कामगीता

कामगीता

महाभारत के आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर संवाद के रूप में कामगीता प्राप्त है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने कामप्रोक्त एक प्राचीन गाथा का वर्णन किया है, जिसमें बाह्य पदार्थों के त्याग के स्थान पर उनमें ममत्व के त्याग को ही वास्तविक त्याग बताया गया है, जो महान् भय से छुटकारा दिलानेवाला है। अत्यन्त लघु कलेवरवाली यह गीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

कामगीता

कामगीता

Kaam Geeta

काम गीता

महाभारते आश्वमेधिकपर्वान्तर्गता कामगीता

कामगीता

वासुदेव उवाच न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत ।

शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा ॥ १ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैंभारत ! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थों का त्याग करने से ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती। शारीरिक द्रव्य का त्याग करके भी सिद्धि प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है ॥ १ ॥

बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृद्ध्यतः ।

यो धर्मो यत् सुखं चैव द्विषतामस्तु तत् तथा ॥ २ ॥

बाह्य पदार्थों से अलग होकर भी जो शारीरिक सुख – विलास में "आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुख की प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करनेवालों को ही प्राप्त हो ॥ २ ॥

द्वयक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् ।

ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम् ॥ ३ ॥

'मम' (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप हैं और 'न मम' (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरों का पद सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का कारण है । ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृतत्व है ॥ ३ ॥

ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ ।

अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् ॥ ४ ॥

राजन् ! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियों को लड़ाते हैं अर्थात् किसी को अपना मानना और किसी को अपना न मानना यह भाव ही युद्ध का कारण है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४ ॥

अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत ।

भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते ॥ ५ ॥

भरतनन्दन ! यदि इस जगत्की सत्ता का विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियों के शरीर का भेदन करके भी मनुष्य अहिंसा का ही फल प्राप्त करेगा ॥ ५ ॥

लब्ध्वा हि पृथ्वीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम् ।

ममत्वं यस्य नैव स्यात् किं तया स करिष्यति ॥ ६ ॥

चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वी को पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात् उस सम्पत्ति से उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता ॥ ६ ॥

अथवा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः ।

ममता यस्य द्रव्येषु मृत्योरास्ये स वर्तते ॥ ७ ॥

किंतु कुन्तीनन्दन ! जो वन में रहकर जंगली फल- मूलों से ही जीवन - निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्यों में ममता है तो वह मौत के मुख में ही विद्यमान है ॥ ७ ॥

बाह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभाव पश्य भारत ।

यन्न पश्यति तद् भूतं मुच्यते स महाभयात् ॥ ८ ॥

भारत ! बाहरी और भीतरी शत्रुओं के स्वभाव को देखिये- समझिये (ये मायामय होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिये ) । जो मायिक पदार्थों को ममत्व की दृष्टि से नहीं देखता, वह महान् भय से छुटकारा पा जाता है ॥ ८ ॥

कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके

नेहाकामा काचिदस्ति प्रवृत्तिः ।

सर्वे कामा मनसोऽङ्गप्रभूता यान्

पण्डितः संहरते विचिन्त्य ॥ ९ ॥

जिसका मन कामनाओं में आसक्त है, उसकी संसार के लोग प्रशंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामना के नहीं होती और समस्त कामनाएँ मन से ही प्रकट होती हैं। विद्वान् पुरुष कामनाओं को दुःख का कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं ॥ ९ ॥

भूयो भूयो जन्मनोऽभ्यासयोगाद्

योगी योगं सारमार्ग विचिन्त्य ।

दानं च वेदाध्ययनं तपश्च

काम्यानि कर्माणि च वैदिकानि ॥ १० ॥

व्रतं यज्ञान् नियमान् ध्यानयोगान्

कामेन यो नारभते विदित्वा ।

यद् यच्चायं कामयते स धर्मो

न यो धर्मो नियमस्तस्य मूलम् ॥ ११ ॥

योगी पुरुष अनेक जन्मों के अभ्यास से योग को ही मोक्ष का मार्ग निश्चित करके कामनाओं का नाश कर डालता है। जो इस बात को जानता है, वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदोक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान – योगादि का कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्म से वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्तव में कामनाओं का निग्रह ही धर्म है और वही मोक्ष का मूल है ॥ १०-११ ॥

अत्र गाथा: कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः ।

शृणु संकीर्त्यमानास्ता अखिलेन युधिष्ठिर ।

नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित् ॥ १२ ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में प्राचीन बातों के जानकार विद्वान् एक पुरातन गाथा का वर्णन किया करते हैं, जो कामगीता कहलाती है। उसे मैं आपको सुनाता हूँ, सुनिये। काम का कहना है कि कोई भी प्राणी वास्तविक उपाय ( निर्ममता और योगाभ्यास) - का आश्रय लिये बिना मेरा नाश नहीं कर सकता है ॥ १२ ॥

यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम् ।

तस्य तस्मिन् प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १३ ॥

जो मनुष्य अपने में अस्त्रबल की अधिकता का अनुभव करके मुझे नष्ट करने का प्रयत्न करता है, उसके उस अस्त्र – बल में मैं अभिमानरूप से पुनः प्रकट हो जाता हूँ ॥ १३ ॥

यो मां प्रयत हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।

जङ्गमेष्विव धर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १४॥

धर्मात्मा जो नाना प्रकार की दक्षिणावाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा ॥ १४ ॥

यो मां प्रयतते नित्यं वेदैर्वेदान्तसाधनैः ।

स्थावरेष्विव भूतात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १५ ॥

जो वेद और वेदान्त के स्वाध्यायरूप साधनों के द्वारा मुझे मिटादेने का सदा प्रयास करता है, उसके मन में मैं स्थावर प्राणियों में जीवात्माकी भाँति प्रकट होता हूँ ॥ १५ ॥

यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः ।

भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ॥ १६ ॥

जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्य के बल से मुझे नष्ट करने की चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावों के साथ मैं इतना घुल-मिल जाता हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता ॥ १६ ॥

यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः ।

ततस्तपसि तस्याथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् ॥ १७॥

जो कठोर व्रत का पालन करनेवाला मनुष्य तपस्या के द्वारा मेरे अस्तित्व को मिटा डालने का प्रयास करता है, उसकी तपस्या में ही मैं प्रकट हो जाता हूँ ॥ १७ ॥

यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः ।

तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च ।

अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः ॥ १८ ॥

जो विद्वान् पुरुष मोक्ष का सहारा लेकर मेरे विनाश का प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसी से वह बँधा हुआ है। यह विचारकर मुझे उसपर हँसी आती है और मैं खुशी के मारे नाचने लगता हूँ । एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियों के लिये अवध्य एवं सदा रहनेवाला हूँ॥१८॥

तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।

धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति ॥ १९ ॥

अतः महाराज! आप भी नाना प्रकार की दक्षिणावाले यज्ञों द्वारा अपनी उस कामना को धर्म में लगा दीजिये । वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी ॥ १९ ॥

यजस्व वाजिमेधेन विधिवद् दक्षिणावता ।

अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ॥ २० ॥

मा ते व्यथास्तु निहतान् बन्धून् वीक्ष्य पुनः पुनः ।

न शक्यास्ते पुनर्द्रष्टुं ये हताऽस्मिन् रणाजिरे ॥ २१ ॥

विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेध का तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्यान्य समृद्धिशाली यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये। अपने मारे गये भाई-बन्धुओंको बारम्बार याद करके आपके मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये। इस समरांगण में जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते ॥ २०-२१ ॥

स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः ।

कीर्ति लोके परां प्राप्य गतिमग्र्यां गमिष्यसि ॥ २२ ॥

इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धिशाली महायज्ञों का अनुष्ठान करके इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे ॥ २२ ॥

॥ इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि कृष्णधर्मराजसंवादे कामगीता सम्पूर्णा ।।

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment