शम्पाकगीता

शम्पाकगीता

शम्पाकगीता महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत आती है। इसमें पितामह भीष्म ने शम्याक नामक एक त्यागी ब्राह्मण के अनुभूत उपदेशों को उन्हीं के शब्दों में युधिष्ठिर को बताकर त्याग के लिये प्रेरित किया है। संसार में धनी हो अथवा निर्धन सुख-दुःख प्रत्येक मनुष्य को होता है। त्याग के बिना न वास्तविक सुख मिलता है न ही परमात्मा। त्यागवृत्ति अपनाकर सुखी होने का उपदेश देनेवाली यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

शम्पाकगीता

शम्पाक गीता

Shampak geeta

शम्पाकगीता

महाभारत शान्तिपर्व अध्यायः १७६

शम्पाकगीता

युधिष्ठिर उवाच

धनिनश्चाधना ये च वर्तयन्ते स्वतन्त्रिणः ।

सुखदुःखागमस्तेषां कः कथं वा पितामह ॥ १ ॥

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! धनी और निर्धन - दोनों स्वतन्त्रता-पूर्वक व्यवहार करते हैं; फिर उन्हें किस रूप में और कैसे सुख और दुःख की प्राप्ति होती है ? ॥ १ ॥

भीष्म उवाच

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

शम्पाकेनेह मुक्तेन गीतं शान्तिगतेन च ॥ २ ॥

भीष्मजी ने कहा - [ युधिष्ठिर!] इस विषय में विद्वान् पुरुष इस पुरातन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसे परम शान्त जीवन्मुक्त शम्पाक ने यहाँ कहा था ॥ २ ॥

अब्रवीन्मां पुरा कश्चिद् ब्राह्मणस्त्यागमाश्रितः ।

क्लिश्यमानः कुदारेण कुचैलेन बुभुक्षया ॥ ३ ॥

पहले की बात है, फटे-पुराने वस्त्रों एवं अपनी दुष्टा स्त्री के और भूख के कारण अत्यन्त कष्ट पानेवाले एक त्यागी ब्राह्मण ने जिसका नाम शम्पाक था, मुझसे इस प्रकार कहा- ॥ ३ ॥

उत्पन्नमिह लोके वै जन्मप्रभृति मानवम् ।

विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च ॥ ४ ॥

इस संसार में जो भी मनुष्य उत्पन्न होता है ( वह धनी हो या निर्धन) उसे जन्म से ही नाना प्रकार के सुख-दुःख प्राप्त होने लगते हैं ॥ ४ ॥

तयोरेकतरे मार्गे यदेनमभिसन्नयेत् ।

न सुखं प्राप्य संहृष्येन्नासुःखं प्राप्य सञ्चरेत् ॥ ५ ॥

विधाता यदि उसे सुख और दुःख इन दोनों में से किसी एक के मार्ग पर ले जाय तो वह न तो सुख पाकर प्रसन्न हो और न दुःख में पड़कर परितप्त हो ॥ ५ ॥

न वै चरसि यच्छ्रेय आत्मनो वा यदीशिषे ।

अकामात्मापि हि सदा धुरमुद्यम्य चैव ह ॥ ६॥

तुम जो कामनारहित होकर अपने कल्याण का साधन नहीं कर रहे हो और मन को वश में नहीं कर रहे हो, इसका कारण यही है कि तुमने राज्य का बोझा अपने पर उठा रखा है ॥ ६ ॥

अकिञ्चनः परिपतन्सुखमास्वादयिष्यसि ।

अकिञ्चनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह ॥ ७॥

यदि तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे; क्योंकि जो अकिंचन होता है - जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता है ॥ ७ ॥

आकिञ्चन्यं सुखं लोके पथ्यं शिवमनामयम् ।

अनमित्रपथो ह्येष दुर्लभः सुलभो मतः ॥ ८॥

संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। इस मार्ग में किसी प्रकार के शत्रु का भी खटका नहीं है। यह दुर्लभ होने पर भी सुलभ है ॥ ८ ॥

अकिञ्चनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वतः ।

अवेक्षमाणस्त्रीँल्लोकान्न तुल्यमिह लक्षये ॥ ९॥

मैं तीनों लोकों पर दृष्टि डालकर देखता हूँ तो मुझे अकिंचन, शुद्ध एवं सब ओर से वैराग्य सम्पन्न पुरुष के समान दूसरा कोई नहीं दिखायी देता है ॥ ९ ॥

आकिञ्चन्यं च राज्यं च तुलया समतोलयम् ।

अत्यरिच्यत दारिद्र्यं राज्यादपि गुणाधिकम् ॥ १०॥

मैंने अकिंचनता तथा राज्य को बुद्धि की तराजू पर रखकर तौला तो गुणों में अधिक होने के कारण राज्य से भी अकिंचनता का ही पलड़ा भारी निकला ॥ १० ॥

आकिञ्चन्ये च राज्ये च विशेषः सुमहानयम् ।

नित्योद्विग्नो हि धनवान्मृत्योरास्य गतो यथा ॥ ११॥

अकिंचनता तथा राज्य में बड़ा भारी अन्तर यह है कि धनी राजा सदा इस प्रकार उद्विग्न रहता है, मानो मौत के मुख में पड़ा हुआ हो ॥ ११ ॥

नैवास्याग्निर्न चारिष्टो न मृत्युर्न च दस्यवः ।

प्रभवन्ति धनत्यागाद्विमुक्तस्य निराशिषः ॥ १२॥

परंतु जो मनुष्य धन को त्यागकर उसकी आसक्ति से मुक्त हो गया है और मन में किसी तरह की कामना नहीं रखता, उस पर न अग्नि का जोर चलता है, न अरिष्टकारी ग्रहों का, न मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ सकती है, न डाकू और लुटेरे ही ॥ १२ ॥

तं वै सदा कामचरमनुपस्तीर्णशायिनम् ।

बाहूपधानं शाम्यन्तं प्रशंसन्ति दिवौकसः ॥ १३॥

वह सदा दैव- इच्छा के अनुसार विचरता है। बिना बिछौने के भूतल पर सोता है। बाँहों का ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभाव से रहता है । देवतालोग भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं ॥ १३ ॥

धनवान् क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्ट चेतनः ।

तिर्यगीक्षः शुष्कमुखः पापको भ्रुकुटीमुखः ॥ १४॥

जो धनवान् है, वह क्रोध और लोभ के आवेश में आकर अपनी विचारशक्ति को खो बैठता है, टेढ़ी आँखों से देखता है, उसका मुँह सूखा रहता है, भौंहें चढ़ी होती हैं और वह पाप में ही मग्न रहा करता है ॥ १४ ॥

निर्दशन्नधरोष्ठं च क्रुद्धो दारुणभाषिता ।

कस्तमिच्छेत्परिद्रष्टुं दातुमिच्छति चेन्महीम् ॥ १५॥

क्रोध के कारण वह ओठ चबाता रहता है और अत्यन्त कठोर वचन बोलता है। ऐसा मनुष्य सारी पृथ्वी का राज्य ही दे देना चाहता हो तो भी उसकी ओर कौन देखना चाहेगा ? ॥ १५ ॥

श्रिया ह्यभीक्ष्णं संवासो मोहयत्यविचक्षणम् ।

सा तस्य चित्तं हरति शारदाभ्रमिवानिलः ॥ १६॥

सदा धन-सम्पत्ति का सहवास मूर्ख मनुष्य के चित्त को लुभाकर उसे मोह में ही डाले रहता है। जैसे वायु शरद् ऋतु के बादलों को उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वह सम्पत्ति मनुष्य के मन को हर लेती है ॥ १६ ॥

अथैनं रूपमानश्च धनमानश्च विन्दति ।

अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः ॥ १७॥

फिर उसके ऊपर रूप का अहंकार और धन का मद सवार हो जाता है और वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, कोई साधारण मनुष्य नहीं हूँ ॥ १७ ॥

इत्येभिः कारणैस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रमाद्यति ।

सम्प्रसक्तमना भोगान्विसृज्य पितृसञ्चितान् ।

परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते ॥ १८॥

रूप, धन और कुल - इन तीनों के अभिमान के कारण उसके चित्त में प्रमाद भर जाता है, वह भोगों में आसक्त होकर बाप-दादों के जोड़े हुए पैसों को खो बैठता है और दरिद्र होकर दूसरों के धन को हड़प लाना अच्छा मानने लगता है ॥ १८ ॥

तमतिक्रान्तमर्यादमाददानं ततस्ततः ।

प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः ॥ १९॥

इस तरह मर्यादा का उल्लंघन करके जब वह इधर-उधर से लूट- खसोटकर धन ले आता है, तब राजा उसे उसी प्रकार कठोर दण्ड देकर रोकते हैं, जैसे व्याध बाणों से मारकर मृगों की गति रोक देते हैं ॥ १९ ॥

एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम् ।

विविधान्युपपद्यन्ते गात्रसंस्पर्शजान्यपि ॥ २० ॥

इस प्रकार मन को तप्त करनेवाले और शरीर के स्पर्श से होनेवाले ये नाना प्रकार के दुःख मनुष्य को प्राप्त होते हैं ॥ २० ॥

तेषां परमदुःखानां बुद्धया भैषज्यमाचरेत् ।

लोकधर्ममवज्ञाय ध्रुवाणामध्रुवैः सह ॥ २१॥

अतः अनित्य शरीरों के साथ सदैव लगे रहनेवाले पुत्रैषणा आदि लोकधर्मो की अवहेलना करके अवश्य प्राप्त होनेवाले पूर्वोक्त महान् दुःखों की विचारपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २१ ॥

नात्यक्त्वा सुखमाप्नोति नात्यक्त्वा विन्दते परम् ।

नात्यक्त्वा चाभयः शेते त्यक्त्वा सर्वं सुखी भव ॥ २२॥

कोई मनुष्य त्याग किये बिना सुख नहीं पाता, त्याग किये बिना परमात्मा को नहीं पा सकता और त्याग किये बिना निर्भय सो नहीं सकता; इसलिये तुम भी सब कुछ त्यागकर सुखी हो जाओ ॥ २२ ॥

इत्येतद्धास्तिनपुरे ब्राह्मणेनोपवर्णितम् ।

शम्पाकेन पुरा मह्यं तस्मात् त्यागः परो मतः ॥ २३ ॥

इस प्रकार पूर्वकाल में शम्पाक नामक ब्राह्मण ने हस्तिनापुर में मुझसे त्याग की महिमा का वर्णन किया था। अतः त्याग ही सबसे श्रेष्ठ माना गया है ॥ २३ ॥

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शंपाकगीतायां षट्सप्त्यत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७६॥

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