अग्निपुराण अध्याय २३६

अग्निपुराण अध्याय २३६                            

अग्निपुराण अध्याय २३६ में संग्राम- दीक्षा- युद्ध के समय पालन करनेयोग्य नियमों का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २३६

अग्निपुराणम् अध्यायः २३६                           

अग्निपुराणम् षट्‌त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 236                   

अग्निपुराण दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय

अग्निपुराण अध्याय २३६                           

अग्निपुराणम् अध्यायः २३६रणदीक्षा

अथ षट्‌त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

यात्राविधानपूर्वन्तु वक्ष्ये साङ्‌ग्रामिकं विधिं ।

सप्ताहेन यदा यात्रा भविष्यति महीपतेः ।। १ ।।

पूजनीयो हरिः शम्भुर्मोदकाद्यैर्विनायकः ।

द्वितीयेऽहनि दिंक्‌पालान् सम्पूज्य शयनञ्चरेत् ।। २ ।।

शय्यायां वा तदग्रेऽथ कदेवान् प्रार्च्य मनुं स्मरेत् ।

पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी ! अब मैं रणयात्रा की विधि बतलाते हुए संग्रामकाल के लिये उचित कर्तव्यों का वर्णन करूँगा। जब राजा की युद्धयात्रा एक सप्ताह में होनेवाली हो, उस समय पहले दिन भगवान् विष्णु और शंकरजी की पूजा करनी चाहिये। साथ ही मोदक (मिठाई) आदि के द्वारा गणेशजी का पूजन करना उचित है। दूसरे दिन दिक्पालों की पूजा करके राजा शयन करे। शय्या पर बैठकर अथवा उसके पहले देवताओं की पूजा करके निम्नाङ्कित (भाववाले) मन्त्र का स्मरण करे-

नमः शम्भो त्रिनेत्राय रुद्राय वरदाय च ।। ३ ।।

वामनाय विरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः ।

भगवन्देवदेवेश शूलभृद्‌वृषवाहन ।। ४ ।।

'भगवान् शिव ! आप तीन नेत्रों से विभूषित, 'रुद्र' के नाम से प्रसिद्ध वरदायक, वामन, विकटरूपधारी और स्वप्न के अधिष्ठाता देवता हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। भगवन्! आप देवाधिदेवों के भी स्वामी, त्रिशूलधारी और वृषभ पर सवारी करनेवाले हैं।

इष्टानिष्टे ममाचक्ष्व स्वप्ने सुप्तस्य शाश्वत ।

यज्जाग्रतो दूरमिति पुरोधा मन्त्रमुच्चरेत् ।। ५ ।।

सनातन परमेश्वर ! मेरे सो जाने पर स्वप्न में आप मुझे यह बता दें कि 'इस युद्ध से मेरा इष्ट होनेवाला है या अनिष्ट ?' उस समय पुरोहित को 'यजाग्रतो दूरमुदैति०' (यजु०३४ । १) - इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये।

तृतीयेऽहनि दिक्‌पालान् रुद्रांस्तान् दिक्पतीन्यजेत् ।

ग्रहन् यजेच्चतुर्थेऽह्नि पञ्चमे चाशिवनौ यजेत् ।। ६ ।।

मार्गे या देवतास्तासान्नद्यादीनाञ्च पूजनं ।

दिव्यान्तरीक्षभौमस्थदेवानाञ्च तथा बलिः ।। ७ ।।

रात्रौ भूतगणानाञ्च वासुदेवादिपूजनं ।

भद्राकाल्याः श्रियः कुर्य्यात् प्रार्थयेत् सर्व्देवताः ।। ८ ।।

तीसरे दिन दिशाओं की रक्षा करनेवाले रुद्रों तथा दिशाओं के अधिपतियों की पूजा करे; चौथे दिन ग्रहों और पाँचवें दिन अश्विनीकुमारों का यजन करे। मार्ग में जो देवी, देवता तथा नदी आदि पड़ें, उनका भी पूजन करना चाहिये। द्युलोक में, अन्तरिक्ष में तथा भूमि पर निवास करनेवाले देवताओं को बलि अर्पण करे। रात में भूतगणों को भी बलि दे भगवान् वासुदेव आदि देवताओं तथा भद्रकाली और लक्ष्मी आदि देवियों की भी पूजा करे। इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं से प्रार्थना करे ॥ १-८ ॥

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्यम्नश्चानिरुद्धकः ।

नारायणोऽब्जजो विष्णुर्न्नारसिंहो वराहकः ।। ९ ।।

शिव ईशस्तत्‌पुरुषो ह्यघोरो राम सत्यजः।

सूर्य्यः सोमः कुकजचश्चान्द्रिजीवशुक्रशनैश्चराः ।। १० ।।

राहुः केतुर्गणपतिः सेनानी चण्डिका ह्युमा ।

लक्ष्मीः सरस्वती दुर्गा ब्रह्माणीप्रमुखा गणाः ।। ११ ।।

रुद्रा इन्द्रादयो वह्निर्न्नागास्तार्क्ष्योऽपरे सुराः ।

दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठा विजयाय भवन्तु मे ।। १२ ।।

मर्दयन्तु रणे शत्रून् सम्प्रगृह्योपहारकं ।

सपुत्रमातृभृत्योऽहं देवा वः शरणङ्गतः ।। १३ ।।

चमूनां पृष्ठतो गत्वा रिपुनाशा नमोऽस्तु वः ।

विनिवृत्तः प्र्दास्यामि दत्तादभ्यधिकं बलिं ।। १४ ।।

'वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, ब्रह्मा, विष्णु, नरसिंह, वराह, शिव, ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव, सद्योजात, सूर्य, सोम, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर, राहु, केतु, गणेश, कार्तिकेय, चण्डिका, उमा, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, ब्रह्माणी आदि गण, रुद्र, इन्द्रादि देव, अग्नि, नाग, गरुड तथा द्युलोक, अन्तरिक्ष एवं भूमि पर निवास करनेवाले अन्यान्य देवता मेरी विजय के साधक हों। मेरी दी हुई यह भेंट और पूजा स्वीकार करके सब देवता युद्ध में मेरे शत्रुओं का मर्दन करें। देवगण! मैं माता, पुत्र और भृत्योंसहित आपकी शरण में आया हूँ। आप लोग शत्रु सेना के पीछे जाकर उनका नाश करनेवाले हैं, आपको हमारा नमस्कार है। युद्ध में विजय पाकर यदि लौटूंगा तो आपलोगों को इस समय जो पूजा और भेंट दी है, उससे भी अधिक मात्रा में पूजा चढ़ाऊँगा' ॥ ९-१४ ॥

षष्ठेऽह्नि विजयस्नानं कर्त्तव्यं चाभिषेकवत् ।

यात्रादिने सप्तमे च पूजयेच्च त्रिवक्रमं ।। १५ ।।

नीराजनोक्तमन्त्रैश्च आयुधं वाहनं यजेत् ।

पुण्याहजयशब्देन मन्त्रमेतन्निशामयेत् ।। १६ ।।

छठे दिन राज्याभिषेक की भाँति विजय स्नान करना चाहिये तथा यात्रा के सातवें दिन भगवान् त्रिविक्रम (वामन) का पूजन करना आवश्यक है। नीराजन के लिये बताये हुए मन्त्रों द्वारा अपने आयुध और वाहन की भी पूजा करे। साथ ही ब्राह्मणों के मुख से 'पुण्याह' और 'जय' शब्द के साथ निम्नाङ्कित भाववाले मन्त्र का श्रवण करे-

दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठाः सन्त्वायुर्दाः सुराश्च ते ।

देवसिद्धिं प्रप्नुहि त्वं देवयात्रास्तु सा तव ।। १७ ।।

रक्षन्तु देवताः सर्वा इति श्रुत्वा नृपो व्रजेत् ।

'राजन्! द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूमि पर निवास करनेवाले देवता तुम्हें दीर्घायु प्रदान करें। तुम देवताओं के समान सिद्धि प्राप्त करो। तुम्हारी यह यात्रा देवताओं की यात्रा हो तथा सम्पूर्ण देवता तुम्हारी रक्षा करें।' यह आशीर्वाद सुनकर राजा आगे यात्रा करे।

गृहीत्वा सशरञ्चापं धनुर्नागेति मन्त्रतः ।। १८ ।।

नद्विण्णोरिति जप्त्वाथ दद्याद्रिपुमुख पदं ।

दक्षिणं पदं द्वात्रिंशद्दिक्षुं प्राच्यादिषु क्रमात् ।। १९ ।।

नागं रथं हयञ्चैव धुर्यांश्चैवारुहेत् क्रमात् ।

आरुह्य वाद्यैर्गच्छेत पृष्ठतो नावलोकयेत् ।। २० ।।

'धन्वना गा०' (यजु० २।३९ ) इत्यादि मन्त्र द्वारा धनुष-बाण हाथ में लेकर 'तद्विष्णोः ०' (यजु० ६।५ ) इस मन्त्र का जप करते हुए शत्रु के सामने दाहिना पैर बढ़ाकर बत्तीस पग आगे जाय; फिर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर में जाने के लिये क्रमशः हाथी, रथ, घोड़े तथा भार ढोने में समर्थ जानवर पर सवार होवे और जुझाऊ बाजों के साथ आगे की यात्रा करे; पीछे फिरकर न देखे ॥ १५-२० ॥

क्रोशमात्रं गतस्तिष्ठेत् पूजयेद्देवता द्विजान् ।

परदेशं व्रजेत् पश्चादात्मसैन्यं हि पालयन् ।। २१ ।।

राजा प्राप्य विदेशन्तु देशपालन्तु पालयेत् ।

देवानां पूजनं कुर्य्यान्न छिन्द्यादायमत्र तु ।। २२ ।।

नावमानयेत्तद्देश्यानागत्य स्वपुरं पुनः ।

जयं प्राप्यार्च्चयेद्देवान् दद्याद्दानानि पार्थिपः ।। २३ ।।

द्वितीयेऽहनि सङ्‌ग्रामो भविष्यति यदा तदा ।

स्नापयेद्‌गजमश्वादि यजेद्देवं नृसिंहकं ।। २४ ।।

छत्रादिराजलिङ्गानि शस्त्राणि निशि वै गणान् ।

प्रातर्नृसिंहकं पूज्य वाहनाद्यमशेषतः ।। २५ ।।

पुरोधसा हुतं पश्येद्वह्निं हुत्वा द्विजान्यदेत् ।

गृहीत्वा सशरञ्चापं गजाद्यारुद्य वै ब्रजेत् ।। २६ ।।

देशे त्वदृश्यः शत्रूणां कुर्य्यात् प्रकृतिकल्पनां ।

संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद्‌बहून् ।। २७ ।।

एक कोस जाने के बाद ठहर जाय और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करे। पीछे आती हुई अपनी सेना की रक्षा करते हुए ही राजा को दूसरे के देश में यात्रा करनी चाहिये। विदेश में जाने पर भी अपने देश के आचार का पालन करना राजा का कर्तव्य है। वह प्रतिदिन देवताओं का पूजन करे, किसी की आय नष्ट न होने दे और उस देश के मनुष्यों का कभी अपमान न करे। विजय पाकर पुनः अपने नगर में लौट आने पर राजा देवताओं की पूजा करे और दान दे। जब दूसरे दिन संग्राम छिड़नेवाला हो तो पहले दिन हाथी, घोड़े आदि वाहनों को नहलावे तथा भगवान् नृसिंह का पूजन करे। रात्रि में छत्र आदि राजचिह्नों, अस्त्र-शस्त्रों तथा भूतगणों की अर्चना करके सबेरे पुनः भगवान् नृसिंह की एवं सम्पूर्ण वाहन आदि की पूजा करे। पुरोहित के द्वारा हवन किये हुए अग्निदेव का दर्शन करके स्वयं भी उसमें आहुति डाले और ब्राह्मणों का सत्कार करके धनुष-बाण ले, हाथी आदि पर सवार हो युद्ध के लिये जाय। शत्रु के देश में अदृश्य रहकर प्रकृति कल्पना ( मोर्चाबंदी) करे। यदि अपने पास थोड़े से सैनिक हों तो उन्हें एक जगह संगठित रखकर युद्ध में प्रवृत्त करे और यदि योद्धाओं की संख्या अधिक हो तो उन्हें इच्छानुसार फैला दे (अर्थात् उन्हें बहुत दूर में खड़ा करके युद्ध में लगावे) ॥ २१-२७ ॥

सूचीमुखमनीकं स्यादल्पानां बहुभिः सह ।

व्यूहाः प्राण्यङ्गरूपाश्च द्रव्यरूपाश्च कीर्त्तिताः ।। २८ ।।

गरुडो मकरव्यूहश्चक्रः श्येनस्तथैव च ।

अर्द्धचन्द्रश्च वज्रश्च शकटव्यूह एव च ।। २९ ।।

मण्डलः सर्वतोभद्रः सूचीव्यूहश्च ते नराः ।

व्यूहानामथ सर्वेषां पञ्चधा सैन्यकल्पना ।। ३० ।।

द्वौ पक्षावनुपक्षौ द्वाववश्यं पञ्चमं भवेत् ।

एकेन यदि वा द्वाभ्यां भागाभ्यां युद्धमाचरेत् ।। ३१ ।।

भागत्रयं स्थापयेत्तु तेषां रक्षार्थमेव च ।

न व्यूहकल्पना कार्य्या राज्ञो भवति कर्हिंचित् ।। ३२ ।।

मूलच्छेदे विनाशः स्यान्न युध्येच्च स्वयन्नृपः ।

सैन्यस्य पश्चात्तिष्ठेत्तु क्रोशमात्रे महीपतिः ।। ३३ ।।

भग्नसन्धारणं तत्र योधानां परिकीर्त्तितं ।

प्रधानभङ्गे सैन्यस्य नावस्थानं विधीयते ।। ३४ ।।

न संहतान्न विरलान्योधान् व्यूहे प्रकल्पयेत् ।

आयुधानान्तु सम्मर्द्दो यथा न स्यात् परस्परं ।। ३५ ।।

थोड़े-से सैनिकों का अधिक संख्यावाले योद्धाओं के साथ युद्ध करने के लिये 'सूचीमुख' नामक व्यूह उपयोगी होता है। व्यूह दो प्रकार के बताये गये हैं- प्राणियों के शरीर की भाँति और द्रव्यस्वरूप । गरुडव्यूह, मकरव्यूह, चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, अर्धचन्द्रव्यूह, वज्रव्यूह, शकटव्यूह, सर्वतोभद्रमण्डलव्यूह और सूचीव्यूह - ये नौ व्यूह प्रसिद्ध हैं। सभी व्यूहों के सैनिकों को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है। दो पक्ष, दो अनुपक्ष और एक पाँचवाँ भाग भी अवश्य रखना चाहिये । योद्धाओं के एक या दो भागों से युद्ध करे और तीन भागों को उनकी रक्षा के लिये रखे। स्वयं राजा को कभी व्यूह में नियुक्त नहीं करना चाहिये; क्योंकि राजा ही सबकी जड़ है, उस जड़ के कट जाने पर सारे राज्य का विनाश हो जाता है; अतः स्वयं राजा युद्ध में प्रवृत्त न हो। वह सेना के पीछे एक कोस की दूरी पर रहे। वहाँ रहते हुए राजा का यह कार्य बताया गया है कि वह युद्ध से भागे हुए सिपाहियों को उत्साहित करके धैर्य बँधावे। सेना के प्रधान (अर्थात् सेनापति) के भागने या मारे जाने पर सेना नहीं ठहर पाती । व्यूह में योद्धाओं को न तो एक-दूसरे से सटाकर खड़ा करे और न बहुत दूर-दूर पर ही; उनके बीच में इतनी ही दूरी रहनी चाहिये, जिससे एक-दूसरे के हथियार आपस में टकराने न पावें ॥ २८- ३५ ॥

भेत्तुकामः परनीकं संहतैरेव भेदयेत् ।

भेदरक्ष्याः परेणापि कर्त्तव्याः संहतास्तथा ।। ३६ ।।

व्यूहं भेदावहं कुर्य्यात् परव्यूहेषु चेच्छया ।

गजस्य पादरक्षार्थाश्चत्वारस्तु तथा द्विज ।। ३७ ।।

रथस्य चाश्वाश्चत्वारः समास्तस्य च चर्म्मिणः ।

धन्विनश्चर्मिभिस्तुल्याः पुरस्ताच्चर्म्मिणो रणे ।। ३८ ।।

वृष्ठतो धन्विनः पश्चाद्धन्विनान्तुरगा रथाः ।

रथानां कुञ्जराः पश्चाद्धातव्याः पृथिवीक्षिता ।। ३९ ।।

जो शत्रु सेना की मोर्चाबंदी तोड़ना चाहता हो, वह अपने संगठित योद्धाओं के द्वारा ही उसे तोड़ने का प्रयत्न करे तथा शत्रु के द्वारा भी यदि अपनी सेना के व्यूह भेदन के लिये प्रयत्न हो रहा हो तो उसकी रक्षा के लिये संगठित वीरों को ही नियुक्त करना चाहिये। अपनी इच्छा के अनुसार सेना का ऐसा व्यूह बनावे, जो शत्रु के व्यूह में घुसकर उसका भेदन कर सके। हाथी के पैरों की रक्षा करने के लिये चार रथ नियुक्त करे। रथ की रक्षा के लिये चार घुड़सवार, उनकी रक्षा के लिये उतने ही ढाल लेकर युद्ध करनेवाले सिपाही तथा ढालवालों के बराबर ही धनुर्धर वीरों को तैनात करे। युद्ध में सबसे आगे ढाल लेनेवाले योद्धाओं को स्थापित करे। उनके पीछे धनुर्धर योद्धा, धनुर्धरों के पीछे घुड़सवार, घुड़सवारों के पीछे रथ और रथों के पीछे राजा को हाथियों की सेना नियुक्त करनी चाहिये ॥ ३६- ३९ ॥

पदातिकुञ्जराश्वनां धर्म्मकार्य्यं प्रयत्नतः ।

शूराः प्रमुखतो देयाः स्कन्धमात्रप्रदर्शनं ।। ४० ।।

कर्त्तव्यं भीरुसङ्घेन शत्रुविद्रावकारकं ।

दारयन्ति पुरस्तात्तु न देया भीरवः पुरः ।। ४१ ।।

प्रोत्साहयन्त्येव रणे भीरून् शूगः पुरस्थिताः ।

प्रांशवः शुकनाशाश्च ये चाजिह्मेक्षणा नराः ।। ४२ ।।

संहतभ्रयुगाश्चैव क्रोधनाः कलहप्रियाः ।

नित्यहृष्टाः प्रहृष्टाश्च शूरा ज्ञेयाश्य कामिनः ।। ४३ ।।

संहतानां हतानं च रणापनयनक्रिया ।

पैदल, हाथीसवार और घुड़सवारों को प्रयत्नपूर्वक धर्मानुकूल युद्ध में संलग्र रहना चाहिये। युद्ध के मुहाने पर शूरवीरों को ही तैनात करे, डरपोक स्वभाववाले सैनिकों को वहाँ कदापि न खड़ा होने दे। शूरवीरों को आगे खड़ा करके ऐसा प्रबन्ध करे, जिससे वीर स्वभाववाले योद्धाओं को केवल शत्रुओं का जत्थामात्र दिखायी दे (उनके भयंकर पराक्रम पर उनकी दृष्टि न पड़े); तभी वे शत्रुओं को भगानेवाला पुरुषार्थ कर सकते हैं। भीरु पुरुष आगे रहें तो वे भागकर सेना का व्यूह स्वयं ही तोड़ डालते हैं अतः उन्हें आगे न रखे। शूरवीर आगे रहने पर भीरु पुरुषों को युद्ध के लिये सदा उत्साह ही प्रदान करते रहते हैं। जिनका कद ऊँचा, नासिका तोते के समान नुकीली, दृष्टि सौम्य तथा दोनों भौंहें मिली हुई हों, जो क्रोधी, कलहप्रिय, सदा हर्ष और उत्साह में भरे रहनेवाले तथा कामपरायण हों, उन्हें शूरवीर समझना चाहिये ॥ ४० - ४३ अ॥

प्रप्तियुद्धं गजानाञ्च तोयदानादिकश्च यत् ।।४४ ।।

आयुधानयनं चैव पत्तिकर्म्मं विधीयते ।

रिपूणां भेत्तुकामानां स्वसैन्यस्य तु रक्षणं ।। ४५ ।।

भेदनं संहतानाञ्च चर्मिणां कर्म्म कीर्त्तिंतं ।

विमुखीकरणं युद्धे धन्विनां च तथोच्यते ।। ४६ ।।

दूरापसरणं यानं सुहतस्य तथोच्यते ।

त्रासनं रिपुसैन्यानां रथकर्म्म तथोच्यते ।। ४७ ।।

भेदनं संहतानाञच भेदानामपि संहतिः ।

प्राकारतोरणाट्टालद्रुमभङ्गश्च सद्‌गजे ।। ४८ ।।

पत्तिभूर्विषमा ज्ञेया रथाश्वस्य तथा सभा ।

सकर्द्दमा च नागानां युद्धभूमिरुदाहृता ।। ४९ ।।

एवं विरचितव्यूहः कृतपृष्ठदिवाकरः ।

संगठित वीरों में से जो मारे जायँ अथवा घायल हों, उनको युद्धभूमि से दूर हटाना, युद्ध के भीतर जाकर हाथियों को पानी पिलाना तथा हथियार पहुँचाना - ये सब पैदल सिपाहियों के कार्य हैं। अपनी सेना का भेदन करने की इच्छा रखनेवाले शत्रुओं से उसकी रक्षा करना और संगठित होकर युद्ध करनेवाले शत्रु- वीरों का व्यूह तोड़ डालना- यह ढाल लेकर युद्ध करनेवाले योद्धाओं का कार्य बताया गया है। युद्ध में विपक्षी योद्धाओं को मार भगाना धनुर्धर वीरों का काम है। अत्यन्त घायल हुए योद्धा को युद्धभूमि से दूर ले जाना, फिर युद्ध में आना तथा शत्रु की सेना में त्रास उत्पन्न करना- यह सब रथी वीरों का कार्य बतलाया जाता है। संगठित व्यूह को तोड़ना, टूटे हुए को जोड़ना तथा चहारदीवारी, तोरण (सदर दरवाजा), अट्टालिका और वृक्षों को भङ्ग कर डालना - यह अच्छे हाथी का पराक्रम है। ऊँची-नीची भूमि को पैदल सेना के लिये उपयोगी जानना चाहिये, रथ और घोड़ों के लिये समतल भूमि उत्तम है तथा कीचड़ से भरी हुई युद्धभूमि हाथियों के लिये उपयोगी बतायी गयी है । ४४ – ४९अ ॥

तथानुलोपशुक्रार्किदिक्पालमृदुमारुताः ।। ५० ।।

योधानुत्तेजयेत्सर्व्वान्नामगोत्रावदानतः ।

भोगप्राप्त्या च विजये स्वर्गप्राप्त्या मृतस्य च ।। ५१ ।।

जित्वारीन् भोगसम्प्राप्तिः मृतस्य च परा गतिः ।

निष्कृतिः स्वामिपिण्डस्य नास्ति युद्धसमा गतिः ।। ५२ ।।

शूराणां रक्तमायाति तेन पापन्त्यजन्ति ते ।

घातादिदुःखसहनं रणे तत् परमन्तपः ।। ५३ ।।

वराप्सरः सहस्राणि यान्ति शूरं रणे मृतं ।

स्वामी सुकृतमादत्ते भग्नानां विनिवर्त्तिनां ।। ५४ ।।

ब्रह्महत्याफलं तेषां तथा प्रोक्तं पदे पदे ।

त्यक्त्वा सहायान् यो गच्छेद्देवास्तस्य विनष्टये ।। ५५ ।।

अश्वमेधफलं प्रोक्तं शूराणामनिवर्त्तिनां ।

धर्म्मनिष्ठे जयो राज्ञि योद्धव्याश्च समाः समैः ।। ५६ ।।

इस प्रकार व्यूह-रचना करके जब सूर्य पीठ की ओर हों तथा शुक्र, शनैश्वर और दिक्पाल अपने अनुकूल हों, सामने से मन्द मन्द हवा आ रही हो, उस समय उत्साहपूर्वक युद्ध करे तथा नाम एवं गोत्र की प्रशंसा करते हुए सम्पूर्ण योद्धाओं में उत्तेजना भरता रहे। साथ ही यह बात भी बताये कि 'युद्ध में विजय होने पर उत्तम उत्तम भोगों की प्राप्ति होगी और मृत्यु हो जाने पर स्वर्ग का सुख मिलेगा।' वीर पुरुष शत्रुओं को जीतकर मनोवाञ्छित भोग प्राप्त करता है और युद्ध में प्राणत्याग करने पर उसे परमगति मिलती है। इसके सिवा वह जो स्वामी का अन्न खाये रहता है, उसके ऋण से छुटकारा पा जाता है; अतः युद्ध के समान श्रेष्ठ गति दूसरी कोई नहीं है। शूरवीरों के शरीर से जब रक्त निकलता है, तब वे पापमुक्त हो जाते हैं। युद्ध में जो शस्त्र प्रहार आदि का कष्ट सहना पड़ता है, वह बहुत बड़ी तपस्या है। रण में प्राणत्याग करनेवाले शूरवीर के साथ हजारों सुन्दरी अप्सराएँ चलती हैं। जो सैनिक हतोत्साह होकर युद्ध से पीठ दिखाते हैं, उनका सारा पुण्य मालिक को मिल जाता है और स्वयं उन्हें पग-पग पर एक-एक ब्रह्महत्या के पाप का फल प्राप्त होता है। जो अपने सहायकों को छोड़कर चल देता है, देवता उसका विनाश कर डालते हैं। जो युद्ध से पीछे पैर नहीं हटाते, उन बहादुरों के लिये अश्वमेध यज्ञ का फल बताया गया है । ५०-५६ ॥

गजाद्यैश्च गजाद्याश्च न हन्तव्याः पलायिनः ।

न प्रेक्षकाः प्रविष्टाश्च अशस्त्राः पतितादयः ।। ५७ ।।

शान्ते निद्राभिभूते च अर्द्धोत्तीर्णे नदीवने ।

दुर्द्दिने कूटयुद्धानि शत्रुनाशार्थमाचरेत् ।। ५८ ।।

बाहू प्रगृह्य विक्रोशेद्भग्ना भग्नाः परे इति।

प्राप्तं मित्रं बलं भूरि नायकोऽत्र निपातितः ।। ५९ ।।

सेनानीर्निहतश्चायं भूपतिश्चापि विप्लुतः ।

विद्रुतानान्तु योधानां सुखं धातो विधीयते ।। ६० ।।

यदि राजा धर्म पर दृढ़ रहे तो उसकी विजय होती है। योद्धाओं को अपने समान योद्धाओं के साथ ही युद्ध करना चाहिये। हाथीसवार सैनिक हाथीसवार आदि के ही साथ युद्ध करें। भागनेवालों को न मारें जो लोग केवल युद्ध देखने के लिये आये हों, अथवा युद्ध में सम्मिलित होने पर भी जो शस्त्रहीन एवं भूमि पर गिरे हुए हों, उनको भी नहीं मारना चाहिये। जो योद्धा शान्त हो या थक गया हो, नींद में पड़ा हो तथा नदी या जंगल के बीच में उतरा हो, उस पर भी प्रहार न करे। दुर्दिन में शत्रु के नाश के लिये कूटयुद्ध (कपटपूर्ण संग्राम) करे। दोनों बाहें ऊपर उठाकर जोर-जोर से पुकारकर कहे- 'यह देखो, हमारे शत्रु भाग चले, भाग चले। इधर हमारी ओर मित्रों की बहुत बड़ी सेना आ पहुँची; शत्रुओं की सेना का संचालन करनेवाला मार गिराया गया। यह सेनापति भी मौत के घाट उतर गया। साथ ही शत्रुपक्ष के राजा ने भी प्राणत्याग कर दिया' ॥ ५७-६० ॥

धूपश्च देया धर्म्मज्ञ तथा च परमोहनाः ।

पताकाश्चैव सम्भारो वादित्राणां भयावहः ।। ६१ ।।

सम्प्राप्य विजयं युद्धे देवान्विप्रांश्च संयजेत् ।

रत्नानि राजगामीनि अमात्येन कृते रणे ।। ६२ ।।

तस्य स्त्रियो न कस्यापि रक्ष्यास्ताश्च परस्य च ।

शत्रुं प्राप्य रणे मुक्तं पुत्रवत् परिपालयेत् ।। ६३ ।।

पुनस्तेन न योद्धव्यं देशाचारादि पालयेत् ।

भागते हुए विपक्षी योद्धाओं को अनायास ही मारा जा सकता है। धर्म के जाननेवाले परशुरामजी ! शत्रुओं को मोहित करने के लिये कृत्रिम धूप की सुगन्ध भी फैलानी चाहिये। विजय की पताकाएँ दिखानी चाहिये, बाजों का भयंकर समारोह करना चाहिये। इस प्रकार जब युद्ध में विजय प्राप्त हो जाय तो देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये। अमात्य के द्वारा किये हुए युद्ध में जो रत्न आदि उपलब्ध हों, वे राजा को ही अर्पण करने चाहिये। शत्रु की स्त्रियों पर किसी का भी अधिकार नहीं होता। स्त्री शत्रु की हो तो भी उसकी रक्षा ही करनी चाहिये। संग्राम में सहायकों से रहित शत्रु को पाकर उसका पुत्र की भाँति पालन करना चाहिये। उसके साथ पुनः युद्ध करना उचित नहीं है। उसके प्रति देशोचित आचारादि का पालन करना कर्तव्य है । ६१-६३अ ॥

ततश्च स्वपुरं प्राप्य ध्रुवे भे प्रविशेद् गृहं ।। ६४ ।।

देवादिपूजनं कुर्य्याद्रक्षेद्योधकुटुम्बकं ।

संविभागं परावाप्तैः कुर्य्याद् भृत्यजनस्य च ।। ६५ ।।

रणदीक्षा मयोक्ता ते जयाय नृपतेर्ध्रु वा ।। ६६ ।।

युद्ध में विजय पाने के पश्चात् अपने नगर में जाकर 'ध्रुव' संज्ञक नक्षत्र (तीनों उत्तरा और रोहिणी) - में राजमहल के भीतर प्रवेश करे। इसके बाद देवताओं का पूजन और सैनिकों के परिवार के भरण-पोषण का प्रबन्ध करना चाहिये। शत्रु के यहाँ से मिले हुए धन का कुछ भाग भृत्यों को भी बाँट दे। इस प्रकार यह रण की दीक्षा बतायी गयी है; इसके अनुसार कार्य करने से राजा को निश्चय ही विजय की प्राप्ति होती है । ६५-६६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रणदीक्षा नाम षट्‌त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रणदीक्षा-वर्णन' नामक दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३६ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 237

Post a Comment

0 Comments