यमगीता

यमगीता

एक यमगीता नरसिंहपुराण के अन्तर्गत भी प्राप्त होती है। यह गीता यमराज द्वारा मृत्यु और दूतों को समझाते हुए उन्हें वैष्णवों के पास जाने से रोकना; उनके मुँह से श्रीहरि के नाम की महिमा सुनकर नरकस्थ जीवों का भगवान्‌ को नमस्कार करके श्रीविष्णु के धाम में जाने का वर्णन है। यह सारगर्भित एवं तात्त्विक यमगीता यहाँ  सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ८ यमगीता

यमगीता

Yam Gita

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ८ यमगीता

नरसिंहपुराणान्तर्गता यम गीता

यम गीता

यमगीता - ३

॥ अथ प्रारभ्यते नृसिंहपुराणान्तर्गता यमगीता ॥

श्रीव्यास उवाच

मृत्युश्च किंकराश्चैव विष्णुदूतैः प्रपीडिताः ।

स्वराज्ञस्तेऽनु निर्वेशं गत्वा ते चुक्रुशुर्भुशम् ॥१॥

श्रीव्यासजी बोले – विष्णुदूतों के द्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए मृत्युदेव और यमदूत अपने राजा यम के भवन में जाकर बहुत रोने - कलपने लगे 

मृत्युकिंकरा ऊचुः

श्रृणु राजन् वचोऽस्मकं तवाग्रे यद ब्रवीमहे ।

त्वदादेशाद्वयं गत्वा मृत्युं संस्थाप्य दूरतः ॥२॥

ब्राह्मणस्य समीपं च भृगोः पौत्रस्य सत्तम ।

तं ध्यायमानं कमपि देवमेकाग्रमानसम् ॥३॥

मृत्यु और यमदूत बोले - राजन् । आपके आगे हम जो कुछ कह रहे है, हमारी इन बातों को आप सुनें । हमलोगों ने आपकी आज्ञा के अनुसार यहाँ से जाकर मृत्यु को तो दूर ठहरा दिया और स्वयं भृगु के पौत्र ब्राह्मण मार्कण्डेय के समीप गये । परंतु सत्पुरुषशिरोमणे ! वह उस समय एकाग्रचित होकर किसी देवता का ध्यान कर रहा था ।

गन्तुं न शक्तास्तत्पर्श्व वयं सर्वे महामते ।

यावत्तावन्महाकायैः पुरुषैर्मुशलैर्हताः ॥४॥

वयं निवृत्तास्तद्वीक्ष्य मृत्युस्तत्र गतः पुनः ।

अस्मान्निर्भर्त्स्य तत्रायं तैर्नरैर्मुशलैर्हतः ॥५॥

महामते ! हम सभी लोग उसके पास तक पहुँचने भी नहीं पाये थे कि बहुत - से महाकाय पुरुष मूसलसे हमें मारने लगे । तब हम लोग तो लौट पड़े, परंतु यह देखकर मृत्युदेव वहाँ फिर पधारे । तब हमें डाँट - फटकारकर उन लोगों ने इन्हे भी मूसलों से मारा ।

एवमत्र तमानेतुं ब्राह्मणं तपसि स्थितम् ।

अशक्ता वयमेवात्र मृत्युना सह वै प्रभो ॥६॥

तद्ववीहि महाभाग यद्वह्य ब्राह्मणस्य तु ।

देवं कं ध्यायते विप्रः के वा ते यैर्हता वयम् ॥७॥

प्रभो ! इस प्रकार तपस्या में स्थित हुए उस ब्राह्मण को यहाँ तक लाने में मृत्युसहित हम सब लोग समर्थ न हो सके । महाभाग ! उस ब्राह्मण का जो तप है, उसे आप बतलाइये, वह किस देवता का ध्यान कर रहा था और जिन लोगों नें हमें मारा, वे कौन थे

व्यास उवाच

इत्युक्तः किंकरैः सर्वैर्मृत्युना च महामते ।

ध्यात्वा क्षणं महाबुद्धिः प्राह वैवस्वतो यमः ॥८॥

व्यासजी कहते हैं - महामते ! मृत्यु तथा समस्त दूतों के इस प्रकार कहने पर महाबुद्धि सूर्यकुमार यम ने क्षणभर ध्यान करके कहा 

यम उवाच

श्रृण्वन्तु किंकराः सर्वे मृत्युश्चान्ये च मे वचः ।

सत्यमेतत्प्रवक्ष्यामि ज्ञानं यद्योगमार्गतः ॥९॥

यम बोले - मृत्यु तथा मेरे अन्य सभी किंकर आज मेरी बात सुनें - योगमार्ग (समाधि)-के द्वारा मैंने इस समय जो कुछ जाना है, वही सच-सच बतला रहा हूँ ।

भृगोः पौत्रो महाभागो मार्कण्डेयो महामतिः ।

स ज्ञात्वाद्यात्मनः कालं गतो मृत्युजिगीषया ॥१०॥

भृगु के पौत्र महाबुद्धिमान् महाभाग मार्कण्डेयजी आज के दिन अपनी मृत्यु जानकर मृत्यु को जीतने की इच्छा से तपोवन में गये थे ।

भृगुणोक्तेन मार्गेण स तेपे परमं तपः ।

हरिमाराध्य मेधावी जपन् वै द्वादशाक्षरम् ॥११॥

वहाँ उन बुद्धिमान ने भृगुजी के बतलाये हुए मार्ग के अनुसार भगवान् विष्णु की आराधना एवं द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करते हुए उत्कृष्ट तपस्या की है ।

एकाग्रेणैव मनसा ध्यायते हदि केशवम् ।

सततं योगयुक्तस्तु स मुनिस्तत्र किंकराः ॥१२॥

हरिध्यानमहादीक्षाबलं तस्य महामुनेः ।

नायद्वै प्राप्तकालस्य बलं पश्यामि किंकराः ॥१३॥

दूतो ! वे मुनि निरन्तर योगयुक्त होकर वहाँ एकाग्रचित्त से अपने हदय में केशव का ध्यान कर रहे हैं । किंकरो ! उस महामुनि को भगवान विष्णु के ध्यान की महादीक्षा का ही बल प्राप्त हैं; क्योंकि जिसका मरणकाल प्राप्त हो गया है, उसके लिये मैं दूसरा कोई बल नहीं देखता ।

हदिस्थे पुण्डरीकाक्षे सततं भक्तवत्सले ।

पश्यन्तं विष्णुभूतं नु को हि स्यात् केशवाश्रयम् ॥१४॥

भक्तवत्सल, कमललोचन भगवान् विष्णु के निरन्तर हदयस्थ हो जाने पर उस विष्णुस्वरुप भगवच्छरणागत पुरुष की ओर कौन देख सकता है

तेऽपि वै पुरुषा विष्णोर्यैर्यूयं ताडिता भृशम् ।

अत ऊर्ध्वं न गन्तव्यं यत्र वै वैष्णवाः स्थिताः ॥१५॥

वे पुरुष भी, जिन्होंने तुम्हें बहुत मारा है, भगवान् विष्णु के ही दूत हैं । आज से जहाँ वैष्णव हों, वहाँ तुमलोग न जाना ।

न चित्रं ताडनं तत्र अहं मन्ये महात्मभिः ।

भवतां जीवनं चित्रं यक्षैर्दत्तं कृपालुभिः ॥१६॥

उन महात्माओं के द्वारा तुम्हारा मारा जाना आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य तो यह है कि उन दयालु महापुरुषों ने तुम्हें जीवित रहने दिया है ।

नारायणपरं विप्रं कस्तं वीक्षितुमुत्सहेत् ।

युष्माभिश्च महापापैर्मार्कण्डेयं हरिप्रियम् ।

समानेतुं कृतो यत्नः समीचीनं न तत्कृतम् ॥१७॥

भला, नारायण के ध्यान में तत्पर हुए उस ब्राह्मण को देखने का भी साहस कौन कर सकता है ? तुम महापापियों ने भगवान के प्रिय भक्त मार्कण्डेयजी को जो यहाँ लाने का प्रयत्न किया है, यह अच्छा नहीं किया ।

नरसिंह महादेवं ये नराः पर्युपासते ।

तेषां पार्श्वे न गन्तव्यं युष्माभिर्मम शासनात् ॥१८॥

आज से तुम लोग मेरी आज्ञा मानकर उन महात्माओं के पास न जाना, जो महादेव भगवान् नृसिंह की उपासना करते हों 

श्रीव्यास उवाच

स एवं किंकरानुक्त्वा मृत्युं च पुरतः स्थितम् ।

यमो निरीक्ष्य च जनं नरकस्थं प्रपीडितम् ॥१९॥

कृपया परया युक्तो विष्णुभक्त्या विशेषतः ।

जनस्यानुग्रहार्थाय तेनोक्ताश्च गिरः श्रृणु ॥२०॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! यम ने अपने सामने खड़े हुए मृत्युदेव और दूतों से इस प्रकार कहकर नरक में पड़े हुए पीडित मनुष्यों की ओर देखा तथा अत्यन्त कृपा एवं विशेषतः विष्णुभक्ति से युक्त होकर नारकीय जीवों पर अनुग्रह करने के लिये जो बातें कहीं, उन्हें तुम सुनो ।

नरके पच्यमानस्य यमेन परिभाषितम् ।

किं त्वया नार्चितो देवः केशवः क्लेशनाशनः ॥२१॥

नरक में यातना सहते हुए जीवों से यम ने कहा- 'पाप से कष्ट पानेवाले जीव ! तुमने क्लेशनाशक भगवान् केशव की पूजा क्यों नहीं की?

उदकेनाप्यलाभे तु द्रव्याणां पूजितः प्रभुः ।

यो ददाति स्वकं लोकं स त्वया किं न पूजितः ॥२२॥

पूजन-सम्बन्धी द्रव्यों के न मिलने पर केवल जलमात्र से भी पूजित होने पर जो भगवान् पूजक को अपना लोक तक दे डालते हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की ?

नरसिंहो हषीकेशः पुण्डरीकनिभेक्षणः ।

स्मरणान्मुक्तिदो नृणां स त्वया किं न पूजितः ॥२३॥

कमल के समान लोचनोंवाले, नरसिंहरुपधारी जो भगवान् हृषीकेश स्मरणमात्र से ही मनुष्यों को मुक्ति देनेवाले हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की?' 

इत्युक्त्वा नारकान् सर्वान् पुनराह स किंकरान् ।

वैवस्वतो यमः साक्षाद्विष्णुभक्तिसमन्वितः ॥२४॥

नारदाय स विश्वात्मा प्राहैवं विष्णुरव्ययः ।

अन्येभ्यो वैष्णवेभ्यश्च सिद्धेभ्यः सततं श्रुतम् ॥२५॥

नरक में पड़े हुए जीवों के प्रति यों कहकर विष्णुभक्ति से युक्त सूर्यनन्दन यम ने अपने किंकरों से पुनः कहा - 'किंकरो ! अविनाशी विश्वात्मा भगवान् विष्णु ने नारदजी से जैसा कहा था और अन्य वैष्णवों तथा सिद्धों से जैसा सदा ही सुना गया है।  

तद्वः प्रीत्या प्रवक्ष्यामि हरिवाक्यमनुत्तमम् ।

शिक्षार्थं किंकराः सर्वे श्रृणुत प्रणता हरेः ॥२६॥

वह अत्यन्त उत्तम भगवद्वाक्य मैं प्रसन्न होकर तुम लोगों से शिक्षा के लिये कह रहा हूँ । तुम सभी भगवान के शरणागत होकर सुनो 

हे कृष्ण कृष्ण कृष्णेति यो मां स्मरति नित्यशः ।

जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धराम्यहम् ॥२७॥

भगवान् कहते हैं- 'हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण !' - इस प्रकार जो मेरा नित्य स्मरण करता है, उसको मैं उसी प्रकार नरक से निकाल लेता हूँ, जैसे जल को भेदकर कमल बाहर निकल आता है ।

पुण्डरीकाक्ष देवेश नरसिंह त्रिविक्रम ।

त्वामहं शरणं प्राप्त इति यस्तं समुद्धरे ॥२८॥

त्वां प्रपन्नोऽस्मि शरणं देवदेव जनार्दन ।

इति यः शरणं प्राप्तस्तं क्लेशादुद्धराम्यहम् ॥२९॥

'पुण्डरीकाक्ष ! देवेश्वर नरसिंह ! त्रिविक्रम ! मैं आपकी शरण में पड़ा हूँ' - यों जो कहता है, उसका मैं उद्धार कर देता हूँ' - इस प्रकार जो मेरा शरणागत होता है, उसे मैं क्लेश से मुक्त कर देता हूँ 

व्यास उवाच

इत्युदीरितमाकर्ण्य हरिवाक्यं यमेन च ।

नारकाः कृष्णकृष्णेति नारसिंहेति चुकुशुः ॥३०॥

व्यासजी कहते हैं - वत्स ! यमराज के कहे हुए इस भगद्वाक्य को सुनकर नरक में पड़े हुए जीव 'कृष्ण ! कृष्ण ! नरसिंह !' इत्यादि भगवन्नामों का जोर से उच्चारण करने लगे ।

यथा यथा हरेर्नाम कीर्तयन्त्यत्र नारकाः ।

तथा तथा हरेर्भक्तिमुद्वहन्तोऽब्रुवन्निदम् ॥३१॥

नारकीय जीव वहाँ ज्यों-ज्यों भगवन्नाम का कीर्तन करते थे, त्यों-ही-त्यों भगवदेभक्ति से युक्त होते जाते थे । इस तरह भक्तिभाव से पूर्ण हो वे इस प्रकार कहने लगे

नारका ऊचुः

ॐ नमो भगवते तस्मै केशवाय महात्मने ।

यन्नामकीर्तनात् सद्यो नरकाग्निः प्रशाम्यति ॥३२॥

नरकस्थ जीव बोले- '' जिनका नाम कीर्तन करने से नरक की ज्वाला तत्काल शान्त हो जाती है, उन महात्मा भगवान् केशव को नमस्कार है ।

भक्तप्रियाय देवाय रक्षाय हरये नमः ।

लोकनाथाय शान्ताय यज्ञेशायादिमूर्तये ॥३३॥

जो यज्ञों के ईश्वर, आदिमूर्ति, शान्तस्वरुप और संसार के स्वामी हैं, उन भक्तप्रिय, विश्वपालक भगवान् विष्णु को नमस्कार है ।

अनन्तायाप्रमेयाय नरसिंहाय ते नमः ।

नारायणाय गुरवे शङ्खचक्रगदाभृते ॥३४॥

अनन्त, अप्रमेय नरसिंहस्वरुप, शङ्ख-चक्र-गदा धारण करनेवाले, लोकगुरु आप श्रीनारायण को नमस्कार है ।

वेदप्रियाय महते विक्रमाय नमो नमः ।

वाराहायाप्रतर्क्याय वेदाङ्गाय महीभृते ॥३५॥

वेदों के प्रिय, महान् एवं विशिष्ट गतिवाले भगवान को नमस्कार है । तर्क के अविषय, वेदस्वरुप, पृथ्वी को धारण करनेवाले भगवान् वाराह को प्रणाम है ।

नमो द्युतिमते नित्यं ब्राह्मणाय नमो नमः ।

वामनाय बहुज्ञाय वेदवेदाङ्गधारिणे ॥३६॥

ब्राह्मणकुल में अवतीर्ण, वेद-वेदाङ्गों के ज्ञाता और अनेक विषयों का ज्ञान रखनेवाले कान्तिमान् भगवान् वामन को नमस्कार है ।

बलिबन्धनदक्षाय वेदपालाय ते नमः ।

विष्णवे सुरनाथाय व्यापिने परमात्मने ॥३७॥

बलि को बाँधनेवाले, वेद के पालक, देवताओं के स्वामी, व्यापक, परमात्मा आप वामनरुपधारी विष्णु भगवान को प्रणाम है ।

चतुर्भुजाय शुद्धाय शुद्धद्रव्याय ते नमः ।

जामदग्न्याय रामाय दुष्टक्षत्रान्तकारिणे ॥३८॥

शुद्ध द्रव्यमय, शुद्धस्वरुप भगवान् चतुर्भुज को नमस्कार है । दुष्ट क्षत्रियों का अन्त करनेवाले जमदग्निनन्दन भगवान् परशुराम को प्रणाम है ।

रामाय रावणान्ताय नमस्तुभ्यं महात्मने ।

अस्मानुद्धर गोविन्द पूतिगन्धान्नमोऽस्तु ते ॥३९॥

रावण का वध करनेवाले आप महात्मा श्रीराम को नमस्कार है । गोविन्द ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप इस दुर्गन्धपूर्ण नरक से हमारा उद्धार करें 

व्यास उवाच

इति संकीर्तिते विष्णौ नारकैर्भक्तिपूर्वकम् ।

तदा सा नारकी पीडा गता तेषां महात्मनाम् ॥४०॥

व्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस प्रकार नरक र्मे पड़े हुए जीवों ने जब भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु का कीर्तन किया, तब उन महात्माओं की नरक-पीड़ा तत्काल दूर हो गयी ।

कृष्णरुपधराः सर्वे दिव्यवस्त्रविभूषिताः ।

दिव्यगन्धानुलिप्ताङ्गा दिव्याभरणभूषिताः ॥४१॥

वे सभी अपने अङ्गों में दिव्य गन्ध का अनुलेप लगाये, दिव्य वस्त्र और भूषणों से विभूषित हो, श्रीकृष्णस्वरुप हो गये ।

तानारोप्य विमानेषु दिव्येषु हरिपूरुषाः ।

तर्जयित्वा यमभटान् नीतास्ते केशवालयम् ॥४२॥

फिर भगवान् विष्णु के किंकर यमदूतों की भर्त्सना करके उन्हें दिव्य विमानों पर बिठाकर विष्णुधाम को ले गये ।

नारकेषु च सर्वेषु नीतेषु हरिपुरुषैः ।

विष्णुलोकं यमो भूयो नमश्चक्रे तदा हरिम् ॥४३॥

विष्णुदूतों द्वारा सभी नरकस्थ जीवों के विष्णुलोक में ले जाये जाने पर यमराज ने पुनः भगवान् विष्णु को प्रणाम किया।'

यन्नामकीर्तनाद्याता नारकाः केशवालयम् ।

तं नमामि सदा देवं नरसिंहमहं गुरुम् ॥४४॥

जिनके नामकीर्तन से नरक में पड़े हुए जीव विष्णुधाम को चले गये, उन गुरुदेव नरसिंहभगवान को मैं सदा प्रणाम करता हूँ ।

तस्य वै नरसिंहस्य विष्णोरमिततेजसः ।

प्रणामं येऽपि कुर्वन्ति तेभ्योऽपीह नमो नमः ॥४५॥

उन अमित तेजस्वी नरसिंहस्वरुप भगवान् विष्णु को जो प्रणाम करते हैं, उन्हें भी मेरा बार-बार नमस्कार हैं

दृष्ट्वा प्रशान्तं नरकाग्रिमुग्रं यन्त्रादि सर्वं विपरीतमत्र ।

पुनः स शिक्षार्थमथात्मदूतान् यमो हि वक्तुं कृतवान् मनः स्वयम् ॥४६॥

उग्र नरकाग्नि को शान्त और सभी यन्त्र आदि को विपरीत दशा में पड़े देखकर यमराज ने स्वयं ही पुनः अपने दूतों को शिक्षा देने के लिये मन में विचार किया 

इति श्रीनरसिंहपुराणे यमगीता नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' यमगीता ' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८॥

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