शिवसूत्र द्वितीय उन्मेष शाक्तोपाय
शिवसूत्र में तीन उन्मेष हैं। प्रथम शांभव उन्मेष में योग की परावस्था वर्णित है। द्वितीय उन्मेष शाक्तोपाय में चंचल मन की बाह्य वृत्तियों को मंत्रादि उपासना से संयमित कर पराशक्ति भगवती के अनुग्रह से योगी परार्द्धत अनुभव करता है, यह द्वितीय शाक्त प्रकरण में वर्णित किया गया है।
शिवसूत्र द्वितीय उन्मेष - शाक्तोपायः
तीव्र शक्तिपातवतां साधकानां कृते
पूर्वोन्मेषोक्ततत्त्वोपदेशः ।
मध्यमाधिकारिणोऽपि
तत्त्वज्ञानवन्तःस्युरिति
द्वितीयोन्मेषस्यारम्भः तदेवाह -
चित्तमिति ।
तीव्रशक्तिपात आघात प्राप्त साधकों
के लिये पूर्व उन्मेष में कथित तत्त्व का उपदेश है। अब मध्यम अधिकारी के लिये
तत्त्व-ज्ञान के प्राप्ति का मार्ग बताते हैं। इसका पहला सूत्र-
१. चित्तं मत्रः
शक्तिः मन्त्रस्वरूपा अत एवेदानों
मन्त्रं कथयति
येनात्मतस्वं चिन्तयते तदेव चित्तम्,
तदेव स्वस्वरूपमननहेतुत्वान्मन्त्र
इत्युच्यते ।
उक्तञ्च-
"स्वात्मानुभवधर्मित्वात् स
मन्त्र इति गीयते । " ॥ १॥
तत्कथं सिद्धयेदित्याह - प्रयत्न
इति ।
शक्ति मन्त्र स्वरूपा है,
यह पहले उन्मेष में बताया गया है। अब मन्त्र का स्वरूप बतलाते हैं ।
जिससे आत्मतत्त्व का चिन्तन होता है, उसे चित्त कहते हैं। और
वहीं स्वस्वरूप के मनन के कारण मन्त्र कहलाता है। यह मन्त्र स्वात्मानुभव रूप होता
है।
२. प्रयत्नः साधकः
मन्त्रसाधने योऽन्तः प्रयत्नः स
साधकः पुनः पुनः
बाह्यवृत्तीनामुपसंहरणं शिवतत्त्वे
च संयोजनमेव
तासां प्रयत्नपदेनोच्यते ॥२॥
इस मन्त्र के अनुसन्धान में
अन्तरप्रयत्न ही 'साधक' है। बार-बार बाह्य वृत्ति का शिवतत्त्व में उपसंहार करने का नाम ही
प्रयत्न है।
३. विद्याशरीरसत्ता मन्त्र रहस्यम्
परमात्मा तसंवेदनरूपाया विद्यायाः
शरीरमखिलशब्दराशिः
तस्याल्पा हन्ता पूर्णाहन्ता च
सत्ता तत्स्फुरणमेव
मन्त्रगुप्तार्थस्योत्पादकमिति
रहस्यम् ॥३॥
परम अद्वैत संवेदन रूपी विद्या का
शरीर अखिल शब्द राशि है; उसकी अल्पाहता और
पूर्णाहन्ता सत्ता है। इसका स्फुरण ही मन्त्र की गुप्तार्थता का उत्पादक है,
यह रहस्य है।
४. गर्भे
चित्तविकासोऽविशिष्टविद्यास्वप्नः
पूर्वोक्तं मन्त्रवीर्यं
महेश्वरेच्छया योगी अनुभवितुं शक्नोति ।
गर्भे महामायायां शक्त्यां चित्तं
विकसति सा अशुद्धा विद्या सा
स्वप्नस्वरूपिणी
विकल्पप्रत्ययात्मिका भवति ॥४॥
महामाया शक्ति के गर्भ में जो चित्त
का विकास होता है वह अशुद्ध विद्या है। वह स्वप्न रूप अर्थात् विकल्प प्रत्ययात्मक
है। उपरोक्त प्रकार का मन्त्र-वीर्य जिसका ऊपर महाहृद् के अनुसन्धान के रूप में
वर्णन हो चुका है, महेश्वर की इच्छा
से ही हृदयङ्गम हो सकता है।
५. विद्यासमुत्थाने स्वाभाविके
खेचरी शिवावस्था
शिवेच्छया परमात्मा तसंवेदनरूपं
स्वाभाविक संवेदनसमुत्थानं भवति ।
पूर्णानन्दमुच्छ्वसितं कुर्वती
मुद्रा खेचरी शिवावस्था भवति ।
खे गगने चरतीति खेचरी,
बोध रूपे गगने चरणशीला अभिव्यज्यते ।
मुदं हर्ष रातीति मुद्रा ।
इयं विश्वोत्तीर्णां योगिभिरनुभूयते
॥५॥
तत्कथमुपलभ्यते अत आह—
गुरुरिति ।
शिव की इच्छा से परमाद्वैत संवेदन
रूप स्वाभाविक संवेदन का समुत्थान होता है, वह
सम्पूर्ण स्वानन्द को उच्छ्वासित करने वाली खेचरी मुद्रा शिवावस्था है, तथा बोधरूप आकाश (खे) में विचरण करने के कारण इसे खेचरी कहते हैं। यह
विश्वोत्तीर्ण मुद्रा योगी को सम्यक् रूप से अनुभूत होती है। मोद को देने वाली
अवस्था को मुद्रा कहते हैं।
इस प्रकार की मन्त्र और मुद्रा की
प्राप्ति के लिये जो उपदेश करता है वही गुरु होता है—
६. गुरुरुपायः
मन्त्रमुद्रयोः प्राप्त्यर्थं य
उपदिशति स गुरुरेव उपाय:,
तेनैव शाम्भवीशक्ति- रनुगृह्णाति ॥
६॥
ईश्वरानुग्रहात्मिका पराशक्ति ही
गुरु है;
अर्थात् शिव स्वरूप ही गुरु होता है।
गुरु के द्वारा ही मातृका चक्र का
ज्ञान होता है-
७. मातृका चक्रसम्बोधः
ईश्वरानुग्रहात्मिकायाः पराशक्तेः
प्राप्त्युपायो गुरुः ।
गुरुकृपातः मातृका चक्रस्य सम्बोधः
सम्यग् ज्ञानं भवति ।
वाच्यवाचकात्मकस्य विश्वस्य प्रपञ्चयित्री मन्त्राणां
मुख्य कारणं मातृकैव निश्चिता ॥७॥
ईश्वरानुग्राहात्मिका पराशक्ति की
प्राप्ति का उपाय गुरु है। गुरु की कृपा से ही मातृका चक्र का सम्यक् ज्ञान होता
है। वाच्यवाचकात्मक विश्व का सृजन करने वाले मन्त्रों का भी मुख्य कारण
निश्चयपूर्वक मातृका ही है । मातृका के ज्ञान से क्या होता है,
सो बताते हैं—
८. शरीरं हविः
एवमनुगृहीतस्य योगिनः
स्थूलसूक्ष्मादिशरीराणि चिदग्नी हविर्भवन्ति ॥८॥
इस प्रकार के अनुग्रहीत योगी के
स्थूल और सूक्ष्म शरीर चिदाग्नि की आहुति बन जाते हैं।
९. ज्ञानमन्नम्
तदा बोधस्योर्ध्वप्रकाशः प्रज्वलितो
भवति तेन योगिनस्त्रिविध पूर्वोक्तं ज्ञानं
भवति योगाग्निना दग्धम् ॥९ ॥
तब बोध का ऊर्ध्वप्रकाश प्रज्वलित
हो उठता है और योगी के पूर्वोक्त तीन प्रकार के ज्ञान रूप बन्धन अग्र अर्थात्
अग्नि के भक्ष हो जाते हैं, अर्थात् योगाग्नि
में भस्म हो जाते हैं।
आगे के अन्तिम सूत्र से शाक्तोपाय
का उपसंहार किया जाता है -
१०. विद्यासंहारे
तदुत्थस्वप्नदर्शनम्
यदा परमाद्वैतानुभवरूपाया विद्याया
अनुत्थानं भवति
तदा भेदनिष्ठस्य स्वप्नस्य दर्शनं
भवति अत एव योगी विद्यायां
सर्वदाऽवहितो भवति ॥ १०॥
जब तक परमाद्वैतानुभव रूप विद्या का
उदय नहीं होता है तभी तक भेदनिष्ठ स्वप्न, अर्थात्
विकल्प का दर्शन होता है। इसलिये योगी विद्या के अवधान अर्थात् विचार में ही सदा
मग्न रहता है।
इति शाक्तोपायो द्वितीयोन्मेषः शिवसूत्र
समाप्तः ॥
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