भवानी स्तुति
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीविनयपत्रिका जी में जगदंबा भगवती माता भवानी दुर्गा की दो स्तुतियाँ लिखी हैं । यह स्तुति बड़ी ही सुंदर और मनमोहक है और माता भवानी की कृपा से राम जी के चरणों में लगाने वाली है।
भवानीस्तुति
Bhavani stuti
तुलसीदासकृत भवानीस्तुति
भवानी स्तुति
विनयपत्रिकांतर्गत भवानीस्तुति
दुसह दोष-दुख, दलनि,
करु देवि दाया ।
विश्व-मूलाऽसि,
जन-सानुकूलाऽसि,
कर शूलधारिणि महामूलमाया ॥ १ ॥
हे देवि! तुम दुःसह दोष और दुःखों को
दमन करनेवाली हो, मुझ पर दया करो।
तुम विश्व-ब्रह्माण्ड की मूल (उत्पत्ति- स्थान) हो, भक्तों पर
सदा अनुकूल रहती हो, दुष्टदलन के लिये हाथ में त्रिशूल धारण
किये हो और सृष्टि की उत्पत्ति करनेवाली मूल (अव्याकृत) प्रकृति हो ॥ १ ॥
तडित गर्भाङ्ग सर्वाङ्ग सुन्दर लसत,
दिव्य पट भव्य भूषण विराजैं ।
बालमृग-मंजु खञ्जन-विलोचनि,
चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजें ॥
२ ॥
तुम्हारे सुन्दर शरीर के समस्त
अंगों में बिजली-सी चमक रही है, उन पर दिव्य
वस्त्र और सुन्दर आभूषण शोभित हो रहे हैं। तुम्हारे नेत्र मृगछौने और खंजन के
नेत्रों के समान सुन्दर हैं, मुख चन्द्रमा के समान है,
तुम्हें देखकर करोड़ों रति और कामदेव लज्जित होते हैं ॥ २ ॥
रूप-सुख-शील-सीमाऽसि,
भीमाऽसि,
रामाऽसि वामाऽसि वर बुद्धि बानी ।
छमुख हेरंब-अंबासि,
जगदंबिके,
शंभु-जायासि जय जय भवानी ॥ ३ ॥
तुम रूप,
सुख और शील की सीमा हो; दुष्टों के लिये तुम
भयानक रूप धारण करनेवाली हो। तुम्हीं लक्ष्मी, तुम्हीं
पार्वती और तुम्हीं श्रेष्ठ बुद्धिवाली सरस्वती हो । हे जगज्जननि ! तुम
स्वामिकार्तिकेय और गणेशजी की माता हो और शिवजी की गृहिणी हो; हे भवानी ! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥ ३ ॥
चंड-भुजदंड-खंडनि,
बिहंडनि महिष
मुंड-मद-भंग कर अंग तोरे ।
शुंभ-निःशुंभ कुम्भीश रण-केशरिणि,
क्रोध-वारीश अरि-वृन्द बोरे ॥ ४ ॥
तुम चण्ड दानव के भुजदण्डों का
खण्डन करनेवाली और महिषासुर को मारनेवाली हो, मुण्ड
दानव के घमण्ड का नाश कर तुम्हीं ने उसके अंग-प्रत्यंग तोड़े हैं। शुम्भ
निशुम्भरूपी मतवाले हाथियों के लिये तुम रण में सिंहिनी हो। तुमने अपने क्रोधरूपी
समुद्र में शत्रुओं के दल के-दल डुबो दिये हैं ॥ ४ ॥
निगम-आगम- अगम गुर्वि! तव गुन-
कथन,
उर्विधर करत जेहि सहसजीहा ।
देहि मा,
मोहि पन प्रेम यह नेम निज,
राम घनश्याम तुलसी पपीहा ॥ ५ ॥
वेद, शास्त्र और सहस्र जीभवाले शेषजी तुम्हारा गुणगान करते हैं; परंतु उसका पार पाना उनके लिये बड़ा कठिन है । हे माता ! मुझ तुलसीदास को
श्रीरामजी में वैसा ही प्रण, प्रेम और नेम दो, जैसा चातक का श्याम मेघ में होता है ॥ ५ ॥
इति: विनय पत्रिका भवानी स्तुति सम्पूर्ण ॥
0 $type={blogger} :
Post a Comment