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अथ अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
नीतिस्ते
पुष्करोक्ता तु रामोक्ता लक्ष्मणाय या ।
जयाय तां प्रवक्ष्यामि
श्रृणु धर्म्मादिवर्द्धनीं ।। १ ।।
अग्निदेव कहते
हैं- वसिष्ठ ! मैंने तुमसे पुष्कर की कही हुई नीति का वर्णन किया है। अब तुम
लक्ष्मण के प्रति श्रीरामचन्द्र द्वारा कही गयी विजयदायिनी नीति का निरूपण सुनो।
यह धर्म आदि को बढ़ानेवाली है ॥ १ ॥
राम उवाच
न्यायेनार्ज्जनमर्थस्य
वर्द्धनं रक्षणं चरेत् ।
सत्पात्रप्रतिपत्तिश्च
राजवृत्तं चतुर्विधं ।। २ ।।
नयस्य विनयो
मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयात् ।
विनयो
हीन्द्रियजयस्तैर्युक्तः पालयेन्महीं ।। ३ ।।
श्रीराम कहते
हैं- लक्ष्मण! न्याय (धान्य का छठा भाग लेने आदि) के द्वारा धन का अर्जन करना,
अर्जित किये हुए धन को व्यापार आदि द्वारा बढ़ाना,
उसकी स्वजनों और परजनों से रक्षा करना तथा उसका सत्पात्र
में नियोजन करना (यज्ञादि में तथा प्रजापालन में लगाना एवं गुणवान् पुत्र को
सौंपना) - ये राजा के चार प्रकार के व्यवहार बताये गये हैं। (राजा नय और पराक्रम से सम्पन्न एवं भलीभाँति उद्योगशील होकर
स्वमण्डल एवं परमण्डल की लक्ष्मी का चिन्तन करे।) नय का मूल है विनय और विनय की
प्राप्ति होती है, शास्त्र के निश्चय से । इन्द्रिय-जय का ही नाम विनय है जो
उस विनय से युक्त होता है, वही शास्त्रों को प्राप्त करता है। (जो शास्त्र में निष्ठा रखता है,
उसी के हृदय में शास्त्र के अर्थ (तत्त्व) स्पष्टतया
प्रकाशित होते हैं। ऐसा होने से स्वमण्डल और परमण्डल की 'श्री' प्रसन्न (निष्कण्टकरूप से प्राप्त) होती है उसके लिये
लक्ष्मी अपना द्वार खोल देती हैं) ॥ २-३ ॥
शास्त्रं
प्रज्ञा धृतिर्द्दाक्ष्यं प्रागल्भ्यं धारयिष्णुता ।
उत्साहो वाग्मितौदार्य्यमापत्कालसहिष्णुता
।। ४ ।।
ग्रभावः
शुचिता मैत्री त्यागः सत्यं कृतज्ञता ।
कुलं शीलं
दमश्चेति गुणाः सम्पत्तिहेतवः ।। ५ ।।
शास्त्रज्ञान,
आठ* गुणों से युक्त
बुद्धि,
धृति (उद्वेग का अभाव), दक्षता (आलस्य का अभाव ), प्रगल्भता (सभा में बोलने या कार्य करने में भय अथवा संकोच का
न होना),
धारणशीलता (जानी-सुनी बात को भूलने न देना),
उत्साह (शौर्यादि गुण*),
प्रवचन-शक्ति, दृढ़ता (आपत्तिकाल में क्लेश सहन करने की क्षमता),
प्रभाव ( प्रभु-शक्ति), शुचिता (विविध उपायों द्वारा परीक्षा लेने से सिद्ध हुई
आचार-विचार की शुद्धि), मैत्री (दूसरों को अपने प्रति आकृष्ट कर लेने का गुण),
त्याग (सत्पात्र को दान देना),
सत्य (प्रतिज्ञापालन), कृतज्ञता (उपकार को न भूलना), कुल (कुलीनता), शील (अच्छा स्वभाव) और दम (इन्द्रियनिग्रह तथा क्लेश सहन की
क्षमता) –
ये सम्पत्ति के हेतुभूत गुण हैं*॥४-५॥
*१.
बुद्धि के आठ गुण ये हैं-सुनने की इच्छा,
सुनना, ग्रहण करना, धारण करना (याद रखना), अर्थ-विज्ञान (विविध साध्य-साधनों के स्वरूप का विवेक), वह (वितर्क), अपोह (अयुत-युक्ति का त्याग) तथा तत्वज्ञान
(वस्तु के स्वभाव का निर्णय)। जैसा कि कौटिल्य ने कहा है-
'शुश्रूषा
श्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्वाभिनिवेशा: प्रज्ञागुणाः' (कौटि० अर्थ० ६।१।९६)
२.
उत्साह के सूचक चार गुण हैं-दक्षता (आलस्य का अभाव), शीघ्रकारिता, अमर्ष (अपमान को न सह सकना) तथा शौर्य।
३.
यहाँ धारणशीलता बुद्धि से और दक्षता उत्साह से सम्बन्ध रखनेवाले गुण हैं; अतः इनका वहाँ अन्तर्भाव हो सकता था;
तथापि
इनका जो पृथक् उपादान हुआ है, वह इन गुणों की प्रधानता सूचित करने के लिये है।
प्रकीर्णविषयारण्ये
धावन्तं विप्रमाथिनं ।
ज्ञानाङ्कुशेन
कुर्व्वीत वश्यमिन्द्रियदन्तिनं ।। ६ ।।
कामः
क्रोधस्तथा लोभो हर्षो मानो मदस्तथा ।
षड्वर्गमुतसृजेदेनमस्मिंस्त्यक्ते
सुखी नृपः ।। ७ ।।
विस्तृत
विषयरूपी वन में दौड़ते हुए तथा निरङ्कुश होने के कारण विप्रमाथी (विनाशकारी)
इन्द्रियरूपी हाथी को ज्ञानमय अङ्कुश से वश में करे। काम,
क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद-ये 'षड्वर्ग' कहे गये हैं। राजा इनका सर्वथा त्याग कर दे। इन सबका त्याग
हो जाने पर वह सुखी होता है ।। ६-७ ॥
आन्वीक्षिकीं
त्रयीं वार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिवः ।
तद्विद्यैस्तत्क्रियोपैतैश्चिन्तयेद्विनयान्वितः
।। ८ ।।
आन्वीक्षिक्यार्थविज्ञानं
धर्म्माधर्मौ त्रयीस्थितौ ।
अर्थानर्थौ तु
वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ ।। ९ ।।
राजा को
चाहिये कि वह विनय गुण से सम्पन्न हो आन्वीक्षिकी (आत्मविद्या एवं तर्कविद्या),
वेदत्रयी, वार्ता (कृषि, वाणिज्य और पशुपालन) तथा दण्डनीति- इन चार विद्याओं का उनके
विद्वानों तथा उन विद्याओं के अनुसार अनुष्ठान करनेवाले कर्मठ पुरुषों के साथ
बैठकर चिन्तन करे (जिससे लोक में इनका सम्यक् प्रचार और प्रसार हो) ।'आन्वीक्षिकी' से आत्मज्ञान एवं वस्तु के यथार्थ स्वभाव का बोध होता है।
धर्म और अधर्म का ज्ञान 'वेदत्रयी' पर अवलम्बित है, अर्थ और अनर्थ 'वार्ता' के सम्यक् उपयोग पर निर्भर हैं तथा न्याय और अन्याय '
दण्डनीति' के समुचित प्रयोग और अप्रयोग पर आधारित हैं ॥ ८-९ ॥
अहिंसा सूनृता
वाणी सत्यं शौचं दया क्षमा ।
वणिनां
लिङ्गिनां चैव सामान्यो धर्म्म उच्यते ।। १० ।।
प्रजाः
समनुगृह्णीयात् कुर्य्यादाचारसंस्थितिं ।
वाक् सूनृता
दया दानं हिनोपगतरक्षणं ।। ११ ।।
इति वृत्तं
सतां साधुहितं सत्पुरुषव्रतं ।
आधिव्याधिपरीताय
अद्य श्वो वा विनाशिने ।। १२ ।।
को हि राजा
शरीराय धर्म्मापेतं समाचरेत् ।
किसी भी
प्राणी की हिंसा न करना-कष्ट न पहुँचाना, मधुर वचन बोलना, सत्यभाषण करना, बाहर और भीतर से पवित्र रहना एवं शौचाचार का पालन करना,
दीनों के प्रति दयाभाव रखना तथा क्षमा (निन्दा आदि को सह
लेना) –
ये चारों वर्णों तथा आश्रमों के सामान्य धर्म कहे गये हैं।
राजा को चाहिये कि वह प्रजा पर अनुग्रह करे और सदाचार के पालन में संलग्र रहे।
मधुर वाणी, दोनों पर दया, देश-काल की अपेक्षा से सत्पात्र को दान,
दीनों और शरणागतों की रक्षा*
तथा सत्पुरुषों का सङ्ग - ये सत्पुरुषों के आचार हैं। यह आचार प्रजा संग्रह का
उपाय है,
जो लोक में प्रशंसित होने के कारण श्रेष्ठ है तथा भविष्य
में भी अभ्युदयरूप फल देनेवाला होने के कारण हितकारक है। यह शरीर मानसिक चिन्ताओं
तथा रोगों से घिरा हुआ है। आज या कल इसका विनाश निश्चित है। ऐसी दशा में इसके लिये
कौन राजा धर्म के विपरीत आचरण करेगा ? ॥ १० – १२अ ॥
* यहाँ
यह प्रश्न होता है कि 'शरणागतों की रक्षा तो दया का ही कार्य है, अतः
दया से ही वह सिद्ध है, फिर उसका अलग कथन क्यों किया गया ?' इसके
उत्तर में निवेदन है कि दया के दो भेद हैं-'उत्कृष्टा' और ' अनुत्कृष्टा ।'
इनमें जो उत्कृष्टा दया है उसके द्वारा दोनों का
उद्धार होता है और अनुत्कृष्टा दया से उपगत या शरणागत की रक्षा की जाती है यही
सूचित करने के लिये उसका अलग प्रतिपादन किया गया है।
न हि
स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं जनं ।। १३ ।।
कृपणः
पीड्यमानो हि मन्युना इन्ति पार्थिवं ।
क्रियतेऽभ्यर्हणीयाय
स्वजनाय यथाञ्जलिः ।। १४ ।।
ततः साधुतरः कार्यो
दुर्जनाय शिवाथिंना ।
प्रियमेवाभिघातव्यं
सत्सु नित्यं द्विषत्सु च ।। १५ ।।
देवास्ते
प्रियवक्तारः पशवः क्रूरवादिनः ।
राजा को
चाहिये कि वह अपने लिये सुख की इच्छा रखकर दीन-दुखी लोगों को पीड़ा न दे;
क्योंकि सताया जानेवाला दीन-दुखी मनुष्य दुःखजनित क्रोध के
द्वारा अत्याचारी राजा का विनाश कर डालता है। अपने पूजनीय पुरुष को जिस तरह सादर
हाथ जोड़ा जाता है, कल्याणकामी राजा दुष्टजन को उससे भी अधिक आदर देते हुए। हाथ
जोड़े। (तात्पर्य यह है कि दुष्ट को सामनीति से ही वश में किया जा सकता है।) साधु
सुहृदों तथा दुष्ट शत्रुओं के प्रति भी सदा प्रिय वचन ही बोलना चाहिये। प्रियवादी 'देवता' कहे गये हैं और कटुवादी 'पशु' ॥१३-१५अ ॥
शुचिरास्तिक्यपूतात्मा
पूजयेद्देवताः सदा ।। १६ ।।
देवतावद्
गुरुजनमात्मवच्च सुहृज्जनं ।
प्रणिपातेन हि
गुरुं सतोऽमृषानुचेष्टितैः ।। १७ ।।
कुर्व्वीताभिमुखान्
भृत्यैर्द्दवान् सुकृतकर्म्मणा ।
मद्भावेन
हरेन्मित्रं सम्भ्रमेण च बान्धवान् ।। १८ ।।
स्त्रीभृत्यान्
प्रेम्दानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनं ।
बाहर और भीतर से
शुद्ध रहकर राजा आस्तिकता (ईश्वर तथा परलोक पर विश्वास) द्वारा अन्तःकरण को पवित्र
बनाये और सदा देवताओं का पूजन करे। गुरुजनों का देवताओं के समान ही सम्मान करे तथा
सुहृदों को अपने तुल्य मानकर उनका भलीभाँति सत्कार करे। वह अपने ऐश्वर्य की रक्षा
एवं वृद्धि के लिये गुरुजनों को प्रतिदिन प्रणाम द्वारा अनुकूल बनाये । अनूचान
(साङ्गवेद के अध्येता) की-सी चेष्टाओं द्वारा विद्यावृद्ध सत्पुरुषों का साम्मुख्य
प्राप्त करे। सुकृतकर्म (यज्ञादि पुण्यकर्म तथा गन्ध - पुष्पादि समर्पण) - द्वारा
देवताओं को अपने अनुकूल करे। सद्भाव (विश्वास) द्वारा मित्र का हृदय जीते,
सम्भ्रम (विशेष आदर) से बान्धवों (पिता और माता के कुलों के
बड़े-बूढ़ों) को अनुकूल बनाये। स्त्री को प्रेम से तथा भृत्यवर्ग को दान से वश में
करे। इनके अतिरिक्त जो बाहरी लोग हैं, उनके प्रति अनुकूलता दिखाकर उनका हृदय जीते ॥ १६ –
१८अ ॥
अनिन्दा
परकृत्येषु स्वधर्म्मपरिपालनं ।। १९ ।।
कृपणेषु
दयालुत्वं सर्वत्र मधुरा गिरः ।
प्राणैरप्यपकारित्वं
मित्रायाव्यभिचारिणे ।। २० ।।
गृहागते
परिष्वङ्गः सक्त्या दानं सहिष्णुता ।
स्वसमृद्धिष्वनुत्सेकः
पररवृद्धिष्वमत्सरः ।। २१ ।।
अपरोपतापि
वचनं मौनव्रतचरिष्णुता ।
बन्धुभिर्बद्धसंयोगः
स्वजने चतुरश्रता ।। २२ ।।
उचितानुविधायित्वमिति
वृत्तं महात्मनां ।।। २३ ।।
दूसरे लोगों के
कृत्यों की निन्दा या आलोचना न करना, अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुरूप धर्म का निरन्तर पालन,
दीनों के प्रति दया, सभी लोक- व्यवहारों में सबके प्रति मीठे वचन बोलना,
अपने अनन्य मित्र का प्राण देकर भी उपकार करने के लिये
उद्यत रहना, घर पर आये हुए मित्र या अन्य सज्जनों को भी हृदय से लगाना उनके प्रति अत्यन्त
स्नेह एवं आदर प्रकट करना, आवश्यकता हो तो उनके लिये यथाशक्ति धन देना,
लोगों के कटु व्यवहार एवं कठोर वचन को भी सहन करना,
अपनी समृद्धि के अवसरों पर निर्विकार रहना (हर्ष या दर्प के
वशीभूत न होना), दूसरों के अभ्युदय पर मन में ईर्ष्या या जलन न होना,
दूसरों को ताप देनेवाली बात न बोलना,
मौनव्रत का आचरण(अधिक वाचाल न होना), बन्धुजनों के साथ अटूट सम्बन्ध बनाये रखना,
सज्जनों के प्रति चतुरश्रता (अवक्र – सरलभाव से उनका
समाराधन),
उनकी हार्दिक सम्मति के अनुसार कार्य करना –
ये महात्माओं के आचार हैं ।। १९-२३ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये रामोक्तनीतिर्नाम अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि
आग्रेय महापुराण में 'रामोकनीति का वर्णन' नामक दो सौ अड़तीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २३८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 239
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