अग्निपुराण अध्याय २४०
अग्निपुराण
अध्याय २४० में द्वादशराजमण्डल - चिन्तन** का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २४०
अग्निपुराणम् चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 240
अग्निपुराण दो सौ चालीसवाँ अध्याय
अग्निपुराण
अध्याय २४०
अग्निपुराणम् अध्यायः २४०– षाड्गुण्यम्
अथ चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
राम उवाच
मण्डलं
चिन्तयेत्मुख्यं राजा द्वादशराजकं ।
अरिर्मित्रमरेर्मित्रं
मित्रमित्रमतः परं ॥०१॥
तथारिमित्रमित्रञ्च
विजिगीषोः पुरः स्मृताः ।
पार्ष्णिग्राहः
स्मृतः पश्चादाक्रन्दस्तदनन्तरं ॥०२॥
आसारावनयोश्चैवं
विजगीषाश्च मण्डलं ।
अरेश्च
विजिगीषोश्च मध्यमो भूम्यनन्तरः ॥०३॥
अनुग्रहे
संहतयोर्निग्रहे व्यस्तयोः प्रभुः ।
मण्डलाद्वहिरेतेषामुदासीनो
बलाधिकः ॥०४॥
अनुग्रहे
संहतानां व्यस्तानां च बुधे प्रभुः ।
श्रीराम कहते
हैं—
राजा को चाहिये कि वह मुख्य द्वादश राजमण्डल का चिन्तन करे।
१. अरि, २. मित्र, ३. अरिमित्र, तत्पश्चात् ४. मित्रमित्र तथा ५. अरिमित्रमित्र –
ये क्रमशः विजिगीषु के सामनेवाले राजा कहे गये हैं।
विजिगीषु के पीछे क्रमशः चार राजा होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं - १. पाणिग्राह,
उसके बाद २. आक्रन्द, तदनन्तर इन दोनों के आसार अर्थात् ३. पाणिग्राहासार एवं ४.
आक्रन्दासार। अरि और विजिगीषु – दोनों के राज्य से जिसकी सीमा मिलती है,
वह राजा 'मध्यम' कहा गया है। अरि और विजिगीषु ये दोनों यदि परस्पर मिले
हों-संगठित हो गये हों तो मध्यम राजा कोष और सेना आदि की सहायता देकर इन दोनों पर
अनुग्रह करने में समर्थ होता है। और यदि ये परस्पर संगठित न हों तो वह मध्यम राजा
पृथक्-पृथक् या बारी-बारी से इन दोनों का वध करने में समर्थ होता है। इन सबके मण्डल
से बाहर जो अधिक बलशाली या अधिक सैनिकशक्ति से सम्पन्न राजा है,
उसकी 'उदासीन' संज्ञा है। विजिगीषु, अरि और मध्यम - ये परस्पर संगठित हों तो उदासीन राजा इन पर
अनुग्रहमात्र कर सकता है और यदि ये संगठित न होकर पृथक् पृथक् हों तो वह 'उदासीन' इन सबका वध कर डालने में समर्थ हो जाता है ॥ १-४अ ॥
सन्धिञ्च
विग्रहं यानमासानदि वदामि ते ॥०५॥
बलवद्विग्रहीतेन
सन्धिं कुर्याच्छिवाय च ।
कपाल उपहारश्च
सन्तानः सङ्गतस्तथा ॥०६॥
उपन्यासः
प्रतीकारः संयोगः पुरुषान्तरः ।
अदृष्टनर
आदिष्ट आत्मापि स उपग्रहः ॥०७॥
परिक्रमस्तथा
छिन्नस्तथा च परदूषणं ।
स्कन्धोपयेयः
सन्धिश्च सन्धयः षोडशेरिताः ॥०८॥
लक्ष्मण ! अब
मैं तुम्हें संधि, विग्रह, यान और आसन आदि के विषय में बता रहा हूँ। किसी बलवान् राजा के
साथ युद्ध उन जाने पर यदि अपने पक्ष की अवस्था शोचनीय हो तो अपने कल्याण के लिये
संधि कर लेनी चाहिये। १. कपाल, २. उपहार, ३ संतान, ४. संगत, ५. उपन्यास,६. प्रतीकार, ७. संयोग, ८. पुरुषान्तर, ९. अदृष्टनर,१०. आदिष्ट, ११. आत्मामिष, १२. उपग्रह, १३. परिक्रय, १४. उच्छिन्न, १५. परदूषण तथा १६. स्कन्धोपनेय - ये संधि के सोलह भेद* बतलाये गये हैं। जिसके साथ संधि की जाती है,
वह 'संधेय' कहलाता है। उसके दो भेद हैं- अभियोक्ता और अनभियोक्ता ।
उक्त संधियों में से उपन्यास,प्रतीकार और संयोग ये तीन संधियाँ अनभियोक्ता
(अनाक्रमणकारी) के प्रति करनी चाहिये। शेष सभी अभियोक्ता (आक्रमणकारी) के प्रति
कर्तव्य हैं ॥ ५-८ ॥
* इन सोलह संधियों का परिचय इस प्रकार है-
१.
समान शक्ति तथा साधनवाले दो राजाओं में जो बिना किसी शर्त के संधि की जाती है, उसे
'समसंधि' या 'कपालसंधि' कहते
हैं। 'कपालसंधि' उसका
नाम इसलिये हुआ कि वह दो कपालों को जोड़ने के समान है दो कपालों के योग से बड़ा
बनता है। यदि एक कपाल फूट जाय और उसके स्थान पर दूसरा कपाल जोड़ा जाय तो वह बाहर से
जुड़ा हुआ दीखने पर भी भीतर से पूरा पूरा नहीं जुड़ता। इसी तरह जो संधि समान
शक्तिशाली पुरुषों में स्थापित होती है, वह कुछ काल के लिये कामचलाऊ ही होती है। हृदय का
मेल न होने के कारण वह टिक नहीं पाती।
२.
संधेय की इच्छा अनुसार पहले ही द्रव्य आदि का उपहार देने के बाद जो उसके साथ संधि
की जाती है, वह उपहार-संधि कही गयी है।
३.
कन्यादान देकर जो संधि की जाती है, वह संतानहेतुक होने के कारण संतानसंधि कहलाती है।
४.
चौथी संगतसंधि कही गयी है, जो सत्पुरुषों के साथ मैत्रीपूर्वक स्थापित होती
है। इसमें देने लेने की कोई शर्त नहीं होती। उसमें दोनों पक्षों के अर्थ (कोष) और
प्रयोजन (कार्य) समान होते हैं। परस्पर अत्यन्त विश्वास के साथ दोनों के हृदय एक
हो जाते हैं। उस दशा में दोनों अपना खजाना एक दूसरे के लिये खोल देते हैं और दोनों
एक-दूसरे के प्रयोजन की सिद्धि के लिये समानरूप से प्रयत्नशील होते हैं। यह संधि
जीवनपर्यन्त सुस्थिर रहती है। सब संधियों में इसी का स्थान ऊँचा है। जैसे टूटे हुए
सुवर्ण के टुकड़ों को गलाकर जोड़ा जाय तो वे पूर्णरूप से जुड़ जाते हैं, उसी
तरह संगतसंधि में दोनों पक्षों की संगति अटूट हो जाती है। इसीलिये इसे सुवर्णसंधि
या काञ्चनसंधि भी कहते हैं। यह सम्पत्ति और विपत्ति में भी, कैसे
हो कारण क्यों न हों, उनके द्वारा अभेद्य रहती है। ५. भविष्य में
कल्याण करनेवाली एकार्थसिद्धि के उद्देश्य से जो संधि की जाय, अर्थात्
अमुक शत्रु हम दोनों को हानि पहुँचानेवाला है, अतः हम दोनों मिलकर उसका उच्छेद करें, इससे
हम दोनों को समानरूप से लाभ होगा ऐसा उपन्यास (उल्लेख) करके जो संधि की जाय, उसे
उपन्यास कहा गया है।
६.
मैंने पहले इसका उपकार किया है, संकटकाल में इसे सहायता दी है, अब
यह ऐसे ही अवसर पर मेरी भी सहायता करके उस उपकार का बदला चुकायेगा इस उद्देश्य से
जो संधि की जाती है, अथवा में इसका उपकार करता हूँ, यह
मेरा भी उपकार करेगा -इस अभिप्राय से जो संधि स्थापित की जाती है, उसका
नाम प्रतीकारसंधि है-जैसे श्रीराम और सुग्रीव की संधि।
७.
एक पर ही चढ़ाई करने के लिये जब शत्रु और विजिगीषु दोनों जाते हैं, उस
समय यात्राकाल में जो उन दोनों में संगठन या सांठ-गांठ हो जाती है, ऐसी
संधि को संयोग कहते हैं।
८.
जहाँ दो राजाओं में एक नतमस्तक हो जाता है और दूसरा यह शर्त रखता है कि मेरे और
तुम्हारे दोनों सेनापति मिलकर मेरा अमुक कार्य सिद्ध करें, तो
उस शर्त पर होनेवाली संधि पुरुषान्तर कही जाती है।
९.
अकेले तुम मेरा अमुक कार्य सिद्ध करो, उसमें मैं अथवा मेरी सेना का कोई योद्धा साथ नहीं
रहेगा जहाँ शत्रु ऐसी शर्त सामने रखे, वहाँ उस शर्त पर की जानेवाली संधि 'अष्ट-पुरुष'कड़ी
जाती है। उसमें एक पक्ष का कोई भी पुरुष देखने में नहीं आता, अतएव
उसका नाम अटपुरुष है।
१०.
जहाँ अपनी भूमि का एक भाग देकर शेष की रक्षा के लिये बलवान् शत्रु के साथ संधि की
जाती है, उसे
आदिष्ट कहा गया है।
११.
जहाँ अपनी सेना देकर संधि की जाती है, वहाँ अपने-आपको ही आमिष (भोग्य) बना देने के कारण
उस संधि का नाम आत्मामि है।
१२.
जहाँ प्राणरक्षा के लिये सर्वस्व अर्पण कर दिया जाता है, वह
संधि उपग्रह कही गयी है।
१३.
जहाँ कोष का एक भाग, कुप्य (वस्त्र,
कम्बल आदि) अथवा सारा ही खजाना देकर शेष प्रकृति
( अमात्य, राष्ट्र
आदि)-की रक्षा की जाती है, वहाँ मानो उस धन से उन शेष प्रकृतियों का क्रय
किया जाता है; अतएव उस संधि को परिक्रय कहते हैं।
१४.
जहाँ सारभूत भूमि (कोष आदि की अधिक वृद्धि करानेवाले भूभाग) को देकर संधि की जाती
है, वह
अपना उच्छेद करने के समान होने से उच्छिन्न कहलाती है।
१५.
अपनी सम्पूर्ण भूमि से जो भी फल या लाभ प्राप्त होता है, उसको
कुछ अधिक मिलाकर देने के बाद जो संधि होती है, वह परदूषण कही गयी है।
१६.
जहाँ परिगणित फल (लाभ) खण्ड-खण्ड करके अर्थात् कई किस्तों में बाँटकर पहुँचाये
जाते हैं, वैसी
संधि स्कन्धोपनेय कही गयी है।
परस्परोपकारश्च
मैत्रः सम्बन्धकस्तथा ।
उपहाराश्च
चत्वारस्तेषु मुख्याश्च सन्धयः ॥०९॥
परस्परोपकार,
मैत्र, सम्बन्धज तथा उपहार- ये ही चार संधि के भेद जानने चाहिये-
ऐसा अन्य लोगों का मत है* ॥ ९ ॥
* 'परस्परोपकार' ही
प्रतीकार है; 'मैत्र' का ही नाम 'संगत' संधि है। सम्बन्धज को ही 'संतान' कहा
गया है और 'उपहार' तो पूर्वकथित 'उपहार' है ही इन्हीं में अन्य सबका समावेश है।
बालो वृद्धो
दीर्घरोगस्तथा बन्धुवहिष्कृतः ।
मौरुको
भीरुकजनो लुब्धो लुब्धजनस्तथा ॥१०॥
विरक्तप्रकृतिश्चैव
विषयेष्वतिशक्तिमान् ।
अनेकचित्तमन्त्रश्च
देवब्राह्मणनिन्दकः ॥११॥
दैवोपहतकश्चैव
दैवनिन्दक एव च ।
दुर्भिक्षव्यसनोपेतो
बलव्यसनसङ्कुलः ॥१२॥
स्वदेशस्थो
बहुरिपुर्मुक्तः कालेन यश्च ह ।
सत्यधर्मव्यपेतश्च
विंशतिः पुरुषा अमी ॥१३॥
एर्तैः सन्धिं
न कुर्वीत विगृह्णीयात्तु केबलं ।
बालक,
वृद्ध, चिरकाल का रोगी, भाई-बन्धुओं से बहिष्कृत, डरपोक, भीरु सैनिकोंवाला, लोभी- लालची सेवकों से घिरा हुआ,
अमात्य आदि प्रकृतियों के अनुराग से वञ्चित,
अत्यन्त विषयासक्त, अस्थिरचित्त और अनेक लोगों के सामने मन्त्र प्रकट करनेवाला,
देवताओं और ब्राह्मणों का निन्दक,
दैव का मारा हुआ, दैव को ही सम्पत्ति और विपत्ति का कारण मानकर स्वयं उद्योग
न करनेवाला, जिसके ऊपर दुर्भिक्ष का संकट आया हो वह जिसकी सेना कैद कर ली गयी हो अथवा
शत्रुओं से घिर गयी हो वह, अयोग्य देश में स्थित (अपनी सेना की पहुँच से बाहर के स्थान
में विद्यमान), बहुत-से शत्रुओं से युक्त, जिसने अपनी सेना को युद्ध के योग्य काल में नहीं नियुक्त
किया है वह, तथा सत्य और धर्म से भ्रष्ट - ये बीस पुरुष ऐसे हैं जिनके साथ संधि न करे,
केवल विग्रह करे॥१०-१३अ॥
परस्परापकारेण
पुंसां भवति विग्रहः ॥१४॥
आत्मनोऽभ्युदयाकाङ्क्षी
पीड्यमानः परेण वा ।
देशकालबलोपेतः
प्रारभेतेह विग्रहं ॥१५॥
एक-दूसरे के
अपकार से मनुष्यों में विग्रह (कलह या युद्ध) होता है। राजा अपने अभ्युदय की इच्छा
से अथवा शत्रु से पीड़ित होने पर यदि देश काल की अनुकूलता और सैनिक शक्ति से
सम्पन्न हो तो विग्रह प्रारम्भ करे ॥ १४-१५ ॥
राज्यस्त्रीस्थानदेशानां
ज्ञानस्य च बलस्य च ।
अपहारी मदो
मानः पीडा वैषयिकी तथा ॥१६॥
ज्ञानात्मशक्तिधर्माणां
विघातो दैवमेव च ।
मित्रार्थञ्चापमानश्च
तथा बन्धुविनाशनं ॥१७॥
भूतानुग्रहविच्छेदस्तथा
मण्डलदूषणं ।
एकार्थाभिनिवेशत्वमिति
विग्रहयोनयः ॥१८॥
सप्ताङ्ग
राज्य,
स्त्री (सीता आदि जैसी असाधारण देवी),
जनपद के स्थान विशेष, राष्ट्र के एक भाग, ज्ञानदाता उपाध्याय आदि और सेना- इनमें से किसी का भी अपहरण
विग्रह का कारण है (इस प्रकार छ: हेतु बताये गये)। इनके सिवा मद (राजा दम्भोद्भव
आदि की भाँति शौर्यादिजनित दर्प), मान (रावण आदि की भाँति अहंकार),
जनपद की पीड़ा (जनपद-निवासियों का सताया जाना),
ज्ञानविघात (शिक्षा-संस्थाओं अथवा ज्ञानदाता गुरुओं का
विनाश),
अर्थविघात (भूमि, हिरण्य आदि को क्षति पहुँचाना),
शक्तिविघात ( प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्तियों का अपक्षय),
धर्मविघात, दैव (प्रारब्धजनित दुरवस्था), सुग्रीव आदि जैसे मित्रों के प्रयोजन की सिद्धि, माननीय जनों का अपमान, बन्धुवर्ग का विनाश, भूतानुग्रहविच्छेद (प्राणियों को दिये गये अभयदान का खण्डन –
जैसे एक ने किसी वन में वहाँ के जन्तुओं को अभय देने के
लिये मृगया की मनाही कर दी, किंतु दूसरा उस नियम को तोड़कर शिकार खेलने आ गया- यही 'भूतानुग्रहविच्छेद' है), मण्डलदूषण (द्वादशराजमण्डल में से किसी को विजिगीषु के
विरुद्ध उभाड़ना), एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री आदि अर्थ एक को
अभीष्ट है, उसी को लेने के लिये दूसरे का भी दुराग्रह) – ये बीस विग्रह के कारण हैं ॥ १६-१८ ॥
सापत्न्यं
वास्तुजं स्त्रीजं वाग्जातमपराधजं ।
वैरं पञ्चविधं
प्रोक्तं साधनैः प्रशमन्नयेत् ॥१९॥
सापत्न (रावण
और विभीषण की भाँति सौतेले भाइयों का वैमनस्य), वास्तुज (भूमि, सुवर्ण आदि के हरण से होनेवाला अमर्ष),
स्त्री के अपहरण से होनेवाला रोष,
कटुवचनजनित क्रोध तथा अपराधजनित प्रतिशोध की भावना - ये
पाँच प्रकार के वैर अन्य विद्वानों ने बताये हैं*
॥ १९ ॥
* सापत्न – वैर में पूर्वोक्त एकार्थाभिनिवेश का
अन्तर्भाव हो जाता है, स्त्री और वास्तु के अपहरणजनित वैर में पूर्वकथित
स्वीस्थानापहारज वैर का अन्तर्भाव है वाग्जात वैर में पूर्वोक्त ज्ञानापहारज और
अपमानजनित वैर अन्तर्भूत होते हैं और अपराधजनित वैर में पूर्वोक्तशेष १४ कारणों का
समावेश हो जाता है।
किञ्चित्फलं
निष्फलं वा सन्दिग्धफलमेव च ।
तदात्वे
दोषजननमायत्याञ्चैव निष्फलं ॥२०॥
आयत्याञ्च
तदात्वे च दोषसञ्जननं तथा ।
अपरिज्ञातवीर्येण
परेण स्तोभितोऽपि वा ॥२१॥
परार्थं
स्त्रीनिमित्तञ्च दीर्घकालं द्विजैः सह ।
अकालदैवयुक्तेन
बलोद्धतसखेन च ॥२२॥
तदात्वे
फलसंयुक्तमायत्यां फलवर्जितं ।
आयत्यां
फलसंयुक्तं तदात्वे निष्फलं तथा ॥२३॥
इतीमं
षोडशविधन्नकुर्यादेव विग्रहं ।
तदात्वायतिसंशुद्धं
कर्म राजा सदाचरेत् ॥२४॥
(१) जिस विग्रह से बहुत कम लाभ होनेवाला हो,
(२) जो निष्फल हो,
(३) जिससे फलप्राप्ति में संदेह
हो,
(४) जो तत्काल दोषजनक
(विग्रह के समय मित्रादि के साथ विरोध पैदा करनेवाला),
(५) भविष्यकाल में भी
निष्फल,
(६) वर्तमान और भविष्य में
भी दोषजनक हो, (७) जो अज्ञात (८) दूसरों के द्वारा उभाड़ा गया हो,
(९) जो बल - पराक्रमवाले
शत्रु के साथ किया जाय एवं दूसरों की स्वार्थसिद्धि के लिये किंवा,
(१०) किसी साधारण स्त्री को
पाने के लिये किया जा रहा हो, (११) जिसके दीर्घकालतक चलते रहने की सम्भावना हो,
(१२) जो श्रेष्ठ द्विजों के
साथ छेड़ा गया हो, (१३) जो वरदान आदि पाकर अकस्मात् दैवबल से सम्पन्न हुए पुरुष
के साथ छिड़नेवाला हो, (१४) जिसके अधिक बलशाली मित्र हों,
ऐसे पुरुष के साथ जो छिड़नेवाला हो,
(१५) जो वर्तमान काल में
फलद,
किंतु भविष्य में निष्फल हो तथा (१६) जो भविष्य में फलद किंतु
वर्तमान में निष्फल हो इन सोलह प्रकार के विग्रहों में कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान
और भविष्य में परिशुद्ध - पूर्णतः लाभदायक हो, वही विग्रह राजा को छेड़ना चाहिये ॥ २० - २४ ॥
हृष्टं पुष्टं
बलं मत्वा गृह्णीयाद्विपरीतकं ।
मित्रमाक्रन्द
आसारो यदा स्युर्दृढभक्तयः ॥२५॥
परस्य
विपरीतञ्च तदा विग्रहमाचरेत् ।
राजा जब अच्छी
तरह समझ ले कि मेरी सेना हृष्ट-पुष्ट अर्थात् उत्साह और शक्ति से सम्पन्न है तथा
शत्रु की अवस्था इसके विपरीत है, तब वह उसका निग्रह करने के लिये विग्रह आरम्भ करे। जब मित्र,
आक्रन्द तथा आक्रन्दासार इन तीनों की राजा के प्रति
दृढ़भक्ति हो तथा शत्रु के मित्र आदि विपरीत स्थिति में हों अर्थात् उसके प्रति
भक्तिभाव न रखते हों, तब उसके साथ विग्रह आरम्भ करे ॥ २५अ ॥
विगृह्य
सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसङ्गतः ॥२६॥
उपेक्षया च
निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतं ।
(जिसके बल एवं
पराक्रम उच्च कोटि के हों, जो विजिगीषु के गुणों से सम्पन्न हो और विजय की अभिलाषा
रखता हो तथा जिसकी अमात्यादि प्रकृति उसके सद्गुणों से उसमें अनुरक्त हो,
ऐसे राजा का युद्ध के लिये यात्रा करना 'यान' कहलाता है।) विगृह्यगमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन-ये नीतिज्ञ पुरुषों द्वारा
यान के पाँच भेद कहे गये हैं* ॥ २६अ ॥
*
बलवान् राजा जब समस्त शत्रुओं के साथ विग्रह आरम्भ करके युद्ध के लिये यात्रा करता
है, तब
उसको उस यात्रा को नीतिशास्त्र के विद्वान् 'विगृह्यगमन' कहते हैं; अथवा शत्रु के समस्त मित्रों को अर्थात् उसके आगे
और पीछे के शुभचिन्तकों को अपने सामने और पीछेवाले मित्रों द्वारा छेड़े गये
विग्रह में फँसाकर शत्रु पर जो चढ़ाई की जाती है,
उसे 'विगृह्यगमन' या 'विगृहायान' कहते हैं। जब अपनी चेष्टा में अवरोध उत्पन्न
करनेवाले सभी प्रकार के शत्रुओं के साथ संधि करके जो एकमात्र किसी अन्य शत्रु पर
आक्रमण किया जाता है, यह 'संधायगमन' कहा जाता है अथवा अपने पार्ष्णिग्राह वाले
पृष्ठवर्ती शत्रु के साथ संधि करके जो अन्यत्र - अपने सामनेवाले शत्रु पर आक्रमण के
लिये यात्रा की जाती है, विजिगीषु को उस यात्रा को भी 'संधायगमन' कहते
हैं सामूहिक लाभ में समानरूप से भागी होनेवाले सामन्तों के साथ, जो
शक्ति और शुद्धभाव से युक्त हों, एकीभूत होकर मिलकर जो किसी एक ही शत्रु पर चढ़ाई
की जाती है, उसका नाम 'सम्भूयगमन' है। अथवा जो विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों को
प्रकृतियों का विनाश करने के कारण दोनों का शत्रु हो, उसके
प्रति विजिगीषु तथा शत्रु दोनों का मिलकर युद्ध के लिये यात्रा करना 'सम्भूयगमन' है।
इसके उदाहरण हैं-सूर्य और हनुमान्। हनुमान् बाल्यावस्था में लोहित सूर्यमण्डल को
उदित हुआ देख, 'यह क्या है इस बात को जानने के लिये बालोचित
चपलतावश उछलकर उसे पकड़ने के लिये आगे बढ़े। निकट पहुँचने पर उन्होंने देखा कि
भानु को ग्रहण करने के लिये स्वर्भानु (राहु) आया है। फिर तो उसे ही अपना
प्रतिद्वन्दी जान हनुमानजी उस पर टूट पड़े। उस समय सूर्य ने भी अपने प्रमुख शत्रु
राहु को दबाने के लिये अपने भोले-भाले शत्रु हनुमानजी का ही साथ दिया। एक पर
आक्रमण करने के लिये प्रस्थित हुआ राजा यदि प्रसङ्गवश उसके विरोधी दूसरे पक्ष को
अपने आक्रमण का लक्ष्य बना लेता है तो उसकी उस यात्रा को 'प्रसङ्गतः
गमन' या 'प्रसङ्गयान' कहते
हैं। इसके दृष्टान्त हैं- राजा शल्य वे दुर्योधन पर पाण्डवपक्ष से आक्रमण के लिये
चले थे, किंतु
मार्ग में दुर्योधन के अति सत्कार से प्रसन्न हो उसे वर माँगने के लिये कहकर उसकी
प्रार्थना से उसी के सेनापति हो गये और अपने भानजे युधिष्ठिर को ही अपने आक्रमण का
लक्ष्य बनाया। शत्रु के प्रति आक्रमण करनेवाले विजिगीषु को रोकने के लिये यदि उस
शत्रु के बलवान् मित्र आ पहुँचें तो उस शत्रु की उपेक्षा करके उसके उन मित्रों पर
ही चढ़ाई करना 'उपेक्षायान' कहलाता है-जैसे इन्द्र की आज्ञा से निवातकवचों का
वध करने के लिये प्रस्थित हुए अर्जुन को रोकने के निमित्त जब हिरण्यपुरवासी 'कालकंज' नामक
असुर आ पहुंचे, तब अर्जुन उन निवातकवचों की उपेक्षा करके
कालकंजों पर ही टूट पढ़े और उनको परास्त करने के बाद ही उन्होंने निवातकवचों का वध
किया।
परस्परस्य
सामर्थ्यविघातादासनं स्मृतं ॥२७॥
अरेश्च
विजगीषोश्च यानवत्पञ्चधा स्मृतम् ।
जब विजिगीषु
और शत्रु - दोनों एक-दूसरे की शक्ति का विघात न कर सकने के कारण आक्रमण न करके बैठ
रहें तो इसे 'आसन'
कहा जाता है; इसके भी 'यान' की ही भाँति पाँच भेद होते हैं- १. विगृह्य आसन,
२. संधाय आसन, ३. सम्भूय आसन, ४. प्रसङ्गासन तथा ५. उपेक्षासन * ॥ २७अ ॥
* जब
शत्रु और विजिगीषु परस्पर आक्रमण करके कारणवशात् युद्ध बंद करके बैठ जायें तो इसे 'विगृह्यासन' कहते
हैं। यह एक प्रकार है। विजिगीषु शत्रु के किसी प्रदेश को क्षति पहुँचाकर जब स्वतः
युद्ध से विरत होकर बैठ जाता है, तब यह भी 'विगृह्यासन' कहलाता है।
यदि
शत्रु दुर्ग के भीतर स्थित होने के कारण पकड़ा न जा सके, तो
उसके आसार (मित्रवर्ग) तथा बीज (अनाज की फसल आदि) को नष्ट करके उसके साथ विग्रह
छोड़कर बैठ रहे दीर्घकालतक ऐसा करने से प्रजा आदि प्रकृतियाँ उस शत्रु राजा से
विरक्त हो जाती हैं। अतः समयानुसार वह वशीभूत हो जाता है। शत्रु और विजिगीषु समान
बलशाली होने के कारण युद्ध छिड़ने पर जब समानरूप से क्षीण होने लगें, तब
परस्पर संधि करके बैठ जायें। यह 'संधाय आसन' कहलाता है। पूर्वकाल में निवातकवचों के साथ जब
दिग्विजयी रावण का युद्ध होने लगा, तब दोनों पक्ष ब्रह्माजी के वरदान से शक्तिशाली
होने के कारण एक-दूसरे को परास्तं न कर सके। उस दशा में ब्रह्माजी को ही बीच में
डालकर रावण संधि करके बैठ रहा। यह 'संधाय आसन' का उदाहरण है।
विजिगीषु
और उसके शत्रु को उदासीन और मध्यम आक्रमण की समानरूप से शङ्का हो, तब
उन दोनों को मिल जाना चाहिये। इस प्रकार मिलकर बैठना 'सम्भूय
आसन' कहलाता
है जब मध्यम और उदासीन में से कोई सा भी विजिगीषु और उसके शत्रु-दोनों का विनाश
करना चाहता हो, तब वह उन दोनों का शत्रु समझा जाता है; उस
दशा में विजिगीषु अपने शत्रु के साथ मिलकर दोनों के ही अधिक बलवान् शत्रुभूत उस
मध्यम या उदासीन का सामना करें यही 'सम्भूय आसन' है।
यदि
विजिगीषु किसी अन्य शत्रु पर आक्रमण की इच्छा रखता हो; किंतु
कार्यान्तर (अर्थलाभ या अनर्थ-प्रतिकार) के प्रसङ्ग से अन्यत्र बैठे रहे तो इसे 'प्रसङ्गासन' कहते
हैं।
अधिक
शक्तिशाली शत्रु की उपेक्षा करके अपने स्थान पर बैठे रहना 'उपेक्षासन' कहलाता
है भगवान् श्रीकृष्ण ने जब पारिजातहरण किया था, उस समय उन्हें अधिक शक्तिशाली जानकर इन्द्रदेव
उपेक्षा करके बैठ रहे, यह उपेक्षासन का उदाहरण है। इसका एक दूसरा उदाहरण
रुक्मी है। महाभारत युद्ध में वह क्रम और कैशिकों की सेना लेकर बारी-बारी से
कौरवों और पाण्डवों के पास गया और बोला, 'यदि तुम डरे हुए हो तो हम तुम्हारी सहायता करके
तुम्हें विजय दिलायें।' उसकी इस बात पर दोनों ने उसकी उपेक्षा कर दी। अतः
वह किसी ओर से युद्ध न करके अपने घर पर ही बैठा रहा।
बलिनीर्द्विषतोर्मध्ये
वाचात्मानं समर्पयन् ॥२८॥
द्वैधीभावेन
तिष्ठेत काकाक्षिवदलक्षितः ।
उभयोरपि
सम्पाते सेवेत बलवत्तरं ॥२९॥
यदा द्वावपि
नेच्छेतां संश्लेषं जातसंविदौ ।
तदोपसर्पेत्तच्छत्रुमधिकं
वा स्वयं व्रजेत् ॥३०॥
दो बलवान्
शत्रुओं के बीच में पड़कर वाणी द्वारा दोनों को ही आत्मसमर्पण करे-मैं और मेरा!
राज्य दोनों के ही हैं', यह संदेश दोनों के ही पास गुप्तरूप से भेजे और स्वयं दुर्ग में
छिपा रहे। यह 'द्वैधीभाव' की नीति है। जब उक्त दोनों शत्रु पहले से ही संगठित होकर आक्रमण करते हों,
तब जो उनमें अधिक बलशाली हो, उसकी शरण ले । यदि वे दोनों शत्रु परस्पर मन्त्रणा करके
उसके साथ किसी भी शर्त पर संधि न करना चाहते हों, तब विजिगीषु उन दोनों के ही किसी शत्रु का आश्रय ले अथवा
किसी भी अधिक शक्तिशाली राजा की शरण लेकर आत्मरक्षा करे ॥ २८-३० ॥
उच्छिद्यमानो
बलिना निरुपायप्रतिक्रियः ।
कुलोद्धतं
सत्यमार्यमासेवेत बलोत्कटं ॥३१॥
तद्दर्शनोपास्तिकता
नित्यन्तद्भावभाविता ।
तत्कारितप्रश्रियता
वृत्तं संश्रयिणः श्रुतं ॥३२॥
यदि विजिगीषु पर
किसी बलवान् शत्रु का आक्रमण हो और वह उच्छिन्न होने लगे तथा किसी उपाय से उस संकट
का निवारण करना उसके लिये असम्भव हो जाय, तब वह किसी कुलीन, सत्यवादी, सदाचारी तथा शत्रु की अपेक्षा अधिक बलशाली राजा की शरण ले
उस आश्रयदाता के दर्शन के लिये उसकी आराधना करना, सदा उसके अभिप्राय के अनुकूल चलना,
उसी के लिये कार्य करना और सदा उसके प्रति आदर का भाव रखना
यह आश्रय लेनेवाले का व्यवहार बतलाया गया है ।। ३१-३२ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये षाड्गुण्यं नाम चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'षाड्गुण्यकथन' नामक दो सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४० ॥
** यदि
विजय की इच्छा रखनेवाले राजा को नौ हजार योजन के क्षेत्रफलवाले चक्रवर्ति क्षेत्र पर
विजय प्राप्त करना हो, तो उसे अपने आगे के पाँच तथा पीछे के चार राजाओं
की ओर ध्यान देना होगा। इसी तरह अगल-बगल के उस राज्य पर भी विचार करना होगा, जिसकी
सीमा अपने राज्य से तथा शत्रु के राज्य से भी मिलती होगी ऐसे राज्य की 'मध्यम' संज्ञा
है। इस सम्पूर्ण मण्डल से बाहर जो प्रबल राज्य या राजा है उसकी संज्ञा 'उदासीन' है।
विजिगीषु के सामने के जो पाँच राज्य हैं, उनके नाम का क्रमशः इस प्रकार व्यवहार होगा- (१)
शत्रु-राज्य, (२) मित्र राज्य,
(३) शत्रु के
मित्र का राज्य, (४) मित्र के मित्र का राज्य तथा (५) शत्रु के
मित्र के मित्र का राज्य विजिगीषु के पीछे के जो चार राज्य हैं, वे
क्रमशः १. पाणिग्राह २. आक्रन्द, ३. पाणिग्राहासार,
४. आक्रन्दासार इन नामों से व्यवहृत होंगे।
विजिगीषु सहित इन सबकी संख्या बारह होती है। सम्भावनात्मक संख्या दी गयी है। यदि
विजिगीषु इससे अधिक के क्षेत्र को अपनी विजय का लक्ष्य बनाता है तो इसी ढंग से
अन्य राज्य भी इसी मण्डल में परिगणित होंगे और द्वादश की जगह अधिक राजमण्डल भी हो
सकते हैं नीचे द्वादशात्मक राजमण्डल का एक परिचयात्मक क्रम दिया जाता है-
द्वादश
राजमण्डल
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 241
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