सहजविद्योदय स्पन्द कारिका
स्पन्द कारिका के प्रथम प्रकरण में स्वरूपस्पन्द दिया गया अब द्वितीय प्रकरण में सहजविद्योदय वर्णित है।
सहजविद्योदय स्पन्दकारिका
Sahaj vidyoday Spanda karika
अथ सहजविद्योदयास्य
द्वितीयनिष्यन्दः ॥
विद्या या शक्ति का मार्ग
श्लोक - तदाक्रम्यबलं मन्त्राः
सर्वज्ञबलशालिनः ।
प्रवर्तन्ते ऽधिकाराय करणानीव
देहिनः ॥२६॥
अर्थ --- उसके (मन्त्र) बल से वह
निरावरण चिद्रूप में प्रतिष्ठित होकर मनन रूप सर्वज्ञादि बल से युक्त प्रशंसित
होने पर अनुग्रहादि व्यवहार करता है, अर्थात्
अनुग्रह-शापादि उसके अधिकार में होते हैं। जैसे उसका अधिकार अपनी इन्द्रियों पर
होता है उसी प्रकार वह शाप और अनुग्रह में समर्थ होता है ॥२६॥
साध्य का स्वरूप
श्लोक - तत्रैव सम्प्रलीयन्ते
शान्तरूपा निरञ्जनाः ।
सहसाधक चित्तेन तेनैते शिव धर्मिणाः
॥२७॥
अर्थ-तब वह स्व-स्वभाव व्योम में
निवृत्त रूप स्थित होकर उस शान्त निरञ्जन रूप में लीन हो जाता है,
अर्थात् अपने साधक चित्त से माया के मोह से मुक्त होकर या अस्त होकर
शिवधर्मा उसका स्वरूप हो जाता है ॥२७॥
जीव का स्वरूप
श्लोक - यस्मात्सर्वमयोजीवः सर्वभाव
समुद्भवः ।
तत्संवेदन रूपेण तादात्म्य
प्रतिपत्तितः ॥२८॥
तेन ज्ञब्दार्थचिन्तासुन
साऽवस्थानयः शिवः ।
भोक्तव भोग्य भावेन सदा सर्वत्र
संस्थितः ॥२९॥
अर्थ - इस प्रकार यह जीव सर्वमय है।
उसी से सारे भावों का उदय होता है तथा वह जितना भी बाहर अनुभूयमान पदार्थ है वह
शरीर के द्वारा ग्रहण करता है और अनुभव का द्वार होकर संवेदन रूप से तादात्म
प्राप्त किये हुए है। इसलिये इस प्रकार वह सर्वात्म स्वभाव से शब्द और अर्थ के
विचार में उसकी ऐसी कोई अवस्था नहीं है जो उसके शिव भाव से व्यक्त न हो । अतः
भोक्ता ही भोग्य भाव से सर्वत्र स्थित है, भोग्य
उससे कोई अन्य नहीं है ।। २८-२९ ।।
विज्ञान के ज्ञान का फल
श्लोक - इति वा यस्य स वित्तिः
क्रीडात्वेनाखिलं जगत् ।
स पश्यन्सर्वतो युक्तो जीवन्मुक्तो
न संशयः ॥३०॥
अर्थ —
इस प्रकार यह सारा जगत् उसी की संविद या चिद्-शक्ति का ही खेल है।
जो इस प्रकार सब से युक्त होकर क्रीड़ा रूप से देखता है वह नित्य युक्त होने के
कारण ईश्वर के समान मुक्त ही है, उसको शरीर का कोई बन्धन नहीं
होता है, यह निश्चय ही सत्य है ॥३०॥
मन्त्र साधन का रहस्य
श्लोक --अयमेवोदयस्तस्य ध्येयस्य
ध्यायि चेतसि ।
तदात्मता समापत्तिमिच्छतः साधकस्य
वा ॥ ३१ ॥
अर्थ —
इस प्रकार संविद् के द्वारा साधक अपने ध्येय को न्यास और मन्त्र के
द्वारा चिद्रूप से प्रगट करके उसके साथ तादात्म प्राप्त करता है और मन्त्र देवता
और साधक की एकात्मता मन्त्रोच्चारण काल में ही सम्पादन कर लेता है ॥३१॥
मन्त्र साधन से प्राप्त फल
श्लोक- इय मेवाऽमृत प्राप्तिरय
मेवाऽऽत्मनो ग्रहः ।
इयं निर्वाण दीक्षा व शिव सद्भाव
दायिनी ॥३२॥
अर्थ - यह साधक की अमृतत्व प्राप्ति
मिथ्या ज्ञान-शून्य निरावरण स्वस्वरूप संविद ही है, जो मन्त्रोच्चारण मात्र के अभ्यास से आत्मतत्त्व की प्राप्ति करा देती है।
यह कोई स्थूल वस्तु का आदान-प्रदान नहीं है, यह तो गुरु से
दीक्षा काल में ही अमृत रूप से प्राप्त होती है, इसलिये इसे
निर्वाण दीक्षा कहा है। यह परम शिव के स्वरूप को व्यक्त करने वाली तथा शिवत्त्व
सद्भाव को देने वाली दीक्षा है जिससे साधक स्वयं ही मुक्ति का अनुभव कर लेता है ।।
३२ ।।
इति सहजविद्योदय द्वितीयनिःष्पन्दः(स्पन्दकारिका
द्वितीय प्रकरण) ॥
आगे जारी...... स्पन्दकारिका अंतिम प्रकरण
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