अग्निपुराण अध्याय २४२

अग्निपुराण अध्याय २४२                              

अग्निपुराण अध्याय २४२ में सेना के छः भेद, इनका बलाबल तथा छः अङ्ग का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २४२

अग्निपुराणम् अध्यायः २४२                             

अग्निपुराणम् द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 242                   

अग्निपुराण दो सौ बयालीसवाँ अध्याय

अग्निपुराण अध्याय २४२                             

अग्निपुराणम् अध्यायः २४२राजनीतिः

अथ द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

राम उवाच

षड्विधन्तु बलं व्यूह्य देवान् प्रार्च्य रिपुं व्रजेत् ।

मौलं भूतं श्रोणिसुहृद्द्विषदाटविकं बलं ॥०१॥

पूर्वं पूर्वं गरीयस्तु बलानां व्यसनं तथा ।

षडङ्गं मन्त्रकोषाभ्यां पदात्यश्वरथद्विपैः ॥०२॥

श्रीराम कहते हैं - छः प्रकार की सेना को कवच आदि से संनद्ध एवं व्यूहबद्ध करके इष्ट देवताओं की तथा संग्रामसम्बन्धी दुर्गा आदि देवियों की पूजा करने के पश्चात् शत्रु पर चढ़ाई करे। मौल, भृत, श्रेणि, सुहृद् शत्रु तथा आटविक-ये छः प्रकार के सैन्य हैं।* इनमें पर की अपेक्षा पूर्व- पूर्व सेना श्रेष्ठ कही गयी है। इनका व्यसन भी इसी क्रम से गरिष्ठ माना गया है। पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथीसवार ये सेना के चार अङ्ग हैं; किंतु मन्त्र और कोष इन दो अङ्गों के साथ मिलकर सेना के छः अङ्ग हो जाते हैं ॥ १-२ ॥

* मूलभूत पुरुष के सम्बन्धों से चली आनेवाली वंशपरम्परागत सेना 'मौल' कही गयी है। आजीविका देकर जिसका भरण-पोषण किया गया हो, वह 'भूत' बल है। जनपद के अन्तर्गत जो व्यवसायियों तथा कारीगरों का संघ है, उनकी सेना' श्रेणियल' है। सहायता के लिये आये हुए मित्र की सेना 'सुहवल' है अपनी दण्डशक्ति से वश में की गयी सेना 'शत्रुवल' है तथा स्वमण्डल के अन्तर्गत अटवी (जंगल) का उपभोग करनेवालों को 'आटविक' कहते हैं उनकी सेना 'आटविक बल' है।

नद्यद्रवनदुर्गेषु यत्र यत्र भयं भवेत् ।

सेनापतिस्तत्र तत्र गच्छेद्व्यूहीकृतैर्बलैः ॥०३॥

नायकः पुरतो यायात्प्रवीरपुरुषावृतः ।

मध्ये कलत्रं स्वामी च कोषः फल्गु च यद्बलं ॥०४॥

पार्श्वयोरुभयोरश्वा वाजिनां पार्श्वयो रथाः ।

रथानां पार्श्वयोर्नागा नागानां चाटवीबलं ॥०५॥

पश्चात्सेनापतिः सर्वं पुरस्कृत्य कृती स्वयं ।

यायात्सन्नद्धसैन्यौघः खिन्नानाश्वासयञ्च्छनैः ॥०६॥

यायाद्व्यूहेन महता मकरेण पुरोभये ।

श्येनेनोद्धृतपक्षेण सूच्या वा वीरवक्त्रया ॥०७॥

पश्चाद्भये तु शकटं पार्श्वयोर्वज्रसञ्ज्ञितं ।

सर्वतः सर्वतोभद्रं भये व्यूहं प्रकल्पयेत् ॥०८॥

नदी- दुर्ग, पर्वत-दुर्ग तथा वन-दुर्ग - इनमें जहाँ- जहाँ (सामन्त तथा आटविक आदि से) भय प्राप्त हो, वहाँ-वहाँ सेनापति संनद्ध एवं व्यूहबद्ध सेनाओं के साथ जाय । एक सेनानायक उत्कृष्ट वीर योद्धाओं के साथ आगे जाय (और मार्ग एवं सेना के लिये आवास स्थान का शोध करे)। विजिगीषु राजा और उसका अन्तःपुर सेना के मध्यभाग में रहकर यात्रा करे। खजाना तथा फल्गु (असार एवं बेगार करनेवालों की) सेना भी बीच में  ही रहकर चले। स्वामी के अगल-बगल में घुड़सवारों की सेना रहे। घुड़सवार सेना के उभय पार्श्व में रथसेना रहे। रथसेना के दोनों तरफ हाथियों की सेना रहनी चाहिये। उसके दोनों बगल आटविकों (जंगली लोगों) की सेना रहे। यात्राकाल में प्रधान एवं कुशल सेनापति स्वयं स्वामी के पीछे रहकर सबको आगे करके चले। थके-माँदै (हतोत्साह) सैनिकों को धीरे-धीरे आश्वासन देता रहे। उसके साथ की सारी सेना कमर कसकर युद्ध के लिये तैयार रहे। यदि आगे को ओर से शत्रु के आक्रमण का भय सम्भावित हो तो महान् मकरव्यूह* की रचना करके आगे बढ़े। (यदि तिर्यग् दिशा से भय की सम्भावना हो तो) खुले या फैले पंखवाले श्येन पक्षी के आकार की व्यूह रचना करके चले। (यदि एक आदमी के ही चलनेयोग्य पगडंडी मार्ग से यात्रा करते समय सामने से भय हो तो) सूची-व्यूह की रचना करके चले तथा उसके मुखभाग में वीर योद्धाओं को खड़ा करे। पीछे से भय हो तो शकटव्यूह* की पार्श्वभाग से भय हो तो वज्रव्यूह* की तथा सब ओर से भय होने पर 'सर्वतोभद्र'* नामक व्यूह की रचना करे ॥ ३-८ ॥

*१. उसका मुख विस्तृत होने से वह पीछे की समस्त सेना की रक्षा करता है।

२. शकट व्यूह पीछे की ओर से विस्तृत होता है।

३. बज्रव्यूह में दोनों ओर विस्तृत मुख होते हैं।

४. सर्वतोभद्र में सभी दिशाओं की ओर सेना का मुख होता है।

कन्दरे शैलगहने निम्नगावनसङ्कटे ।

दीर्घाध्वनि परिश्रान्तं क्षुत्पिपासाहितक्लमं ॥०९॥

व्याधिदुर्भिक्षमरकपीडितं दस्युविद्रुतं ।

पङ्कांशुजलस्कन्धं व्यस्तं पुञ्जीकृतं पथि ॥१०॥

प्रसुप्तं भोजनव्यग्रमभूमिष्ठमसुस्थितं ।

चौराग्निभयवित्रस्तं वृष्टिवातसमाहतं ॥११॥

इत्यादौ स्वचमूं रक्षेत्प्रसैन्यं च घतयेत् ।

जो सेना पर्वत की कन्दरा, पर्वतीय दुर्गम स्थान एवं गहन वन में, नदी एवं घने वन से संकीर्ण पथ पर फँसी हो, जो विशाल मार्ग पर चलने से थकी हो, भूख-प्यास से पीड़ित हो, रोग, दुर्भिक्ष (अकाल) एवं महामारी से कष्ट पा रही हो, लुटेरों द्वारा भगायी गयी हो, कीचड़, धूल तथा पानी में फँस गयी हो, विक्षिप्त हो, एक-एक व्यक्ति के ही चलने का मार्ग होने से जो आगे न बढ़कर एक ही स्थान पर एकत्र हो गयी हो, सोयी हो, खाने-पीने में लगी हो, अयोग्य भूमि पर स्थित हो, बैठी हो, चोर तथा अग्रि के भय से डरी हो, वर्षा और आँधी की चपेट में आ गयी हो तथा इसी तरह के अन्यान्य संकटों में फँस गयी हो, ऐसी अपनी सेना की तो सब ओर से रक्षा करे तथा शत्रुसेना को घातक प्रहार का निशाना बनाये ॥ ९ – ११अ ॥

विशिष्टो देशकालाभ्यां भिन्नविप्रकृतिर्बली ॥१२॥

कुर्यात्प्रकाशयुद्धं हि कूटयुद्धं विपर्यये ।

तेष्ववस्कन्दकालेषु परं हन्यात्समाकुलं ॥१३॥

अभूमिष्ठं स्वभूमिष्ठं स्वभूमौ चोपजायतः ।

जब आक्रमण के लक्ष्यभूत शत्रु को अपेक्षा विजिगीषु राजा देश-काल की अनुकूलता की दृष्टि से बढ़ा-चढ़ा हो तथा शत्रु की प्रकृति में फूट डाल दी गयी हो और अपना बल अधिक हो तो शत्रु के साथ प्रकाश-युद्ध (घोषित या प्रकट संग्राम) छेड़ दे। यदि विपरीत स्थिति हो तो कूट-युद्ध (छिपी लड़ाई) करे। जब शत्रु की सेना पूर्वोक्त बलव्यसन (सैन्य-संकट) के अवसरों या स्थानों में फँसकर व्याकुल हो तथा युद्ध के अयोग्य भूमि में स्थित हो और सेनासहित विजिगीषु अपने अनुकूल भूमि पर स्थित हो, तब वह शत्रु पर आक्रमण करके उसे मार गिराये। यदि शत्रु सैन्य अपने लिये अनुकूल भूमि में स्थित हो तो उसकी प्रकृतियों में भेदनीति द्वारा फूट डलवाकर अवसर देख शत्रु का विनाश कर डाले ॥ १२-१३अ ॥

प्रकृतिप्रग्रहाकृष्टं पाशैर्वनचरादिभिः ॥१४॥

हन्यात्प्रवीरपुरुषैर्भङ्गदानापकर्षणैः ।

पुरस्ताद्दर्शनं दत्वा तल्लक्षकृतनिश्चयात् ॥१५॥

हन्यात्पश्चात्प्रवीरेण बलेनोपेत्य वेगिना ।

पश्चाद्वा सङ्कुलीकृत्य हन्याच्छूरेण पूर्वतः ॥१६॥

आभ्यां पार्श्वाभिघातौ तु व्याख्यातौ कूटयोधने ।

पुरस्ताद्विषमे देशे पश्चाद्धन्यात्तु वेगवान् ॥१७॥

पुरः पश्चात्तु विषमे एवमेव तु पार्श्वयोः ।

प्रथमं योधयित्वा तु दूष्यामित्राटवीबलौ ॥१८॥

श्रान्तं मन्दन्निराक्रन्दं हन्यादश्रान्तवाहनं ।

दूष्यामित्रबलैर्वापि भङ्गन्दत्वा प्रयत्नवान् ॥१९॥

जितमित्येव विश्वस्तं हन्यान्मन्त्रव्यपाश्रयः ।

स्कन्धावारपुरग्रामशस्यस्वामिप्रजादिषु ॥२०॥

विश्रभ्यन्तं परानीकमप्रमत्तो विनाशयेत् ।

अथवा गोग्रहाकृष्टं तल्लक्ष्यं मार्गबन्धनात् ॥२१॥

अवस्कन्दभयाद्रात्रिपूजागरकृतश्रमः ।

दिवासुप्तं समाहन्यान्निद्राव्याकुलसैनिकं ॥२२॥

निशि विश्रब्धसंसुप्तं नागैर्वा खड्गपाणिभिः ।

जो युद्ध से भागकर या पीछे हटकर शत्रु को उसकी भूमि से बाहर खींच लाते हैं, ऐसे वनचरों (आटविकों) तथा अमित्र सैनिकों ने पाशभूत होकर जिसे प्रकृतिप्रगह से ( स्वभूमि या मण्डल से) दूर- परकीय भूमि में आकृष्ट कर लिया है, उस शत्रु को प्रकृष्ट वीर योद्धाओं द्वारा मरवा डाले। कुछ थोड़े-से सैनिकों को सामने की ओर से युद्ध के लिये उद्यत दिखा दे और जब शत्रु के सैनिक उन्हीको अपना लक्ष्य बनाने का निश्चय कर लें, तब पीछे से वेगशाली उत्कृष्ट वीरों की सेना के साथ पहुँचकर उन शत्रुओं का विनाश करे। अथवा पीछे की ओर ही सेना एकत्र करके दिखाये और जब शत्रु सैनिकों का ध्यान उधर ही खिंच जाय, तब सामने की ओर से शूरवीर बलवान् सेना द्वारा आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर दे। सामने तथा पीछे की ओर से किये जानेवाले इन दो आक्रमणों द्वारा अगल-बगल से किये जानेवाले आक्रमणों की भी व्याख्या हो गयी अर्थात् बाय ओर कुछ सेना दिखाकर दाहिनी ओर से और दाहिनी ओर सेना दिखाकर बायीं ओर से गुप्तरूप से आक्रमण करे। कूटयुद्ध में ऐसा ही करना चाहिये। पहले दूष्यबल, अमित्रबल तथा आटविकबल- इन सबके साथ शत्रुसेना को लड़ाकर थका दे। जब शत्रुबल श्रान्त, मन्द (हतोत्साह) और निराक्रन्द (मित्ररहित एवं निराश) हो जाय और अपनी सेना के वाहन थके न हों, उस दशा में आक्रमण करके शत्रुवर्ग को मार गिराये। अथवा दूष्य एवं अमित्र सेना को युद्ध से पीछे हटने या भागने का आदेश दे दे और जब शत्रु को यह विश्वास हो जाय कि मेरी जीत हो गयी, अतः वह ढीला पड़ जाय, तब मन्त्रबल का आश्रय ले प्रयत्नपूर्वक आक्रमण करके उसे मार डाले। स्कन्धावार (सेना के पड़ाव ), पुर ग्राम, सस्यसमूह तथा गौओं के व्रज (गोष्ठ) इन सबको लूटने का लोभ शत्रु सैनिकों के मन में उत्पन्न करा दे और जब उनका ध्यान बँट जाय तब स्वयं सावधान रहकर उन सबका संहार कर डाले । अथवा शत्रु राजा की गायों का अपहरण करके उन्हें दूसरी ओर (गायों को छुड़ानेवालों की ओर खींचे और जब शत्रु सेना उस लक्ष्य की ओर बढ़े, तब उसे मार्ग में ही रोककर मार डाले। अथवा अपने ही ऊपर आक्रमण के भय से रातभर जागने के श्रम से दिन में सोयी हुई शत्रुसेना के सैनिक जब नींद से व्याकुल हों, उस समय उन पर धावा बोलकर मार डाले। अथवा रात में ही निश्चिन्त सोये हुए सैनिकों को तलवार हाथ में लिये हुए पुरुषों द्वारा मरवा दे ॥ १४ – २२अ ॥

प्रयाने पूर्वयायित्वं वनदुर्गप्रवेशनं ॥२३॥

अभिन्नानामनीकानां भेदनं भिन्नसङ्ग्रहः ।

विभीषकाद्वारघातं कोषरक्षेभकर्म च ॥२४॥

जब सेना कूच कर चुकी हो तथा शत्रु ने मार्ग में ही घेरा डाल दिया हो तो उसके उस घेरे या अवरोध को नष्ट करने के लिये हाथियों को ही आगे-आगे ले चलना चाहिये। वन दुर्ग में, जहाँ घोड़े भी प्रवेश न कर सकें, वहाँ हाथियों की ही सहायता से सेना का प्रवेश होता हैवे आगे के वृक्ष आदि को तोड़कर सैनिकों के प्रवेश के लिये मार्ग बना देते हैं। जहाँ सैनिकों की पंक्ति ठोस हो, वहाँ उसे तोड़ देना हाथियों का ही काम है तथा जहाँ व्यूह टूटने से सैनिकपंक्ति में दरार पड़ गयी हो, वहाँ हाथियों के खड़े होने से छिद्र या दरार बंद हो जाती है। शत्रुओं में भय उत्पन्न करना, शत्रु के दुर्ग के द्वार को माथे की टक्कर देकर तोड़ गिराना, खजाने को सेना के साथ ले चलना तथा किसी उपस्थित भय से सेना की रक्षा करना-ये सब हाथियों द्वारा सिद्ध होनेवाले कर्म हैं ॥ २३-२४ ॥

अभिन्नभेदनं मित्रसन्धानं रथकर्म च ।

वनदिङ्मार्गविचये वीवधासारलक्षणं ॥२५॥

अनुयानापसरणे शीघ्रकार्योपपादनं ।

दीनानुसरणं घातः कोटीनां जघनस्य च ॥२६॥

अश्वकर्माथ पत्तेश्च सर्वदा शस्त्रधारणं ।

शिविरस्य च मार्गादेः शोधनं वस्तिकर्म च ॥२७॥

अभिन्न सेना का भेदन और भिन्न सेना का संधान - ये दोनों कार्य (गजसेना की ही भाँति) रथसेना के द्वारा भी साध्य हैं। वन में कहाँ उपद्रव है, कहाँ नहीं हैइसका पता लगाना, दिशाओं का शोध करना (दिशा का ठीक ज्ञान रखते हुए सेना को यथार्थ दिशा की ओर ले चलना) तथा मार्ग का पता लगाना - यह अश्वसेना का कार्य है। अपने पक्ष के वीवध* और आसार* की रक्षा, भागती हुई शत्रुसेना का शीघ्रतापूर्वक पीछा करना, संकटकाल में शीघ्रतापूर्वक भाग निकलना, जल्दी से कार्य सिद्ध करना, अपनी सेना की जहाँ दयनीय दशा हो, वहाँ उसके पास पहुँचकर सहायता करना, शत्रुसेना के अग्रभाग पर आघात करना और तत्काल ही घूमकर उसके पिछले भाग पर भी प्रहार करना ये अश्वसेना के कार्य हैं। सर्वदा शस्त्र धारण किये रहना (तथा शस्त्रों को पहुँचाना) - ये पैदल सेना के कार्य हैं। सेना की छावनी डालने के योग्य स्थान तथा मार्ग आदि की खोज करना विष्टि (बेगार) करनेवाले लोगों का काम है॥ २५-२७ ॥

*१. आगे जाती हुई सेना को पीछे से बराबर वेतन और भोजन पहुँचाते रहने की जो व्यवस्था है, उसका नाम 'वीवध' है।

*२. मित्रसेना को 'आसार' कहते हैं।

संस्थूलस्थाणुवल्मीकवृक्षगुल्मापकण्टकं ।

सापसारा पदातीनां भूर्नातिविषमा मता ॥२८॥

स्वल्पवृक्षोपला क्षिप्रलङ्घनीयनगा स्थिरा ।

निःशर्करा विपङ्का च सापसारा च वाजिभूः ॥२९॥

निस्थाणुवृक्षकेदारा रथभूमिरकर्दमा ।

मर्दनीयतरुच्छेद्यव्रततीपङ्कवर्जिता ॥३०॥

निर्झरागम्यशैला च विषमा गजमेदिनी ।

जहाँ मोटे-मोटे ठूंठ, बाँबियाँ, वृक्ष और झाड़ियाँ हों, जहाँ काँटेदार वृक्ष न हों, किंतु भाग निकलने के लिये मार्ग हों तथा जो अधिक ऊँची-नीची न हो, ऐसी भूमि पैदल सेना के संचार योग्य बतायी गयी है। जहाँ वृक्ष और प्रस्तर खण्ड बहुत कम हों, जहाँ की दरारें शीघ्र लाँघने योग्य हों, जो भूमि मुलायम न होकर सख्त हो, जहाँ कंकड़ और कीचड़ न हो तथा जहाँ से निकलने के लिये मार्ग हो, वह भूमि अश्वसंचार के योग्य होती है। जहाँ ठूंठ वृक्ष और खेत न हों तथा जहाँ पङ्क का सर्वथा अभाव हो - ऐसी भूमि रथसंचार के योग्य मानी गयी है। जहाँ पैरों से रौंद डालनेयोग्य वृक्ष और काट देनेयोग्य लताएँ हों, कीचड़ न हो, गर्त या दरार न हो, जहाँ के पर्वत हाथियों के लिये गम्य हों, ऐसी भूमि ऊँची-नीची होने पर भी गजसेना के योग्य कही गयी है ॥ २८-३० अ ॥

उरस्यादीनि भिन्नानि प्रतिगृह्णन् बलानि हि ॥३१॥

प्रतिग्रह इति ख्यातो राजकार्यान्तरक्षमः ।

तेन शून्यस्तु यो व्यूहः स भिन्न इव लक्ष्यते ॥३२॥

जो सैन्य अश्व आदि सेनाओं में भेद (दरार या छिद्र) पड़ जाने पर उन्हें ग्रहण करता-सहायता द्वारा अनुगृहीत बनाता है, उसे 'प्रतिग्रह' कहा गया है उसे अवश्य संघटित करना चाहिये क्योंकि वह भार को वहन या सहन करने में समर्थ होता है। प्रतिग्रह से शून्य व्यूह भिन्न-सा दीखता है ॥ ३१-३२ ॥

जयार्थी न च युद्ध्येत मतिमानप्रतिग्रहः ।

यत्र राजा तत्र कोषः कोषाधीना हि राजता ॥३३॥

योधेभ्यस्तु ततो दद्यात्किञ्चिद्दातुं न युज्यते ।

द्रव्यलक्षं राजघाते तदर्धं तत्सुतार्दने ॥३४॥

सेनापतिबधे तद्वद्दद्याद्धस्त्यादिमर्दने ।

विजय की इच्छा रखनेवाला बुद्धिमान् राजा प्रतिग्रह सेना के बिना युद्ध न करे। जहाँ राजा रहे, वहीं कोष रहना चाहिये; क्योंकि राजत्व कोष के ही अधीन होता है। विजयी योद्धाओं को उसी से पुरस्कार देना चाहिये। भला ऐसा कौन है, जो दाता के हित के लिये युद्ध न करेगा ? शत्रुपक्ष के राजा का वध करने पर योद्धा को एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में देनी चाहिये। राजकुमार का वध होने पर इससे आधा पुरस्कार देने की व्यवस्था रहनी चाहिये। सेनापति के मारे जाने पर भी उतना ही पुरस्कार देना उचित है। हाथी तथा रथ आदि का नाश करने पर भी उचित पुरस्कार देना आवश्यक है ।। ३३-३४अ॥

अथवा खलु युध्येरन् प्रत्यश्वरथदन्तिनः ॥३५॥

यथा भवेदसंबाधो व्यायामविनिवर्तने ।

असङ्करेण युद्धेरन् सङ्करः सङ्कुलावहः ॥३६॥

सब सैनिक इस तरह से (अर्थात् एक-दूसरे से इतना अन्तर रखकर ) युद्ध करें, जिससे उनके व्यायाम (अङ्गों के फैलाव ) तथा विनिवर्तन (विश्राम के लिये पीछे हटने ) में किसी तरह की बाधा या रुकावट न हो। समस्त योद्धा पृथक्- पृथक् रहकर युद्ध करें। घोल-मेल होकर जूझना संकुलावह ( घमासान एवं रोमाञ्चकारी) होता है। यदि महासंकुल (घमासान ) युद्ध छिड़ जाय तो पैदल आदि असहाय सैनिक बड़े-बड़े हाथियों का आश्रय लें।३५-३६॥

महासङ्कुलयुद्धेषु संश्रयेरन्मतङ्गजं ।

अश्वस्य प्रतियोद्धारो भवेयुः पुरुषास्त्रयः ॥३७॥

इति कल्प्यास्त्रयश्चाश्वा विधेयाः कुञ्जरस्य तु ।

पादगोपा भवेयुश्च पुरुषा दश पञ्च च ॥३८॥

विधानमिति नागस्य विहितं स्यन्दनस्य च ।

एक-एक घुड़सवार योद्धा के सामने तीन-तीन पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवार – ये पैदल पुरुषों को प्रतियोद्धा अर्थात् अग्रगामी योद्धा बनाकर खड़ा करे। इसी रीति से पाँच-पाँच अश्व एक-एक हाथी के अग्रभाग में प्रतियोद्धा बनाये। इनके सिवा हाथी के पादरक्षक भी उतने ही हों, अर्थात् पाँच अश्व और पंद्रह पैदल प्रतियोद्धा तो हाथी के आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथी के चरणों के निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथी के लिये व्यूह- विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रथव्यूह के लिये भी समझना चाहिये** ॥ ३७-३८अ ॥

* व्यूह दो प्रकार के होते हैं-'शुद्ध' और 'व्यामिश्र' शुद्ध के भी दो भेद हैं- गजव्यूह तथा रथव्यूह मूल में जो विधान गजव्यूह के लिये कहा गया है, उसी का अतिदेश रघव्यूह के लिये भी समझना चाहिये। व्यामिश्र आगे बतलायेंगे।

अनीकमिति विज्ञेयमिति कल्प्या नव द्विपाः ॥३९॥

तथानीकस्य रन्ध्रन्तु पञ्चधा च प्रचक्षते ।

इत्यनीकविभगेन स्थापयेद्व्यूहसम्पदः ॥४०॥

एक गजव्यूह के लिये जो विधि कही गयी है, उसी के अनुसार नौ हाथियों का व्यूह बनाये। उसे 'अनीक' जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीक में पैंतालीस अश्व तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक प्रतियोद्धा होते हैं और इतने ही अश्व तथा पैदल- पादरक्षक हुआ करते हैं।) एक अनीक से दूसरे अनीक की दूरी पाँच धनुष बतायी गयी है। इस प्रकार अनीक – विभाग के द्वारा व्यूह सम्पत्ति स्थापित करे ।। ३९-४० ॥

उरस्यकक्षपक्षांस्तु कल्प्यानेतान् प्रचक्षते ।

उरःकक्षौ च पक्षौ च मध्यं पृष्ठं प्रतिग्रहः ॥४१॥

कोटी च व्यूहशास्त्रज्ञैः सप्ताङ्गो व्यूह उच्यते ।

व्यूह के मुख्यतः पाँच अङ्ग हैं । १. 'उरस्य', २. कक्ष', ३. 'पक्ष' – इन तीनों को एक समान बताया जाता है। अर्थात् मध्यभाग में पूर्वोक्त रीति से नौ हाथियों द्वारा कल्पित एक अनीक सेना को 'उरस्य' कहा गया है। उसके दोनों पार्श्वभागों में एक-एक अनीक की दो सेनाएँ 'कक्ष' कहलाती हैं। कक्ष के बाह्यभाग में दोनों ओर जो एक-एक अनीक की दो सेनाएँ हैं, वे 'पक्ष' कही जाती हैं। इस प्रकार इस पाँच अनीक सेना के व्यूह में ४५ हाथी, २२५ अश्व, ६७५ पैदल सैनिक प्रतियोद्धा और इतने ही पादरक्षक होते हैं। इसी तरह उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि- इन सात अङ्गों को लेकर व्यूहशास्त्र के विद्वानों ने व्यूह को सात अङ्गों से युक्त कहा है* ॥ ४१अ ॥

* उरस्य कक्ष, पक्ष, प्रोरस्य प्रकक्ष, प्रपक्ष तथा प्रतिग्रह- ये सप्ताङ्ग व्यूहवादियों के मत में व्यूह के सात अंगों के  नाम हैं।

उरस्यकक्षपक्षास्तु व्यूहोऽयं सप्रतिग्रहः ॥४२॥

गुरोरेष च शुक्रस्य कक्षाभ्यां परिवर्जितः ।

उरस्य, कक्ष, पक्ष तथा प्रतिग्रह आदि से युक्त यह व्यूहविभाग बृहस्पति के मत के अनुसार है। शुक्र के मत में यह व्यूहविभाग कक्ष और प्रकक्ष से रहित है। अर्थात् उनके मत में व्यूह के पाँच ही अङ्ग हैं ॥४२अ ॥

तिष्ठेयुः सेनापतयः प्रवीरैः पुरुषैर्वृताः ॥४३॥

अभेदेन च युध्येरन् रक्षेयुश्च परस्परं ।

सेनापतिगण उत्कृष्ट वीर योद्धाओं से घिरे रहकर युद्ध के मैदान में खड़े हों। वे अभिन्नभाव से संघटित रहकर युद्ध करें और एक-दूसरे की रक्षा करते रहें ॥ ४३अ ॥

मध्यव्यूहे फल्गु सैन्यं युद्धवस्तु जघन्यतः ॥४४॥

युद्धं हि नायकप्राणं हन्यते तदनायकं ।

सारहीन सेना को व्यूह के मध्यभाग में स्थापित करना चाहिये। युद्धसम्बन्धी यन्त्र, आयुध और औषध आदि उपकरणों को सेना के पृष्ठभाग में रखना उचित है। युद्ध का प्राण है नायक - राजा या विजिगीषु । नायक के न रहने या मारे जाने पर युद्धरत सेना मारी जाती है ॥ ४४अ ॥

उरसि स्थापयेन्नागान् प्रचण्डान् कक्षयो रथान् ॥४५॥

हयांश्च पक्षयोर्व्यूहो मध्यभेदी प्रकीर्तितः ।

हृदयस्थान (मध्यभाग) में प्रचण्ड हाथियों को खड़ा करे। कक्षस्थानों में रथ तथा पक्षस्थानों में घोड़े स्थापित करे। यह 'मध्यभेदी' व्यूह कहा गया है ॥ ४५अ ॥

मध्यदेशे हयानीकं रथानीकञ्च कक्षयोः ॥४६॥

पक्षयोश्च गजानीकं व्यूहोन्तर्भेद्ययं स्मृतः ।

रथस्थाने हयान् दद्यात्पदातींश्च हयश्राये ॥४७॥

रथाभावे तु द्विरदान् व्यूहे सर्वत्र दापयेत् ।

मध्यदेश (वक्षःस्थान) में घोड़ों की, कक्षभागों में रथों की तथा दोनों पक्षों के स्थान में हाथियों की सेना खड़ी करे। यह 'अन्तभेदी' व्यूह बताया गया है। रथ की जगह ( अर्थात् कक्षों में) घोड़े दे दे तथा घोड़ों की जगह (मध्यदेश में) पैदलों को खड़ा कर दे। यह अन्य प्रकार का 'अन्तभेदी' व्यूह है। रथ के अभाव में व्यूह के भीतर सर्वत्र हाथियों की ही नियुक्ति करे (यह व्यामिश्र या घोल-मेल युद्ध के लिये उपयुक्त नीति है) । ४६-४७अ ॥

यदि स्याद्दण्डबाहुल्यमाबाधः सम्प्रकीर्तितः ॥४८॥

मण्डलांसंहतो भोगो दण्डास्ते बहुधा शृणु ।

तिर्यग्वृत्तिस्तु दण्डः स्याद्भोगोऽन्यावृत्तिरेव च ॥४९॥

मण्डलः सर्वतोवृत्तिः पृथग्वृत्तिरसंहतः ।

 (रथ, पैदल, अश्व और हाथी - इन सबका विभाग करके व्यूह में नियोजन करे।) यदि सेना का बाहुल्य हो तो वह व्यूह 'आवाप' कहलाता है। मण्डल, असंहत, भोग तथा दण्ड- ये चार प्रकार के व्यूह 'प्रकृतिव्यूह' कहलाते हैं। पृथ्वी पर रखे हुए डंडे की भाँति बायें से दायें या दायें से बायेंतक लंबी जो व्यूह रचना की जाती हो, उसका नाम 'दण्ड' है। भोग (सर्प- शरीर) के समान यदि सेना की मोर्चेबंदी की गयी हो तो वह 'भोग' नामक व्यूह है। इसमें सैनिकों का अन्वावर्तन होता है। गोलाकार खड़ी हुई सेना, जिसका सब ओर मुख हो, अर्थात् जो सब ओर प्रहार कर सके, 'मण्डल' नामक व्यूह से बद्ध कही गयी है। जिसमें अनीकों को बहुत दूर-दूर खड़ा किया गया हो, वह ' असंहत' नामक व्यूह है ॥ ४८-४९अ ॥

प्रदरो दृढकोऽसह्यः चापो वै कुक्षिरेव च ॥५०॥

प्रतिष्ठः सुप्रतिष्ठश्च श्येनो विजयसञ्जयौ ।

विशालो विजयः शूची स्थूणाकर्णचमूमुखौ ॥५१॥

सर्पास्यो वलयश्चैव दण्ड दण्डभेदाश्च दुर्जयाः ।

अतिक्रान्तः प्रतिक्रान्तः कक्षाभ्याञ्चैकक्षपक्षतः ॥५२॥

अतिक्रान्तस्तु पक्षाभ्यां त्रयोऽन्ये तद्विपर्यये ।

पक्षोरस्यैरतिक्रान्तः प्रतिष्ठोऽन्यो विपर्ययः ॥५३॥

'दण्डव्यूह' के सत्रह भेद हैं- प्रदर, दृढक, असा, चाप, चापकुक्षि, प्रतिष्ठ, सुप्रतिष्ठ, श्येन, विजय, संजय, विशालविजय, सूची, स्थूणाकर्ण, चमूमुख, झषास्य, वलय तथा सुदुर्जय। जिसके पक्ष, कक्ष तथा उरस्य तीनों स्थानों के सैनिक सम स्थिति में हों, वह तो 'दण्डप्रकृति' है; परंतु यदि कक्षभाग के सैनिक कुछ आगे की ओर निकले हों और शेष दो स्थानों के सैनिक भीतर की ओर दबे हों तो वह व्यूह शत्रु का प्रदरण (विदारण) करने के कारण 'प्रदर' कहलाता है। यदि पूर्वोक्त दण्ड के कक्ष और पक्ष दोनों भीतर की ओर प्रविष्ट हों और केवल उरस्य भाग ही बाहर की ओर निकला हो तो वह 'दृढक' कहा गया है। यदि दण्ड के दोनों पक्षमात्र ही निकले हों तो उसका नाम 'असह्य' होता है। प्रदर, दृढक और असहा को क्रमशः विपरीत स्थिति में कर दिया जाय, अर्थात् उनमें जिस भाग को अतिक्रान्त (निर्गत) किया गया हो, उसे 'प्रतिक्रान्त' (अन्तः प्रविष्ट) कर दिया जाय तो तीन अन्य व्यूह - 'चाप', 'चापकुक्षि' तथा 'प्रतिष्ठ' नामक हो जाते हैं। यदि दोनों पंख निकले हों तथा उरस्य भीतर की ओर प्रविष्ट हो तो 'सुप्रतिष्ठित' नामक व्यूह होता है। इसी को विपरीत स्थिति में कर देने पर 'श्येन' व्यूह बन जाता है । ५० - ५३ ॥

स्थूणापक्षो धनुःपक्षो द्विस्थूणो दण्ड ऊर्ध्वगः ।

द्विगुणोन्तस्त्वतिक्रान्तपक्षोऽन्यस्य विपर्ययः ॥५४॥

द्विचतुर्दण्ड इत्येते ज्ञेया लक्षणतः क्रमात् ।

आगे बताये जानेवाले स्थूणाकर्ण ही जिस खड़े डंडे के आकारवाले दण्डव्यूह के दोनों पक्ष हों, उसका नाम 'विजय' है (यह साढ़े तीन व्यूहों का संघ है। इसमें १७ 'अनीक' सेनाएँ उपयोग में आती हैं। दो चाप व्यूह ही जिसके दोनों पक्ष हों, वह ढाई व्यूहों का संघ एवं तेरह अनीक सेना से युक्त व्यूह 'संजय' कहलाता है। एक के ऊपर एक के क्रम से स्थापित दो स्थूणाकर्णी को 'विशाल विजय' कहते हैं। ऊपर-ऊपर स्थापित पक्ष, कक्ष आदि के क्रम से जो दण्ड ऊर्ध्वगामी (सीधा खड़ा) होता है, वैसे लक्षणवाले व्यूह का नाम 'सूची' है। जिसके दोनों पक्ष द्विगुणित हों, उस दण्डव्यूह को 'स्थूणाकर्ण' कहा गया है। जिसके तीन-तीन पक्ष निकले हों, वह चतुर्गुण पक्षवाला ग्यारह अनीक से युक्त व्यूह 'चमूमुख' नामवाला है। इसके विपरीत लक्षणवाला अर्थात् जिसके तीन-तीन पक्ष प्रतिक्रान्त (भीतर की ओर प्रविष्ट) हों, वह व्यूह 'झषास्य' नाम धारण करता है। इसमें भी ग्यारह अनीक सेनाएँ नियुक्त होती हैं। दो दण्डव्यूह मिलकर दस अनीक सेनाओं का एक 'वलय' नामक व्यूह बनाते हैं। चार दण्डव्यूहों के मेल से बीस अनीकों का एक 'दुर्जय' नामक व्यूह बनता है। इस प्रकार क्रमशः इनके लक्षण कहे गये हैं ॥ ५४अ ॥

गोमूत्रिकाहिसञ्चारीशकटो मकरस्तथा ॥५५॥

भोगभेदाः समाख्यातास्तथा परिप्लवङ्गकः ।

दण्डपक्षौ युगारस्यः शकटस्तद्विपर्यये ॥५६॥

मकरो व्यतिकीर्णश्च शेषः कुञ्जरराजिभिः ।

गोमूत्रिका, अहिसंचारी, शकट, मकर तथा परिपतन्तिक ये भोग के पाँच भेद कहे गये हैं। मार्ग में चलते समय गाय के मूत्र करने से जो रेखा- बनती है, उसकी आकृति में सेना को खड़ी करना- 'गोमूत्रिका' व्यूह है। सर्प के संचरण स्थान की रेखा- जैसी आकृतिवाला व्यूह 'अहिसंचारी' कहा गया है। जिसके कक्ष और पक्ष आगे-पीछे के क्रम से दण्डव्यूह की भाँति ही स्थित हो, किंतु उरस्य की संख्या दुगुनी हो, वह 'शकट व्यूह' है। इसके विपरीत स्थिति में स्थित व्यूह 'मकर' कहलाता है। इन दोनों व्यूहों में से किसी के भी मध्यभाग में हाथी और घोड़े आदि आवाप मिला दिये जायँ तो वह परिपतन्तिक' नामक व्यूह होता है ।। ५५-५६अ ॥

मण्डलव्यूहभेदौ तु सर्वतोभद्रदुर्जयौ ॥५७॥

अष्टानीको द्वितीयस्तु प्रथमः सर्वतोमुखः ।

अर्धचन्द्रक ऊर्ध्वाङ्गो वज्रभेदास्तु संहतेः ॥५८॥

तथा कर्कटशृङ्गी च काकपादौ च गोधिका ।

त्रिचतुःसैन्यानां ज्ञेया आकारभेदतः ॥५९॥

दण्डस्य स्युः सप्तदश व्यूहा द्वौ मण्डलस्य च ।

असङ्घातस्य षट्पञ्च भोगस्यैव तु सङ्गरे ॥६०॥

मण्डल- व्यूह के दो ही भेद हैं- सर्वतोभद्र तथा दुर्जय। जिस मण्डलाकार व्यूह का सब ओर मुख हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा गया है। इसमें पाँच अनीक सेना होती है। इसी में आवश्यकतावश उरस्य तथा दोनों कक्षों में एक-एक अनीक बढ़ा देने पर आठ अनीक का 'दुर्जय' नामक व्यूह बन जाता है। अर्धचन्द्र, उद्धान तथा वज्र-ये 'असंहत 'के भेद हैं। इसी तरह कर्कटभृङ्गी, काकपादी और गोधिका भी असंहत के ही भेद हैं। अर्धचन्द्र तथा कर्कटशृङ्गी ये तीन अनीकों के व्यूह हैं, उद्घान और काकपादी ये चार अनीक सेनाओं से बननेवाले व्यूह हैं तथा वज्र एवं गोधिका - ये दो व्यूह पाँच अनीक सेनाओं के संघटन से सिद्ध होते हैं। अनीक की दृष्टि से तीन ही भेद होने पर भी आकृति में भेद होने के कारण ये छ: बताये गये हैं। दण्ड से सम्बन्ध रखनेवाले १७, मण्डल के २, असंहत के ६ और भोग के समराङ्गण में ५ भेद कहे। गये हैं ॥ ५७-६० ॥

पक्षादीनामथैकेन हत्वा शेषैः परिक्षिपेत् ।

उरसा वा समाहत्य कोटिभ्यां परिवेष्टयेत् ॥६१॥

परे कोटी समाक्रम्य पक्षाभ्यामप्रतिग्रहात् ।

कोटिभ्याञ्जघनं हन्यादुरसा च प्रपीडयेत् ॥६२॥

यतः फल्गु यतो भिन्नं यतश्चान्यैरधिष्ठितं ।

ततश्चारिबलं हन्यादात्मनश्चोपवृंहयेत् ॥६३॥

सारं द्विगुणसारेण फल्गुसारेण पीडयेत् ।

संहतञ्च गजानीकैः प्रचण्डैर्दारयेद्बलं ॥६४॥

पक्ष आदि अङ्गों में से किसी एक अङ्ग की सेना द्वारा शत्रु के व्यूह का भेदन करके शेष अनीकों द्वारा उसे घेर ले अथवा उरस्यगत अनीक से शत्रु के व्यूह पर आघात करके दोनों कोटियों (प्रपक्षों) - द्वारा घेरे। शत्रुसेना की दोनों कोटियों (प्रपक्षों) - पर अपने व्यूह के पक्षों द्वारा आक्रमण करके शत्रु के जघन (प्रोरस्य) भाग को अपने प्रतिग्रह तथा दोनों कोटियों द्वारा नष्ट करे। साथ ही, उरस्यगत सेना द्वारा शत्रुपक्ष को पीड़ा दे। व्यूह के जिस भाग में सारहीन सैनिक हों, जहाँ सेना में फूट या दरार पड़ गयी हो तथा जिस भाग में दूष्य (क्रुद्ध, लुब्ध आदि) सैनिक विद्यमान हों, वहीं वहीं शत्रुसेना का संहार करे और अपने पक्ष के वैसे स्थानों को सबल बनाये। बलिष्ठ सेना को उससे भी अत्यन्त बलिष्ठ सेना द्वारा पीड़ित करे। निर्बल सैन्यदल को सबल सैन्य द्वारा दबाये। यदि शत्रुसेना संघटितभाव से स्थित हो तो प्रचण्ड गजसेना द्वारा उस शत्रुवाहिनी का विदारण करे ॥ ६१-६४ ॥

स्यात्कक्षपक्षोरस्यश्च वर्तमानस्तु दण्डकः ।

तत्र प्रयोगो डण्डस्य स्थानन्तुर्येण दर्शयेत् ॥६५॥

स्याद्दण्डसमपक्षाभ्यामतिक्रान्तो दृढः स्मृतः ।

भवेत्स पक्षकक्षाभ्यामतिक्रान्तः प्रदारकः ॥६६॥

कक्षाभ्याञ्च प्रतिक्रान्तव्यूहोऽसह्यः स्मृतो यथा ।

कक्षपक्षावधः स्थप्योरस्यैः कान्तश्च खातकः ॥६७॥

द्वौ दण्डौ बलयः प्रोक्तो कान्तश्च खातकः ।

दुर्जयश्चतुर्वलयः शत्रोर्बलविमर्दनः ॥६८॥

कक्षपक्षौरस्यैर्भोगो विषयं परिवर्तयन् ।

सर्पचारी गोमूत्रिका शर्कटः शकटाकृतिः ॥६९॥

विपर्ययोऽमरः प्रोक्तः सर्वशत्रुविमर्दकः ।

स्यात्कक्षपक्षोरस्यानामेकीभावस्तु मण्डलः ॥७०॥

चक्रपद्मादयो भेदा मण्डलस्य प्रभेदकाः ।

एवञ्च सर्वतोभद्रो वज्राक्षवरकाकवत् ॥७१॥

अर्धचन्द्रश्च शृङ्गाटो ह्यचलो नामरूपतः ।

व्यूहा यथासुखं कर्याः शत्रूणां बलवारणाः ॥७२॥

पक्ष, कक्ष और उरस्य ये सम स्थिति में वर्तमान हों तो 'दण्डव्यूह' होता है। दण्ड का प्रयोग और स्थान व्यूह के चतुर्थ अङ्ग द्वारा प्रदर्शित करे। दण्ड के समान ही दोनों पक्ष यदि आगे की ओर निकले हों तो 'प्रदर' या 'प्रदारक' व्यूह बनता है। वही यदि पक्ष कक्ष द्वारा अंतिक्रान्त ( आगे की ओर निकला) हो तो 'दृढ़' नामक व्यूह होता है। यदि दोनों पक्षमात्र आगे की ओर निकले हों तो वह व्यूह 'असह्य' नाम धारण करता है। कक्ष और पक्ष को नीचे स्थापित करके उरस्य द्वारा निर्गत व्यूह 'चाप' कहलाता है। दो दण्ड मिलकर एक 'वलय-व्यूह' बनाते हैं। यह व्यूह शत्रु को विदीर्ण करनेवाला होता है। चार वलय - व्यूहों के योग से एक 'दुर्जय' व्यूह बनता है, जो शत्रुवाहिनी का मर्दन करनेवाला होता है। कक्ष, पक्ष तथा उरस्य जब विषमभाव से स्थित हों तो 'भोग' नामक व्यूह होता है। इसके पाँच भेद हैं- सर्पचारी, गोमूत्रिका, शकट, मकर और परिपतन्तिक । सर्प संचरण की आकृति से सर्पचारी, गोमूत्र आकार से गोमूत्रिका, शकटकी-सी आकृति से शकट तथा इसके विपरीत स्थिति से मकर-व्यूह का सम्पादन होता है। यह भेदों सहित 'भोग-व्यूह' सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करनेवाला है। चक्रव्यूह तथा पद्मव्यूह आदि मण्डल के भेद-प्रभेद हैं। इसी प्रकार सर्वतोभद्र, वज्र, अक्षवर, काक, अर्धचन्द्र, शृङ्गार और अचल आदि व्यूह भी हैं। इनकी आकृति के ही अनुसार ये नाम रखे गये हैं। अपनी मौज के अनुसार व्यूह बनाने चाहिये। व्यूह शत्रुसेना की प्रगति को रोकनेवाले होते हैं ॥ ६५-७२ ॥

अग्निरुवाच

रामस्तु रावणं हत्वा अयोध्यां प्राप्तवान् द्विज ।

रामोक्तनीत्येन्द्रजितं हतवांल्लक्ष्मणः पुरा ॥७३॥

अग्निदेव कहते हैं - ब्रह्मन् ! श्रीराम ने रावण का वध करके अयोध्या का राज्य प्राप्त किया। श्रीराम की बतायी हुई उक्त नीति से ही पूर्वकाल में लक्ष्मण ने इन्द्रजित्का वध किया था ॥ ७३ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे रामोक्तराजनीतिर्नाम एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'राजनीति- कथन' नामक दो सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४२ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 243

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