
माङ्गल्यं च पवित्रं च श्रियं चापि
धृतिं स्मृतिम् ॥ ३ ॥
विद्यां कीर्ति च मेधां च
त्रैलोक्ये च श्रुतिस्मृतीः ।
उपबृंहयति क्षिप्रं
सहस्रायुर्भवेन्नरः ॥ ४ ॥
नागों (सर्पों) का दमन करती है अत
एव नागदमनी इस नाम से प्रसिद्ध है। यह तीनों लोक में मांगल्य,
पवित्र, श्री, धृति,
स्मृति, विद्या, कीर्ति,
मेघा और श्रुति स्मृति को शीघ्र ही बृंहण (बंधन) करती है और मनुष्य
सहस्र वर्ष तक दीर्घजीवी होता है ।। ३-४ ॥
दारिद्रथं नाशयेदाशु सौभाग्यं
कुरुते सदा ।
शान्तिदा पुष्टिदा चैव सर्वकर्मकरी
शुभा ॥ ५ ॥
शीघ्र ही दरिद्रता का नाश करती है,
सदा सौभाग्य करती है, शान्ति को देने वाली,
पुष्टि देने वाली, सभी कर्म को करने वाली और
शुभ है ॥ ५ ॥
रणे राजकुले द्यूते व्यवहारे
पराजिते ।
ओषधि श्रवणे कण्ठे हस्ते शिरसि
धारयेत् ॥ ६ ॥
रण में,
राजसमीप में, द्यूत में, व्यवहार में, पराजय में इस औषधि को कान, कण्ठ, हस्त और शिर पर धारण करे । ६ ॥
बाहुभ्यां मुद्रिके वापि कट्यां वा
धारयेच्छुभाम् ।
वशीकरोति सर्वोच रतिपुष्टिविवर्धनी
॥ ७ ॥
दोनों बाहुओं में,
मुद्रिका में, कान में, इस
शुभ ओषधि को धारण करे तो यह रति और पुष्टि की वर्धन करने वाली ओषधि सभी को वश में
करती है ॥ ७ ॥
मृत्यूनां विद्धि शमनो यत्र तिष्ठति
सा गृहे ।
नाग्निप्रवेशं तस्यैव जलधौ च महाहवे
॥ ८ ॥
व्याघ्रराक्षस सिंहेषु विवादे
शत्रुसङ्कटे ।
न भयं विद्यते तस्य यस्य कण्ठे
सदीश्वरी ॥ ९ ॥
जिस घर में ओषधि रहती है,
वहाँ उसे मृत्यु का शमन करने वाली समझें । अग्नि प्रवेश में,
समुद्र में, अत्युत्कट संग्राम में, व्याघ्र, राक्षस और सिंह के सम्मुख, विवाद में तथा शत्रु संकट होने पर जिसके कण्ठ में यह उत्कृष्ट ईश्वर
स्वरूप ओषधि रहती है उसे भय नहीं रहता है ।। ८-९ ।।
शङ्खचक्रासिवर्षेण नागपाशविमोक्षणे
।
शूलधारास्तवापीयं मोक्षयेदीश्वरी
धृता ॥ १० ॥
वर्ध - सीसवरत्रपोः - हैमः ।
वरना - चर्ममयरज्जुः ( अमरकोशः
शूद्रवर्गः ) ।
वरना - गजमध्यबन्धनम् ( अमरकोशः
क्षत्रियवर्गः ) ।
शंख, चक्र, असि और वर्ध्र ( बंधना, हाथी
बाँधने की रज्जुविशेष ) से नागपाश के छुड़ाने में, हे भगवति
! यह तुम्हारी ईश्वरस्वरूपिणी ओषधि ( नागदमनी ) धारण करने से
शूलधारा के समान मुक्त करती है ॥ १० ॥
ईश्वरी हरते क्षिप्रं विषं
स्थावरजङ्गमम् ।
विषाण्युपविषाण्येवं दृष्ट्वा
नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥ ११ ॥
ईश्वर स्वरूपिणी यह ओषधि स्थावर और
जंगम विष को शीघ्र ही नष्ट करती है, इसी
प्रकार अन्य विष उपविष भी इसके देखने मात्र से उसी समय नष्ट होते हैं ॥ ११ ॥
दोषं सा वाचिकं सार्प
मोचयेद्विषमुत्तमम् ।
अपची गण्डमालादिपिडकादित्रणेषु च ।।
१२ ।।
रोहिण्यां चैव न भयं यस्य कण्ठे
सदीश्वरी ।
एतान्यन्यानि ऋपयो ज्ञात्वाऽऽसन्
निर्भया विषात् ।। १३ ।।
बिच्छू का दोष तथा सर्प का विष वह
छुड़ा देती है। अपची, गण्डमाला आदि तथा
पिडिका आदि व्रणों में और रोहिणी में जिसके गले में यह शौभाग्य- वती औषध विद्यमान
रहती है उसको भय नहीं है, इसको तथा अन्य इसी प्रकार की औषधों
को जानकर ऋषि लोग विष से निर्भय थे ।। १२-१३ ।।
वातगुल्मोदरं हत्वा हृद्रोगं च
विनाशयेत् ।
भक्षयेद्वर्षमेकं च घृतेन मधुना सह
॥ १४ ॥
वातगुल्म नामक उदररोग को नष्ट करके,
हृद्रोग का भी नाश करती है। घृत और मधु के साथ एक वर्ष पर्यन्त सेवन
करे ।। १४ ।।
सर्वरोगविनिर्मुक्तो बलोपलितवर्जितः
।
जीवेद्वर्षसहस्रं तु महातेजा महाबलः
।। १५ ।।
सभी रोग से निर्मुक्त,
वली और पलित से रहित अतितेज सम्पन्न और महाबलशाली सहस्र वर्ष
पर्यन्त जीवित रहे।।१५।।
पञ्चवर्षप्रयोगेण लक्षायुर्जायते नरः
।
नवनागवलो भूत्वा मृत्युमालेच्छया
जयेत् ॥ १६ ॥
पाँच वर्ष तक इसके प्रयोग से मनुष्य
लक्ष वर्ष की आयु वाला होता है। नूतन हाथी के बल के समान बल सम्पन्न होकर अपनी
इच्छा से मृत्यु को जीत सकता है ।। १६ ।।
सर्वव्याधिविनिर्मुक्तः
सर्वकर्मविवर्जितः ।
सभी व्याधि से विरहित और सभी कर्म
से मुक्त ( लक्ष वर्ष तक जीवित रहे )।
मधुना सह संयुक्तं लिङ्गे लेपं तु
कारयेत् ।। १७ ।।
अवश्यं सा भवेद्वश्या यावद्यौवनसंयुता
।
मधु के साथ मिलाकर लिंग पर लेप करे
तो अवश्य यौवन-सम्पन्न(नारी) वश में होती
है ।। १७ ।।
घृतेन सह संयुक्तं वन्ध्यात्वं
नश्यति ध्रुवम् ॥ १८ ॥
घृत के साथ मिलाकर ( योनि में लेप
करने से ) तत्क्षण वन्ध्याख विनष्ट होता है ॥ १८ ॥
नागश्चाभ्रकस्तौ च ग्राह्यं
गृह्णन्ति तत्क्षणात् ।
मर्दितो विधिवत्सूतः सर्वलोहान्
भिनत्ति च ॥ १९ ॥
ग्राह्य प्रमाण में नाग (सीस ),
अभ्रक और पारद का तत्क्षण ग्रहण करता है। विधिवत् इसके योग से
मर्दित पारद सभी लोहों का भेदन करता है ॥१९॥
नागवङ्गौ समौ कृत्वा तत्समं सूतकं
क्षिपेत् ।
शनैर्यावद् प्रसेयुस्ते नागिन्याः
स्वरसेन तु ॥ २० ॥
मर्दयेद्रसमध्ये तु तावद्
भ्रमरसंनिभम् ।
ततस्तत्पोडशांशं तु दीप्यं
काञ्चनवर्णकम् ॥ २१ ॥
पुनर्नवार सेनैव लवणेन तु दापयेत् ।
अथ तत् सप्तरात्रेण चाभ्रकं
ग्रासयेत् पुनः ॥ २२ ॥
नाग और बंग को समान प्रमाण में लाकर
उन दोनों के समान पारद डाले, शीघ्र ही जब
तक उसका ग्रास होता है, तभी रस के मध्य नादमनी के स्वरस से
जब तक भ्रमर के समान न हो जाये तब तक मर्दन करे । इसके बाद उसका सोलहवाँ भाग
चमकदार कांचन वर्ण को पुनर्नवा के रस से और लवण से छेदन करे। तब वह सात रात्रि में
अभ्रक का ग्रास करता है। २०-२२ ।।
शिरस्स्फोटिरसेनैवमपामार्ग रसेन च ।
निर्गुण्ड्याः स्वरसो ग्राह्यः
स्तुहीक्षीरं तथैव च ॥ २३ ॥
तक्रेण लवणं चैव यथेष्टं मर्दयेत्
पुनः ।
ईश्वरीरससंयुक्तमभ्रकं ग्रासयेत् पुनः
॥ २४ ॥
अथवा शिरस्स्फोटि के रस से और
अपामार्ग के रस से छेदन करे । निर्गुण्डी का रस ले तथा स्नुही का दूध ले और मट्ठा
से लवण का यथेष्ठ मर्दन करे; पुनः ईश्वरी
(नागदमनी) रस से युक्त अभ्रक का ग्रास होता है ।। २३-२४॥
ईश्वरी रहितं देवि न किञ्चित् कर्म
सिध्यति ।
न हि कान्ताभ्रकादीनि न च नागरसावपि
।। २५ ।।
रसतत्त्वं प्रयान्त्यत्र न च
सिद्ध्यन्ति साधकाः ।
हे देवि ! ईश्वरी (नागदमनी ) से
रहित कोई कर्म नहीं सिद्ध होता है। कान्त और अभ्रकादि तथा नाग और रस भी रसवत्ता को
नहीं प्राप्त होते तथा साधक भी सिद्ध नहीं होते हैं ।। २५ ।।
पारदः पड्वलो ग्राह्यश्चाभ्रकात्
पडवलं तथा ॥ २६ ॥
नागिन्याश्च रसो ग्राह्यो
ह्यजामूत्रेण मदयेत् ।
काथयेद्वह्निना प्राज्ञः खल्वे
पिंप्यादनन्तरम् ॥ २७ ॥
षड्गुण पारद का ग्रहण करे,
और अभ्रक से षड्गुण नागदमनी का स्वरस ग्रहण करे और अजामूल से मर्दन
करे । उसके बाद अग्नि से क्वाथ करे । फिर खल्व में पीसे ।। २६-२७ ।।
एवं कुर्यादहोरात्राद् गुटिकां तस्य
सुन्दरि ।
क्रमाद्भावनया ह्येतत् सर्वलोहांश्च
वेधयेत् ॥ २८ ॥
हे सुन्दरि ! इस प्रकार दिन-रात में
उसकी गुटिका (गोली) बनावे, क्रमशः इस प्रकार
भावना से यह सभी लोहों का वेध करता है ।। २८ ।।
एवं सञ्चारितं कृत्वा सताहाच्छ्रुतवेधिकः
।
सप्तसप्ताह केनापि लक्षवेधी
भवेन्नरः ।। २९ ।।
इस प्रकार संचारित करके एक सप्ताह
से श्रुतवेधी होता है और सात सप्ताह में मनुष्य लक्षवेधी होता है ।। २९ ।।
अष्टमेऽपि तु सप्ताहे स्पर्शवेधी
भवेन्नरः ।
नवमे सप्तके
प्राप्ते चोद्योतनकरो भवेत् ॥ ३० ॥
अष्टम सप्ताह में मनुष्य स्पर्शवेधी
होता है और नवम सप्ताह में उद्योतन करनेवाला होता है ।। ३० ।।
दशमे सप्तके प्राप्ते स महारस
उच्यते ।
महारसे तु सम्प्राते को न मुञ्चति
बन्धनात् ॥ ३१ ॥
दशम सप्ताह में वह महारस कहलाता है,
महारस हो जाने पर कौन बन्धन से मुक्त नहीं होता ॥ ३१ ॥
इति काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्
नागदमनीकल्पः॥
आगे जारी पढ़ें ............ वज्रवल्ली कल्प
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