अग्निपुराण अध्याय २३५
अग्निपुराण
अध्याय २३५ में राजा की नित्यचर्या का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २३५
अग्निपुराणम् पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 235
अग्निपुराण दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय
अग्निपुराण
अध्याय २३५
अग्निपुराणम् अध्यायः २३५ – प्रात्यहिकराजकर्म
अथ पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
अजस्रं कर्म
वक्ष्यामि दिनं प्रति यदाचरेत् ।
द्विमुहूर्त्तावशेषायां
रात्रौ निद्रान्त्यजेन्नृपः ।। १ ।।
वाद्यवन्दिस्वनैर्गीतैः
पश्येद् गूढास्ततो नरान् ।
विज्ञायते न
ये लोकास्तदीया इति केनचित् ।। २ ।।
आयव्ययस्य
श्रवणं ततः कार्य्यं यथाविधि ।
वेगोत्सर्गं
ततः कृत्वा राजा स्नानगृहं व्रजेत् ।। ३ ।।
स्नानं
कुर्य्यान्नृपः श्चाद्दन्तधावनपूर्वकं ।
कृत्वा
सन्ध्यान्ततो जप्यं वासुदेवं प्रपूजयेत् ।। ४ ।।
वह्नौ
पवित्रान् जुहुयात् तर्पयेदु दकैः पितृन् ।
दद्यात्सकाञ्चनीं
धेनुं द्विजाशीर्वादसंयुतः ।। ५ ।।
पुष्कर कहते
हैं- परशुरामजी ! अब निरन्तर किये जाने योग्य कर्म का वर्णन करता हूँ,
जिसका प्रतिदिन आचरण करना उचित है। जब दो घड़ी रात बाकी रहे
तो राजा नाना प्रकार के वाद्यों, बन्दीजनों द्वारा की हुई स्तुतियों तथा मङ्गल-गीतों की
ध्वनि सुनकर निद्रा का परित्याग करे। तत्पश्चात् गूढ़ पुरुषों (गुप्तचरों) से
मिले। वे गुप्तचर ऐसे हों, जिन्हें कोई भी यह न जान सके कि ये राजा के ही कर्मचारी
हैं। इसके बाद विधिपूर्वक आय और व्यय का हिसाब सुने। फिर शौच आदि से निवृत्त होकर
राजा स्नानगृह में प्रवेश करे। वहाँ नरेश को पहले दन्तधावन (दाँतुन) करके फिर स्नान
करना चाहिये। तत्पश्चात् संध्योपासना करके भगवान् वासुदेव का पूजन
करना उचित है। तदनन्तर राजा पवित्रतापूर्वक अग्रि में आहुति दे;
फिर जल लेकर पितरों का तर्पण करे। इसके बाद
ब्राह्मणों का आशीर्वाद सुनते हुए उन्हें सुवर्णसहित दूध देनेवाली गौ दान दे ॥ १-५
॥
अनुलिप्तोऽलङ्कृतश्च
मुखं पश्येच्च दर्पणे ।
ससुवर्णे धृते
राजा श्रृणुयाद्दिवसादिकं ।। ६ ।।
औषधं
भिषजोक्तं च मङ्गलालम्भनञ्चरेत् ।
पश्येद् गुरुं
तेन दत्ताशीर्वादोऽथ व्रजेत्सभां ।। ७ ।।
इन सब कार्यों
से अवकाश पाकर चन्दन और आभूषण धारण करे तथा दर्पण में अपना मुँह देखे । साथ ही
सुवर्णयुक्त घृत में भी मुँह देखे। फिर दैनिक - कथा आदि का श्रवण करे। तदनन्तर
वैद्य की बतायी हुई दवा का सेवन करके माङ्गलिक वस्तुओं का स्पर्श करे। फिर गुरु
के पास जाकर उनका दर्शन करे और उनका आशीर्वाद लेकर राजसभा में प्रवेश करे ॥ ६-७ ॥
तत्रस्थो
ब्राह्मणान् पश्येदमात्यान्मन्त्रिणस्तथा ।
प्रकृतीश्च
महाभाग प्रतीहारनिवेदिताः ।। ८ ।।
श्रुत्वेतिहासं
कार्य्याणि कार्याणां कार्य्यनिर्णयम् ।
व्यवहारन्ततः
पश्येन्मन्त्रं कुर्य्यात्तु मन्त्रिभिः ।। ९ ।।
नैकेन सहितः
कुर्य्यान्न कुर्य्याद्बहुभिः सह ।
न च
मूर्खैर्न्न चानाप्तैर्गुप्तंन प्रकटं चरेत् ।। १० ।।
मन्त्रं
स्वधिष्ठितं कुर्य्याद्येन राष्ट्रं न बाधते ।
आकारग्रहणे
राज्ञो मन्त्ररक्षा परा मता ।। ११ ।।
आकारैरिङ्गितैः
प्राज्ञा मन्त्रं गृह्णन्ति पण्डिताः ।
सांवत्सराणां
वैद्यानां मन्त्रिणां वचनेरतः ।। १२ ।।
महाभाग ! सभा में
विराजमान होकर राजा ब्राह्मणों, अमात्यों तथा मन्त्रियों से मिले। साथ ही द्वारपालने जिनके
आने की सूचना दी हो, उन प्रजाओं को भी बुलाकर उन्हें दर्शन दे;
उनसे मिले। फिर इतिहास का श्रवण करके राज्य का कार्य देखे।
नाना प्रकार के कार्यों में जो कार्य अत्यन्त आवश्यक हो,
उसका निश्चय करे। तत्पश्चात् प्रजा के मामले मुकद्दमों को
देखे और मन्त्रियों के साथ गुप्त परामर्श करे । मन्त्रणा न तो एक के साथ करे,
न अधिक मनुष्यों के साथ; न मूखों के साथ और न अविश्वसनीय पुरुषों के साथ ही करे। उसे
सदा गुप्तरूप से ही करे; दूसरों पर प्रकट न होने दे। मन्त्रणा को अच्छी तरह छिपाकर
रखे,
जिससे राज्य में कोई बाधा न पहुँचे। यदि राजा अपनी आकृति को
परिवर्तित न होने दे - सदा एक रूप में रहे तो यह गुप्त मन्त्रणा की रक्षा का सबसे
बड़ा उपाय माना गया है; क्योंकि बुद्धिमान् विद्वान् पुरुष आकार और चेष्टाएँ देखकर
ही गुप्तमन्त्रणा का पता लगा लेते हैं। राजा को उचित है कि वह ज्योतिषियों,
वैद्यों और मन्त्रियों की बात माने। इससे वह ऐश्वर्य को
प्राप्त करता है; क्योंकि ये लोग राजा को अनुचित कार्यों से रोकते और हितकर
कामों में लगाते हैं ॥ ८-१२ ॥
राजा
विभूतिमाप्नोति धारयन्ति नृपं हि ते ।
मन्त्रं
कृत्वाथ व्यायामञ्चक्रे याने च शस्त्रके ।। १३ ।।
निःसत्त्वादौ
नृपः स्नातः पश्येद्विष्णुं सुपूजितम् ।
हुतञ्च पावकं
पश्येद्विप्रान् पश्येत्सुपूजितान् ।। १४ ।।
भूषितो
भोजनङ्कुर्य्याद् दानाद्यैः सुपरीक्षितं ।
भुक्त्वा
गृहीतताम्बूलो वामपार्श्वेन संस्थितः ।। १५ ।।
शास्त्राणि
चिन्तयेद् दृष्ट्वा योधान् कोष्ठायुधं गृहं ।
अन्वास्य
पश्चिमां सन्ध्यां कार्य्याणि च विचिन्त्य तु ।। १६ ।।
चरान्
सम्प्रेष्य भुक्तान्नमन्तःपुरचरो भवेत् ।
वाद्यगीतैरक्षितोऽन्यैरेवन्नित्यञ्चरेन्नृपः
।। १७ ।।
मन्त्रणा करने
के पश्चात् राजा को रथ आदि वाहनों के हाँकने और शस्त्र चलाने का अभ्यास करते हुए
कुछ कालतक व्यायाम करना चाहिये। युद्ध आदि के अवसरों पर वह स्नान करके भलीभाँति
पूजित हुए भगवान् विष्णु का, हवन के पश्चात् प्रज्वलित हुए अग्रिदेव का तथा दानमान आदि से
सत्कृत ब्राह्मणों का दर्शन करे। दान आदि के पश्चात् वस्त्राभूषणों से विभूषित
होकर राजा भलीभाँति जाँचे-बूझे हुए अन्न का भोजन करे। भोजन के अनन्तर पान खाकर
बायीं करवट से थोड़ी देर तक लेटे । प्रतिदिन शास्त्रों का चिन्तन और योद्धाओं,
अन्न- भण्डार तथा शस्त्रागार का निरीक्षण करे। दिन के अन्त में
सायं संध्या करके अन्य कार्यों का विचार करे और आवश्यक कामों पर गुप्तचरों को
भेजकर रात्रि में भोजन के पश्चात् अन्तःपुर में जाकर रहे। वहाँ संगीत और वाद्यों से
मनोरञ्जन करके सो जाय तथा दूसरों के द्वारा आत्मरक्षा का पूरा प्रबन्ध रखे। राजा को
प्रतिदिन ऐसा ही करना चाहिये ॥ १३ – १७ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये आजस्रिकं नाम पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि
आग्रेय महापुराण में 'प्रात्यहिक राजकर्म का कथन' नामक दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 236
0 Comments