पार्वती स्तुति

पार्वती स्तुति

श्रीमत्स्यमहापुराण अध्याय 158 में यह कथा है कि- शंकरजी के द्वार पर हाथ में सोने का डंडा धारण किये हुए वीरक सावधानीपूर्वक पहरा दे रहा था। उसी समय अंदर प्रवेश करती हुई पार्वतीजी को उसने दरवाजे पर ही खींचकर रोक दिया। प्रत्युत्तर में माता पार्वती ने क्रोध के वशीभूत वीरक को शाप दे दिया। तब वीरक ने मन से उदय हुए पूर्णिमा चन्द्रमा की सी कान्तिवाली माता पार्वती को सिर झुकाकर प्रणाम करने के पश्चात् स्तुति(श्लोक 11-20) करना प्रारम्भ किया-

पार्वती स्तुति

पार्वतीस्तुति

Parvati stuti

वीरककृत पार्वतीस्तुतिः

श्रीमत्स्यमहापुराणान्तर्गत पार्वतीस्तुति

पार्वती स्तुतिः

वीरक उवाच ।

नतसुरासुरमौलिमिलन्मणि

प्रचयकान्ति कराल नखाङ्किते ।

नगसुते! शरणागतवत्सले! 

तव नतोऽस्मि नतार्तिविनाशिनि ॥ १॥

वीरक ने कहा- गिरिराजकुमारी ! आपके चरण - नख प्रणत हुए सुरों और असुरों के मुकुटों में लगी हुई मणिसमूहों की उत्कट कान्ति से सुशोभित होते रहते हैं। आप शरणागतवत्सला तथा प्रणतजनों का कष्ट दूर करनेवाली हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार कर रहा हूँ ॥ १ ॥

तपनमण्डलमण्डितकन्धरे ! 

पृथुसुवर्णसुवर्णनगद्युते ।

विषभुजङ्गनिषङ्गविभूषिते ! 

गिरिसुते ! भवतीमहमाश्रये ॥ २॥

गिरिनन्दिनि ! आपके कन्धे सूर्यमण्डल के समान चमकते हुए सुशोभित हो रहे हैं। आपकी शरीरकान्ति प्रचुर सुवर्ण से परिपूर्ण सुमेरु गिरि की तरह है। आप विषैले सर्परूपी तरकश से विभूषित हैं, मैं आपका आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥ २ ॥

जगति कः प्रणताभिमतं ददौ 

झटिति सिद्धनुते भवती यथा ।

जगति कां च न वाञ्छति 

शङ्करो भुवनधृत्तनये ! भवतीं यथा ॥ ३॥

सिद्धों द्वारा नमस्कार की जानेवाली देवि! आपके समान जगत् में प्रणतजनों के अभीष्ट को तुरंत प्रदान करनेवाला दूसरा कौन है ? गिरिजे ! इस जगत् में भगवान् शंकर आपके समान किसी अन्य की इच्छा नहीं करते ॥ ३॥

विमलयोग विनिर्मित दुर्जय 

स्वतनु तुल्यमहेश्वर मण्डले ।

विदलितान्धक बान्धवसंहतिः 

सुरवरैः प्रथमं त्वमभिष्टुता ॥ ४॥

आपने महेश्वरमण्डल को निर्मल योगबल से निर्मित अपने शरीर के तुल्य दुर्जय बना दिया है। आप मारे गये अन्धकासुर के भाई-बन्धुओं का संहार करनेवाली हैं। सुरेश्वरों ने सर्वप्रथम आपकी स्तुति की है ॥ ४ ॥

सितसटापटलोद्धत कन्धरा 

भरमहा मृगराज रथस्थिता ।

विमलशक्तिमुखानलपिङ्गला 

यतभुजौघ विपिष्टमहासुरा ॥ ५॥

आप श्वेत वर्ण की जटा ( केश) – समूह से आच्छादित कन्धेवाले विशालकाय सिंहरूपी रथ पर आरूढ़ होती हैं । आपने चमकती हुई शक्ति के मुख से निकलनेवाली अग्नि की कान्ति से पीली पड़नेवाली लम्बी भुजाओं से प्रधान-प्रधान असुरों को पीसकर चूर्ण कर दिया है ॥ ५ ॥

निगदिता भुवनैरिति चण्डिका 

जननि ! शुम्भ निशुम्भ निषूदनी ।

प्रणत चिन्तित दानव दानव 

प्रमथनैकरतिस्तरसा भुवि ॥ ६॥

जननि ! त्रिभुवन के प्राणी आपको शुम्भ-निशुम्भ का संहार करनेवाली चण्डिका कहते हैं । एकमात्र आप इस भूतल पर विनम्रजनों द्वारा चिन्तन किये गये प्रधान-प्रधान दानवों का वेगपूर्वक मर्दन करने में उत्साह रखनेवाली हैं ॥ ६ ॥

वियति वायुपथे ज्वलनोज्ज्वले-

ऽवनितले तव देवि! च यद्वपुः ।

तदजितेऽप्रतिमे प्रणमाम्यहं 

भुवन भाविनि! ते भववल्लभे ॥ ७॥

देवि ! आप अजेय, अनुपम, त्रिभुवनसुन्दरी और शिवजी की प्राणप्रिया हैं, आपका जो शरीर आकाश में, वायु के मार्ग में, अग्नि की भीषण ज्वालाओं में तथा पृथ्वीतल पर भासमान है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ॥७॥

जलधयो ललितोद्धत वीचयो 

हुतवहद्युतयश्च चराचरम् ।

फणसहस्रभृतश्च भुजङ्गमा 

स्त्वदभिधास्यति मय्यभयङ्कराः ॥ ८॥

रुचिर एवं भीषण लहरों से युक्त महासागर, अग्नि की लपटें, चराचर जगत् तथा हजारों फण धारण करनेवाले बड़े-बड़े नाग-ये सभी आपका नाम लेनेवाले मेरे लिये भयंकर नहीं दीख पड़ते ॥ ८ ॥

भगवति! स्थिरभक्तजनाश्रये! 

प्रतिगतो भवती चरणाश्रयम् ।

करणजातमिहास्तु ममाचलं 

नुतिलवाप्तिफलाशयहेतुतः ॥ ९॥

अनन्य भक्तजनों की आश्रयभूता भगवति! मैं आपके चरणों की शरण में आ पड़ा हूँ। आपके चरणों में प्रणत होने से प्राप्त हुए थोड़े- से फल के कारण मेरा इन्द्रियसमुदाय आपके चरणों में अटल स्थान प्राप्त करे ॥ ९ ॥

प्रशममेहि ममात्मज वत्सले ! 

तव नमोऽस्तु ! जगत्त्रयसंश्रये ! ।

त्वयि ममास्तु मतिः सततं शिवे 

शरणगोऽस्मि नतोऽस्मि नमोऽस्तु ते ॥ १०॥

पुत्रवत्सले ! मेरे लिये पूर्णरूप से शान्त हो जाइये । त्रिलोकी की आश्रयभूता देवि ! आपको नमस्कार है। शिवे! मेरी बुद्धि निरन्तर आपके चिन्तन में ही लगी रहे। मैं आपके शरणागत हूँ और चरणों में पड़ा हूँ। आपको नमस्कार है ॥ १० ॥

॥ इति श्रीमत्स्यमहापुराणे वीरककृता पार्वतीस्तुतिः सम्पूर्णा ॥

॥ इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराण में वीरककृत पार्वतीस्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

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