अग्निपुराण अध्याय २३९
अग्निपुराण
अध्याय २३९ में श्रीराम की राजनीति का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २३९
अग्निपुराणम् ऊनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 239
अग्निपुराण दो सौ उनतालीसवाँ अध्याय
अग्निपुराण
अध्याय २३९
अग्निपुराणम् अध्यायः २३९– राजधर्माः
अथ ऊनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
राम उवाच
स्वाम्यमात्यञ्च
राष्ट्रञ्च दुर्गं कोषो बलं सुहृतं ।
परस्परोपकारीदं
सप्ताङ्गं राकज्यमुच्य्ते ।। १ ।।
राज्याङ्गानां
वरं राष्ट्रं साधनं पालयेत् सदा ।
श्रीराम कहते
हैं—
लक्ष्मण! स्वामी (राजा), अमात्य (मन्त्री), राष्ट्र (जनपद), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना) और सुहृत् (मित्रादि) - ये राज्य के परस्पर उपकार
करनेवाले सात अङ्ग कहे गये हैं। राज्य के अङ्गों में राजा और मन्त्री के बाद
राष्ट्र प्रधान एवं अर्थ का साधन है, अतः उसका सदा पालन करना चाहिये। (इन अङ्गों में पूर्व-पूर्व
अङ्ग पर की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। ) ॥ १अ॥
कुलं शीलं वयः
सत्त्वं दाक्षिण्यं क्षिप्रकारिता ।। २ ।।
अविसंवादिता सत्यं
वृद्धसेवा कृतज्ञता ।
दैवसम्पन्नता
बुद्धिरक्षुद्रपरिवारता ।। ३ ।।
शक्यसामन्तता
चैव तथा च दृढभक्तिता ।
दीर्घदर्शित्वमुत्साहः
शुचिता स्थूललक्षिता ।। ४ ।।
विनीतत्वं
धार्मिकता साधोश्च नृपतेर्गुणाः ।
कुलीनता,
सत्त्व (व्यसन और अभ्युदय में भी निर्विकार रहना),
युवावस्था, शील (अच्छा स्वभाव), दाक्षिण्य (सबके अनुकूल रहना या उदारता ),
शीघ्रकारिता (दीर्घसूत्रता का अभाव),
अविसंवादिता (वाक्छल का आश्रय लेकर परस्पर विरोधी बातें न
करना),
सत्य ( मिथ्याभाषण न करना), वृद्धसेवा (विद्यावृद्धों की सेवा में रहना और उनकी बातों को
मानना ),
कृतज्ञता (किसी के उपकार को न भुलाकर प्रत्युपकार के लिये
उद्यत रहना), दैवसम्पन्नता (प्रबल पुरुषार्थ से दैव को भी अनुकूल बना लेना),
बुद्धि (शुश्रूषा आदि आठ गुणों से युक्त प्रज्ञा),
अक्षुद्रपरिवारता (दुष्ट परिजनों से युक्त न होना),
शक्यसामन्तता (आसपास के माण्डलिक राजाओं को वश में किये
रहना),
दृढभक्तिता (सुदृढ़ अनुराग), दीर्घदर्शिता (दीर्घकाल में घटित होनेवाली बातों का अनुमान
कर लेना),
उत्साह, शुद्धचित्तता, स्थूललक्षता (अत्यन्त मनस्वी होना),
विनीतता (जितेन्द्रियता) और धार्मिकता ये अच्छे अभिगामिक* गुण हैं ॥ २-४अ ॥
* इन गुणों से युक्त राजा सबके लिये अभिगम्य मिलने
योग्य होता है।
प्रख्यातवंशमक्रूरं
लोकसङ्ग्राहिणं शुचिं ।। ५ ।।
कुर्व्वीतात्महिताकाङ्क्षी
परिचारं महीपतिः ।
जो सुप्रसिद्ध
कुल में उत्पन्न, क्रूरतारहित, गुणवान् पुरुषों का संग्रह करनेवाले तथा पवित्र (शुद्ध) हों,
ऐसे लोगों को आत्मकल्याण की इच्छा रखनेवाला राजा अपना
परिवार बनाये ॥ ५अ ॥
वाग्मी
प्रगल्भः स्मृतिमानुदग्रो बलवान् वशी ।। ६ ।।
नेता दण्डस्य
निपुणः कृतशिल्पपरिग्रहः ।
पराभियोगप्रसहः
सर्वदुष्टप्रतिक्रिया ।। ७ ।।
परवृत्तान्ववेक्षी
च सन्धिविग्रहतत्तववित् ।
गूढमन्त्रप्रचारज्ञो
देशकालविभागवित् ।। ८ ।।
आदाता
सम्यगर्थानां विनियोक्ता च पात्रवित् ।
क्रोधलोभभयद्रोहदम्भचापलवर्ज्जितः
।। ९ ।।
परोपतापपैशून्यमात्सर्येर्षानृतातिगः
।
वृद्धोपदेशसम्पन्नः
शक्तो मधुरदर्शनः ।। १० ।।
गुणानुरागस्थितिमानात्मसम्पद्गुणा
स्मृताः ।
वाग्मी (उत्तम
वक्ता- ललित, मधुर एवं अल्पाक्षरों द्वारा ही बहुत-से अर्थों का प्रतिपादन करनेवाला),
प्रगल्भ (सभा में सबको निगृहीत करके निर्भय बोलनेवाला),
स्मृतिमान्*
(स्वभावतः किसी बात को न
भूलनेवाला), उदग्र (ऊँचे कदवाला), बलवान् (शारीरिक बल से सम्पन्न एवं युद्ध आदि में समर्थ),
वशी (जितेन्द्रिय), दण्डनेता (चतुरङ्गिणी सेना का समुचित रीति से संचालन करने में
समर्थ),
निपुण (व्यवहारकुशल), कृतविद्य (शास्त्रीयविद्या से सम्पन्न),
स्ववग्रह (प्रमाद से अनुचित कर्म में प्रवृत्त होने पर वहाँ
से सुखपूर्वक निवृत्त किये जाने योग्य), पराभियोगप्रसह (शत्रुओं द्वारा छेड़े गये युद्धादि के कष्ट को
दृढ़तापूर्वक सहन करने में समर्थ - सहसा आत्मसमर्पण न करनेवाला),
सर्वदृष्टप्रतिक्रिय (सब प्रकार के संकटों के निवारण के
अमोघ उपाय को तत्काल जान लेनेवाला), परच्छिद्रान्ववेक्षी (गुप्तचर आदि के द्वारा शत्रुओं के
छिद्रों के अन्वेषण में प्रयत्नशील ), संधिविग्रहतत्त्ववित् (अपनी तथा शत्रु की अवस्था के
बलाबल-भेद को जानकर संधि-विग्रह आदि छहों गुणों के प्रयोग के ढंग और अवसर को
ठीक-ठीक जाननेवाला), गूढमन्त्रप्रचार (मन्त्रणा और उसके प्रयोग को सर्वथा गुप्त
रखनेवाला), देशकालविभागवित् (किस प्रकार की सेना किस देश और किस काल में विजयिनी होगी -
इत्यादि बातों को विभागपूर्वक जाननेवाला), आदाता सम्यगर्थानाम् (प्रजा आदि से न्यायपूर्वक धन
लेनेवाला), विनियोक्ता (धन को उचित एवं उत्तम कार्य में लगानेवाला),
पात्रवित् (सत्पात्र का ज्ञान रखनेवाला),
क्रोध, लोभ, भय, द्रोह, स्तम्भ (मान) और चपलता (बिना विचारे कार्य कर बैठना ) –
इन दोषों से दूर रहनेवाला, परोपताप (दूसरों को पीड़ा देना),
पैशुन्य (चुगली करके मित्रों में परस्पर फूट डालना),
मात्सर्य (डाह), ईर्ष्या (दूसरों के उत्कर्ष को न सह सकना) और अनृत* (असत्यभाषण)- इन दुर्गुणों को लाँघ जानेवाला,
वृद्धजनों के उपदेश को मानकर चलनेवाला,
श्लक्ष्ण (मधुरभाषी), मधुरदर्शन ( आकृति से सुन्दर एवं सौम्य दिखायी देनेवाला),
गुणानुरागी (गुणवानों के गुणों पर रीझनेवाला) तथा मितभाषी (
नपी-तुली बात कहनेवाला) राजा श्रेष्ठ है। इस प्रकार यहाँ राजा के
आत्मसम्पत्ति-सम्बन्धी गुण (उसके स्वरूप के उपपादक गुण) बताये गये हैं । ६- १०अ ॥
*
१. स्मृति बुद्धि का गुण है, जिसकी
गणना आभिगामिक गुणों में हो चुकी है। उसका पुनः यहाँ ग्रहण उसकी श्रेष्ठता और
अनिवार्यता सूचित करने के लिये है।
*२. अभिगामिक गुणों में 'सत्य' आ
चुका है, यहाँ
भी अनृत-त्याग कहकर जो पुनः उसका ग्रहण किया गया है,
यह दोनों जगह उसकी अङ्गता प्रदर्शित करने के लिये
है।
सुलीनाः शुचयः
शूराः श्रुतवन्तोऽनुरागिणः ।। ११ ।।
दण्डनीतेः
प्रयोक्तारः सचिवाः स्युर्म्महीपतेः ।
उत्तम कुल में
उत्पन्न,
बाहर-भीतर से शुद्ध, शौर्य सम्पन्न, आन्वीक्षिकी आदि विद्याओं को जाननेवाले,
स्वामिभक्त तथा दण्डनीति का समुचित प्रयोग जाननेवाले लोग
राजा के सचिव (अमात्य*) होने चाहिये ॥ ११अ
॥
* कौटिल्य ने भी ऐसा ही कहा है-
अभिजनप्रहाशीचशीर्यानुरागयुक्तान् अमात्यान् कुर्वीत' (कॉटि०
अर्थ० १।८।४)
सुविग्रहो
जानपदः कुलशीलकलान्वितः ।। १२ ।।
वाग्मी
प्रगल्भश्चक्षुष्मानुत्साही प्रतिपत्तिमान् ।
स्तम्भ्चापलहीनश्च
मैत्रः क्लेशसहः शुचिः ।। १३ ।।
सत्यसत्त्वधृतिस्थैर्य्यप्रबावारोग्यसंयुतः
।
कृतशिल्पश्च
दक्षश्च प्रज्ञावान् धारणान्वितः ।। १४ ।।
दृढभक्तिरकर्त्ता
च वैराणां सचिवो भवेत् ।
जिसे अन्याय से
हटाना कठिन न हो, जिसका जन्म उसी जनपद में हुआ हो,
जो कुलीन (ब्राह्मण आदि), सुशील, शारीरिक बल से सम्पन्न, उत्तम वक्ता, सभा में निर्भीक होकर बोलनेवाला,
शास्त्ररूपी नेत्र से युक्त, उत्साहवान् (उत्साह सम्बन्धी त्रिविध* गुण- शौर्य, अमर्ष एवं दक्षता से सम्पन्न),
प्रतिपत्तिमान् ( प्रतिभाशाली,
भय आदि के अवसरों पर उनका तत्काल प्रतिकार करनेवाला),
स्तब्धता (मान) और चपलता से रहित,
मैत्र (मित्रों के अर्जन एवं संग्रह में कुशल),
शीत-उष्ण आदि क्लेशों को सहन करने में समर्थ,
शुचि (उपधाद्वारा परीक्षा से प्रमाणित हुई शुद्धि से
सम्पन्न),
सत्य (झूठ न बोलना ), सत्त्व (व्यसन और अभ्युदय में भी निर्विकार रहना),
धैर्य, स्थिरता, प्रभाव तथा आरोग्य आदि गुणों से सम्पन्न,
कृतशिल्प (सम्पूर्ण कलाओं के अभ्यास से सम्पन्न),
दक्ष (शीघ्रतापूर्वक कार्यसम्पादन में कुशल),
प्रज्ञावान् (बुद्धिमान्), धारणान्वित (अविस्मरणशील), दृढभक्ति (स्वामी के प्रति अविचल अनुराग रखनेवाला) तथा किसी
से वैर न रखनेवाला और दूसरों द्वारा किये गये विरोध को शान्त कर देनेवाला पुरुष
राजा का बुद्धिसचिव एवं कर्मसचिव होना चाहिये ॥ १२-१४अ ॥
* कौटिल्य ने भी ऐसा ही कहा है-'शौर्यममर्षो
दाक्ष्यं चोत्साहगुणाः '(कौटि० अर्थ० ६।९।९६)
स्मृतिस्तत्परतार्थेषु
चित्तज्ञो ज्ञाननिश्चयः ।। १५ ।।
दृढता
मन्त्रगुप्तिश्च मन्त्रिसम्पत् प्रकीर्त्तिता ।
स्मृति ( अनेक
वर्षों की बीती बातों को भी न भूलना), अर्थ तत्परता (दुर्गादि की रक्षा एवं संधि आदि में सदैव
तत्पर रहना), वितर्क (विचार), ज्ञाननिश्चय (यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है-इस प्रकार का निश्चय),
दृढ़ता तथा मन्त्रगुप्ति (कार्यसिद्धि होने तक मन्त्रणा को
अत्यन्त गुप्त रखना) ये 'मन्त्रिसम्पत्' के गुण कहे गये हैं ॥ १५अ ॥
त्रय्यां च
दण्डनीत्यां च कुशलः स्यात् पुरोहितः ।। १६ ।।
अथर्व्ववेदविहितं
कुर्य्याच्छान्तिकपौष्टिकं ।
पुरोहित को
तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) तथा दण्डनीति के ज्ञान में भी कुशल होना चाहिये;
वह सदा अथर्ववेदोक्त विधि से राजा के लिये शान्तिकर्म एवं
पुष्टिकर्म का सम्पादन करे* ॥ १६अ ॥
* यही अभिप्राय लेकर कौटिल्य ने कहा है-
'पुरोहितम् उदितोदितकुलशील साङ्गवेदे देवे
निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां दैवमानुषीणाम् आयर्वभिरुपायैः प्रतिकर्तारं
प्रकुर्वीत।' (कौटि० अर्थ० १।९।५० )
साधुतैषाममात्यानां
तद्विद्यैः सह बुद्धिमान् ।। १७ ।।
चक्षुष्मत्तां
च शिल्पञ्च परीक्षएत गुणद्वयं ।
बुद्धिमान्
राजा तत्तद् विद्या के विद्वानों द्वारा उन अमात्यों के शास्त्रज्ञान तथा
शिल्पकर्म- इन दो गुणों की परीक्षा करे*।
यह परोक्ष या आगम प्रमाण द्वारा परीक्षण है ॥ १७अ ॥
* राजाओं के लिये तीन प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष
परोक्ष और अनुमान जैसा कि कौटिल्य का कथन है- 'प्रत्यक्षपरोक्षानुमेया हि राजवृत्तिः।' इनमें स्वयं देखा हुआ 'प्रत्यक्ष', दूसरों
के द्वारा कथित 'परोक्ष' तथा किये गये कर्म से अकृत कर्म का अवेक्षण
अनुमान है।
स्वजनेभ्यो
विजानीयात् कुलं स्थानमवग्रहं ।। १८ ।।
परिकर्म्म्सु
दक्षञ्च विज्ञानं धारयिष्णुतां ।
गुणत्रयं
परीक्षेत प्रागल्भ्यं प्रीतितां तथा ।। १९ ।।
कथायोगेषु बुद्ध्येत
वाग्मित्वं सत्यवादितां ।
कुलीनता,
जन्मस्थान तथा अवग्रह (उसे नियन्त्रित रखनेवाले बन्धुजन) -
इन तीन बातों की जानकारी उसके आत्मीयजनों के द्वारा प्राप्त करे। (यहाँ भी आगम या
परोक्ष प्रमाण का ही आश्रय लिया गया है।) परिकर्म (दुर्गादि निर्माण) में दक्षता
(आलस्य न करना), विज्ञान (बुद्धि से अपूर्व बात को जानकर बताना) और धारयिष्णुता (कौन कार्य हुआ
और कौन-सा कर्म शेष रहा इत्यादि बातों को सदा स्मरण रखना) –
इन तीन गुणों की भी परीक्षा करे प्रगल्भता (सभा आदि में
निर्भीकता), प्रतिभा (प्रत्युत्पन्नमतिता), वाग्मिता (प्रवचनकौशल) तथा सत्यवादिता इन चार गुणों को
बातचीत के प्रसङ्गों में स्वयं अपने अनुभव से जाने ।। १८-१९अ ॥
उत्साहं च
प्रभावं च तथा क्लेशसहिष्णुतां ।। २० ।।
धृतिं
चैवानुरागं च स्थैर्य्यञ्चापदि लक्ष्येत् ।
भक्तिं
मैत्रीं च शौचं च जानीयाद्व्यवहारतः ।। २१ ।।
उत्साह
(शौर्यादि), प्रभाव, क्लेश सहन करने की क्षमता, धैर्य, स्वामिविषयक अनुराग और स्थिरता- इन गुणों की परीक्षा
आपत्तिकाल में करे। राजा के प्रति दृढभक्ति, मैत्री तथा आचार-विचार की शुद्धि- इन गुणों को व्यवहार से
जाने ॥ २०-२१ ॥
संवासिभ्यो
बलं सत्त्वमारोग्यं शीलमेव च ।
अस्तव्धतामचापल्यं
वैराणां चाप्यकार्त्तनं ।। २२ ।।
प्रत्यक्षतो
विजानीयाद भद्रतां क्षुद्रतामपि ।
फलानुमेयाः
सर्वत्र परोक्षगुणवृत्तयः ।। २३ ।।
आसपास एवं
पड़ोस के लोगों से बल, सत्त्व (सम्पत्ति और विपत्ति में भी निर्विकार रहने का
स्वभाव),
आरोग्य, शील, अस्तब्धता (मान और दर्प का अभाव) तथा अचापल्य (चपलता का
अभाव एवं गम्भीरता) - इन गुणों को जाने। वैर न करने का स्वभाव,
भद्रता (भलमनसाहत) तथा क्षुद्रता (नीचता) को प्रत्यक्ष देखकर जाने। जिनके गुण और बर्ताव
प्रत्यक्ष नहीं हैं, उनके कार्यों से सर्वत्र उनके गुणों का अनुमान करना चाहिये
॥ २२-२३ ॥
शस्याकरवती
पुण्या खनिद्रव्यसमन्विता ।
गोहिता
भूरिसलिला पुन्यैर्जनपदैर्युता ।। २४ ।।
रम्या
सकुञ्जरबला वारिस्थलपथान्विता ।
अदेवमातृका
चेति शस्यते भूरिभूतये ।। २५ ।।
जहाँ खेती की
उपज अधिक हो, विभिन्न वस्तुओं की खानें हों, जहाँ विक्रय के योग्य तथा खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में
उपलब्ध होते हों, जो गौओं के लिये हितकारिणी (घास आदि से युक्त) हो,
जहाँ पानी की बहुतायत हो, जो पवित्र जनपदों से घिरी हुई हो,
जो सुरम्य हो, जहाँ के जंगलों में हाथी रहते हों,
जहाँ जलमार्ग (पुल आदि) तथा स्थलमार्ग (सड़कें हों,
जहाँ की सिंचाई वर्षा पर निर्भर न हो अर्थात् जहाँ सिंचाई के
लिये प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध हो, ऐसी भूमि ऐश्वर्य- वृद्धि के लिये प्रशस्त मानी गयी है ।
२४-२५ ॥
शूद्रकारुवणिक्प्रायो
महारम्भः कृषीबलः ।
सानुरागो
रिपुद्वेषी पीड़ासहकरः पृथुः ।। २६ ।।
नानादेश्यैः
समाकीर्णो धार्म्मिकः पशुमान् बली ।
ईदृक्जनपदः
शस्तोऽमूर्खव्यसनिनायकः।। २७ ।।
('जो भूमि कँकरीली और पथरीली हो,
जहाँ जंगल ही जंगल हों, जो सदा चोरों और लुटेरों के भय से आक्रान्त हो,
जो रूक्ष (ऊसर) हो, जहाँ के जंगलों में काँटेदार वृक्ष हों तथा जो हिंसक
जन्तुओं से भरी हो, वह भूमि नहीं के बराबर है। ) (जहाँ सुखपूर्वक आजीविका चल
सके,
जो पूर्वोक्त उत्तम भूमि के गुणों से सम्पन्न हो) जहाँ जल की
अधिकता हो, जिसे किसी पर्वत का सहारा प्राप्त हो, जहाँ शूद्रों, कारीगरों और वैश्यों की बस्ती अधिक हो,
जहाँ के किसान विशेष उद्योगशील एवं बड़े-बड़े कार्यों का
आयोजन करनेवाले हों, जो राजा के प्रति अनुरक्त, उनके शत्रुओं से द्वेष रखनेवाला और पीड़ा तथा कर का भार सहन
करने में समर्थ हो, हृष्ट-पुष्ट एवं सुविस्तृत हो, जहाँ अनेक देशों के लोग आकर रहते हों,
जो धार्मिक, पशु सम्पत्ति से भरा-पूरा तथा धनी हो और जहाँ के नायक
(गाँवों के मुखिया) मूर्ख और व्यसनग्रस्त हों, ऐसा जनपद राजा के लिये प्रशस्त कहा गया है। (मुखिया मूर्ख
और व्यसनी हो तो वह राजा के विरुद्ध आन्दोलन नहीं कर सकता) ॥ २६-२७ ॥
पृथुसीमं महाखातमुच्चप्राकारतोरणं
।
पुरं
समावसेच्छैलसरिन्मरुवनाश्रयं ।। २८ ।।
जलवद्धान्यधनवद्दुर्गं
कालसहं महत् ।
औदकं पार्वतं
वार्क्षमैरिणं धन्विनं च षट् ।। २९ ।।
जिसकी सीमा
बहुत बड़ी एवं विस्तृत हो, जिसके चारों ओर विशाल खाइयाँ बनी हों,
जिसके प्राकार (परकोटे) और गोपुर (फाटक) बहुत ऊँचे हों,
जो पर्वत, नदी, मरुभूमि अथवा जंगल का आश्रय लेकर बना हो,
ऐसे पुर (दुर्ग)-में राजा को निवास करना चाहिये। जहाँ जल,
धान्य और धन प्रचुर मात्रा में विद्यमान हों,
वह दुर्ग दीर्घकालतक शत्रु के आक्रमण का सामना करने में
समर्थ होता है। जलमय, पर्वतमय, वृक्षमय, ऐरिण ( उजाड़ या वीरान स्थान पर बना हुआ ) तथा धान्वन
(मरुभूमि या बालुकामय प्रदेश में स्थित) -ये पाँच प्रकार के दुर्ग हैं। (दुर्ग का
विचार करनेवाले उत्तम बुद्धिमान् पुरुषों ने इन सभी दुर्गो को प्रशस्त बतलाया है )
॥ २८-२९ ॥
ईप्सितद्रव्यसम्पूर्णः
पितृपैताम्होचितः ।
धर्मार्जितो
व्ययसहः कोषो धर्मादिवृद्धये ।। ३० ।।
[जिसमें आय अधिक हो और खर्च कम अर्थात् जिसमें
जमा अधिक होता हो और जिसमें से धन को कम निकाला जाता हो,
जिसकी ख्याति खूब हो तथा जिसमें धनसम्बन्धी देवता (लक्ष्मी,
कुबेर आदि) - का सदा पूजन किया जाता हो,
जो मनोवाञ्छित द्रव्यों से भरा-पूरा हो,
मनोरम हो और] विश्वस्त जनों की देख-रेख में हो,
जिसका अर्जन धर्म एवं न्यायपूर्वक किया गया हो तथा जो महान्
व्यय को भी सह लेने में समर्थ हो- ऐसा कोष श्रेष्ठ माना गया है। कोष का उपयोग
धर्मादि की वृद्धि तथा मूल्यों के भरण-पोषण आदि के लिये होना चाहिये ॥ ३० ॥
पितृपैतामहो
वश्यः संहतो दत्तवेतनः ।
विख्यातपौरुषो
जन्यः कुशलः शकुनैर्वृतः ।। ३१ ।।
नानाप्रहरणोपेतो
नानायुद्धविशारदः ।
नानायोधसमाकीर्णो
नीराजितहयद्विपः ।। ३२ ।।
प्रवासायासदुःखेषु
युद्धेषु च कृतश्रमः ।
अद्वैधक्षत्रियपयो
दण्डो दण्डवतां मतः ।। ३३ ।।
जो बाप-दादों के
समय से ही सैनिक सेवा करते आ रहे हों, वश में रहते (अनुशासन मानते) हों,
संगठित हों, जिनका वेतन चुका दिया जाता हो - बाकी न रहता हो,
जिनके पुरुषार्थ की प्रसिद्धि हो,
जो राजा के अपने ही जनपद में जन्मे हों,
युद्धकुशल हों और कुशल सैनिकों के साथ रहते हों,
नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हों,
जिन्हें नाना प्रकार के युद्धों में विशेष कुशलता प्राप्त
हो तथा जिनके दल में बहुत से योद्धा भरे हों, जिन सैनिकों द्वारा अपनी सेना के घोड़े और हाथियों की आरती
उतारी जाती हो, जो परदेश निवास, युद्धसम्बन्धी आयास तथा नाना प्रकार के क्लेश सहन करने के
अभ्यासी हों तथा जिन्होंने युद्ध में बहुत श्रम किया हो,
जिनके मन में दुविधा न हो तथा जिनमें अधिकांश क्षत्रिय जाति
के लोग हों, ऐसी सेना या सैनिक दण्डनीतिवेत्ताओं के मत में श्रेष्ठ है ॥ ३१-३३ ॥
योगविज्ञानसत्त्वाढ्यं
महापक्षं प्रियम्बदं ।
आयतिक्षममद्वैधं
मित्रं कुर्वीत सत्कुल ।। ३४ ।।
दूरादेवाभिगमनं
स्पष्टार्थहृदयानुगा ।
वाक्
सत्कृत्य प्रदानञ्च त्रिविधो मित्रसङ्ग्रहः ।। ३५ ।।
धर्मकामार्थसंयोगो
मित्रात्तु त्रिविधं फलं ।
औरसं तत्र
सन्नद्धं तथा वंशक्रमागतं ।। ३६ ।।
रक्षइतं
व्ससनेभ्यश्च मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधं ।
मित्रे गुणाः
सत्यताद्याः समानसुखदुःखता ।। ३७ ।।
जो त्याग
(अलोभ एवं दूसरों के लिये सब कुछ उत्सर्ग करने का स्वभाव),
विज्ञान (सम्पूर्ण शास्त्रों में प्रवीणता) तथा सत्त्व
(विकारशून्यता) - इन गुणों से सम्पन्न, महापक्ष (महान् आश्रय एवं बहुसंख्यक बन्धु आदि के वर्ग से
सम्पन्न),
प्रियंवद (मधुर एवं हितकर वचन बोलनेवाला),
आयतिक्षम (सुस्थिर स्वभाव होने के कारण भविष्यकाल में भी
साथ देनेवाला), अद्वैध (दुविधा में न रहनेवाला) तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हो ऐसे पुरुष को
अपना मित्र बनाये। मित्र के आने पर दूर से ही अगवानी में जाना,
स्पष्ट एवं प्रिय वचन बोलना तथा सत्कारपूर्वक मनोवाञ्छित
वस्तु देना - ये मित्रसंग्रह के तीन प्रकार हैं। धर्म,
काम और अर्थ की प्राप्ति- ये मित्र से मिलनेवाले तीन प्रकार
के फल हैं। चार प्रकार के मित्र जानने चाहिये - औरस (माता- पिता के सम्बन्ध से युक्त),
मित्रता के सम्बन्ध से बँधा हुआ,
कुलक्रमागत तथा संकट से बचाया हुआ सत्यता (झूठ न बोलना),
अनुराग और दुःख-सुख में समानरूप से भाग लेना - ये मित्र के
गुण हैं ॥ ३४-३७ ॥
वक्ष्येऽनुजीविनां
वृत्तं सेवी सेवेत भूपतिं ।
दक्षता भद्रता
दार्ढ्य क्षान्तिः क्लेशसहिष्णुता ।। ३८ ।।
सन्तोषः
शीलभुत्साहो मण्डयत्यनुजीविनं ।
अब मैं
अनुजीवी (राजसेवक) जनों के बर्ताव का वर्णन करूँगा। सेवकोचित गुणों से सम्पन्न
पुरुष राजा का सेवन करे। दक्षता (कौशल तथा शीघ्रकारिता),
भद्रता (भलमनसाहत या लोकप्रियता),
दृढ़ता (सुस्थिर स्नेह एवं कर्मों में दृढ़तापूर्वक लगे रहना),
क्षमा ( निन्दा आदि को सहन करना),
क्लेशसहिष्णुता (भूख-प्यास आदि के क्लेश को सहन करने की
क्षमता),
संतोष, शील और उत्साह - ये गुण अनुजीवी को अलंकृत करते हैं ॥ ३८अ ॥
यथाकालमुपासीत
राजानं सेवको नयात् ।। ३९ ।।
परस्थानगमं
क्रौर्य्यमौद्धत्यं मत्सरन्त्यजेत् ।
विगृह्य कथनं
भृत्यो न कुर्य्याज् ज्यायसा सह ।। ४० ।।
गुह्यं मर्म्म
च मन्त्रञ्च न च भर्त्तुः प्रकाशयेत् ।
रक्ताद्
वृत्तिं समीहेत् विरक्तं सन्त्यजेन्नृपं ।। ४१ ।।
सेवक यथासमय
न्यायपूर्वक राजा की सेवा करे; दूसरे के स्थान पर जाना, क्रूरता, उद्दण्डता या असभ्यता और ईर्ष्या- इन दोषों को वह त्याग दे।
जो पद या अधिकार में अपने से बड़ा हो, उसका विरोध करके या उसकी बात काटकर राजसभा में न बोले। राजा
के गुप्त कर्मों तथा मन्त्रणा को कहीं प्रकाशित न करे। सेवक को चाहिये कि वह अपने
प्रति स्नेह रखनेवाले स्वामी से ही जीविका प्राप्त करने की चेष्टा करे;
जो राजा विरक्त हो-सेवक से घृणा करता हो,
उसे सेवक त्याग दे ॥ ३९-४१ ॥
आजीव्यः
सर्व्वसत्त्वानां राजा पर्जन्यवद्भवेत् ।
आयद्वारेषु
चाप्त्यर्थं धनं चाददतीति च ।। ४२ ।।
यदि राजा
अनुचित कार्य में प्रवृत्त हो तो उसे मना करना और यदि न्याययुक्त कर्म में संलग्न
हो तो उसमें उसका साथ देना- यह थोड़े में बन्धु मित्र और सेवकों का श्रेष्ठ आचार
बताया गया है । राजा मेघ की भाँति समस्त प्राणियों को आजीविका प्रदान करनेवाला हो।
उसके यहाँ आय के जितने द्वार (साधन) हों, उन सब पर वह विश्वस्त एवं जाँचे परखे हुए लोगों को नियुक्त
करे (जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी से जल लेता है,
उसी प्रकार राजा उन आयुक्त पुरुषों द्वारा धन ग्रहण करे) ॥
४२ ॥
कुर्य्यादुद्योगसम्पन्नानध्यक्षआन्
सर्वकर्म्मसु ।
कृषिर्व्वणिक्पथो
दुर्गं सेतुः कुञ्जरबन्धनं ।। ४३ ।।
खन्याकरबलादानं
शुन्यानां च निवेशनं ।
अष्टवर्गमिमं
राजा साधुवृत्तोऽनुपालयेत् ।। ४४ ।।
(जिन्हें
उन-उन कर्मो के करने का अभ्यास तथा यथार्थ ज्ञान हो, जो उपधा द्वारा शुद्ध प्रमाणित हुए हों तथा जिनके ऊपर
जाने-समझे हुए गणक आदि करणवर्ग की नियुक्ति कर दी गयी हो तथा) जो उद्योग से
सम्पन्न हों, ऐसे ही लोगों को सम्पूर्ण कर्मों में अध्यक्ष बनाये। खेती,
व्यापारियों के उपयोग में आनेवाले स्थल और जल के मार्ग,
पर्वत आदि दुर्ग, सेतुबन्ध (नहर एवं बाँध आदि), कुञ्जरबन्धन (हाथी आदि के पकड़ने के स्थान),
सोने-चांदी आदि की खानें वन में उत्पन्न सार दारु आदि (साखू,
शीशम आदि) की निकासी के स्थान तथा शून्य स्थानों को
बसाना-आय के इन आठ द्वारों को 'अष्टवर्ग' कहते हैं। अच्छे आचार-व्यवहारवाला राजा इस अष्टवर्ग की
निरन्तर रक्षा करे ।। ४३-४४ ।।
आमुक्तिकेभ्यश्चौरेभ्यः
पौरेब्यो राजवल्लभात् ।
पृथिवीपतिलोभाच्च
चप्रजानां पञ्चधा भयं ।। ४५ ।।
अवेक्ष्यैतद्भ्यं
काले आददीत करं नृपः ।
अभ्यन्तरं
शरीरं स्वं वाह्यं राष्ट्रञ्च रक्षयेत् ।। ४६ ।।
आयुक्तक
(रक्षाधिकारी राजकर्मचारी), चोर, शत्रु राजा के प्रिय सम्बन्धी तथा राजा के लोभ- इन पाँचों से
प्रजाजनों को पाँच प्रकार का भय प्राप्त होता है। इस भय का निवारण करके राजा उचित समय
पर प्रजा से कर ग्रहण करे। राज्य के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । राजा का अपना
शरीर ही 'आभ्यन्तर राज्य' है तथा राष्ट्र या जनपद को 'बाह्य राज्य' कहा गया है। राजा इन दोनों की रक्षा करे ।। ४५-४६ ॥
दड्यांस्तु
दण्डयेद्राजा स्वं रक्षेच्चःविषादितः ।
स्त्रियः
पुत्रांश्च शत्रुभ्यो विश्वसेन्न कदाचन ।। ४७ ।।
जो पापी राजा के
प्रिय होने पर भी राज्य को हानि पहुँचा रहे हों, वे दण्डनीय हैं। राजा उन सबको दण्ड दे तथा विष आदि से अपनी
रक्षा करे। स्त्रियों पर पुत्रों पर तथा शत्रुओं पर कभी विश्वास न करे ॥ ४७ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये राजधर्म्मो नाम ऊनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि
आग्रेय महापुराण में 'राजधर्मकथन' नामक दो सौ उनतालीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २३९ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 240
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