अग्निपुराण अध्याय २३३

अग्निपुराण अध्याय २३३                         

अग्निपुराण अध्याय २३३ में यात्रा के मुहूर्त और द्वादश राजमण्डल का विचार का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २३३

अग्निपुराणम् अध्यायः २३३                         

अग्निपुराणम् त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 233                   

अग्निपुराण दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय

अग्निपुराण अध्याय २३३                        

अग्निपुराणम् अध्यायः २३३ यात्रामण्डलचिन्तादिः

अथ त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

सर्वयात्रां प्रवक्ष्यामि राजधर्मसमाश्रयात् ।

अस्तङ्गते नीचगते विकले रिपुराशिगे ।।१ ।।

प्रतिलोमे च विध्वस्ते शुक्रे यात्रां विसर्जयेत् ।

प्रतिलोमे बुधे यात्रां दिक्‌पत्तौ च तथा ग्रहे ।। २ ।।

बैधृतौ च व्यतीपाते नागे च शकुनौ तथा ।

चतुष्पादे च किन्तुघ्ने तथा यात्रां विवर्जयेत् ।। ३ ।।

विपत्तारे नैधने च प्रत्यरौ चाथ जन्मनि ।

गण्डे विवर्जयेद्यात्रां रिक्तायाञ्च तिथावपि ।। ४ ।।

पुष्कर कहते हैं- अब मैं राजधर्म का आश्रय लेकर सबकी यात्रा के विषय में बताऊँगा। जब शुक्र अस्त हों अथवा नीच स्थान में स्थित हों, विकलाङ्ग (अन्ध) हों, शत्रु-राशि पर विद्यमान हों अथवा वे प्रतिकूल स्थान में स्थित या विध्वस्त हों तो यात्रा नहीं करनी चाहिये। बुध प्रतिकूल स्थान में स्थित हों तथा दिशा का स्वामी ग्रह भी प्रतिकूल हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिये। वैधृति, व्यतीपात,नाग, शकुनि, चतुष्पाद तथा किंस्तुघ्नयोग में भी यात्रा का परित्याग कर देना चाहिये। विपत्, मृत्यु, प्रत्यरि और जन्म-इन ताराओं में, गण्डयोग में तथा रिक्ता तिथि में भी यात्रा न करे ॥ १-४ ॥

उदीची च तथा प्राची तयोरैक्यं प्रकीर्त्तितं ।

पश्चिमा दक्षिणा या दिक्‌ तयोरैक्यं तथैव च ।। ५ ।।

वाय्वग्निदिकसमुद्भतं परिघन्न तु लङ्घयेत् ।

आदित्यचन्द्रशौरास्तु दिवसाश्च न शोभनाः ।। ६ ।।

उत्तर और पूर्व इन दोनों दिशाओं की एकता कही गयी है। इसी तरह पश्चिम और दक्षिण-इन दोनों दिशाओं की भी एकता मानी गयी है। वायव्यकोण से लेकर अग्रिकोण तक जो परिघ- दण्ड रहता है, उसका उल्लङ्घन करके यात्रा नहीं करनी चाहिये। रवि सोम और शनैश्चर ये दिन यात्रा के लिये अच्छे नहीं माने गये हैं । ५-६ ॥

वाय्वग्निदिक्‌समुद्भ्तं परिघन्न तु लह्घयेत् ।

मैत्राद्यान्यपरे चाथ वासवाद्यानि वाप्युदक् ।। ७ ।।

सर्वद्वाराणि शस्तानि छायामानं वदामि ते ।

कृत्तिका से लेकर सात नक्षत्रसमूह पूर्व दिशा में रहते हैं। मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा में रहते हैं, अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा में रहते हैं तथा धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा में रहते हैं।  (अग्निकोण से वायुकोणतक परिघ-दण्ड रहा करता है; अतः इस प्रकार यात्रा करनी चाहिये,जिससे परिघ दण्ड का उल्लङ्घन न हो।)* पूर्वोक्त नक्षत्र उन-उन दिशाओं के द्वार हैं; सभी द्वार उन-उन दिशाओं के लिये उत्तम हैं। अब मैं तुम्हें छाया का मान बताता हूँ ॥ ७अ ॥

* पूर्व नक्षत्र पश्चिम या दक्षिण जाने से परिषदण्ड का लङ्घन होगा।

अग्निपुराणम् अध्यायः २३३

आदित्ये विंशतिर्ज्ञेयाश्चन्द्रे षोडस कीर्त्तिताः ।। ८ ।।

भौमे पञ्चदशैवोक्ताश्चतुर्दश तथा बुधे ।

त्रयोदश तथा जीवे शुक्रे द्वादश कीर्त्तिताः ।। ९ ।।

एकादश तथा सौरे सर्वकर्मसु कीर्त्तिताः ।

जन्मलग्ने शक्रचापे सम्मुखे न व्रजेन्नरः ।। १० ।।

रविवार को बीस, सोमवार को सोलह, मङ्गलवार को पंद्रह, बुध को चौदह, बृहस्पति को तेरह, शुक्र को बारह तथा शनिवार को ग्यारह अङ्गुल 'छायामान' कहा गया है, जो सभी कर्मों के लिये विहित है। जन्म लग्न में तथा सामने इन्द्रधनुष उदित हुआ हो तो मनुष्य यात्रा न करे। शुभ शकुन आदि होने पर श्रीहरि का स्मरण करते हुए विजययात्रा करनी चाहिये॥८-१०॥

शकुनादौ शुभे यायाज्जयाय हरिमास्मरन् ।

वक्ष्ये मण्डलचिन्तान्ते कर्त्तव्यं राजरक्षणं ।। ११ ।।

स्वाम्यमात्यं तथा दुर्गं कोषो दण्डस्तथैव च ।

मित्रञ्जनपदश्चैव राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ।। १२ ।।

सप्ताङ्गस्य तु राज्यस्य विघ्नकर्तॄन् विनाशयेत्।

३मण्डलेषु च सर्वेषु वृद्धिः कार्य्या महीक्षिता ।। १३ ।।

आत्ममण्डलमेवात्र प्रथमं मण्डलं भवेत् ।

सामन्तास्तस्य विज्ञेया रिपवो मण्डलस्य तु ।। १४ ।।

उपेतस्तु सुहृज्‌ ज्ञेयः शत्रुमित्रमतः परं ।

मित्रमित्रं ततो ज्ञेयं मित्रमित्ररिपुस्ततः ।। १५ ।।

एतत्पुरस्तात् कथितं पश्चादपि निबोध मे ।

परशुरामजी ! अब मैं आपसे मण्डल का विचार बतलाऊँगा; राजा की सब प्रकार से रक्षा करनी चाहिये। राजा, मन्त्री, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र और जनपद - ये राज्य के सात अङ्ग बतलाये जाते हैं। इन सात अङ्गों से युक्त राज्य में विघ्न डालनेवाले पुरुषों का विनाश करना चाहिये। राजा को उचित है कि अपने सभी मण्डलों में वृद्धि करे। अपना मण्डल ही यहाँ सबसे पहला मण्डल है। सामन्त नरेशों को ही उस मण्डल का शत्रु जानना चाहिये। 'विजिगीषु' राजा के सामने का सीमावर्ती सामन्त उसका शत्रु है। उस शत्रु राज्य से जिसकी सीमा लगी है, वह उक्त शत्रु का शत्रु होने से विजिगीषु का मित्र है। इस प्रकार शत्रु मित्र, अरिमित्र, मित्रमित्र तथा अरिमित्र मित्र- ये पाँच मण्डल के आगे रहनेवाले हैं। इनका वर्णन किया गया; अब पीछे रहनेवालों को बताता हूँ; सुनिये ॥। ११ – १५अ ॥

पार्ष्णिग्राहस्ततः पश्चात्ततस्त्वाक्रन्द उच्यते ।। १६ ।।

आसारस्तु ततोऽन्यः स्यादा क्रन्दासार उच्यते ।

जिगीषोः शत्रुयुक्तस्य विमुक्तस्य तथा द्विज ।। १७ ।।

नात्रापि निश्चयः शक्यो वक्तुं मनुजपुङ्गव ।

निग्रहानुग्रहे शक्तो मध्यस्थः परिकीर्त्त्तिः ।। १८ ।।

निग्रहानुग्रहे शक्तः सर्वेषामपि यो भवेत् ।

उदासीनः स कथितो बलवान् पृथिवीपतिः ।। १९ ।।

न कस्यचिद्रिपुर्म्मित्रङ्कारणाच्छत्रुमित्रके ।

मण्डलं तव सम्प्रोक्तमेतद् द्वादशराजकं ।। २० ।।

पीछे रहनेवालों में पहला 'पार्ष्णिग्राह' है और उसके पीछे रहनेवाला 'आक्रन्द' कहलाता है। तदनन्तर इन दोनों के पीछे रहनेवाले 'आसार' होते हैं, जिन्हें क्रमश: 'पार्ष्णिग्राहासार' और 'आक्रन्दासार' कहते हैं। नरश्रेष्ठ! विजय की इच्छा रखनेवाला राजा, शत्रु के आक्रमण से युक्त हो अथवा उससे मुक्त, उसकी विजय के सम्बन्ध में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। विजिगीषु तथा शत्रु दोनों के असंगठित रहने पर उनका निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ तटस्थ राजा 'मध्यस्थ' कहलाता है। जो बलवान् नरेश इन तीनों के निग्रह और अनुग्रह में समर्थ हो, उसे 'उदासीन' कहते हैं। कोई भी किसी का शत्रु या मित्र नहीं है; सभी कारणवश ही एक-दूसरे के शत्रु और मित्र होते हैं। इस प्रकार मैंने आपसे यह बारह राजाओं के मण्डल का वर्णन किया है ॥ १६-२० ॥

त्रिविधा रिपवो ज्ञेयाः कुल्यानन्तरकृत्रिमाः ।

पूर्वपूर्वो गुरुस्तेषां दुश्चिकित्स्यतमो मतः ।। २१ ।।

अनन्तरोऽपि यः शत्रुः सोऽपि मे कृत्रिमो मतः ।

पार्ष्णिग्राहो भवेच्छत्रोमित्राणि रिपवस्तथा ।। २२ ।।

पार्ष्णिग्राहमुपायैश्च शामयेच्च तथा स्वकं ।

मित्रेण शत्रोरुच्छेदं प्रशंसन्ति पुरातनाः ।। २३ ।।

मित्रञ्च शत्रुतामेति सामन्तत्वादनन्तरं ।

शत्रुं जिगीषुरुच्छिन्द्यात् स्वयं शक्नोति चेद्यदि ।। २४ ।।

प्रतापवृद्धौ तेनापि नामित्राज्जायते भयं ।

यथास्य नोद्विजेल्लोको विश्वासश्च यथा भवेत् ।। २५ ।।

जिगीषुर्धर्म्मविजयी तथा लोकं वशन्नयेत् ।। २६ ।।

शत्रुओं के तीन भेद जानने चाहिये - कुल्य, अनन्तर और कृत्रिम । इनमें पूर्व पूर्व शत्रु भारी होता है। अर्थात् 'कृत्रिम' की अपेक्षा 'अनन्तर' और उसकी अपेक्षा 'कुल्य' शत्रु बड़ा माना गया है; उसको दबाना बहुत कठिन होता है। 'अनन्तर' ( सीमाप्रान्तवर्ती) शत्रु भी मेरी समझ में 'कृत्रिम' ही है। पार्ष्णिग्राह राजा शत्रु का मित्र होता है; तथापि प्रयत्न से वह शत्रु का शत्रु भी हो सकता है। इसलिये नाना प्रकार के उपायों द्वारा अपने पार्ष्णिग्राह को शान्त रखे उसे अपने वश में किये रहे। प्राचीन नीतिज्ञ पुरुष मित्र के द्वारा शत्रु को नष्ट करा डालने की प्रशंसा करते हैं। सामन्त (सीमा-निवासी) होने के कारण मित्र भी आगे चलकर शत्रु हो जाता है; अतः विजय चाहनेवाले राजा को उचित है कि यदि अपने में शक्ति हो तो स्वयं ही शत्रु का विनाश करे (मित्र की सहायता न ले) क्योंकि मित्र का प्रताप बढ़ जाने पर उससे भी भय प्राप्त होता है और प्रतापहीन शत्रु से भी भय नहीं होता। विजिगीषु राजा को धर्मविजयी होना चाहिये तथा वह लोगों को इस प्रकार अपने वश में करे, जिससे किसी को उद्वेग न हो और सबका उस पर विश्वास बना रहे ॥ २१ - २६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये यात्रामण्डलचिन्तादिर्नाम त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'यात्रामण्डलचिन्ता आदिका कथन' नामक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३३ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 234

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