रुद्रयामल तंत्र पटल ३०
रुद्रयामल तंत्र पटल ३० में मूलाधार
पद्म का विवेचन है। षट्चक्र भेदन के लिए भेदिनी मन्त्रोद्धार है और सभी योगिनी मन्त्र
का विधान है । मूलाधार में ब्रह्मदेव से
युक्त डाकिनी का ध्यान, ब्रह्ममंत्र तथा
डाकिनीमंत्रराज का उद्धार किया गया है। फिर डाकिनी स्तोत्र में डाकिनी स्तुति
(२७-३४) है और ब्रह्म की स्तुति (३५-३८) है। इस स्तोत्र के पाठ मात्र से महान्
पातकों का नाश हो जाता है और यदि साधक विशाल नेत्र वाले जगन्नाथ का ध्यान कर
स्तोत्र पाठ करता है तो वह योगिराज बन जाता है ।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३०
Rudrayamal Tantra Patal 30
रुद्रयामल तंत्र तीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रिंश: पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ त्रिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
अथ वक्ष्ये महाकाल मूलपद्मविवेचनम्
।
यत् कृत्वा अमरो भूत्वा वसेत्
कालचतुष्टयम् ॥ १ ॥
आनन्दभैरवी ने कहा—
हे महाकाल ! अब इसके अनन्तर मूलाधार स्थित पद्म का विवेचन
कहती हूँ जिसे कर लेने पर अमर होकर साधक चारों कालों में अविच्छिन्न रूप से
वर्तमान रहता है ।। १ ।
विशेष कालचतुष्ट्यम्—
चार काल- १. बाल, २. कैशोर, ३ युवा, ४. वृद्धावस्था ।
अथ षट्चक्रभेदार्थे
भेदिनीशक्तिमाश्रयेत् ।
छेदिनीं सर्वग्रन्थीनां योगिनीं
समुपाश्रयेत् ॥ २ ॥
इसके अनन्तर षट्चक्रों का भेदन करने
के लिए भेदिनी शक्ति का आश्रय लेना चाहिए। यह भेदिनी नाम की योगिनी समस्त ग्रन्थियों
का छेदन करने वाली है अतः इसका आश्रय लेना चाहिए ॥ २ ॥
तस्या मन्त्रान् प्रवक्ष्यामि येन
सिद्धो भवेन्नरः ।
आदौ शृणु महामन्त्रं भेदिन्याः परं
मनुम् ॥ ३ ॥
अब मैं उस भेदिनी के मन्त्रों
को कहती हूँ, जिससे मनुष्यों को सिद्धि
प्राप्त होती है। उसमें सबसे पहले भेदिनी के सर्वोत्कृष्ट मन्त्रों को सुनिए ॥ ३ ॥
आदौ कालीं समुत्कृत्य ब्रह्ममन्त्रं
ततः परम् ।
देव्याः प्रणवमुद्धृत्य भेदनी
तदनन्तरम् ॥ ४ ॥
ततो हि मम गृह्णीयात् प्रापय
द्वयमेव च ।
चित्तचञ्चीशब्दान्ते मां रक्ष
युग्ममेव च ॥ ५ ॥
भेदिनी मम शब्दान्ते अकालमरणं हर ।
हर युग्मं स्वं महापापं नमो
नमोऽग्निजायया ॥ ६ ॥
सर्वप्रथम 'काली' का उच्चारण इसके
बाद ब्रह्ममन्त्र ( द्र० ३०. १६-१७) का उच्चारण करे, इसके बाद देवी का प्रणव (ऐं) उच्चारण कर 'भेदिनी'
पद उच्चारण करे ।
तदनन्तर 'मम' पद का उच्चारण कर दो
बार 'प्रापय' शब्द कहे। फिर
चित्तचञ्ची शब्द के बाद 'मां', फिर
दो बार 'रक्ष', फिर 'भेदिनी मम' शब्द के अन्त में 'अकालमरणं हर', फिर 'हर'
युग्म, फिर 'स्वं
महापापं नमो नमो को अग्निजाया (स्वाहा ) के साथ कहे ?
।
विमर्श भेदिनी मन्त्र का स्वरूप
इस प्रकार है— 'काली ॐ ॐ ॐ आं आं ॐ ॐ ॐ ब्रह्म
ब्रह्म ब्रह्म सर्वसिद्धिं पालय मां सत्त्वं गुणो रक्ष रक्ष ह्रीं स्वाहा ऐं
भेदिनी मम प्रापय प्रापय चित्तचञ्ची मां रक्ष रक्ष भेदिनी मम अकालमरणं हर हर हर
स्वं महापापं नमो नमो स्वाहा ।। ४-६ ॥
एतन्मन्त्रं जपेत्तत्र डाकिनीरक्षसि
प्रभो ।
आदौ प्रणवमुद्धृत्य ब्रह्ममन्त्रं
ततः परम् ॥ ७ ॥
शाम्भवीति ततश्चोक्त्वा ब्राह्मणीति
पदं ततः ।
मनोनिवेशं कुरुते तारयेति
द्विधापदम् ॥ ८ ॥
छेदिनीपदमुद्धृत्य मम मानसशब्दतः ।
महान्धकारमुद्धृत्य छेदयेति
द्विधापदम् ॥ ९ ॥
स्वाहान्तं मनुमुद्धृत्य
जपेन्मूलाम्बुजे सुधीः ।
एतन्मन्त्रप्रसादेन जीवन्मुक्तो
भवेन्नरः ॥ १० ॥
फिर हे प्रभो ! डाकिनी राक्षसी के
लिए इस मन्त्र का जप करना चाहिए। प्रथम प्रणव (ॐ) का उच्चारण कर फिर ब्रह्ममन्त्र (
ॐ ॐ ॐ आं आं ॐ ॐ ॐ ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्म सर्वसिद्धिं पालय मां सत्त्वं गुणो रक्ष
रक्ष ह्रीं स्वाहा ), इसके बाद 'शाम्भवी', फिर 'ब्राह्मणी मनो
निवेशं कुरुत तारय तारय' फिर 'छेदिनी'
पद का उच्चारण कर 'मम मानस महान्धकारं छेदय
छेदय स्वाहा' इतने मन्त्र का उद्धार कर सुधी साधक को मूलाधार
में जप करना चाहिए। फिर इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर वह जीवन्मुक्त हो जाता है।
विमर्श-मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है- ॐ ॐ ॐ आं आं ॐ ॐ ॐ ब्रह्म ब्रह्म ब्रह्म सर्वसिद्धिं पालय मां सत्त्वं
गुणो रक्ष रक्ष ह्रीं स्वाहा शाम्भवी ब्राह्मणी मनोनिवेशं कुरुत तारय तारय छेदिनी
मम मानसमहान्धकारं छेदय छेदय स्वाहा।।७-१०॥
तथा स्त्रीयोगिनीमन्त्रं
जपेत्तत्रैव शङ्कर ।
ॐ घोररूपिणिपदं सर्वव्यापिनि शङ्कर
॥ ११ ॥
महायोगिनि मे पापं शोकं रोगं हरेति
च ।
विपक्षं छेदयेत्युक्त्वा योगं
मय्यर्पय द्वयम् ॥ १२ ॥
स्वाहान्तं मनुमुद्धृत्य जपाद्योगी
भवेन्नरः ।
खेचरत्वं समाप्नोति योगाभ्यासेन
योगिराट् ॥ १३ ॥
हे शङ्कर ! इसके बाद स्त्री
योगिनी मन्त्र का जप करना चाहिए। वह इस प्रकार है-
ॐ घोर रूपिणि',
फिर 'सर्वव्यापिनि' फिर 'महायोगिनि मम पापं शोकं रोगं हर विपक्ष छेदय योगं मय्यर्पय अर्पय',
फिर 'स्वाहा' – इतने
मन्त्र का उद्धार कर जप करने से मनुष्य योगी हो जाता है। किं बहुना वह योगिराज इस
प्रकार के योगाभ्यास से खेचरता प्राप्त कर लेता है।
विमर्श - स्त्री योगिनी
मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ॐ घोररूपिणि सर्वव्यापिनि महायोगिनि मम पापं
शोकं रोगं हर विपक्षं छेदय योगं मय्यर्पय अर्पय स्वाहा ॥ ११-१३ ॥
डाकिनीं ब्रह्मणा युक्तां मूले
ध्यात्वा पुनः पुनः ।
जपेन्मन्त्रं सदायोगी
ब्रह्ममन्त्रेण योगवित् ॥ १४ ॥
मूलाधार में ब्रह्मदेव से युक्त
डाकिनी का बारम्बार ध्यान कर योगवेत्ता योगी ब्रह्ममन्त्र के साथ डाकिनी मन्त्र का
जप करे ।। १४ ।
ब्रह्ममन्त्रं प्रवक्ष्यामि
तज्जापेनापि योगिराट् ।
ब्रह्ममन्त्रप्रसादेन जडो योगी न
संशयः ॥ १५ ॥
अब हे शङ्कर ! मैं ब्रह्ममन्त्र
को कहती हूँ, जिसके जप मात्र से साधक योगिराज
बन जाता है। इस ब्रह्ममन्त्र की सिद्धि हो जाने पर जड़ भी योगी हो जाता है इसमें
संशय नहीं ॥ १५ ॥
प्रणवत्रयमुद्धृत्य दीर्घप्रणवयुग्मकम्
।
तदन्ते प्रणवत्रीणि ब्रह्म ब्रह्म
त्र्यं त्रयम् ॥ १६ ॥
सर्वसिद्धिपदस्यान्ते पालयेति च मां
पदम् ।
सत्त्वं गुणो रक्ष रक्ष
मायास्वाहापदं जपेत् ॥ १७ ॥
प्रथम तीन प्रणव (ॐ ॐ ॐ),
फिर दीर्घ प्रणव दो बार (आं आं), फिर उसके
अन्त में तीन प्रणव (ॐ ॐ ॐ), फिर ब्रह्म पद तीन बार (ब्रह्म
ब्रह्म ब्रह्म ), तत्पश्चात् 'सर्वसिद्धि'
पदं 'पालय मां' फिर 'सत्त्वं गुणो रक्षा रक्ष', फिर माया ( ह्रीं) स्वाहा
- इस मन्त्र का जप करे ।
विमर्श ब्रह्ममन्त्र का स्वरूप
इस प्रकार है— ॐ ॐ ॐ आं आं ॐ ॐ ॐ ब्रह्म
ब्रह्म ब्रह्म सर्वसिद्धिं पालय मां सत्त्वं गुणो रक्ष रक्ष ह्रीं स्वाहा ।। १६-१७
।।
डाकिनीमन्त्रराजञ्च शृणुष्व
परमेश्वर ।
यज्जत्वा डाकिनी वश्या
त्रैलोक्यस्थितिपालकाः ॥ १८ ॥
हे परमेश्वर ! अब डाकिनी
मन्त्रराज को सुनिए जिसका जप करने से त्रैलोक्य की स्थिति तथा पालन करने वाली
डाकिनी वशीभूत हो जाती है ॥ १८ ॥
यो जपेत् डाकिनीमन्त्रं चैतन्या
कुण्डली झटित् ।
अनायासेन सिद्धिः स्यात्
परमात्मप्रदर्शनम् ॥ १९ ॥
जो डाकिनी मन्त्र का जप करता है
उसकी कुण्डली शीघ्र ही चैतन्य हो जाती है। उसे अनायास सिद्धि तो प्राप्त होती ही
है और परमात्मा का दर्शन भी सुलभ हो जाता है ।। १९ ।।
मायात्रयं समुद्धृत्य प्रणवैकं ततः
परम् ।
डाकिन्यन्ते महाशब्दं डाकिन्यम्बपदं
ततः ॥ २० ॥
पुनः प्रणवमुद्धृत्य मायात्रयं ततः
परम् ।
मम योगसिद्धिमन्ते साधयेति
द्विधापदम् ॥ २१ ॥
डाकिनी मन्त्रराज-तीन
माया ( ह्रीं ह्रीं ह्रीं) का उच्चारण कर उसके बाद एक प्रणव (ॐ),
फिर 'डाकिनि' उसके बाद 'महाडाकिन्यम्ब' पुनः प्रणव (ॐ) का उच्चारण फिर तीन
माया (ह्रीं ह्रीं ह्रीं) फिर 'मम योगसिद्धिं फिर दो बार
साधय (साधय साधय ) पद यही डाकिनी का मन्त्र है।
विमर्श मन्त्र का स्वरूप इस
प्रकार है— ह्रीं ह्रीं ह्रीं ॐ डाकिनी
महाडकिन्यम्ब ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं मम योगसिद्धिं साधय साधय । २०-२१ ।।
मनुमुद्धृत्य देवेशि जपाद्योगी
भवेज्जडः ।
जप्त्वा सम्पूजयेन्मन्त्री
पुरश्चरणसिद्धये ॥ २२ ॥
हे देवेश! इस प्रकार से उद्धार किए
गए डाकिनी मन्त्र के जप से जड़ पुरुष भी योगी हो जाता है। जप करने के बाद पुरश्चरण
की सिद्धि के लिए मन्त्रज्ञ साधक को डाकिनी का पूजन करना चाहिए । २०-२२ ।।
सर्वत्र चित्तसाम्येन
द्रव्यादिविविधानि च ।
पूजयित्वा मूलपद्मे चित्तोपकरणेन च
॥ २३ ॥
ततो मानसजापञ्च स्तोत्रञ्च
कालिपावनम् ।
पठित्वा योगिराट् भूत्त्वा वसेत्
षट्चक्रवेश्मनि ॥ २४ ॥
मूलाधार पद्म में चित्त को समाहित
कर,
अनेक प्रकार के द्रव्यों से व अनेक उपकरणों से पूजाकर मानस जाप तथा कालिपावन स्तोत्र का पाठ करना चाहिए । इस प्रकार कालिपावन स्तोत्र का पाठ कर साधक
योगिराज बनकर षट्चक्रों के भवन में निवास करता है ।। २३-२४ ।।
शक्तियुक्तं विधिं यस्तु स्तौति
नित्यं महेश्वर ।
तस्यैव पालनार्थाय मम यन्त्रं
महीतले ॥ २५ ॥
हे महेश्वर ! जो शक्ति (= ब्रह्माणी
) से युक्त ब्रह्मदेव की स्तुति करता है उसी के पालन के लिए पृथ्वीतल में
मेरे यन्त्र हैं ॥ २५ ॥
तत् स्तोत्रं शृणु योगार्थं सावधानावधारय
।
एतत्स्तोत्रप्रसादेन महालयवशो भवेत्
॥ २६ ॥
हे महेश्वर ! अब योगसिद्धि के लिए
उस स्तोत्र को सावधान होकर श्रवण कीजिए । इस स्तोत्र के सिद्ध हो जाने पर महाकाल
भी वश में हो जाते हैं ।। २६ ।।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३०
अब इससे आगे श्लोक २७ से ३४ में डाकिनी स्तोत्र को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
रुद्रयामल तंत्र पटल ३०
अब इससे आगे श्लोक ३५ से ४१ में ब्रह्मदेव की स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रसिद्धिसाधने भैरव भैरवीसंवादे डाकिनी
स्तोत्रं नाम त्रिंश: पटलः ॥ ३० ॥
॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के
महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्रप्रकरण में षट्चक्रसिद्धि- साधन में भैरव-भैरवी
संवाद में डाकिनी स्तोत्र की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत तीसवें पटल की हिन्दी पूर्ण
हुई ॥ ३० ॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ३१
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