विभूति स्पन्द कारिका
विभूति स्पन्द कारिका
Vibhuti Spanda karika
अथ
विभूतिस्पन्द तृतीय निःष्पन्द ।
जाग्रत में विभूति प्राप्ति की
योग्यता का रूप
श्लोक - यथेच्छायथितो धाता
जाग्रत्यर्थान्हृदि स्थितान् ।
सोम-सूर्योदयं कृत्वा सम्पादयति
देहिनः ॥३३॥
अर्थ-अपने स्वरूप को प्राप्त योगी
जब संङ्कल्प-सिद्ध हो जाता है तो यदि वह अपने हृदयस्थ अर्थों को जाग्रत में प्रगट
करना चाहता है तब इच्छानुसार धाता रूप से सोम-सूर्य के आलोक में करता हुआ दर्शनादि
इन्द्रियों से इच्छानुसार शरीरों का निर्माण करके इच्छानुसार अर्थों को प्रगट कर
लेता है ॥३३॥
स्वप्न में
श्लोक –
तथा स्वप्नेऽप्यभीष्टार्थान्प्रणयस्यानतिक्रमात् ।
नित्यं स्फुटतरं मध्ये स्थित वद्य
प्रकाशयेत् ॥ ३४ ॥
अर्थ —
इसी प्रकार स्वप्न में भी अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए ही अपने
हृदयस्थ भावों को अपने में ही अनेक रूप से प्रकाशित करता है। यानी स्वप्न तम का
आवरण नहीं में भी वह इच्छानुसार सृष्टि करने में समर्थ है, उसे
होता ॥३४॥
सामान्य मनुष्य और सिद्ध योगी का
भेद
श्लोक - अन्यथा तु स्वतन्त्रा
स्यात्सृष्टिस्तद्धर्मकत्वतः ।
सततं लौकिकस्यैव जाग्रत्स्वप्न पद
द्वये ॥३५॥
अर्थ-यदि उसे भी तम का आवरण रहे तो
जैसे सर्वसाधारण को आल- विडाल दर्शन रूप, अर्थात्
व्यवस्थारहित स्वप्न होता है, उसे भी होगा तथा वह फिर
स्वतंत्र रूप से धाता के भाव में स्थित न हो सकेगा और अपने हृदय भावों या अर्थों
को प्रगट न कर सकेगा। तथा जैसा लोक में इन जाग्रत और स्वप्न पदों में सबको होता है
उसी प्रकार उसे भी होगा ॥३५॥
साधन की प्रशंसा
श्लोक - यथाऽर्थोऽस्फुटोदृष्टः
सावधानेऽपि चेतसि ।
भूयः स्फुटतरो भाति स्वबलोद्योग
भावितः ॥ ३६ ॥
तथा यत् परमार्थेन येन यत्र यदा
स्थितम् ।
तत्तथा बलमाक्रम्य न
चिरात्सम्प्रवर्तते ॥३७॥
अर्थ - सावधान चित्त रहने पर भी
अर्थों का ज्ञान जैसे अस्फुट, यानी स्पष्ट
नहीं होता है, परन्तु अपने उद्योग बल के प्रयत्न द्वारा सब
स्पष्ट हो जाता है, जैसे दूर स्थित किन्ही अर्थों का ज्ञान
पुरुष को सावधान रहने पर भी स्पष्ट नहीं होता है तो एक विशेष प्रयत्न से उन अर्थों
का ज्ञान पूर्ण स्पष्ट हो जाता है, इसी प्रकार परमार्थ में
भी जो वस्तु जहां स्थित है, यानी जिस देश, काल और आकार में स्थित होती है एक विशेष प्रयत्न से अपने पूरे बल का
प्रयोग करने पर वह वस्तु अपने उसी स्वरूप के आश्रय से तत्काल ही प्रति- भासित हो
जाती है, क्योंकि उसका अपना स्वरूप आवरणरहित है तथा उसका
अतीत और अनागत ज्ञान परिमित विषय है इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।।३६-३७।।
उत्साह से लक्ष प्राप्ति
श्लोक- दुर्बलोऽपि तदाक्रम्य यतः
कार्ये प्रवर्तते ।
आच्छादयेन्द्बुभुक्षां च तथा योऽति
बुभुक्षितः ॥३८॥
अर्थ- उत्साह और प्रयत्न के द्वारा
दुर्बल भी आगे बढ़ जाता है और साहस से कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। अशक्त भी
व्यायाम के अभ्यास से महान् शक्ति प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार स्वभाव के
अनुशीलन से, यानी अनुसरण से भूखा भी भूख को
आच्छादित कर लेता है। इसी प्रकार सर्वत्र ही आत्मस्वरूप के कार्य-कारण सम्पादन में
वह समर्थ हो जाता है ॥३८॥
सिद्ध योगी की सामर्थ्य
श्लोक-अनेनाधिष्ठिते देहे यथा
सर्वज्ञतादयः ।
तथा स्वात्मन्यधिष्ठानात्सर्वत्रैवं
भविष्यति ॥ ३९ ॥
अर्थ - इसी प्रकार अपने आत्मस्वभाव
में स्थित हो जाने पर शरीर में रहते हुए ही वह सर्वज्ञ हो जाता है और सूक्ष्म से
सूक्ष्म जन्तु के आहार-विहार को जान लेता तथा सर्वत्र ही व्यापक हो जाता है ॥३९ ॥
अज्ञान का स्वरूप
श्लोक-ग्लानिविलुण्ठिका देहे
तस्याश्चाऽज्ञानतः सृतिः ।
तदुन्मेष विलुतं चेत् कुतः सास्याद
हेतुका ॥४०॥
अर्थ –
ग्लानि, क्षय या बीमारी, अर्थात् अपने को आत्मस्वरूप न मानकर अल्प मानना ही ग्लानि या बीमारी है।
यह ग्लानि अज्ञान से संसरित होने के कारण शरीर का नाश करती है। यदि आत्मस्वभाव का
उन्मेष हो जाय तो अज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती, तथा इस
प्रकार ग्लानि का कारण न रहने से ग्लानि उत्पन्न ही नहीं होती है। इसी से योगियों
के शरीर में ग्लानि के अभाव हो जाने पर शरीर बली पलित न होकर दृढ़ हो जाता है ॥४०॥
सामान्य स्पन्द का प्राप्ति स्थल
श्लोक- एक चिन्ता प्रसक्तस्ययतः
स्यादपरोदयः ।
उन्मेषः सतुविज्ञेयः स्वयं
तमुपलक्षयेत् ॥४१॥
अर्थ- एक विचार के चिन्तन काल में
जब दूसरे विचार का तत्काल उदय हो जाता है तो उसका कारण उन्मेष होता है,
अर्थात् दो विचारों के मध्य में जो अनुभव होने वाला भाव है, उसे ही उन्मेष कहते हैं ॥ ४१ ॥
श्लोक - अतोबिन्दुरतो नादो
रूपमस्मादतो रसः ।
प्रवर्तते चिरेणैव क्षोभकत्वेन
देहिनः ॥४२॥
अर्थ - इस उन्मेष के अनुशीलन से तेज
रूप बिन्दू में नाद का उदय होकर अन्धकार में शब्द वाच्य प्रणव का दर्शन हो जाता है,
उससे अमृतरस का स्वाद मुख में आ जाता है और इस क्षोभ के कारण तत्काल
ही रस प्रवाहित हो जाता है ॥४२॥
स्पन्द के अभ्यास का फल
श्लोक - विद्दक्षयेव सर्वार्थान्यदा
व्याप्यावतिष्ठते ।
तदा किं बहुनोक्तेन स्वयमेवाव
बोत्स्यते ॥४३॥
अर्थ- देखने की इच्छा के भाव में
स्थित होकर जब हम व्यापक होकर सारे भावों में स्थित हो जाते हैं,
तब बहुत क्या कहा जाय, हम स्वयं ही तत्त्व स्वभाव
से सब कुछ जान लेते हैं, अर्थात् ज्ञान स्वरूप हो जाते हैं
॥४३॥
बौद्धिक ज्ञान से पीड़ा मुक्त
श्लोक-प्रबुद्धः
सर्वदातिष्ठेज्ज्ञानेनालोक्य गोचरम् ।
एकत्राssरोपयेत् सर्वं ततोऽन्येन न पीड्यते ॥४४॥
अर्थ - प्रबुद्ध होकर वह सर्वदा के
लिये ज्ञान रूप से स्थित होकर सारे विषयों की आलोचना करता है तथा सबको ज्ञान में
ही विद्या रूप से आरोपित जानकर सद्भाव तत्त्व में स्थित होने से अन्य अन्य भाव की
पीड़ा से रहित हो जाता है और जिसे कला समुदाय कहते हैं उससे उसे कोई कष्ट अनुभव
नहीं होता है ।।४४ ॥
मनुष्य को आशक्ति का कारण हो यह
मातृका वर्ग का रूप
श्लोक- शब्दराशि समुत्थस्य
शक्तिवर्गस्य भोग्यताम् ।
कला विलुत विभवोगतः सन्सपशुः स्मृतः
॥४५॥
अर्थ - अकार से अकार पर्यन्त जो
शब्द समूह है उसी से उत्पन्न यह कादिवर्गात्मक भूत समुदाय है। यही शक्ति समूह
बाह्य भोग्य का स्वरूप है। इस भोग्य समुदाय रूप शक्ति के वशीभूत पुरुष ककारादि
अक्षरों की कलाओं में विलुप्त होकर अपनी महत्ता खोकर स्वभाव से च्युत हो जाता है
और शिवत्व मे पशुत्व भाव को प्राप्त हो जाता है ॥४५॥
उसका परिणाम
श्लोक परामृत रसापायस्तस्य यः
प्रत्ययोद्भवः ।
तेनास्वतन्त्रतामेति स च तन्मात्र
गोचरः ॥४६॥
अर्थ - परा अमृत रस से दूर हो जाने
पर जिस प्रत्यय का उदय होता है उससे पुरुष बन्धन कारक तन्मात्राओं का अनुभव करता
है और परतन्त्र होकर अल्पाहंता भाव से स्थित हो जाता है। इस प्रत्यय से रूपादि
अभिलाषा वाली तन्मात्राओं का अनुभव होता है जिससे पुरुष अपने स्वरूप का अनुभव नहीं
कर पाता है ॥४६॥
श्लोक - स्वरूपावरणेचास्य शक्तयः
सततोद्यताः ।
यतः शब्दानुवेधेन न बिना
प्रत्ययोद्भवः ॥ ४७ ॥
अर्थ- उसके स्वरूप के आवृत हो जाने
पर उससे बाह्य रूप में सतत् ही शक्ति का उदय होने लगता है। इसी से उस शब्दरहित
ज्ञान का उदय नहीं होता है तथा शब्द के वेध किये बिना उस ज्ञान का उदय नहीं होता
है ।। ४७ ।।
क्रिया या स्पन्द स्वरूप
श्लोक- सेयं क्रियात्मिका शक्ति
शिवस्य पशुवर्तनी ।
बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता
सिद्धयुपपादिका ॥४८॥
अर्थ - यह पशु भाव से वर्तने वाली
शक्ति ही भगवान् का क्रियात्मक स्वभाव है। यह स्वभाव से ही बन्धन का कारण है अथवा
अज्ञात रहने पर बन्धन का कारण है, तथा ज्ञात
होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है। शिव की शक्ति ही परा और अपरा भावों में विद्यमान
है जिनमें जीव-शक्ति प्रवर्तित नहीं होती है। तथा इन परा और अपरा भावों में जो शिव
शक्ति रूप से व्यापक है उसका कोई अधिष्ठान नहीं है, अर्थात्
जीव-शक्ति से उसका स्वरूप स्वतन्त्र है। इसलिये वह अज्ञात रहने के कारण बन्ध का
हेतु है, ज्ञात होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है॥४८॥
बन्धन का कारण
श्लोक -- तन्मात्रोदयरूपेण
मनोहम्बुद्धिर्वार्तनी ।
पुर्यष्टकेन संरुद्धस्तस्थ
प्रत्ययोद्भवम् ॥४९॥
भुङ्क परवशो भोगं तद् भावात्सस
रेदतः ।
संसृति-प्रलयस्यास्य कारणं स
प्रचक्ष्महे ॥ ५० ॥
अर्थ - शब्दादि तन्मात्राओं का
अनुभव रूप से उदय होने पर मन, अहंकार,
बुद्धि का उदय होकर वह पुरुष पराविमर्श से उत्पन्न पुर्यष्टक (पंच
प्राण, मन, बुद्धि अहंकार ) से बद्ध हो
जाता है, जिससे सुख-दुःख संवेदन का उदय होता है। इसी से परवश
हुआ यह सुख-दुःख संवेदन रूप भोगों को भोगता है और उसका पुर्यष्टक संसार में शरीर
रूप से संसरण करता है और इस संसरण में वह संसृति प्रलय के जन्म-मरण प्रवाह रूप में
संसार के विनाश के कारण को देखता है और कहता है ।।४९-५०॥
बन्धन मुक्त शिव रूपता काभाव
श्लोक - पदात्येकत्व संरुढस्तदा
तस्य लयोद्भवो ।
निच्छभोक्तामेति ततश्चक्रेश्वरो भवेत्
॥५१॥
अर्थ- परन्तु स्थूल और सूक्ष्म में
लीन चित्त जब एकत्व भाव में आरुढ़ हो जाता है तो उसके उस उदय और लय भाव के नष्ट हो
जाने पर वह पुरुष भोक्ता भाव को प्राप्त हो जाता है और तब वह चक्रेश्वर होकर सबका
अधि- पति हो जाता है ॥५१॥
गुरु वन्दना
श्लोक –
अगाधसंशयाम्भोधि समुत्तरण तारणीम् ।
बन्दे विचित्रार्थपदां चित्रांतां
गुरु भारतीम् ॥५२॥
अर्थ- जो अगाध संशय रूप सागर है
उससे तारने वाली नौका रूप जो गुरु भारती है उसकी हम वन्दना करते हैं वह
विचित्रार्थ पदों से चित्रित स्वरूप है ॥५२॥
इति विभूतिस्पन्द तृतीय निःष्पन्द (स्पन्दकारिका
तृतीय प्रकरण) ॥
इति स्पन्दकारिका: समाप्त ॥
स्पन्द कारिका
३- विभूतिस्पन्द
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