पिंगलागीता
यह गीता महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत पितामह भीष्म एवं धर्मराज युधिष्ठिर के संवादरूप में प्राप्त होती है। उसमें धन-सम्पत्ति के नष्ट होने अथवा किसी प्रियजन की मृत्यु होने पर उत्पन्न शोक के निवारण का उपाय एक प्राचीन आख्यान के माध्यम से बताया गया है। आख्यान में शोकाकुल राजा सेनजित् को एक हितैषी ब्राह्मण ने युक्तियों के माध्यम से बहुत मार्मिक तथा प्रभावी उपदेश दिये हैं। इसी क्रम में पिंगला नामक एक गणिका का भी वर्णन आया है, जो निराशा के कारण विरक्त होकर परमसुख को प्राप्त हो गयी थी। इसी प्रसंग के कारण इसे 'पिंगलागीता' कहा जाता है। यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-
पिंगला गीता
Pingala geeta
पिङ्गलागीता
महाभारत शान्तिपर्व
अध्यायः १६८
पिङ्गला गीता
युधिष्ठिर
उवाच
धर्माः
पितामहेनोक्ता राजधर्माश्रिताः शुभाः ।
धर्ममाश्रमिणां
श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि पार्थिव ॥ १॥
राजा
युधिष्ठिर ने कहा - [ हे पितामह! ] आपने राजधर्मसम्बन्धी श्रेष्ठ धर्मों का उपदेश
दिया । हे पृथ्वीनाथ! अब आप आश्रमियों के उत्तम धर्म का वर्णन कीजिये ॥ १ ॥
भीष्मोवाच
सर्वत्र
विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलं तपः ।
बहु द्वारस्य
धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया ॥ २॥
भीष्मजी बोले
- [ युधिष्ठिर ! ] वेदों में सर्वत्र सभी आश्रमों के लिये स्वर्गसाधक यथार्थ फल की
प्राप्ति करानेवाली तपस्या का उल्लेख है। धर्म बहुत-से द्वार हैं। संसार में कोई
ऐसी क्रिया नहीं है, जिसका कोई फल न हो ॥ २ ॥
यस्मिन्यस्मिंस्तु
विनये यो यो याति विनिश्चयम् ।
स तमेवाभिजानाति
नान्यं भरतसत्तम ॥ ३॥
भरतश्रेष्ठ !
जो-जो पुरुष जिस-जिस विषयों में पूर्ण निश्चय को पहुँच जाता है (जिसके द्वारा उसे
अभीष्ट सिद्धि का विश्वास हो जाता है), उसी को वह कर्तव्य समझता है। दूसरे विषय को नहीं ॥ ३ ॥
यथा यथा च
पर्येति लोकतन्त्रमसारवत् ।
तथा तथा विरागोऽत्र
जायते नात्र संशयः ॥ ४॥
मनुष्य
जैसे-जैसे संसार के पदार्थों को सारहीन समझता है, वैसे-ही - वैसे इनमें उसका वैराग्य होता जाता है,
इसमें संशय नहीं है ॥ ४ ॥
एवं व्यवसिते
लोके बहुदोषे युधिष्ठिर ।
आत्ममोक्षनिमित्तं
वै यतेत मतिमान्नरः ॥ ५॥
मतिमान्
युधिष्ठिर ! इस प्रकार यह जगत् अनेक दोषों से परिपूर्ण है,
ऐसा निश्चय करके बुद्धिमान् पुरुष अपने मोक्ष के लिये
प्रयत्न करे ॥ ५ ॥
युधिष्ठिर
उवाच
नष्टे धने वा
दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते ।
यया बुद्ध्या
नुदेच्छोकं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६॥
युधिष्ठिर ने
पूछा- दादाजी! धन के नष्ट हो जाने पर अथवा स्त्री, पुत्र या पिता मर जाने पर किस बुद्धि से मनुष्य अपने शोक का
निवारण करे ? यह मुझे बताइये ॥ ६ ॥
भीष्मोवाच
नष्टे धने वा
दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते ।
अहो दुःखमिति
ध्यायञ्शोकस्यापचितिं चरेत् ॥ ७॥
भीष्मजी ने
कहा - [ वत्स!] जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाय,
तब 'ओह! संसार कैसा दुःखमय है' यह सोचकर मनुष्य शोक को दूर करनेवाले शम-दम आदि साधनों अनुष्ठान
करे ॥ ७ ॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम् ।
यथा सेनजितं
विप्रः कश्चिदेत्याब्रवीत् सुहृत् ॥ ८ ॥
इस विषय में
किसी हितैषी ब्राह्मण ने राजा सेनजित के पास आकर उन्हें जैसा उपदेश दिया था,
उसी प्राचीन इतिहास को विज्ञ पुरुष दृष्टान्त के रूप में
प्रस्तुत किया करते हैं ॥ ८ ॥
पुत्रशोकाभिसन्तप्तं
राजानं शोकविह्वलम् ।
विषन्नवदनं
दृष्ट्वा विप्रो वचनमब्रवीत् ॥ ९॥
राजा सेनजित के
पुत्र की मृत्यु हो गयी थी। वे उसी के शोक की आग से जल रहे थे। उनका मन विषाद में
डूबा हुआ था। उन शोकविह्वल नरेश को देखकर ब्राह्मण ने इस प्रकार कहा- ॥ ९ ॥
किं नु मुह्यसि
मूढस्त्वं शोच्यः किमनुशोचसि ।
यदा त्वामपि
शोचन्तः शोच्या यास्यन्ति तां गतिम् ॥ १०॥
[राजन्!] तुम
मूढ़ मनुष्य की भाँति क्यों मोहित हो रहे हो ? शोक के योग्य तो तुम स्वयं ही हो,
फिर दूसरों के लिये क्यों शोक करते हो?
अजी ! एक दिन ऐसा आयेगा, जब कि दूसरे शोचनीय मनुष्य तुम्हारे लिये भी शोक करते हुए
उसी गति को प्राप्त होंगे ॥ १० ॥
त्वं चैवाहं च
ये चान्ये त्वां राजन्पर्युपासते ।
सर्वे तत्र
गमिष्यामो यत एवागता वयम् ॥ ११॥
'पृथ्वीनाथ! तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्हारे पास बैठे हैं,
सब वहीं जायँगे, जहाँ से हम आये हैं' ॥ ११ ॥
सेनाजितोवाच
का बुद्धिः
किं तपो विप्र कः समाधिस्तपोधन ।
किं ज्ञानं
किं श्रुतं वा ते यत्प्राप्य न विषीदसि ॥ १२॥
सेनजित् ने पूछा-
तपस्या के धनी ब्राह्मणदेव ! आपके पास ऐसी कौन-सी बुद्धि,
कौन-सा तप, कौन-सी समाधि, कैसा ज्ञान और कौन-सा शास्त्र है,
जिसे पाकर आपको किसी प्रकार का विषाद नहीं है ॥ १२ ॥
(हृष्यन्तमवसीदन्तं
सुखदुःखविपर्यये ।
आत्मानमनुशोचामि
ममैष हृदि संस्थितः ॥ )
सुख और दुःख का
चक्र घूमता रहता है। मैं सुख में हर्ष से फूल उठता हूँ और दुःख में खिन्न हो जाता
हूँ। ऐसी अवस्था में पड़े हुए अपने आपके लिये मुझे निरन्तर शोक होता है। यह शोक
मेरे हृदय में डेरा डाले बैठा है।
ब्राह्मणोवाच
पश्य भूतानि
दुःखेन व्यतिषक्तानि सर्वशः ।
उत्तमाधममध्यानि
तेष्विह कर्मसु ॥ १३ ॥
ब्राह्मण ने
कहा - [ राजन्!] देखो, इस संसार में उत्तम, मध्यम और अधम सभी प्राणी भिन्न-भिन्न कर्मों में आसक्त हो
दुःख से ग्रस्त हो रहे हैं ॥ १३ ॥
( अहमेको न मे
कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् ।
न तं पश्यामि
यस्याहं तं न पश्यामि यो मम ॥ )
मैं तो अकेला
हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं उस पुरुष को नहीं
देखता,
जिसका मैं होऊँ तथा उसको भी नहीं देखता,
जो मेरा हो ( न मुझपर किसी की ममता है,
न मेरा ही किसी पर ममत्व है ) ।
आत्मापि चायं
न मम सर्वा वा पृथिवी मम ।
यथा मम
तथान्येषामिति चिन्त्य न मे व्यथा ।
एतां
बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे ॥ १४॥
यह शरीर भी
मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएँ जैसे मेरी हैं,
वैसे ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिये मेरे मन में
कोई व्यथा नहीं होती। इस बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है,
न शोक ॥ १४ ॥
यथा काष्ठं च
काष्ठं च समेयातां महोदधौ ।
समेत्य च
व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ १५॥
जिस प्रकार
समुद्र में बहते हुए दो काष्ठ कभी-कभी एक-दूसरे से मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग
हो जाते हैं, उसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम होता है ॥ १५ ॥
एवं पुत्राश्च
पौत्राश्च ज्ञातयो बान्धवास्तथा ।
तेषां स्नेहो
न कर्तव्यो विप्रयोगो ध्रुवो हि तैः ॥ १६ ॥
इसी तरह पुत्र,
पौत्र, जाति- बान्धव और सम्बन्धी भी मिल जाते हैं। उनके प्रति कभी
आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिये; क्योंकि एक दिन उनसे बिछोह होना निश्चित है ॥ १६ ॥
अदर्शनादापतितः
पुनश्चादर्शनं गतः ।
न त्वासौ वेद
न त्वं तं कः सन्कमनुशोचसि ॥ १७॥
तुम्हारा
पुत्र किसी अज्ञात स्थिति से आया था और अब अज्ञात स्थिति में ही चला गया है। न तो
वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे; फिर तुम उसके कौन होकर किसलिये शोक करते हो ?
॥ १७ ॥
तृष्णार्ति
प्रभवं दुःखं दुःखार्ति प्रभवं सुखम् ।
सुखात्
सञ्जायते दुःखं दुःखमेवं पुनः पुनः ॥ १८ ॥
संसार में
विषयों की तृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है और उस दुःख का विनाश ही सुख है। उस सुख के
बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारम्बार दुःख ही
होता रहता है ॥ १८ ॥
सुखस्यानन्तरं
दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
सुखदुःखे मनुष्याणां
चक्रवत् परिवर्ततः ॥ १९ ॥
सुख के बाद
दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। मनुष्यों के सुख और दुःख चक्र की भाँति घूमते
रहते हैं ॥ १९ ॥
सुखात् त्वं
दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम् ।
न नित्यं लभते
दुःखं न नित्यं लभते सुखम् ॥ २० ॥
इस समय तुम
सुख से दुःख में आ पड़े हो । अब फिर तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी
प्राणी को न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही ॥ २० ॥
शरीरमेवायतनं सुखस्य
दुःखस्य
चाप्यायतनं शरीरम् ।
यद्यच्छरीरेण करोति
कर्म
तेनैव देही
समुपाश्नुते तत् ॥ २१ ॥
यह शरीर ही
सुख का आधार है और यही दुःख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीर से जो-जो कर्म
करता है,
उसी के अनुसार वह सुख एवं दुःखरूप फल भोगता है ॥ २१ ॥
जीवितं च शरीरेण
जात्यैव सह जायते ।
उभे सह
विवर्तेते उभे सह विनश्यतः ॥ २२ ॥
यह जीवन
स्वभावतः शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है। दोनों साथ-साथ विविध रूपों में रहते हैं
और साथ-ही-साथ नष्ट हो जाते हैं ॥ २२ ॥
स्नेहपाशैर्बहुविधैराविष्टविषया
जना: ।
अकृतार्थाश्च सीदन्ते
जलै: सैकतसेतवः ॥ २३ ॥
मनुष्य नाना
प्रकार के स्नेह बन्धनों में बँधे हुए हैं, अतः वे सदा विषयों की आसक्ति से घिरे रहते हैं;
इसीलिये जैसे बालू द्वारा बनाये हुए पुल जल के वेग से बह
जाते हैं,
उसी प्रकार उन मनुष्यों की विषयकामना सफल नहीं होती;
जिससे वे दुःख पाते रहते हैं ॥ २३ ॥
स्नेहेन तिलवत्
सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते ।
तिलपीडैरिवाक्रम्य
क्लेशैरज्ञानसम्भवैः ॥ २४ ॥
तेली लोग तेल के
लिये जैसे तिलों को कोल्हू में पेरते हैं, उसी प्रकार स्नेह के कारण सब लोग अज्ञानजनित क्लेशों द्वारा
सृष्टिचक्र में पिस रहे हैं ॥ २४ ॥
सञ्चिनोत्यशुभं
कर्म कलत्रापेक्षया नरः ।
एकः
क्लेशानवाप्नोति परत्रेह च मानवः ।। २५ ।।
मनुष्य
स्त्री- पुत्र आदि कुटुम्ब के लिये चोरी आदि पापकर्मों का संग्रह करता है;
किंतु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का
क्लेशमय फल भोगना पड़ता है ॥ २५ ॥
पुत्रदारकुटुम्बेषु
प्रसक्ताः सर्वमानवाः ।
शोकपङ्कार्णवे
मग्ना जीर्णा वनगजा इव ॥ २६ ॥
स्त्री,
पुत्र और कुटुम्ब में आसक्त हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोक के
समुद्र में डूब जाते हैं, जैसे बूढ़े जंगली हाथी दलदल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं ॥
२६ ॥
पुत्रनाशे
वित्तनाशे ज्ञातिसम्बन्धिनामपि ।
प्राप्यते
सुमहद् दुःखं दावाग्निप्रतिमं विभो ।
दैवायत्तमिदं सर्वं
सुखदुःखे भवाभवौ ॥ २७ ॥
प्रभो! यहाँ
सब लोगों को पुत्र, धन, कुटुम्बी तथा सम्बन्धियों का नाश होने पर दावानल के समान
दाह उत्पन्न करनेवाला महान् दुःख प्राप्त होता है; परंतु सुख - दुःख और जन्म-मृत्यु आदि यह सब कुछ प्रारब्ध के
ही अधीन है॥२७॥
असुहृत् ससुहृच्चापि
सशत्रुर्मित्रवानपि ।
सप्रज्ञः प्रज्ञया
हीनो दैवेन लभते सुखम् ॥ २८ ॥
मनुष्य हितैषी
सुहृदों से युक्त हो या न हो, वह शत्रु के साथ हो या मित्र,
बुद्धिमान् हो या बुद्धिहीन, दैव की अनुकूलता होने पर ही सुख पाता है ॥ २८ ॥
नालं सुखाय
सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः ।
न च
प्रज्ञालमर्थानां न सुखानामलं धनम् ॥ २९ ॥
अन्यथा न तो
सुहृद् सुख देने में समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देने में समर्थ हैं,
न तो बुद्धि धन देने की शक्ति रखती है और न धन ही सुख देने में
समर्थ होता है ॥ २९ ॥
न बुद्धिर्धनलाभाय
न जाड्यमसमृद्धये ।
लोकपर्यायवृत्तान्तं
प्राज्ञो जानाति नेतरः ॥ ३० ॥
न तो बुद्धि
धन की प्राप्ति में कारण है, न मूर्खता निर्धनता में, वास्तव में संसारचक्र की गति का वृत्तान्त कोई ज्ञानी पुरुष
ही जान पाता है, दूसरा नहीं ॥३०॥
बुद्धिमन्तं च
शूरं च मूढं भीरुं जडं कविम् ।
दुर्बलं
बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम् ॥ ३१ ॥
बुद्धिमान्,
शूरवीर, मूढ़, डरपोक, गूँगा, विद्वान्, दुर्बल और बलवान् जो भी भाग्यवान् होगा-दैव जिसके अनुकूल
होगा,
उसे बिना यत्न के ही सुख प्राप्त होगा ॥ ३१ ॥
धेनुर्वत्सस्य
गोपस्य स्वामिनस्तस्करस्य च ।
पयः पिबति
यस्तस्या धेनुस्तस्येति निश्चयः ॥ ३२ ॥
दूध देनेवाली
गौ बछड़े की है या उसे दुहने अथवा चरानेवाले ग्वाले की है या रखनेवाले मालिक की है
अथवा उसे चुराकर ले जानेवाले चोर की है? वास्तव में जो उसका दूध पीता है,
उसी की वह गाय है; ऐसा विद्वानों का निश्चय है ॥ ३२ ॥
ये च मूढतमा
लोके ये च बुद्धेः परं गताः ।
ते नराः
सुखमेधन्ते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ ३३ ॥
इस संसार में
जो अत्यन्त मूढ़ हैं और जो बुद्धि से परे पहुँच गये हैं,
वे ही मनुष्य सुखी हैं। बीच के सभी लोग कष्ट भोगते हैं ॥ ३३
॥
अन्त्येषु
रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे ।
अन्त्यप्राप्तिं सुखामाहुर्दुःखमन्तरमन्त्ययोः ॥
३४ ॥
ज्ञानी पुरुष
अन्तिम स्थितियों में रमण करते हैं, मध्यवर्ती स्थिति में नहीं। अन्तिम स्थिति की प्राप्ति
सुखस्वरूप बतायी जाती है और उन दोनों के मध्य की स्थिति दुःखरूप कही गयी है ॥ ३४ ॥
( सुखं
स्वपिति दुर्मेधाः स्वानि कर्माण्यचिन्तयन् ।
अविज्ञानेन
महता कम्बलेनेव संवृतः ॥ )
खोटी
बुद्धिवाला मूर्ख मनुष्य अपने कर्मों के शुभाशुभ परिणाम की कोई परवा न करके सुख से
सोता है;
क्योंकि वह कम्बल से ढके हुए पुरुष की भाँति महान् अज्ञान से
आवृत रहता है।
ये च
बुद्धिसुखं प्राप्ता द्वन्द्वातीता विमत्सराः ।
तान् नैवार्था
न चानर्था व्यथयन्ति कदाचन ॥ ३५ ॥
किंतु जिन्हें
ज्ञानजनित सुख प्राप्त है, जो द्वन्द्वों से अतीत हैं तथा जिनमें मत्सरता का भी अभाव
है,
उन्हें अर्थ और अनर्थ कभी पीड़ा नहीं देते हैं ॥ ३५ ॥
अथ ये
बुद्धिमप्राप्ता व्यतिक्रान्ताश्च मूढताम् ।
तेऽतिवेलं प्रहृष्यन्ति
सन्तापमुपयान्ति च ॥ ३६ ॥
जो मूढ़ता को
तो लाँघ चुके हैं, परंतु जिनको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है,
वे सुख की परिस्थिति आने पर अत्यन्त हर्ष से फूल उठते हैं
और दुःख की परिस्थिति में अतिशय सन्ताप का अनुभव करने लगते हैं ॥ ३६ ॥
नित्यं
प्रमुदिता मूढा दिवि देवगणा इव ।
अवलेपेन महता
परिभूत्या विचेतसः ॥ ३७ ॥
मूर्ख मनुष्य
स्वर्ग में देवताओं की भाँति सदा विषयसुख में मग्न रहते हैं;
क्योंकि उनका चित्त विषयासक्ति के कीचड़ में लथपथ होकर
मोहित जाता है ॥ ३७ ॥
सुखं
दुःखान्तमालस्यं दुःखं दाक्ष्यं सुखोदयम् ।
भूतिस्त्वेवं
श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे ॥ ३८ ॥
आरम्भ में
आलस्य सुख-सा जान पड़ता है, परंतु वह अन्त में दुःखदायी होता है और कार्यकौशल दुःख -
सा लगता है, परंतु वह सुख का उत्पादक है। कार्यकुशल पुरुष में ही लक्ष्मीसहित ऐश्वर्य
निवास करता है, आलसी में नहीं ॥ ३८ ॥
सुखं वा यदि
वा दुःखं प्रियं वा यदि वाप्रियम् ।
प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः ॥ ३९ ॥
अतः
बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि सुख या दुःख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो-जो प्राप्त हो जाय, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे ॥ ३९ ॥
शोकस्थानसहस्त्राणि
भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे
मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ४० ॥
शोक के हजारों
स्थान हैं और भय के सैकड़ों स्थान हैं; किंतु वे प्रतिदिन मूर्खों पर ही प्रभाव डालते हैं,
विद्वानों पर नहीं ॥ ४० ॥
बुद्धिमन्तं
कृतप्रज्ञं शुश्रूषुमनसूयकम् ।
दान्तं
जितेन्द्रियं चापि शोको न स्पृशते नरम् ॥ ४१ ॥
जो बुद्धिमान्,
ऊहापोह में कुशल एवं शिक्षित बुद्धिवाला,
अध्यात्मशास्त्र के श्रवण की इच्छा रखनेवाला,
किसी के दोष न देखनेवाला, मन को वश में रखनेवाला और जितेन्द्रिय है,
उस मनुष्य को शोक कभी छू भी नहीं सकता ॥ ४१ ॥
एतां बुद्धिं
समास्थाय गुप्तचित्तश्चरेद् बुधः ।
उदयास्तमयज्ञं
हि न शोकः स्प्रष्टुमर्हति ॥ ४२ ॥
विद्वान्
पुरुष को चाहिये कि वह इसी विचार का आश्रय लेकर मन को काम,
क्रोध आदि शत्रुओं से सुरक्षित रखते हुए उत्तम बर्ताव करे।
जो उत्पत्ति और विनाश के तत्त्व को जानता है, उसे शोक छू नहीं सकता ॥ ४२ ॥
यन्निमित्तं
भवेच्छोकस्तापो वा दुःखमेव च ।
आयासो वा यतो
मूलमेकाङ्गमपि तत् त्यजेत् ॥ ४३ ॥
जिसके कारण
शोक,
ताप अथवा दुःख हो या जिसके कारण अधिक श्रम उठाना पड़े,
वह दुःख का मूल कारण अपने शरीर का एक अंग भी हो तो उसे
त्याग देना चाहिये ॥ ४३ ॥
किञ्चिदेव ममत्वेन
यदा भवति कल्पितम् ।
तदेव
परितापार्थं सर्वं सम्पद्यते तथा ॥ ४४ ॥
मनुष्य जब
किसी भी पदार्थ में ममत्व कर लेता है, तब वे ही सब उसके वैसे दुःख के कारण बन जाते हैं ॥ ४४ ॥
यद् यत् यजति
कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते ।
कामानुसारी
पुरुष: कामाननुविनश्यति ॥ ४५ ॥
वह कामनाओं में
से जिस-जिस का परित्याग कर देता है, वही उसके सुख की पूर्ति करनेवाली हो जाती है। जो पुरुष
कामनाओं का अनुसरण करता है, वह उन्हीं के पीछे नष्ट हो जाता है ।। ४५ ।।
यच्च कामसुखं
लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् ।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते
नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ४६ ॥
संसार में जो
कुछ इस लोक के भोगों का सुख है और जो स्वर्ग का महान् सुख है,
वे दोनों तृष्णाक्षय से होनेवाले सुख की सोलहवीं कला के
बराबर भी नहीं हैं ॥ ४६ ॥
पूर्वदेहकृतं
कर्म शुभं वा यदि वाशुभम् ।
प्राज्ञं मूढं
तथा शूरं भजते यादृशं कृतम् ॥ ४७ ॥
मनुष्य
बुद्धिमान् हो, मूर्ख हो अथवा शूरवीर हो, उसने पूर्वजन्म में जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया है,
उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है ॥ ४७ ॥
एवमेव
किलैतानि प्रियाण्येवाप्रियाणि च ।
जीवेषु
परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च ॥ ४८ ॥
इस प्रकार
जीवों को प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःख की प्राप्ति बार- बार क्रम से होती ही रहती है,
इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४८ ॥
एतां बुद्धिं
समास्थाय सुखमास्ते गुणान्वितः ।
सर्वान्
कामान् जुगुप्सेत कामान् कुर्वीत पृष्ठतः ॥ ४९ ॥
ऐसी बुद्धि का
आश्रय लेकर कामनाओं के त्यागरूपी गुण से युक्त हुआ मनुष्य सुख से रहता है;
इसलिये सब प्रकार के भोगों से विरक्त होकर उन्हें पीठ पीछे
कर दे अर्थात् उनसे विमुख हो जाय ॥ ४९ ॥
वृत्त एष हृदि
प्रौढो मृत्युरेष मनोभवः ।
क्रोधो नाम
शरीरस्थो देहिनां प्रोच्यते बुधैः ॥ ५० ॥
हृदय से
उत्पन्न होनेवाला यह काम हृदय में ही पुष्ट होता है, फिर यही मृत्यु का रूप धारण कर लेता है;
क्योंकि ( जब इसकी सिद्धि में कोई बाधा आती है,
तब) विद्वानों द्वारा यही प्राणियों के शरीर के भीतर क्रोध के
नाम से पुकारा जाता है ॥ ५० ॥
यदा संहरते
कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
तदात्मज्योतिरात्मायमात्मन्येव
प्रपश्यति ।। ५१ ।।
कछुआ जैसे
अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार यह जीव जब अपनी सब कामनाओं का संकोच कर देता है,
तब यह अपने विशुद्ध अन्तःकरण में ही स्वयं प्रकाशस्वरूप
परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है ॥ ५१ ॥
न बिभेति यदा
चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति ।
यदा नेच्छति न
द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५२ ॥
जब यह किसी से
भय नहीं मानता और इससे भी किसी को भय नहीं होता तथा जब यह किसी वस्तु को न तो
चाहता है और न उससे द्वेष ही करता है, तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ॥ ५२ ॥
उभे सत्यानृते
त्यक्त्वा शोकानन्दौ भयाभये ।
प्रियाप्रिये
परित्यज्य प्रशान्तात्मा भविष्यति ॥ ५३ ॥
जब यह साधक
सत्य और असत्य अर्थात् जगत्के व्यक्त और अव्यक्त पदार्थों का,
शोक और हर्ष का, भय और अभय का तथा प्रिय और अप्रिय आदि समस्त द्वन्द्वों का
परित्याग कर देता है, तब उसका चित्त शान्त हो जाता है ॥ ५३ ॥
यदा न कुरुते
धीरः सर्वभूतेषु पापकम् ।
कर्मणा मनसा
वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५४ ॥
जब धैर्य सम्पन्न
ज्ञानवान् पुरुष किसी भी प्राणी के प्रति मन, वाणी और क्रिया द्वारा पापपूर्ण बर्ताव नहीं करता,
तब परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ॥ ५४ ॥
या दुस्त्यजा
दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः ।
योऽसौ
प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ५५ ॥
खोटी
बुद्धिवाले मनुष्यों के लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्य के जीर्ण (वृद्ध) हो जाने पर भी स्वयं कभी जीर्ण
नहीं होती तथा जो प्राणों के साथ जानेवाला रोग बनकर रहती है,
उस तृष्णा को जो त्याग देता है,
उसी को सुख मिलता है ॥ ५५ ॥
अत्र पिङ्गलया
गीता गाथा: श्रूयन्ति पार्थिव ।
यथा सा
कृच्छ्रकालेऽपि लेभे धर्मं सनातनम् ॥ ५६ ॥
राजन् ! इस
विषय में पिंगला की गायी हुई गाथाएँ सुनी जाती हैं, जिसके अनुसार चलकर संकटकाल में भी उसने सनातन धर्म को
प्राप्त कर लिया था ॥ ५६ ॥
संकेते
पिङ्गला वेश्या कान्तेनासीद् विनाकृता ।
अथ कृच्छ्रगता
शान्ता बुद्विमास्थापयत् तदा ॥ ५७ ॥
एक बार पिंगला
वेश्या बहुत देर तक संकेत – स्थान पर बैठी रही, तब भी उसका प्रियतम उसके पास नहीं आया;
इससे वह बड़े कष्ट में पड़ गयी तथापि शान्त रहकर इस प्रकार
विचार करने लगी ॥ ५७ ॥
पिङ्गलोवाच
उन्मत्ताहमनुन्मत्तं
कान्तमन्ववसं चिरम् ।
अन्तिके रमणं
सन्तं नैनमध्यगमं पुरा ॥ ५८ ॥
पिंगला बोली-
मेरे सच्चे प्रियतम चिरकाल से मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदा से उनके साथ ही रहती
आयी हूँ। वे कभी उन्मत्त नहीं होते; परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आज से पहले उन्हें पहचान
ही न सकी ॥ ५८ ॥
एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम्
।
का हि
कान्तमिहायान्तमयं कान्तेति मंस्यते ॥ ५९ ॥
जिसमें एक ही
खम्भा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीररूपी घर को आज से मैं दूसरों के लिये बन्द कर दूँगी
। यहाँ आनेवाले उस सच्चे प्रियतम को जानकर भी कौन नारी किसी हाड़-मांस के पुतले को
अपना प्राणवल्लभ मानेगी?॥५९॥
अकामां
कामरूपेण धूर्ता नरकरूपिणः ।
न पुनर्वञ्चयिष्यन्ति
प्रतिबुद्धास्मि जागृमि ॥ ६० ॥
अब मैं
मोहनिद्रा से जग गयी हूँ और निरन्तर सजग हूँ- कामनाओं का भी त्याग कर चुकी हूँ।
अतः वे नरकरूपी धूर्त मनुष्य काम का रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे ॥
६० ॥
अनर्थो हि
भवेदर्थो दैवात् पूर्वकृतेन वा ।
सम्बुद्धाहं
निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया ॥ ६१ ॥
भाग्य से अथवा
पूर्वकृत शुभ कर्मों के प्रभाव से कभी-कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है,
जिससे आज निराश होकर मैं उत्तम ज्ञान से सम्पन्न हो गयी
हूँ। अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूँ ॥ ६१ ॥
सुखं निराश:
स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम् ।
आशामनाशां
कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ६२ ॥
वास्तव में
जिसे किसी प्रकार की आशा नहीं है, वही सुख से सोता है। आशा का न होना ही परम सुख है। देखो,
आशा को निराशा के रूप में परिणत करके पिंगला सुख की नींद
सोने लगी ॥ ६२ ॥
भीष्म उवाच
एतैश्चान्यैश्च
विप्रस्य हेतुमद्धिः प्रभाषितैः ।
पर्यवस्थापितो
राजा सेनजिन्मुमुदे सुखी ॥ ६३ ॥
भीष्मजी कहते हैं-
राजन् ! ब्राह्मण के कहे हुए इन पूर्वोक्त तथा अन्य युक्तियुक्त वचनों से राजा
सेनजित्का चित्त स्थिर हो गया । वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्नतापूर्वक
रहने लगे ॥ ६३ ॥
॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पिङ्गलागीता सम्पूर्णा ॥
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