शम्भु स्तुति

शम्भु स्तुति

मत्स्यपुराण के अध्याय 132 के श्लोक 22-29 में यह महादेव शम्भु कि स्तुति का वर्णन है।

शम्भु स्तुति

शम्भु स्तुति

Shambhu stuti

श्रीमत्स्यमहापुराणान्तर्गत शम्भु स्तुति:

देवकृत शम्भु स्तुतिः

शम्भुस्तुति

त्रिपुरवासी दैत्यों का अत्याचार से दुःखित देवताओं का ब्रह्माजी साथ लेकर शङ्करजी की सभा में आये वहीं उन्होंने देखा कि-

महादेव शम्भु स्वरूप वर्णन

तं भवं भूतभव्येशं गिरिशं शूलपाणिनम्।

पश्यन्ति चोमया सार्द्धन्नन्दिना च महात्मना ।। १८ ।।

भूत एवं भविष्य के स्वामी तथा गिरि पर शयन करनेवाले त्रिशूलपाणि शङ्कर पार्वतीदेवी तथा महात्मा नन्दी के साथ विराजमान हैं।

अग्निवर्णमजन्देवमग्निकुण्डनिभेक्षणम् ।

अग्न्यादित्यसहस्राभमग्निवर्णविभूषितम् ।। १९ ।।

चन्द्रावयवलक्ष्माणं चन्द्रसौम्यवराननम् ।

आगम्य तमजन्देवमथ तं नीललोहितम् ।। २० ।।

उन अजन्मा महादेव के शरीर का वर्ण अग्नि के समान उद्दीप्त था। उनके नेत्र अग्निकुण्ड के सदृश लाल थे। उनके शरीर से सहस्त्रों अग्रियों और सूर्यो के समान प्रभा टिक रही थी। वे अग्रि के से रंगवाली विभूति विभूषि उनके ललाट पर बालचन्द्र शोभा पा रहा था और मुख (पूर्णिमा के) चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर दीख रहा था।

स्तुवन्तो वरदं शम्भुं गोपात पार्वतीपतिम् ।। २१ ।।

तब देवगण उन अजन्मा नीललोहित महादेव के निकट गये और पशुपति, पार्वती-प्राणवल्लभ, वरदायक शम्भु की इस प्रकार स्तुति करने लगे ।

शम्भुस्तुति

देवा ऊचुः।

नमो भगवतेशाय रुद्राय वरदाय च ।

पशूनाम्पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ।। २२ ।।

महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय च शान्तये ।

ईशानाय भयघ्नाय नमस्त्वन्धकघातिने ।। २३ ।।

नीलग्रीवाय भीमाय वेधसे वेधसास्तुते।

कुमारशत्रुनिघ्नाय कुमारजनकाय च ।। २४ ।।

विलोहिताय धूम्राय वराय क्रथनाय च ।

नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यशायिने ।। २५ ।।

उरगाय त्रिनेत्राय हिरण्यवसुरेतसे ।

अचिन्त्यायाम्बिकाभर्त्रे सर्वदेवस्तुताय च ।। २६ ।।

वृषध्वजाय मुण्डाय जटिने ब्रह्मचारिणे ।

तप्यमानाय सलिले ब्रह्मण्यायाजिताय च ।। २७ ।।

विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते ।

नमोऽस्तु दिव्यरूपाय प्रभवे दिव्यशम्भवे ।। २८ ।।

अभिगम्याय काम्याय स्तुत्यायार्च्याय सर्वदा ।

भक्तानुकम्पिने नित्यं दिशते यन्मनोगतम् ।। २९ ।।

शम्भुस्तुति भावार्थ

देवताओं ने कहा- भगवन्! आप भव-सृष्टि के उत्पादक और पालक, शर्व-प्रलयकाल में सबके संहारक, रुद्र- समस्त प्राणियों के प्राणस्वरूप, वरद - वरप्रदाता, पशुपति- समस्त जीवों के स्वामी उग्र-बहुत ऊँचे, एकादश रुद्रों में से एक और कपर्दी जटाजूटधारी हैं, आपको नमस्कार है। आप महादेव – देवताओं के भी पूज्य, भीम-भयंकर त्र्यम्बक- त्रिनेत्रधारी, एकादश रुद्रों में अन्यतम, शान्तशान्तस्वरूप, ईशान- नियन्ता, भयघ्न- भय के विनाशक और अन्धकघाती- अन्धकासुर के वधकर्ता को प्रणाम है। नीलग्रीव-ग्रीवा में नील चिह्न धारण करनेवाले, भीम-भयदायक, वेधाः- ब्रह्मस्वरूप, वेधसा स्तुतः – ब्रह्माजी के द्वारा स्तुत, कुमारशत्रुनिघ्न- कुमार कार्तिकेय के शत्रुओं को मारनेवाले, कुमारजनक- स्वामी कार्तिक के पिता विलोहित- लाल रंगवाले, धूम्र- धूम्रवर्ण, वर- जगत्को ढकनेवाले, क्रथन-प्रलयकारी, नीलशिखण्ड-नीली जटावाले, शूलीत्रिशूलधारी, दिव्यशायी-दिव्य समाधि में लीन रहनेवाले, उरग- सर्पधारी, त्रिनेत्र- तीन नेत्रोंवाले, हिरण्यवसुरेतासुवर्ण आदि धन के उद्गम स्थान, अचिन्त्य- अतर्क्य, अम्बिकाभर्ता- पार्वतीपति, सर्वदेवस्तुत- सम्पूर्ण देवद्वारा स्तुत, वृषध्वज-बैल-चिह्न से युक्त ध्वजवाले, मुण्ड -मुण्डधारी, जटी- जटाधारी, ब्रह्मचारी- ब्रह्मचर्यसम्पत्र, सलिले तप्यमान- जल में तपस्या करनेवाले, ब्रह्मण्य- ब्राह्मण-भक्त, अजित- अजेय, विश्वात्मा- विश्व के आत्मस्वरूप विश्वसृक्- विश्व के सष्टा विश्वमावृत्य तिष्ठते- संसार में व्याप्त रहनेवाले, दिव्यरूप- दिव्यरूपवाले प्रभु- सामर्थ्यशाली, दिव्यशम्भु- अत्यन्त मङ्गलमय, अभिगम्य- शरण लेने योग्य, काम्य- अत्यन्त सुन्दर, स्तुत्य- स्वतन करनेयोग्य, सर्वदा अर्च्य- सदा पूजनीय, भक्तानुकम्पी- भक्तों पर दया करनेवाले और यन्मनोगतं नित्यं दिशते- मन की अभिलाषा पूर्ण करनेवाले को अभिवादन है। ll २२-२९ ॥

॥ इति श्रीमत्स्यमहापुराणे शम्भु स्तुति: सम्पूर्णा ॥ 

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