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कर्मकाण्ड

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दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्र

दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्र

इस श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्र अथवा श्रीदुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् अथवा दुर्गापदुद्धार स्तवराज का पाठ करने से प्राणी घोर संकट अर्थात् सभी आपदाओं-विपदाओं से उद्धार हो जाता है तथा सभी मनोरथ सिद्ध हो जाता है ।

दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्र

दुर्गापदुद्धारस्तोत्रम्

Durga aapuddhar stotram

श्रीदुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् अथवा दुर्गापदुद्धारस्तोत्रम्

श्रीदुर्गा आपद् उद्धार स्तोत्र   

श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रम् अथवा दुर्गापदुद्धारस्तवराजः

श्रीदुर्गापदुद्धाराष्टकम् अथवा दुर्गापदुद्धारस्तोत्रम् अथवा दुर्गापदुद्धारस्तवराजः

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे

नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे ।

नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ १ ॥

शरणागतों की रक्षा करनेवाली तथा भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली हे शिवे ! आपको नमस्कार है । जगत्को व्याप्त करनेवाली हे विश्वरूपे ! आपको नमस्कार है । हे जगत्के द्वारा वन्दित चरणकमलोंवाली! आपको नमस्कार है । जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ १ ॥

नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे

नमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे ।

नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ २ ॥

हे जगत् के द्वारा चिन्त्यमानस्वरूपवाली! आपको नमस्कार है । हे महायोगिनि ! आपको नमस्कार है । हे ज्ञानरूपे ! आपको नमस्कार है। हे सदानन्दरूपे ! आपको नमस्कार है । जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ २ ॥

अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य

भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः ।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ३॥

हे देवि ! एकमात्र आप ही अनाथ, दीन, तृष्णासे व्यथित, भयसे पीड़ित, डरे हुए तथा बन्धनमें पड़े जीवको आश्रय देनेवाली तथा एकमात्र आप ही उसका उद्धार करनेवाली हैं। जगत्‌ का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ३ ॥

अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्ये-

ऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहे ।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ४ ॥

हे देवि ! वन में, भीषण संग्राम में, शत्रु के बीच में, अग्नि में, समुद्र में, निर्जन तथा विषम स्थान में और शासन के समक्ष एकमात्र आप ही रक्षा करनेवाली हैं तथा संसारसागर से पार जाने के लिये नौका के समान हैं। जगत्‌ का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४ ॥

अपारे महादुस्तरेऽत्यन्तघोरे

विपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम् ।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतु-

र्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ५ ॥

हे देवि ! पाररहित, महादुस्तर तथा अत्यन्त भयावह विपत्ति- सागर में डूबते हुए प्राणियों की एकमात्र आप ही शरणस्थली हैं तथा उनके उद्धार की हेतु हैं। जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ५ ॥

नमश्चण्डिके चण्डदुर्दण्डलीला-

समुत्खण्डिताखण्डिताशेषशत्रो ।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजं

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ६ ॥

अपनी प्रचण्ड तथा दुर्दण्ड लीला से सभी दुर्दम्य शत्रुओं को समूल नष्ट कर देनेवाली हे चण्डिके ! आपको नमस्कार है। हे देवि ! आप ही एकमात्र आश्रय हैं तथा भवसागर से पारगमन की बीजस्वरूपा हैं । जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ६ ॥

त्वमेवाघभावाधृतासत्यवादीर्न

जाता जितक्रोधनात् क्रोधनिष्ठा ।

इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्णा च नाडी

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ७ ॥

आप ही पापियों के दुर्भावग्रस्त मन की मलिनता हटाकर सत्यनिष्ठा में तथा क्रोध पर विजय दिलाकर अक्रोध में प्रतिष्ठित होती हैं । आप ही योगियों की इडा, पिंगला और सुषुम्णा नाडियों में प्रवाहित होती हैं। जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ७ ॥

नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे

सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे

विभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वं

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ८ ॥

हे देवि! हे दुर्गे! हे शिवे ! हे भीमनादे! हे सरस्वति! हे अरुन्धति ! हे अमोघस्वरूपे ! आप ही विभूति, शची, कालरात्रि तथा सती हैं। जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा करें ॥ ८ ॥

श्रीदुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम् महात्म्य

शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां

मुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानाम् ।

नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानां

त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ॥ ९ ॥

हे देवि ! आप देवताओं, सिद्धों, विद्याधरों, मुनियों, मनुष्यों, पशुओं तथा लुटेरों से पीड़ित जनों की शरण हैं । राजाओं के बन्दीगृह में डाले गये लोगों तथा व्याधियों से पीड़ित प्राणियों की एकमात्र शरण आप ही हैं । हे दुर्गे ! मुझ पर प्रसन्न होइये ॥ ९॥

इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम् ।

त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा पठनाद् घोरसङ्कटात् ॥ १० ॥

मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले ।

सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान् सदा ॥ ११ ॥

स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम् ।

पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले ॥ १२ ॥

स्तवराजमिदं देवि संक्षेपात्कथितं मया ॥ १३ ॥

विपदाओं से उद्धार का हेतुस्वरूप यह स्तोत्र मैंने कहा । पृथ्वी-लोक में, स्वर्गलोक में अथवा पाताल में-कहीं भी तीनों सन्ध्या कालों अथवा एक सन्ध्याकाल में इस स्तोत्र का पाठ करने से प्राणी घोर संकट से छूट जाता है; इसमें कोई संदेह नहीं है । जो मनुष्य भक्ति- परायण होकर सम्पूर्ण स्तोत्र को अथवा इसके एक श्लोक को ही पढ़ता है, वह समस्त पापों से छूटकर परम पद प्राप्त करता है। हे देवेशि ! इसके पाठ से पृथ्वीतल पर कौन- सा मनोरथ सिद्ध नहीं हो जाता ? अर्थात् सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । हे देवि ! मैंने संक्षेप में यह स्तवराज आपसे कह दिया ॥ १०१३॥

।। इति श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

॥ इस प्रकार श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्र के अन्तर्गत उमामहेश्वरसंवाद में श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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