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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय २४१

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अग्निपुराण अध्याय २४१ में मन्त्रविकल्प का वर्णन है।

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अग्निपुराणम् अध्यायः २४१सामादिः

अथ एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

राम उवाच

प्रभावोत्साहशक्तिभ्‌यां मन्त्रशक्तिः प्रशस्यते ।

प्रभावोत्साहवान् काव्यो जितो देवपुरोधसा ।। १ ।।

श्रीराम कहते हैं— 'लक्ष्मण! प्रभावशक्ति और उत्साह – शक्ति से मन्त्रशक्ति श्रेष्ठ बतायी गयी है। प्रभाव और उत्साह से सम्पन्न शुक्राचार्य को देवपुरोहित बृहस्पति ने मन्त्र – बल से जीत लिया ॥ १ ॥

मन्त्रयेतेह कार्य्याणि नानाप्तैर्न्नाबिपश्चिता ।

अशक्यारम्भवृत्तीनां कुतः क्लेशादृते फलं ।। २ ।।

अविज्ञातस्य विज्ञानं विज्ञातस्य च निश्चयः ।

अर्थद्वैधस्य सन्देहच्छेदनं शेषदर्शनं ।। ३ ।।

जो विश्वसनीय होने के साथ-ही-साथ नीतिशास्त्र का विद्वान् हो, उसी के साथ राजा अपने कर्तव्य के विषय में मन्त्रणा करे। (जो विश्वसनीय होनेपर भी मूर्ख हो तथा विद्वान् होनेपर भी अविश्वसनीय हो, ऐसे मन्त्री को त्याग दे। कौन कार्य किया जा सकता है और कौन अशक्य है, इसका स्वच्छ बुद्धि से विवेचन करे।) जो अशक्य कार्य का आरम्भ करते हैं, उन्हें क्लेश उठाने के सिवा कोई फल कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ २-३ ॥

सहायाः साधनोपाया विभागो देशकालयोः ।

विपत्तेश्च प्रतीकारः पञढ्चान्नो मन्त्र इष्यते ।। ४ ।।

अविज्ञात (परोक्ष) का ज्ञान, विज्ञात का निश्चय, कर्तव्य के विषय में दुविधा उत्पन्न होने पर संशय का उच्छेद (समाधान) तथा शेष (अन्तिम निश्चित कर्तव्य) की उपलब्धि- ये सब मन्त्रियों के ही अधीन हैं। सहायक, कार्यसाधन के उपाय, देश और काल का विभाग, विपत्ति का निवारण तथा कर्तव्य की सिद्धि- ये मन्त्रियों की मन्त्रणा के पाँच अङ्ग हैं ॥ ४ ॥

मनःप्रसादः श्रद्धा च तथा करणपाटवं ।

सहायोत्थानसम्पच्च कर्म्मणां सिद्धिलक्षणं ।। ५ ।।

मन की प्रसन्नता, श्रद्धा (कार्यसिद्धि के विषय में दृढ़ विश्वास), ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की स्वविषयक व्यापार क्षमता, सहाय- सम्पत्ति (सहायकों का बाहुल्य अथवा सत्त्वादि गुण का योग ) तथा उत्थान- सम्पत्ति (शीघ्रतापूर्वक उत्थान करने का स्वभाव) ये मन्त्र द्वारा निश्चित करके आरम्भ किये जानेवाले कर्मों की सिद्धि के लक्षण हैं ॥ ५ ॥

मदः प्रमादः कामश्च सुप्तप्रलपितानि च ।

भिन्दन्ति मन्त्रं प्रच्छन्नाः कामिन्यो रमतान्तथा ।। ६ ।।

मद (मदिरा आदि का नशा), प्रमाद (कार्यान्तर के प्रसङ्ग से असावधानी), काम (कामभावना से प्रेरित होकर स्त्रियों पर विश्वास), स्वप्नावस्था में किये गये प्रलाप, खंभे आदि की ओट में लुके-छिपे लोग, पार्श्ववर्तिनी कामिनियाँ तथा उपेक्षित प्राणी (तोता, मैना, बालक, बहरे आदि ) - ये मन्त्र का भेदन करने में कारण बनते हैं ॥ ६ ॥

प्रगल्भः स्मृतिमान्वाग्मी शस्त्रे शास्त्रे च निष्ठितः ।

अब्यस्तकर्म्मां नृपतेर्दूतो भवितुमर्हति ।। ७ ।।

निसृष्टार्थो मितार्थश्च तथा शासनहारकः ।

सामर्थ्यात् पादतो हीनो दूतस्तु त्रिविधः स्मृतः ।। ८ ।।

सभा में निर्भीक बोलनेवाला, स्मरणशक्ति से सम्पन्न, प्रवचन- कुशल, शस्त्र और शास्त्र में परिनिष्ठित तथा दूतोचित कर्म के अभ्यास से सम्पन्न पुरुष राजदूत होने के योग्य होता है। निसृष्टार्थ (जिस पर संधि-विग्रह आदि कार्य को इच्छानुसार करने का पूरा भार सौंपा गया हो, वह), मितार्थ (जिसे परिमित कार्य - भार दिया गया हो, यथा-इतना ही करना या इतना ही बोलना चाहिये), तथा शासनहारक (लिखित आदेश को पहुँचानेवाला) - ये दूत के तीन भेद कहे गये हैं॥७-८॥

नाविज्ञातं पुरं शत्रोः प्रविशेच्च न शंसदं।

कालमीक्षेत कार्य्यार्थमनुज्ञातश्च निष्पतेत् ।। ९ ।।

छिद्रञ्च शत्रोर्जानीयात् कोषमित्रबलानि च ।

रागापरागौ जानीयाद् दृष्टिगात्रविचेष्टितैः ।। १० ।।

दूत अपने आगमन की सूचना दिये बिना शत्रु के दुर्ग तथा संसद् प्रवेश न करे (अन्यथा वह संदेह का पात्र बन जाता है)। वह कार्यसिद्धि के लिये समय की प्रतीक्षा करे तथा शत्रु राजा की आज्ञा लेकर वहाँ से विदा हो उसे शत्रु के छिद्र (दुर्बलता) - की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। उसके कोष, मित्र और सेना के विषय में भी वह जाने तथा शत्रु को दृष्टि एवं शरीर की चेष्टाओं से अपने प्रति राग और विरक्ति का भी अनुमान कर लेना चाहिये ॥ ९-१० ॥

कुर्य्याच्चतुर्विधं स्तोत्रं पक्षयोरुभयोरपि ।

तपस्विव्यञ्जनोपेतैः सुचरैः सह संवसेत् ।। ११ ।।

वह उभय पक्षों के कुल की (यथा- 'आप 'उदितोदित कुल के रत्न हैं' आदि), नाम की (यथा- 'आपका नाम दिग्दिगन्त में विख्यात है' इत्यादि), द्रव्य की (यथा-' आपका द्रव्य परोपकार में लगता है' इत्यादि) तथा श्रेष्ठ कर्म की (यथा-'आपके सत्कर्म की श्रेष्ठ लोग भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं' आदि कहकर ) बड़ाई करे। इस तरह चतुर्विध स्तुति करनी चाहिये। तपस्वी के वेष में रहनेवाले अपने चरों के साथ संवाद करे। अर्थात् उनसे बात करके यथार्थ स्थिति को जानने की चेष्टा करे ॥ ११ ॥

चरः प्रकाशो दूतः स्यादप्र्काशश्चरो द्विधा ।

बणिक् कृषीबलो लिङ्गी बिक्षुकाद्यात्मकाश्चराः ।। १२ ।।

यायादरिं व्यसनिनं निष्फले दूतचेष्टिते ।

चर दो प्रकार के होते हैं- प्रकाश (प्रकट) और अप्रकाश (गुप्त)। इनमें जो प्रकाश है, उसकी 'दूत' संज्ञा है और अप्रकाश 'चर' कहा गया है । वणिक् (वैदेहक), किसान (गृहपति), लिङ्गी ( मुण्डित या जटाधारी तपस्वी), भिक्षुक (उदास्थित ), अध्यापक (छात्रवृत्ति से रहनेवाला - कार्पटिक) इन चारों की स्थिति के लिये संस्थाएँ हैं। इनके लिये वृत्ति (जीविका ) की व्यवस्था की जानी चाहिये, जिससे ये सुख से रह सकें*। जब दूत की चेष्टा विफल हो जाय तथा शत्रु व्यसनग्रस्त हो, तब उस पर चढ़ाई करे ॥ १२अ ॥

*  यहाँ कोष्ठ में दिये गये 'वैदेहक' आदि शब्द 'वणिक्' आदि संस्थाओं के चरों के नामान्तर हैं।

प्रकृतिव्यसनं यत्स्यात्तत् समीक्ष्य समुत्पतेत् ।। १३ ।।

अनयाद्व्यस्यति श्रेयस्तस्मात्तद्व्यसनं स्मृतं ।

हुताशनो जलं व्याधिर्दुर्भिक्षं मरकं तथा ।। १४ ।।

इति पञ्चविधं दैवं व्यसनं मानुषं परं।

दैवं पुरुषकारेण शान्त्या च प्रशमन्नयेत् ।। १५ ।।

उत्थापितेन नीत्या च मानुषं व्यसनं हरेत् ।

जिससे अपनी प्रकृतियाँ व्यसनग्रस्त हो गयी हों, उस कारण को शान्त करके विजिगीषु शत्रु पर चढ़ाई करे। व्यसन दो प्रकार के होते हैं- मानुष और दैव। अनय और अपनय दोनों के संयोग से प्रकृति-व्यसन प्राप्त होता है। अथवा केवल दैव से भी उसकी प्राप्ति होती है। वह श्रेय (अभीष्ट अर्थ ) को व्यस्त (क्षिप्त या नष्ट कर देता है, इसलिये 'व्यसन' कहलाता है। अग्रि (आग लगना), जल (अतिवृष्टि या बाढ़), रोग, दुर्भिक्ष (अकाल पड़ना) और मरक (महामारी) ये पाँच प्रकार के 'दैव व्यसन' हैं। शेष 'मानुष व्यसन' हैं। पुरुषार्थ अथवा अथर्ववेदोक्त शान्तिकर्म से दैव व्यसन का निवारण करे। उत्थानशीलता (दुर्गादि- निर्माणविषयक चेष्टा) अथवा नीति-संधि या साम आदि के प्रयोग के द्वारा मानुष- व्यसन की शान्ति करे ॥ १३-१५अ ॥

मन्त्रो मन्त्रफलावाप्तिः कार्य्यानुष्ठानमायतिः ।। १६ ।।

आयव्ययौ दण्डनीतिरमित्रप्रतितषेधनं ।

व्यसनस्य प्रतीकारो राज्यराजाभिरक्षणं ।। १७ ।।

इत्यमात्यस्य कर्म्मदं इन्ति सव्यसनान्वितः ।

मन्त्र (कार्य का निश्चय), मन्त्रफल की प्राप्ति, कार्य का अनुष्ठान, भावी उन्नति का सम्पादन, आय-व्यय, दण्डनीति, शत्रु का निवारण तथा व्यसन को टालने का उपाय, राजा एवं राज्य की रक्षा- ये सब अमात्य के कर्म हैं। यदि अमात्य व्यसनग्रस्त हो तो वह इन सब कर्मों को नष्ट कर देता है* ॥ १६-१७अ ॥

* इन कर्मों में मन्त्र या कार्य का निश्चय मन्त्री के अधीन है, शत्रुओं को दूर से ही भगाकर मन्त्रसाध्य फल की प्राप्ति दूत के अधीन है. कार्य का अनुष्ठान (दुर्गादिकर्म की प्रवृत्ति) अध्यक्ष के अधीन है, आयति अथवा भावी उन्नति का सम्पादन अमात्यों के अधीन है, आय और व्यय अक्षपटलिक (अर्थमन्त्री) के अधीन हैं, दण्डनीति धर्मस्थ (न्यायाधिकारी) के हाथ में तथा शत्रुओं का निवारण मित्र-साध्य कर्म है ऐसा विभाग जयमङ्गलाकार ने किया है।

हिरण्यधान्यवस्त्राणि वाहनं प्रजया भवेत् ।। १८ ।।

तथान्ये द्रव्यनिचया हन्ति सव्यसना प्रजा ।

सुवर्ण, धान्य, वस्त्र, वाहन तथा अन्यान्य द्रव्यों का संग्रह जनपदवासिनी प्रजा के कर्म हैं। यदि प्रजा व्यसनग्रस्त हो तो वह उपर्युक्त सब कार्यों का नाश कर डालती है ॥ १८अ ॥

प्र्जानामापदिस्थानां रक्षणं कोषदण्डयोः ।। १९ ।।

पौराद्याश्चोपकुर्वन्ति संश्रयादिह दुर्द्दिनं ।

तूष्णीं युद्धं जनत्राणं मित्रामित्रपरिग्रहः ।। २० ।।

सामन्तादि कृते दोषे नश्येत्तद्व्यसनाच्च तत् ।

आपत्तिकाल में प्रजाजनों की रक्षा कोष और सेना की रक्षा, गुप्त या आकस्मिक युद्ध, आपत्तिग्रस्त जनों की रक्षा, संकट में पड़े हुए मित्रों और अमित्रों का संग्रह तथा सामन्तों और वनवासियों से प्राप्त होनेवाली बाधाओं का निवारण भी दुर्ग का आश्रय लेने से होता है। नगर के नागरिक भी शरण लेने के लिये दुर्गपतियों का कोष आदि के द्वारा उपकार करते हैं। (यदि दुर्ग विपत्तिग्रस्त हो जाय तो ये सब कार्य विपन्न हो जाते हैं ।) ॥ १९-२०अ ॥

भृत्यानां भरणं दानं प्र्जामित्रपरिग्रहः ।। २१ ।।

धर्म्मकामादिभेदश्च दुर्गसंस्कारभूषणं ।

कोषात्तद्व्यसनाद्धन्ति कोषमूलो हि भूपतिः ।। २२ ।।

भृत्यों (सैनिक आदि) का भरण-पोषण, दानकर्म, भूषण, हाथी-घोड़े आदि का खरीदना, स्थिरता, शत्रुपक्ष की लुब्ध प्रकृतियों में धन देकर फूट डालना, दुर्ग का संस्कार ( मरम्मत और सजावट), सेतुबन्ध (खेती के लिये जलसंचय करने के निमित्त बाँध आदि का निर्माण), वाणिज्य, प्रजा और मित्रों का संग्रह, धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि ये सब कार्य कोष से सम्पादित होते हैं । कोषसम्बन्धी व्यसन से राजा इन सबका नाश कर देता है; क्योंकि राजा का मूल है- कोष॥२१-२२॥

मित्रामित्रावनीहेमसाधनं रिपुमर्द्दनं ।

दूरकार्य्याशुकारित्वं दण्डात्तद्व्यसनाद्धरेत् ।। २३ ।।

मित्र, अमित्र (अपकार की इच्छावाले शत्रु). सुवर्ण और भूमि को अपने वश में करना, शत्रुओं को कुचल डालना, दूर के कार्य को शीघ्र पूरा करा लेना इत्यादि कार्य दण्ड (सेना) - द्वारा साध्य हैं। उसपर संकट आने से ये सब कार्य बिगड़ जाते हैं ॥ २३ ॥

संस्तम्भयति मित्राणि अमित्रं नाशयत्यपि ।

धनाद्यैरुपकारित्वं मित्रात्तद्व्यसनाद्धरेत् ।। २४ ।।

'मित्र' विजिगीषु के विचलित होनेवाले मित्रों को रोकता हैउनमें सुस्थिर स्नेह पैदा करता है, उसके शत्रुओं का नाश करता है तथा धन आदि से विजिगीषु का उपकार करता है। ये सब मित्र से सिद्ध होनेवाले कार्य हैं। मित्र के व्यसनग्रस्त होनेपर ये कार्य नष्ट होते हैं ॥ २४ ॥

राजाच सव्यसनी हन्याद्राजकार्य्याणि यानि च ।

वाग्दण्डयोश्च पारुष्यमर्थदूषणमेव च ।। २५ ।।

पानं स्त्री मृगया द्यूतं व्यसनानि महीपतेः ।

यदि राजा व्यसनी हो तो समस्त राजकार्यों को नष्ट कर देता है। कठोर वचन बोलकर दूसरों को दुःख पहुँचाना, अत्यन्त कठोर दण्ड देना, अर्थदूषण (वाणी द्वारा पहले की दी हुई वस्तु को न देना, दी हुई को छीन लेना, चोरी आदि के द्वारा धन का नाश होना तथा प्राप्त हुए धन को त्याग देना ), * मदिरापान, स्त्रीविषयक आसक्ति, शिकार खेलने में अधिक तत्पर रहना और जुआ खेलना-ये राजा के व्यसन हैं ॥ २५अ ॥

पूर्वप्रवृत्त अर्थ का उच्छेद होने से 'अदान', उसका पयागार आदि से आकर्षण 'आदान' स्वयं उपार्जित धन का अग्रि आदि से विध्वंस 'विनाश' तथा कहीं से प्राप्त धन के विघातपूर्वक उसका त्याग परित्याग' नामक अर्थदूषण है (जयमङ्गला)

आलस्यं स्तब्धता दर्पः प्रमादो द्वैधकारिता ।। २६ ।।

इति पूर्व्वेपदिष्टञ्च सचिवव्यसनं स्मृतं ।

आलस्य (उद्योगशून्यता ), स्तब्धता ( बड़ों के सामने उद्दण्डता या मान प्रदर्शन), दर्प (शौर्यादि का अहंकार), प्रमाद (असावधानता), बिना कारण वैर बाँधना - ये तथा पूर्वोक्त कठोर वचन बोलना आदि राजव्यसन सचिव के लिये दुर्व्यसन बताये गये हैं ॥ २६अ ॥

अनावृष्टिश्च पीडादी राष्ट्रव्यसनमुच्यते ।। २७ ।।

विशीर्णयन्त्रप्राकारपरिखात्वमशस्त्रता ।

क्षीणया सेनया नद्धं दुर्गव्यसनमुच्यते ।। २८ ।।

अनावृष्टि (और अतिवृष्टि) तथा रोगजनित पीड़ा आदि राष्ट्र के लिये व्यसन कहे गये हैं। यन्त्र ( शतघ्नी आदि), प्राकार (चहारदीवारी) तथा परिखा (खाई) - का नष्ट-भ्रष्ट हो जाना, अस्त्र- शस्त्रों का अभाव हो जाना तथा घास, ईंधन एवं अन्न का क्षीण हो जाना दुर्ग के लिये व्यसन बताया गया है॥ २७-२८ ॥

व्ययीकृतः परिक्षिप्तोऽप्रजितोऽसञ्चितस्तथा ।

दषितो दरसंस्थश्च कोषव्यसनमुच्यते ।। २९ ।।

असद्व्यय किंवा अपव्यय के द्वारा जिसे खर्च कर दिया गया हो, जिसे मण्डल के अनेक स्थानों में थोड़ा-थोड़ा करके बाँट दिया गया हो, रक्षक आदि ने जिसका भक्षण कर लिया हो, जिसे संचय करके रखा नहीं गया हो, जिसे चोर आदि ने चुरा लिया हो तथा जो दूरवर्ती स्थान में रखा गया हो, ऐसा कोष व्यसनग्रस्त बताया जाता है ॥ २९ ॥

उपरुद्धं परिक्षिप्तोऽप्तममानितविमानितं ।

अभूतं व्याधितं श्रान्तं दूरायातन्नवागतं ।। ३० ।।

परिक्षीणं प्रतिहतं प्रहताग्रतरन्तथा ।

आशानिर्वेदभूयिष्ठमनृतप्राप्तमेव च ।। ३१ ।।

कलत्रगर्भन्निक्षिप्तमन्तःशल्पं तथैव च ।

विच्छिन्नवीवधासारं शून्यमूलं तथैव च ।। ३२ ।।

अस्वाम्यसंहतं वापि भिन्नकूटं तथैव च ।

दुष्पार्ष्णिग्राहमर्थञ्च बलव्यसनमुच्यते ।। ३३ ।।

जो चारों ओर से अवरुद्ध कर दी गयी हो, जिस पर घेरा पड़ गया हो, जिसका अनादर या असम्मान हुआ हो, जिसका ठीक-ठीक भरण- पोषण नहीं किया गया हो, जिसके अधिकांश सैनिक रोगी, थके-माँदे, चलकर दूर से आये हुए तथा नवागत हों, जो सर्वथा क्षीण और प्रतिहत हो चली हो, जिसके आगे बढ़ने का वेग कुण्ठित कर दिया गया हो, जिसके अधिकांश लोग आशाजनित निर्वेद (खेद एवं विरक्ति) से भरे हों, जो अयोग्य भूमि में स्थित, अनृतप्राप्त ( अविश्वस्त) हो गयी हो, जिसके भीतर स्त्रियाँ अथवा स्त्रैण हों, जिसके हृदय में कुछ काँटा सा चुभ रहा हो तथा जिस सेना के पीछे दुष्ट पार्ष्णिग्राह (शत्रु) की सेना लगी हुई हो, उस सेना की इस दुरवस्था को 'बलव्यसन' कहा जाता है । ३०-३३ ॥

दैवोपपीडितं मित्रं ग्रस्तं शत्रुवलेन च ।

कामकोधादिसंयुक्तमुत्साहादरिभिर्भवेत् ।। ३४ ।।

जो दैव से पीड़ित, शत्रुसेना से आक्रान्त तथा पूर्वोक्त काम, क्रोध आदि से संयुक्त हो, उस मित्र को व्यसनग्रस्त बताया गया है। उसे उत्साह एवं सहायता दी जाय तो वह शत्रुओं से युद्ध के लिये उद्यत एवं विजयी हो सकता है ॥ ३४ ॥

अर्थस्य दूषणं क्रोधात् पारुष्यं वाक्यदण्डयोः ।

कामजं मृगया द्यूतं व्यसनं पानकं स्त्रियः ।। ३५ ।।

अर्थदूषण, वाणी की कठोरता तथा दण्डविषयक अत्यन्त क्रूरता - ये तीन क्रोधज व्यसन हैं। मृगया, जूआ, मद्यपान तथा स्त्रीसङ्ग ये चार प्रकार के कामज व्यसन हैं ॥ ३५ ॥

वाक्‌पारुष्यं परं लोके उद्वेजनमनर्थकं ।

असिद्धसाधनं दण्डस्यं युक्त्यावनयोन्नृपः ।। ३६ ।।

उद्वेजयति भूतानि दण्डपारुष्यवान् नृपः ।

भूतान्युद्वेज्यमानानि द्विषतां यान्ति संश्रयं ।। ३७ ।।

विवृद्धाः शत्रवश्चैव विनाशाय भवन्ति ते ।

वाणी की कठोरता लोक में अत्यन्त उद्वेग पैदा करनेवाली और अनर्थकारिणी होती है अर्थहरण, ताड़न और वध - यह तीन प्रकार का दण्ड असिद्ध अर्थ का साधक होने से सत्पुरुषों द्वारा 'शासन' कहा गया है। उसको युक्ति से ही प्राप्त कराये। जो राजा युक्त (उचित) दण्ड देता है, उसकी प्रशंसा की जाती है। जो क्रोधवश कठोर दण्ड देता है, वह राजा प्राणियों में उद्वेग पैदा करता है। उस दण्ड से उद्विग्र हुए मनुष्य विजिगीषु के शत्रुओं की शरण में चले जाते हैं, उनसे वृद्धि को प्राप्त हुए शत्रु उक्त राजा के विनाश में कारण होते हैं ॥ ३६-३७अ ॥

दूष्यस्य दूषणार्थञ्च परित्यागो महीयसः ।। ३८ ।।

अर्थस्य नीतितत्त्वज्ञैरर्थदूषणमुच्यते ।

दूषणीय मनुष्य के दूषण (अपकार) के लिये उससे प्राप्त होनेवाले किसी महान् अर्थ का विघातपूर्वक परित्याग नीति तत्त्वज्ञ विद्वानों द्वारा 'अर्थदूषण' कहा जाता है ॥ ३८अ ॥

पानात् कार्य्यादिनो ज्ञानं मृगयातोऽरितः ।। ३९ ।।

जितश्रमार्थं मृगयां विचरेद्रक्षिते वने ।

दौड़ते हुए यान (अश्व आदि) से गिरना, भूख-प्यास का कष्ट उठाना आदि दोष मृगया से प्राप्त होते हैं। किसी छिपे हुए शत्रु से मारे जाने की भी सम्भावना रहती है। श्रम या थकावट पर विजय पाने के लिये किसी सुरक्षित वन में राजा शिकार खेले ॥ ३९अ ॥

धर्म्मार्थप्राणनाशादि द्यूते स्यात् कलहादिकं ।। ४० ।।

कालातिपातो धर्म्मार्थपीडा स्त्रीव्यसनाद्भ्वेत् ।

पानदोषात् प्राणनाशः कार्य्याकार्यविनिश्चयः ।। ४१ ।।

जूए में धर्म, अर्थ और प्राणों के नाश आदि दोष होते हैं; उसमें कलह आदि की भी सम्भावना रहती है। स्त्रीसम्बन्धी व्यसन से प्रत्येक कर्तव्य- कार्य के करने में बहुत अधिक विलम्ब होता है- ठीक समय से कोई काम नहीं हो पाता तथा धर्म और अर्थ को भी हानि पहुँचती है। मद्यपान के व्यसन से प्राणों का नाश तक हो जाता है, नशे के कारण कर्तव्य और अकर्तव्य का निश्चय नहीं हो पाता । ४०-४१ ॥

स्कन्धावारनिवेशज्ञो निमित्तज्ञो रिपुं जयेत् ।

स्कन्धावारस्य मध्ये तु सकोषं नृपतेर्गृहं ।। ४२ ।।

मौलीभूतं श्रेणिसुहृद्‌द्विषदाटविकं बलं ।

राजहर्म्यं समावृत्य क्रमेण विनिवेशयेत् ।। ४३ ।।

सेना की छावनी कहाँ और कैसे पड़नी चाहिये, इस बात को जो जानता है तथा भले-बुरे निमित्त (शकुन) का ज्ञान रखता है, वह शत्रु पर विजय पा सकता है। स्कन्धावार (सेना की छावनी) - के मध्यभाग में खजानासहित राजा के ठहरने का स्थान होना चाहिये। राजभवन को चारों ओर से घेरकर क्रमशः मौल (पिता- पितामह के काल से चली आती हुई मौलिक सेना), भृत (भोजन और वेतन देकर रखी हुई सेना), श्रेणि (जनपदनिवासियों का दल अथवा कुविन्द आदि की सेना ), मित्रसेना, द्विषद्वल (राजा की दण्डशक्ति से वशीभूत हुए सामन्तों की सेना) तथा आटविक (वन्य प्रदेश के अधिपति की सेना) - इन सेनाओं की छावनी डाले ॥ ४२-४३ ॥

सैन्यैकदेशः सन्नद्धः सेनापतिपुरःसरः ।

परिभ्रमेच्चत्वरांश्च मण्डलेन वहिर्न्निशि ।। ४४ ।।

वार्त्ताः स्वका विजानीयाद्दरसीमान्तचारिणः ।

निर्गच्छेत् प्रविशेच्चैव सर्व्व एवोपलक्षितः ।। ४५ ।।

(राजा और उसके अन्तःपुर की रक्षा की सुव्यवस्था करने के पश्चात् ) सेना का एक चौथाई भाग युद्धसज्जा से सुसज्जित हो सेनापति को आगे करके प्रयत्नपूर्वक छावनी के बाहर रातभर चक्कर लगाये । वायु के समान वेगशाली घोड़ों पर बैठे हुए घुड़सवार दूर सीमान्त पर विचरते हुए शत्रु की गतिविधि का पता लगायें। जो भी छावनी के भीतर प्रवेश करें या बाहर निकलें, सब राजा की आज्ञा प्राप्त करके ही वैसा करें ॥। ४४-४५ ।।

सामदानं च भेदश्च दण्डोपेक्षेन्द्रजालकं ।

मायोपायाः सप्त परे निक्षिपेत्साधनाय तान् ।। ४६ ।।

साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षा, इन्द्रजाल और माया- ये सात उपाय हैं; इनका शत्रु के प्रति प्रयोग करना चाहिये। इन उपायों से शत्रु वशीभूत होता है ॥ ४६ ॥

चतुर्विधं स्मृतं साम उपकारानुकीर्त्तनात् ।

मिथःसम्बन्धकथनं मृदुपूर्व्वं च भाषणं ।। ४७ ।।

आयाते दर्शनं वाचा तवाहमिति चार्पणं ।

सामके पाँच भेद बताये गये हैं - १. दूसरे के उपकार का वर्णन, २. आपस के सम्बन्ध को प्रकट करना (जैसे 'आपकी माता मेरी मौसी हैं' इत्यादि), ३. मधुरवाणी में गुण-कीर्तन करते हुए बोलना, ४. भावी उन्नति का प्रकाशन (यथा-' ऐसा होने पर आगे चलकर हम दोनों का बड़ा लाभ होगा' इत्यादि) तथा ५ मैं आपका हूँ-यों कहकर आत्मसमर्पण करना ॥ ४७अ ॥

यः सम्प्राप्तधनोत्सर्ग उत्तमाधममध्यमः ।। ४८ ।।

प्रतिदानं तदा तस्य गृहीतस्यानुमोदनं ।

द्रव्यदानमपूर्व्वं च स्वयङ्ग्राहप्रवर्त्तनं ।। ४९ ।।

देयश्च चप्रतिमोक्षश्च दानं पञ्चविधं स्मृतं ।

किसी से उत्तम (सार), अधम (असार) तथा मध्यम (सारासार) भेद से जो द्रव्य-सम्पत्ति प्राप्त हुई हो, उसको उसी रूप में लौटा देना- यह दान का प्रथम भेद है। २. बिना दिये ही जो धन किसी के द्वारा ले लिया गया हो, उसका अनुमोदन करना (यथा- 'आपने अच्छा किया जो ले लिया। मैंने पहले से ही आपको देने का विचार कर लिया था) यह दान का दूसरा भेद है। ३. अपूर्व द्रव्यदान (भाण्डागार से निकालकर दिया गया नूतन दान), ४. स्वयंग्राहप्रवर्तन (किसी दूसरे से स्वयं ही धन ले लेने के लिये प्रेरित करना। यथा- 'अमुक व्यक्ति से अमुक द्रव्य ले लो, वह तुम्हारा ही हो जायगा ') तथा ५ दातव्य ऋण आदि को छोड़ देना या न लेना इस प्रकार ये दान के पाँच भेद कहे गये हैं । ४८-४९अ ॥

स्नेहरागापनयनसंहर्षोत्पादनं तथा ।। ५० ।।

मिथो भेदश्च भेदज्ञैर्भेदश्च त्रिविधः स्मृतः ।

स्नेह और अनुराग को दूर कर देना, परस्पर संघर्ष (कलह) पैदा करना तथा धमकी देना- भेदज्ञ पुरुषों ने भेद के ये तीन प्रकार बताये हैं ॥ ५०अ ॥

बधोऽर्थहरणं चैव परिक्लेशस्त्रिधा दमः ।। ५१ ।।

प्रकाशश्चाप्र्काशश्च लोकद्विष्टान् प्रकाशतः ।

उद्विजेत हतैर्ल्लोकस्तेषु पिण्डः प्रशस्यते ।। ५२ ।।

विशेषेणोपनिषद्योगैर्हन्याच्छस्त्रादिना द्विषः ।

जातिमात्रं द्विजं नैव हन्यात् सामोत्तरं वशे ।। ५३ ।।

वध, धन का अपहरण और बन्धन एवं ताड़न आदि के द्वारा क्लेश पहुँचाना- ये दण्ड के तीन भेद हैं। वध के दो प्रकार हैं- (१) प्रकाश (प्रकट) और (२) अप्रकाश (गुप्त)। जो सब लोगों के द्वेषपात्र हों, ऐसे दुष्टों का प्रकटरूप में वध करना चाहिये; किंतु जिनके मारे जाने से लोग उद्विग्न हो उठें, जो राजा के प्रिय हों तथा अधिक बलशाली हों, वे यदि राजा के हित में बाधा पहुँचाते हैं तो उनका गुप्तरूप से वध करना उत्तम कहा गया है। गुप्तरूप से वध का प्रयोग यों करना चाहिये – विष देकर, एकान्त में आग आदि लगाकर, गुप्त मनुष्यों द्वारा शस्त्र का प्रयोग कराकर अथवा शरीर में फोड़ा पैदा करनेवाले उबटन लगवाकर राज्य के शत्रु को नष्ट करे। जो जातिमात्र से भी ब्राह्मण हो, उसे प्राणदण्ड न दे। उस पर सामनीति का प्रयोग करके उसे वश में लाने की चेष्टा करे ।। ५१-५३ ॥

प्रलिम्पन्निव चेतांसि दृष्ट्वासाधु पिबन्निव ।

ग्रसन्निवामृतं साम प्रयुञ्जीत प्रियं वचः ।।५४ ।।

प्रिय वचन बोलना 'साम' कहलाता है। उसका प्रयोग इस तरह करे, जिससे चित्त में अमृत का सा लेप होने लगे। अर्थात् वह हृदय में स्थान बना ले। ऐसी स्निग्ध दृष्टि से देखे, मानो वह सामनेवाले को प्रेम से पी जाना चाहता हो तथा इस तरह बात करे, मानो उसके मुख से अमृत की वर्षा हो रही हो ॥ ५४ ॥

मिथ्याभिशस्तः श्रीकाम आहूयाप्रतिमानितः ।

राजद्वेषी चातिकर आत्मसम्बावितस्तथा ।। ५५ ।।

विच्छिन्नधर्म्मकामार्थः क्रुद्धो मानी विमानितः ।

अकारणात् परित्यक्तः कृतवैरोऽपि सान्त्वितः ।। ५६ ।।

हृतद्र्व्यकलत्रश्च पूजार्होऽप्रतिपूजितः ।

एतांस्तु भेदयेच्छत्रौ स्थितान्नित्यान् सुशङ्कितान् ।। ५७ ।।

आगतान् पूजयेत् कामैर्न्निजांश्च प्रशमन्नयेत् ।

जिस पर झूठा ही कलङ्क लगाया गया हो, जो धन का इच्छुक हो, जिसे अपने पास बुलाकर अपमानित किया गया हो, जो राजा का द्वेषी हो, जिस पर भारी कर लगाया गया हो, जो विद्या और कुल आदि की दृष्टि से अपने को सबसे बड़ा मानता हो, जिसके धर्म, काम और अर्थ छिन्न-भिन्न हो गये हों, जो कुपित, मानी और अनादृत हो, जिसे अकारण राज्य से निर्वासित कर दिया गया हो, जो पूजा एवं सत्कार के योग्य होने पर भी असत्कृत हुआ हो, जिसके धन तथा स्त्री का हरण कर लिया गया हो, जो मन में वैर रखते हुए भी ऊपर से सामनीति के प्रयोग से शान्त रहता हो, ऐसे लोगों में, तथा जो सदा शङ्कित रहते हों, उनमें, यदि वे शत्रुपक्ष के हों तो फूट डाले और अपने पक्ष में इस तरह के लोग हों तो उन्हें यत्नपूर्वक शान्त करे। यदि शत्रुपक्ष से फूटकर ऐसे लोग अपने पक्ष में आयें तो उनका सत्कार करे ।। ५५ – ५७अ ॥

सामदृष्टानुसन्धानमत्युग्रभयदर्शनं ।। ५८ ।।

प्रधानदानमानं च भेदोपायाः प्रकीर्त्तिताः ।

समान तृष्णा का अनुसन्धान (उभयपक्ष को समानरूप से लाभ होने की आशा का प्रदर्शन), अत्यन्त उग्रभय (मृत्यु आदि की विभीषिका) दिखाना तथा उच्चकोटि का दान और मान-ये भेद के उपाय कहे गये हैं ॥ ५८अ ॥

मित्रं हतं क्काष्ठमिव घुणजग्धं विशीर्य्यते ।। ५९ ।।

त्रिशक्तिर्द्देशकालज्ञो दण्डेनास्तं नयेदरीन् ।

मैत्रीप्रधानं कल्याणबुद्धिं सान्त्वेन साधयेत् ।। ६० ।।

शत्रु की सेना में जब भेदनीति द्वारा फूट डाल दी जाती है, तब वह घुन लगे हुए काष्ठ की भाँति विशीर्ण (छिन्न-भिन्न हो जाती है। प्रभाव, उत्साह तथा मन्त्रशक्ति से सम्पन्न एवं देश-काल का ज्ञान रखनेवाला राजा दण्ड के द्वारा शत्रुओं का अन्त कर दे। जिसमें मैत्रीभाव प्रधान है तथा जिसका विचार कल्याणमय है, ऐसे पुरुष को सामनीति के द्वारा वश में करे ।। ५९-६० ॥

लुब्धं क्षीणञ्च चदानेन मित्रानन्योन्यशङ्कया ।

दण्डस्य दर्शनाद्‌दुष्टान् पुत्रभ्रातादि सामतः ।। ६१ ।।

दानभेदैश्चमूमुख्यान् योधान् जनपदादिकान् ।

सामन्ताटविकान् भेददण्डाभ्यामपराद्धकान् ।। ६२ ।।

जो लोभी हो और आर्थिक दृष्टि से क्षीण हो चला हो, उसको दान द्वारा सत्कारपूर्वक वश में करे । परस्पर शङ्का से जिनमें फूट पड़ गयी हो तथा जो दुष्ट हों, उन सबको दण्ड का भय दिखाकर वश में ले आये। पुत्र और भाई आदि बन्धुजनों को सामनीति द्वारा एवं धन देकर वशीभूत करे। सेनापतियों, सैनिकों तथा जनपद के लोगों को दान और भेदनीति के द्वारा अपने अधीन करे। सामन्तों (सीमावर्ती नरेशों), आटविकों (वन्य प्रदेश के शासकों) तथा यथासम्भव दूसरे लोगों को भी भेद और दण्डनीति से वश में करे ।। ६१-६२ ॥

देवताप्रतिमानान्तु पूजयान्तर्गतैर्न्नरैः ।

पुमान् स्त्रीवस्त्रसंवीतो निशि चाद्‌भुतदर्शनः ।। ६३ ।।

वेतालोल्कापिशाचानां शिवानां च स्वरूपिकी ।

कामतो रूपधारित्वं शस्त्रागन्यश्माम्बुवर्षणं ।। ६४ ।।

तमोऽनिलोऽनलो मेव इति माया ह्यमानुषी।

जघान कीचकं भीम आस्थितः स्त्रीस्वरूपतां ।। ६५ ।।

देवताओं की प्रतिमाओं तथा जिनमें देवताओं की मूर्ति खुदी हो, ऐसे खंभों के बड़े-बड़े छिद्रों में छिपकर खड़े हुए मनुष्य 'मानुषी माया' हैं।* स्त्री के कपड़ों से ढँका हुआ अथवा रात्रि में अद्भुतरूप से दर्शन देनेवाला पुरुष भी 'मानुषी माया' है। वेताल, मुख से आग उगलनेवाले पिशाच तथा देवताओं के समान रूप धारण करना इत्यादि 'मानुषी माया' है। इच्छानुसार रूप धारण करना, शस्त्र, अग्नि, पत्थर और जल की वर्षा करना तथा अन्धकार, आँधी, पर्वत और मेघों की सृष्टि कर देना - यह 'अमानुषी माया' है। पूर्वकल्प की चतुर्युगी में जो द्वापर आया था, उसमें पाण्डुवंशी भीमसेन ने स्त्री के समान रूप धारण करके अपने शत्रु कीचक को मारा था ॥ ६३-६५ ॥

* यहाँ छिपे हुए मनुष्य यथा समय निकलकर शत्रु पर टूट पड़ते हैं या वहाँ से शत्रु के विनाश की सूचना देते हैं। शत्रु पर यह प्रभाव डालते हैं कि विजिगीषु की सेवा से प्रसन्न होकर हम देवता ही उसकी सहायता कर रहे हैं।

अन्याये व्यस्ने युद्धे प्रवृत्तस्यानिवारणं ।

उपेक्षेयं स्मृता भ्रातोपेक्षितश्च हिडिम्बया ।। ६६ ।।

अन्याय (अदण्ड्यदण्डन आदि), व्यसन (मृगया आदि) तथा बड़े के साथ युद्ध में प्रवृत्त हुए आत्मीय जन को न रोकना 'उपेक्षा' है। पूर्वकल्पवर्ती भीमसेन के साथ युद्ध में प्रवृत्त हुए अपने भाई हिडिम्ब को हिडिम्बा ने मना नहीं किया, अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये उसकी उपेक्षा कर दी ॥ ६६ ॥

मेघान्धकारवृष्टग्निपर्वताद्‌भुतदर्शनं ।

दरस्थानं च सैन्यानां दर्शनं ध्वजशालिनां ।। ६७ ।।

छिन्नपाटितभिन्नानां संसृतानां व दर्शनं ।

इतीन्द्रजालं द्विषताम्भीत्यर्थमुपकल्पयेत् ।। ६८ ।।

मेघ, अन्धकार, वर्षा, अग्रि, पर्वत तथा अन्य अद्भुत वस्तुओं को दिखाना, दूर खड़ी हुई ध्वजशालिनी सेनाओं का दर्शन कराना, शत्रुपक्ष के सैनिकों को कटे, फाड़े तथा विदीर्ण किये गये और अङ्गों से रक्त की धारा बहाते हुए दिखाना- यह सब 'इन्द्रजाल' है। शत्रुओं को डराने के लिये इस इन्द्रजाल की कल्पना करनी चाहिये ।। ६७-६८ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सामादिर्नाम एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'साम आदि उपायों का कथन' नामक दो सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४१ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 242

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