शिवसूत्र
शिवसूत्र को वैदिक संस्कृत भाषा में
लिखा गया था । इसमें कुल ३ अध्याय और ७७ सूत्र हैं, जो काश्मीरी शैव दर्शन के आधार
हैं। यह सूत्र कुछ ऐसे सूत्रों का संकलन है जो हमें आध्यात्मिक ज्ञान की उस उंचाई
से अवगत कराती है, जो शायद भगवद्गीता
जैसे महाकाव्यों में ही मिलती है। इन सूत्रों में वर्णित योगतत्त्व अन्य सभी योग
संप्रदायों से विचित्र एवं सिद्धिदायक है।
शिव-सूत्रों को शैव दर्शन की भूमि
"कश्मीर" देश में होने से कश्मीर-सूत्र के नाम से भी जाना जाता है।
कश्मीर देश में 'शंकरोपल" नामक
शिलाखण्ड के आख्यान के आधार पर शिव-सूत्र के रचयिता आचार्य वसुगुप्त को श्रीशंकर
भगवान् ने उपदेश किया, वसुगुप्त से कल्लटाचार्य ने तथा कल्लट
से भास्कराचार्य ने इस गूढ़ दार्शनिक तत्त्व को ज्ञात किया था।
शिव सूत्र की रचना ऋषि वासुगुप्त ने
९वीं शताब्दी में कश्मीर के महादेव पर्वत के निकट की थी। कहा जाता है की किसी
सिद्ध पुरुष या स्वयं भगवान् शिव ने उनके स्वप्न में आकर ये सूत्र उनको बताये थे। कुछ
विद्वानों का ये भी मानना है की भगवान् शिव ने ऋषि वासुगुप्त को एक चट्टान के बारे
में बताया था जिस पर ये सभी सूत्र लिखे हुए थे। उस चट्टान का नाम शंकरोपला है,
जिसके दर्शन करने लोग आज भी जाते हैं। हालाँकि अब उस चट्टान पर वे
सूत्र नहीं दिखते। शिव सूत्र को माहेश्वर सूत्राणि के नाम से भी जाना जाता है।
सूत्र अक्सर छोटे होते हैं,
इसीलिये इन्हें सूत्र कहते हैं। किन्तु इन सूत्रों को केवल एक छोटा
वाक्य समझने की भूल मत करना, क्योंकि हर सूत्र बहुत गहरा है।
इनका शाब्दिक अर्थ चाहे छोटा लगे किन्तु भावार्थ बड़ा है। हर सूत्र का शब्दार्थ एक
हो सकता है, किन्तु हर ज्ञानी पुरुष अपनी बुद्धिमत्ता और भाव
के अनुसार अलग अलग भावार्थ तक पहुच सकता है। भावार्थ भाव से उत्त्पन्न होता है,
शब्दकोष से नहीं। एक शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं, लेकिन ये आपके भाव पर निर्भर करता है कि आप किस अर्थ को सही समझें। सूत्र
में आयतन कम होता है, और घनत्व अधिक। इसलिए एक सूत्र की
व्याख्या करने के लिए एक दिन भी कम पड़ सकता है। हर सूत्र एक बीज है, किसी को उसमें एक वृक्ष दिख सकता है और किसी को नहीं।
शिव-सूत्र
शिव-सूत्रों में शाम्भव,
शाक्त एवं आणव तीन प्रकरण हैं। शैव दर्शन का सम्पूर्ण रहस्य इन
तीनों प्रकरणों में लिपिबद्ध है इसलिए इन्हें "त्रिक दर्शन" भी कहा जाता
है। प्रथम शांभव प्रकरण में शिव रूप अलौकिक समाधि सुख योगियों द्वारा अनुभव किया
गया है, अतः योग की परावस्था इसमें वर्णित है।
शिवसूत्र प्रथम उन्मेष - शाम्भवोपायः
शिवसूत्रप्रतिपाद्यस्य
परमलक्ष्यस्याधारभूतं
चेतनस्वरूपं परमात्मतत्त्वं तदाह--
चैतन्यमिति ।
शिव-सूत्र से प्रतिपाद्य परमलक्ष्य
का आधारभूत चेतनस्वरूप जो परमात्मा है, उसे
पहले सूत्र से बताते हैं।
१. चैतन्यमात्मा
चेतयते इति चेतनस्तस्य
भावश्चैतन्यमात्मनः स्वरुम् ।
शरीर-प्राण-मन- इन्द्रियाणां संघातः,
पृथक् पृथग्वा आत्मा भवितुं नार्हति
प्रत्युत
यस्मिन्नतानि- प्रतिभान्ति स आत्मा
एतेभ्यः
परश्चेतनस्वरूपोऽस्ति ॥ १॥
यदि आत्मा चेतनस्तहि कथं बन्धकोटी
निक्षिप्त इत्यत आह-ज्ञानमिति
चैतन्य मात्र जो चेतना प्रदान करता
है उसे ही चेतन कहते हैं। चेतन का भाव चैतन्य है और वही आत्मा का स्वरूप है। शरीर,
प्राण, मन, इन्द्रियों
का समुदाय या प्रथक्-प्रथक् ये सब आत्मा नहीं हो सकते, अपितु
जिसमें इन सबका प्रतिभास होता है, अर्थात् जिसमें यह सब
भासते हैं, वही आत्मा है जो इन सब को प्रकाशित करता है तथा
इन सबसे परे चेतनस्वरूप है।
यदि आत्मा नित्य चेतनस्वरूप है तो
बन्ध कोटि में क्यों आया ? इसलिये कहते हैं-
२. ज्ञानं बन्ध:
मनसा इन्द्रियाणि संयुज्य यानि
वृत्तिरूपाणि
ज्ञानानि भावयन्ति जनयन्ति तान्यसी
चेतनः
अनुभवति तदेव ज्ञानं वन्यपदवाच्यं
भवति ।
केचिदकारप्रश्लेषेणा- ज्ञानमिति
कथयन्ति ॥ २॥
तस्य त्रैविध्यमाह —
योनिवर्ग इति ।
मन के साथ इन्द्रियों का संयोग होकर
जो वृत्तिरूप ज्ञान होते हैं उनको ये आत्मा अनुभव करता है। ये ज्ञान ही बन्ध पद से
कहा जाता है। कोई आत्मा शब्द के आगे अकार का प्रश्लेष निकाल कर के 'अज्ञान' को बन्ध कहते हैं।
यह बन्ध तीन प्रकार का है,
जिसे आगे के सूत्र से बताते हैं -
३. योनिवर्गः कला शरीरम्
एतेषु ज्ञानेषु निवृत्तेषु सत्सु
बन्धोऽपि निवर्तते ।
स त्रिविधः ।
योनिः मायीयमलमावरणात्मकमाणवमलमिति
निर्जेश्वयंनिरोधकं कथयन्ति
पञ्चभूत- विस्तारभोगप्रदातारः
संस्काराः कला,
पुण्यपापात्मकानि शरीराणि च ।
इमान्येव बन्धनानि ज्ञानमिति एषां
वर्गः
समुदायपदेनोच्यते ॥३॥
तस्य
ज्ञानस्याविष्ठानमाह-ज्ञानाधिष्ठानमिति ।
योनिवर्ग,
कला, शरीर-यह तीन मल हैं, इस ज्ञान समूह से निवृत होने पर बन्ध भी निवृत्त हो जाता है। यह बन्ध तीन
प्रकार का है। योनि अर्थात् मायीय मल, आवरणात्मक आणत्र मल,
जो निज स्वरूप को निरोध करता है। पञ्चभूत विस्तार भोग को देने वाले
संस्कार ही 'कला' कहे जाते हैं। यह
तीसरा पुण्य-पापात्मक मल है जिससे शरीर होते हैं। यही बन्धन हैं जिन्हें ज्ञान
कहते हैं। इनका समुदाय ही यहां वर्ग पद से कहा गया है।
४. ज्ञानाधिष्ठानं मातृका
एषां पूर्वोक्तानां त्रिविधानां
ज्ञानानामविष्ठानमाधारः
मातृका अकारमा- रभ्य क्षकारपर्यन्ता
शब्दमयीवर्णमाला
शब्दब्रह्मेत्युच्यते ।
उक्तं च "न सोऽस्ति प्रत्ययो
लोके यः शब्दानुगमादृते ।
अनुविद्धमिवज्ञानं सर्वं शब्देन
भासते ॥" ( वा० प० ) ।
अनयेवान्तरनुसन्धानराहित्येन
बहिर्मुखानि ज्ञानानि
जायन्ते स एव वन्धः ॥४॥
बन्धनिवृत्युपायमाह - उद्यम इति ।
ज्ञान का आधार वर्णमाला है।
"नसोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः
शब्दानुगमादृते ।
अनुविद्धमिवज्ञानं सर्व शब्देन
भासते ।।" (वाक्पदी) - इस लोक में ऐसा कुछ भी नहीं है जो शब्द से अनुगत न हो।
शब्द से बिद्ध यह सारा विश्व शब्द से ही प्रकाशित है। इसी के द्वारा
अन्तरानुसन्धान रहित जो बहिर्मुख ज्ञान है उसे ही बन्ध कहते हैं।
बन्ध के निवृत्ति का उपाय कहते हैं—
५. उद्यमो भैरव:
उक्तबन्धनिवृत्यर्थं पूर्णाहन्ताया
अहमेव
सर्वमितिरूपायाः समुच्यो विकल्प
सामस्त्यनाशकः
अन्तःस्पन्दरूपो भैरव इत्युच्यते
"भैरवोऽहम्
शिवोऽहम्” इति प्रथनात् ॥५॥
तत्फलमाह शक्तिचक्र इति ।
उद्यम अर्थात् प्रयत्न ही भैरव है।
उक्त बन्ध की निवृत्ति के लिये जो पूर्णाहंता भाव है,
अर्थात् 'मैं ही सर्वरूप हूं' ऐसा जिसका स्वरूप है। यही विकल्पों का नाशक तथा अन्तःस्पन्द रूप होने से
इसे भैरव कहते हैं। 'भैरवोऽहं शिवोऽहं ।
आगे इसके फल को कहते हैं-
६. शक्तिचक्रकसन्धाने विश्वसंहारः
उक्तविशेषणविशिष्टे भैरवे एका
महतीशक्तिभैरवी
तस्याः प्रसूतरूपानुसन्धानेन
स्वसंविद्राग्नी विश्वः
संहृतिमुपयाति ॥६॥
अनुभूतिदाढ़ माह जाग्रद् इति ।
उक्त विशेषण विशिष्ट भैरव में एक
महान् शक्ति भैरवी है। विस्तृत रूप के अनुसन्धान से स्वसंविद् रूप अग्नि में विश्व
का संहार,
अर्थात् लय हो जाता है ।
अनुभूति की दृढ़ता पर कहते हैं-
७. जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिभेदे
तुर्याभोगसम्भवः
तस्य योगिन ईदृशी अनुभूतिर्जाति
तस्य जाग्रति स्वप्ने सुषुप्तौ तथा
आसामवस्थानां
भेदेऽपि तुर्याभोगः अर्थात्
पराऽऽनन्दानुभूतिः
सज्जायते भेदेऽपि अभेदप्रत्ययो
निराबाधः
प्रवर्तते इत्यर्थः ॥७॥
जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति के भेद
होने पर भी तुर्याभोग, यानी परमान्द की
अनुभूति होती है। भेद में भी अभेद ज्ञान नित्य या निरन्तर ही रहता है या वर्तता
है।
८. ज्ञानं जाग्रत्
इन्द्रिय-विषय- सन्निकर्षोद्भूतं
ज्ञानं जाग्रदित्युच्यते ॥ ८ ॥
इन्द्रिय और विषय के संयोग से होने
वाले ज्ञान को जाग्रत् कहते हैं।
९. स्वप्नो विकल्पः
मनोमात्रजन्यासाघारणार्थविषयविकल्पः
स्वप्नः ।
स्वात्मनि स्वेनैव विकल्पनं स्वप्नोति
॥९॥
मन मात्र से उत्पन्न होने वाले
असाधारण विषय-विकल्प ही स्वप्न हैं, अर्थात्
अपनी आत्मा में अपने आप से ही उत्पन्न विकल्प स्वप्न हैं।
१०. अविवेको माया सौषुप्तम्
स्वात्मानं विस्मृत्य यः अविवेकोदयो
मायात्मकः साऽवस्था सुषुप्तिः ।
अविवेकः विवेचनाभावः - अज्ञानम्
एतदेव मायामयं सौषुप्तम्
इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥
जिसमें अपना ही बोध न हो ऐसा
मायात्मक अविवेक, अर्थात मोह ही
सुषुप्ति है। विवेचना का अभाव ही अविवेक है।
११. त्रितयभोक्ता वीरेश:
एषु त्रिषु
यत्तुरीयानन्दमभेदात्मकम् आस्वादयति स वीरेशः ।
यतो वीराणामपि भेदबन्धने
प्रक्षेत्री सा शक्तिर्वाह्याभ्यन्तरे
प्रसरणशीलानामिन्द्रियाणाञ्च स
अधीश्वरः ।
उक्तञ्च श्रीगौड़पादै :-
त्रिषुधामसु यभोग्यं भोक्ता यश्च
प्रकीर्तितः ।
विद्यात्तदुभयं वस्तु सम्भुञ्जानो न
लिप्यते । इति ॥११॥
इन तीनों अवस्थाओं में जो अभेदात्मक
तुरीयानन्द का आस्वादन करता है वही 'वीरेश'
है। भेद-बन्धन में डालने वाली जो बाह्य और अन्तरप्रसरण करने वाली
इन्द्रियां हैं उनका वह वीर अधीश्वर होता है। श्री गौड़पाद में कहा है कि 'जाग्रदादि तीनों धामों में जो भोग्य है तथा जो इनका भोक्ता है, इन को जानने वाला इनको भोगता हुआ भी लिप्त नहीं होता है ।'
१२. विस्मयो योगभूमिका
आनन्दं प्राप्य मनुष्यो यथा
विस्मयते तथा निरन्तरं
योगिनोऽपि अद्भुत
परमानन्दस्यानुभूतिः सञ्जायते ।
इयं योगभूमिः ।
सम्यगात्मनि युञ्जन् एव सम्पद्यते ।
अलौकिकोऽयं विषयः परतत्त्वक्याध्या
रोहविश्रान्तिरूपः ॥१२ ॥
योगभूमि आश्चर्य रूप है। आनन्द
प्राप्त करके जैसे मनुष्य विस्मय अथवा एक विलक्षण अवस्था को प्राप्त होता है,
इसी प्रकार की योगियों को निरन्तर परमानन्द की अनुभूति होती है। यह
योगभूमि आत्मा से सम्यक योग प्राप्त करने पर प्राप्त होती है। परतत्व में एकाकार
रूप आरोह से विश्रान्ति रूप यह अलौकिक विषय है।
१३. इच्छाशक्तिरुमा कुमारी
उक्तपूर्णावस्थां प्राप्तस्य योगिनः
इच्छाशक्तिः
परंव पारमेश्वरी
स्वातन्त्र्यरूपाविश्वसर्गसंहारपरा
उमा कुमारीति उच्यते –
"कु'
मारयतीति कुमारी" अज्ञाननिर्वातिकेतियावत् ॥१३॥
उपरोक्त पूर्णावस्था प्राप्त योगी
की इच्छाशक्ति परा परमेश्वरी विश्व की सृष्टि, स्थिति
तथा संहार करने वाली उमा कुमारी कही जाती है। 'कु' अर्थात् अज्ञान को मारने वाली होने से उसे कुमारी कहते हैं, क्योंकि उसका स्वरूप अज्ञान निवर्तक है।
१४. दृष्य शरीरम्
तद्युक्तस्य योगिनो निखिलं
प्रपञ्चजातं दृश्यं शरीरं भवति ।। १४ ।।
इस इच्छाशक्ति से युक्त हो जाने पर
योगी का निखिल प्रपंच युक्त दीखने वाला शरीर बन जाता है।
१५. हृदये चित्तसङ्घट्टाद्दृश्य
स्वापदर्शनम्
विश्वस्य महृदायतनं तस्य योगिनो
हृदयं भवति ।
चित्तसङ्घट्टनेन नाना
दृश्याविर्भावः स्वप्नवत् प्रतीयते ॥ १५ ॥
इससे विश्व का महान् आयतन उसका हृदय
बन जाता है तथा इसमें चित्त के सङ्घट्टन (संयोग) से जो नाना दृश्य होते हैं,
वह उसे स्वप्नवत् दीखते हैं ।
१६. शुद्धतत्त्वानुसन्धानाद्वा
अपशुशक्तिः
अस्मिन् प्रपञ्चे शुद्धतत्त्वस्य
शिवस्यानुसन्धानाद्
भावनाकरणाद् अपशुशक्तिः पशुत्व
निवृत्तिः ।
जगत्पतिः सदाशिवो भवति ।
"शुद्धतस्यानुसन्धानाद्”
इत्येव केषाञ्चिन्मते पाठः ॥ १६॥
इसी प्रकार प्रपञ्च में शुद्ध तत्व
की,
अर्थात् शिवात्मक भावना करने से भी बन्धनात्मक पशुशक्ति नष्ट हो
जाती है, तथा योगी सदाशिव के समान जगत्पति बन जाता है ।
१७. वितर्क आत्मज्ञानम्
अहं विश्वात्मा शिवोऽहमिति मन्यमानो
योगी आत्मज्ञानवान् भवति ।
अहं विश्वात्मेति वितर्क उच्यते
चिन्तनमिति च व्यपदिश्यते ॥१७॥
'मैं विश्वात्मा शिव ही हूं'
ऐसा मानने वाला योगी आत्मज्ञानवान् होता है 'मैं
विश्वात्मा हूँ' इसी का नाम वितर्क है।
१८. लोकानन्दः समाधिसुखम्
अहमेव द्रष्टा,
दृश्यं दर्शनञ्चास्मि,
अहमेवेदं सर्वमित्यनुभवन् लोकानन्दे
निमज्जति समाधिसुखं प्राप्नोति ॥१८॥
इस प्रकार योगी अपने को ही दृष्य,
दर्शन और द्रष्टा रूप में देखता है।'मैं ही
सर्व रूप हूँ' इस प्रकार से लोकानन्द में ही समाधि सुख को प्राप्त
होता है। ग्राह्य और ग्राहक की संवित्ति तो सामान्यतः सभी प्राणियों को होती है। परन्तु
योगी इस सम्बन्ध में सावधानतापूर्वक आत्मभाव रखता है।
१९. शक्तिसन्धाने शरीरोत्पत्तिः
उमा कुमारीति या शक्तिः पूर्वोक्ता
तदनुसन्धानेन
तन्मयत्वं यदा गच्छति
योगी तथा तथा स्वेच्छया
शरीरमुत्पादयति ॥ १९ ॥
उपरोक्त उमा कुमारी इच्छाशक्ति के
अनुसन्धान से योगी की भावना तन्मयी हो जाती है तो वह उसके द्वारा अपनी इच्छानुसार
शरीर धारण कर सकता है।
२०. भूतसन्धानभूतपृथक्त्वभूत
संङ्घट्टाः
एवंभूतो योगी अनुसन्धानेन
पञ्चभूतेष्वात्मभावं गच्छति
येन भूतान्यावरणरहितानि भवन्ति ।
भूतपृथक्त्वेन नानाव्याधीन्
क्लेशांश्च शमयति
विश्वसङ्घट्टनेन यौगिकसामर्थ्येन
नूतनं विश्वं निर्माति ॥२०॥
ऐसा योगी भूत-सन्धान,
अर्थात् पञ्चभूतों में आत्मभाव कर लेता है जिससे यह उसके आवरण रूप
नहीं रहते। भूतों के प्रथकत्व से नानाप्रकार की व्याधियों और क्लेशों को क्षण भर
में शान्त करता हुआ योगी नवीन विश्व का निर्माण कर सकता है।
२१. शुद्धविद्योदयाच्चक्रे
शत्वसिद्धि:
परिमित सिद्धि विहाय योगी परां
सिद्धिमिच्छति
तदा अखिलं विश्वमहमेव इत्याकारा
बुद्धिः शुद्धा निर्मला विद्या
उदेति ।
तया चक्रवेशत्वसिद्धिः ।
महैश्वर्य प्राप्नोति ।
"ईश्वरो बहिरुन्मेषो
निमेषोऽन्तः सदाशिवः।
सामानाधिकरण्यञ्च सद्विद्याहमिदं
धियोः " ॥ इति ॥
इयमेव शुद्धविद्या ॥ २१ ॥
जब परिमित सिद्धि की इच्छा को त्याग
कर योगी विश्वात्मक रूप 'परा मैं सिद्धि'
की इच्छा करता है तो 'अखिल विश्व में ही हूँ'
इस प्रकार की निर्मला विद्या उदय होकर उसे चक्रेश्वरत्व की प्राप्ति
होती है। 'ईश्वरो बहिरुन्मेषो निमेषोऽन्तः सदाशिवः' अर्थात् 'यह सब मैं ही हूँ' इस
प्रकार की बुद्धि ही सद्विद्या है ।
२२. महादानुसन्धानान्मन्त्रवीर्यानुभवः
महायोगी विश्वात्मिकामवस्थामुत्तीयं
स्वात्मन्येव
रमते तदा देशकालादिभ्योऽपरिच्छिन्नो
जगद्व्यापी यो महाहृदः
स्वच्छत्वादावरण रहित्वाद्
गम्भीरत्वाच्च महाह्रद
इति संज्ञा तदनुसन्धानेन
पूर्णाहन्ताया वीर्यमनुभवति ॥ २२ ॥
जब योगी इस विश्वात्मक अवस्था से
उत्तीर्ण होकर स्वात्माराम हो जाता है तब देश-कालादि से अपरिचित जगद्व्यापी महाहद
के अनुसन्धान से पूर्णा- हन्ता रूप मन्त्र वीर्य का उसे अनुभव होता है। स्वच्छ
आवरण रहित महा- गम्भीर ही महाहृद् है, उसे
अनुसन्धान से पूर्णाहन्ता रूप वीर्य की अनुभूति होती है।
इति शाम्भवोपायः नाम प्रथमोन्मेषः शिवसूत्र
समाप्तः॥
आगे जारी...... शिवसूत्र द्वितीय उन्मेष - शाक्तोपायः
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