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शिवसूत्र तृतीय उन्मेष आणवोपाय
शिवसूत्र में शाम्भव,
शाक्त एवं आणव तीन प्रकरण हैं। तृतीय आणवोपाय उन्मेष में आत्मा,
माया आदि विषयों का निरूपण किया गया है तथा इसके अनुसार योगी मोह का
त्यागकर क्रमशः जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति
अवस्थात्रय को पारकर पूर्णता (चैतन्य साक्षात्कार) की प्राप्त कर लेता है, यह उपन्यस्त किया गया है।
शिवसूत्र तृतीय उन्मेष - आणवोपायः
उक्तद्वयोन्मेषाभ्यां
शिवशक्तिसम्बन्धिनी विवेचना उपस्थापिता,
इदानीमनात्मन्यात्मबुद्धिरनात्मनिचात्मबुद्धिः
कथमुत्पद्यते इत्यनयोः
प्रवर्तकस्याणुस्वरूपस्यात्मनो विवेचना
प्रस्तूयते-आत्मेत्यादिना ।
उपर्युक्त दो उन्मेषों में शिव और
शक्ति सम्बन्धी कुछ विवेचना हुई। अब आत्मा में अनात्मा (देह,
बुद्धि आदि) तथा अनात्मा में आत्मा का भान किस प्रकार उत्पन्न होता
है इन दोनों के प्रवर्तक अणुस्वरूप आत्मा का विवेचन किया जाता है। इसका पहला सूत्र
है-
१. आत्मा चित्तम
विश्वस्वभावभूत आत्मैव
बुद्धिक्रियाणां संकुचितरूपैश्चित्तं भवति ॥ १ ॥
अणुरूपस्यात्मनः कथं यातायात इत्यत
आह-ज्ञानमिति ।
विश्व स्वभावभूत आत्मा ही अपनी
स्वतन्त्र चित्त-शक्ति से मोहित होकर विश्व-स्वभाव-भूत आत्मा ही बुद्धि की क्रिया
के संकुचित रूप से चित्त हो जाता है। अनुरूप आत्मा का स्वयं यातायात कैसे होता है,
इस सम्बन्ध में आगामी सूत्र लिखते हैं ।
अनुरूप आत्मा किस प्रकार आवागमन
करता है-
२. ज्ञानं बन्धः
संकुचिते स्वरूपे आत्मनो
भेदाभासरूपं यज्ज्ञानं तदेव बन्धनं भवति ।
“सत्त्वस्थो
राजसस्थश्च तमःस्थो गुणवेदकः ।
एवं पर्यटते देही
स्थानात्स्थानान्तरं व्रजेत्" । इति ॥२॥
आत्मा के स्वरूप के संकोच में
भेदाभास रूप जो ज्ञान होता है वह ही बन्धन होता है । सत्त्व,
रज एवं तम में स्थित तीनों गुणों का वेत्ता इस प्रकार भ्रमण करता
हुआ देही एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है।
बन्धन के कारण को समझाते हुए कहते
हैं-
३. कलादीनां तत्त्वानाम् अविवेको
माया
किञ्चित्कतं खादिरूपकला
दिक्षित्यन्तानां तत्वानां कबुक
पुर्यष्टकस्थूल देहत्वेनावस्थितानां
योऽविवेकः विवेचनाभावः
सा माया तत्त्वाज्ञानरूपः प्रपञ्चो मायेति
वा ॥३॥
कञ्चुकरूप देह में स्थित कला से
लेकर क्षति पर्यन्त तत्त्वों के विवेचन का अभाव ही अविवेक है। इसी का दूसरा नाम
माया है,
अर्थात् तत्त्वों के अज्ञान रूप प्रपंच को माया कहते हैं।
इस माया का शमन कैसे होता है सो
बताते हैं-
४. शरीरे संहारः कलानाम्
शरीरे स्थूले सूक्ष्मे कारणे वा
कलानां तवभागानां
पृथिव्यादिशिवान्तानां तत्त्वानां
योगी शरीराग्नी भस्मीभावं
नयति लयभावनया ॥४॥
अतः योगी इस माया के प्रशमनार्थं
पश्चभूतात्मक स्थूल और सूक्ष्म तत्वों का अपने संविद् शरीर रूपी अग्नि में नष्ट,
अर्थात् लय कर देता है। यह सब लय भावना से होता है।
५. नाड़ीसंहार-भूतजय-भूत
कैवल्य-भूतपृथक्त्वानि
नाड़ीनां प्राणवाहिनीनां
सुषुम्णायां भूतानां जयो विलीनतापादनं,
भूतकैवल्यं चित्तस्य प्रत्याहरणम्,
भूतपृथक्त्वम् भूतानुषक्तस्यात्मनः
स्वच्छताऽऽपादनम्,
एतानि भावनीयानि इति शेषः ॥५॥
इस प्रकार के साधन में लगा योगी
संहार उपायों का प्रयोग करता है । प्राण वाहिनी नाड़ियों की लय की भावना सुषुम्ना
में की जाती है। भूतों की विजय उनकी विलीन भावना से होती है,
इसे भूत-शुद्धि भी कहते हैं। चित्त विषयों से हरण करके आत्मा में
विलीन करना भूत-कैवल्य है। भूतों में आसक्त चित्त को आत्मा में अनुरक्त करके
स्वच्छता सम्पादन करना भूत पृथकत्व के लय की भावना है। इस प्रकार की भावना करना
चाहिये। शाम्भवोपाय और आणवोपाय, दोनों के
द्वारा प्राप्त होने वाली एक ही प्रकार की सिद्धि में अन्तर यही है कि आणवोपाय में
सिद्धि प्रयत्न के द्वारा होती है, तथा शाम्भवोपाय में बिना
प्रयत्न के ही होती है।
यह सब सिद्धियां मोह में ही डालती
हैं,
सो कहते हैं-
६. मोहावरणात् सिद्धि
शाम्भवोपायाल्लभ्यमाना सिद्धिः
प्रयत्नसाध्या न भवति ।
आणवोपायतस्तु प्रयत्नसाध्या अयमेव
भेदः,
अनेन प्रकारेण देहबुद्विमारभ्य
समाधिपर्यन्तसाधनैः
सिद्धिर्भवति मोहावरणात्
मोहकृतावणात्
न तु परतत्त्वप्रकाशात्
"व्युत्थाने सिद्धयः”
इति योगसूत्रम् ॥ ६॥
इस प्रकार देह-शुद्धि से लेकर समाधि
परयन्त साधन के पश्चात् जो सिद्धि होती है, वह
मोहावरण से होती है, आत्मज्ञान से नहीं होती है। योग सूत्र
में भी कहा है- 'व्युत्थाने सिद्धिः' आणवोपाय
और शाम्भवोपाय, दोनों की सिद्धियां एक ही प्रकार की होती हुई
भी उनमें अनेक उपलब्धि प्रकार के अन्तर हैं, तथा ये मोह में
डालती हैं। आत्मज्ञान में इनका उपयोग नहीं है ।
इसीलिये मोह को निवृत्त करने का
उपदेश किया जाता है—
७.मोहजयादनन्ताभोगात् सहजविद्याजयः
योगी मोहं निजाख्याति यदा जयति
तदाऽनन्तसूर्यप्रकाशस्य
विस्तारो भवति तेन सहजविद्याया जयो
लाभो भवति ॥ ७॥
अपने ज्ञान से अपने अज्ञान रूपी मोह
को जब योगी जीत लेता है तब अनन्त उद्यम रूपी सूर्य के प्रकाश का विस्तार होता है
और इस आत्मप्रकाश के द्वारा सहज विद्या की प्राप्ति होती है ।
८. जाग्रद् द्वितीयः करः
तस्याः पूर्णाहन्ताया भिन्नो
द्वितीया कर: किरणरूपः प्रकाशः
इदन्ताविमर्शः अस्य विश्वं
स्वकिरणतुल्यं स्फुरति ॥८॥
उस पूर्णाहंता रूपी स्वयंप्रकाश की
भिन्न दूसरी किरण इदन्ता विमर्श की है, अर्थात्
पूर्णाहंता की द्वितीय किरण विश्व रूप इदन्ता विमर्श को कहा है, क्योंकि प्रकाश प्रथम किरण है तथा विमर्श दूसरी किरण है जिसके द्वारा यह
सारा विश्व स्वकिरण रूप में ही स्फुरित हो रहा है।
अब इस किरण रूप विमर्श का संसारी
आत्मा रूप से वर्णन करते हैं ।
९. नर्तक आत्मा
अनेन प्रकारेण स्वेच्छया
आधाररूपायां चिति
स्वपरिस्पन्दलीलया जाग्रत्स्वप्न
सुषुप्ति भूमिकासु नृत्यन्
आत्मा आभासितस्य कारणं भवति नर्तक इव
॥९॥
इस प्रकार का आत्मा स्वेच्छा से
स्वात्मचित्त रूपी आधार पर स्वपरिस्पन्द लीला से जाग्रत,
स्वप्न और सुषुप्ति रूपी भूमिका में सतत् नृत्य करता हुआ आभासित
होने के कारण 'नर्तक' कहलाता है।
यह भ्रमणशील अवस्था स्वेच्छा से
जगद्गुरू ने ही धारण की है-
१०. रङ्गोन्तरात्मा
एवं नाट्य कुर्वन् योगिभूमिका
ग्रहणस्थानं
स्वयमन्तरात्मा
जगद्गुरुर्जगन्नाट्यं प्रकाशयति ॥ १०॥
इस प्रकार नाट्य करने वाले योगी के
भूमिका ग्रहण करने का स्थान (रंगभूमि) स्वयं अन्तरात्मा जगद्गुरू है जो इस जगत्
रूप नाटक को संचालित कर रहा है।
११. प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि
इन्द्रियाणि दर्शक स्थानीयानि
भवन्ति ॥ ११॥
इन्द्रियां दर्शक के समान हैं।
इस प्रकार की स्थिति प्राप्त योगी
का वर्णन करते हैं-
१२. धीवशात् सत्त्वसिद्धिः
धीस्तत्त्वचिन्तनजन्यवैशद्ययुक्ता
तस्माच्च सत्त्वस्य
स्फुरणम् तेनान्तरपरिस्पन्दस्य
अभिव्यञ्जना जायते
स्पन्देऽन्तनिहिता सिद्धिः
सत्वसिद्धिः ॥ १२ ॥
धीतत्त्व के चिन्तन से उत्पन्न
विस्तार के कारण सत्व के स्फुरण से अन्तर परिस्पन्द की व्यञ्जना (अभिव्यक्ति) होती
है। इस स्पन्द में निहित सिद्धि को सत्त्वसिद्धि कहते हैं।
सत्त्व सिद्धि से प्राप्त परिणाम को
बताते है-
१३. सिद्धः स्वतन्त्रभावः
अनया सिद्ध्यायुक्तो योगी सिद्धः
स्वतन्त्रो भवति ॥ १३ ॥
इस सिद्धि से युक्त पुरुष स्वतन्त्र
हो जाता है। उसे अखिल विश्व को स्ववश करने की क्षमता प्राप्त होती है।
ऐसे योगी की व्यापकता का वर्णन करते
हैं-
१४. यथा तत्र तथान्यत्र
यथा स्वस्मिन् देहे
स्वात्मानन्दमनुभवति तथान्यत्र
देहेष्वपि समा प्रतिपत्तिः ॥ १४॥
वह जैसे अपनी देह में वैसे ही अन्य
देहों में भी स्वात्मानन्द की अनुभूति करता है ।
इस अवस्था प्राप्त योगी को सावधान
किया जाता है-
१५. बीजावधानम्
अतो योगिना सावधानेन भवितव्यम्
प्रत्युत
विश्वकारणे चित्तं समाधातव्यम् ॥१५॥
इस प्रकार के योगी को सावधान रहना
चाहिये,
अर्थात् विश्व के कारण रूप बीज में चित्त को बारम्बार लगाना चाहिये
।
सावधान करने से क्या होता है,
सो बताते हैं- .
१६. आसनस्थः सुखं हृदे निमज्जति
पराशक्ती सावहितो योगी आसनस्थ एवं
संवित्सिन्धी ह्रदेसुखेन
मग्नस्तन्मयो भवति ॥ १६ ॥
पराशक्ति में सदा सावधान रहने वाला
योगी आसनस्थ ही परानन्द रूपी संवित्सिन्धु में (हृदय में) सुख से निमज्जित तन्मय
होता रहता है ।
इस अवस्था प्राप्त योगी की सामर्थ्य
बताते हैं -
१७. स्वमात्रा निर्माण मापादयति
अनेनाणवोपायेन शाक्तावेशप्रकर्षाद्
योगी शाम्भवं
वैभवमाप्नुवन् स्वेच्छया स्वमात्रां
निर्मातुं शक्नोति अर्थात
बुद्धिक्रिययायुक्तश्चितं
निर्मायतां द्रष्ट शक्नोति ॥१७॥
इस प्रकार आणवोपाय से प्राप्त
शाक्तावेश के प्रकर्ष से योगी शाम्भव वैभव को प्राप्त हुआ स्वेच्छा से स्वमात्रा
का निर्माण कर सकता है, अर्थात् बुद्धि क्रिया
से युक्त चित्त का निर्माण कर उसे देख सकता है।
इस अवस्था की नित्य स्थिति का फल
बताते हैं--
१८. विद्याऽविनाशे जन्मविनाशः
विद्याया अविनाशे सदोदये सति
जन्मनोऽज्ञानसहकारिक्रिया
हेतुकस्य दुःखमयस्य
शरीरादिसमुदायस्य विनाशः
विध्वंसः सम्पद्यते ॥ १८ ॥
जब यह सहजा विद्या सदा उदित रहती है
तब पुनर्जन्मादि का सम्बन्ध नष्ट हो जाता है। जन्म का मूल अज्ञान से उत्पन्न होने
वाली क्रिया, अर्थात् सुख-दु:ख इत्यादिक
शारीरिक समुदाय का ध्वंस हो जाता है ।
इस अवस्था प्राप्त योगी को पतित
करने वाली शक्तियों से सचेत किया जाता है-
यदा योगी शुद्धविद्यायां निमग्नो
भवति तदा तं मोहयितुम्
अनेकाः शक्तय आविर्भवन्ति तासु
कवर्गादिषु अधिष्ठित्रघो
माहेश्वर्यः शक्तयस्तत्तत्प्रत्यय
भूमिषु आविष्टाः सत्यः
प्रमातॄन् तत्तच्छब्दानुवेधेन
मोहनात् पशुमातर इत्युच्यन्ते ॥ १९ ॥
जब शुद्ध विद्या के स्वरूप में योगी
निमज्जित होने लगता है तब उसे मोहने के लिये अनेकों शक्तियाँ उठती हैं। इनमें से
कवर्गादि में अधिष्ठित माहेश्वरी आदि शक्तियां तत्प्रत्यय भूमि में आविष्ट होकर
प्रमाताओं (पशुओं)
का तत्तच्छद्वानुवेध से मोहने की
कारण जो हैं, पशु माता कहलाती हैं अर्थात्
बन्धन नारी शक्तियाँ है ।
इस सूत्र के द्वारा योगी को अपने
साधन में लगातार लगे रहने को कहा गया है जिससे वह अपने मार्ग से च्युत न हो सके।
२०. त्रिषु चतुर्थं तेलवदासेच्यम्
शुद्धविद्याप्राप्तौ सत्यामपि
योगिना प्रमादेन न स्थातव्यम्
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु तुरीयाया
आसेचनं तैलवत्कार्यम् ।
यथा तैलं क्रमेण प्रसरत् आश्रयं
प्राप्नोति तथा तुर्यरसेन
मध्यदशामपि व्याप्नुवत् तन्मयत्वं
प्राप्तव्यम् ॥२०॥
इसलिये शुद्धाविद्या के प्राप्त होने
पर भी योगी को प्रमाद नहीं करना चाहिये । उसे तो जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में तुरीया का सदा ही आसेचन करना
चाहिये। आसेचन से तात्पर्य है कि जिस प्रकार दीपक को तेल डाल कर उसकी लो को कायम
रखा जाता है इसी प्रकार जाग्रत, स्वप्न और सुषप्ति में
तुरीया को अपनाते रहना चाहिये जिससे चित का स्फुरण अभेद रूप से होता रहे।
इसी दृढ़ता के लिये पुनः कहते हैं-
२१. मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत्
भग्नस्तुरीयानन्दे
शरीरादिप्रमातृत्वं शमयन्
स्वचित्तेन अविकल्पकरूपेण समाविशेत्
॥२१॥
तुरीयानन्द में मग्न होकर शरीरादि की
प्रमातृता का शमन करना चाहिये तथा चित्त को विकल्प रहित (स्वसंविद्) करके उसमें
समाविष्ट होना चाहिये।
तुरीयानन्द में मग्न होकर शरीरादि
की प्रमातृता का शमन करना चाहिये तथा चित्त को विकल्प रहित (स्वसंविद्) करके उसमें
समाविष्ट होना चाहिये ।
स्वसंविद् में प्रवेश का फल कहते
हैं-
२२. प्राणसमाचारे समदर्शनम्
एवमनुष्ठितं कुर्वतो योगिनः
प्राणेऽस्य बहिर्मन्दमन्दप्रसरणे
एकात्मतया संवेदनम् सर्वासु
अवस्थासु अभेदो भवति
तदा अद्वैतानुभवः सम्पद्यते ॥२२॥
इस प्रकार अनुष्ठान करते हुए योगी
के प्राण में बाहिर मन्द मन्द प्रसरन में एकात्मता से जब संवेदन अर्थात् समस्त
अवस्थाओं में अभेद की अनुभूति होती है तब अद्वैतानुभव सम्पन्न होता है ।
२३. मध्येऽवरः प्रसवः
यो योगी तुरीयामवस्थां
प्राप्नुवन्नपि तुरीयातीतां
न लभते मध्ये स्थितस्य
तस्य कुत्सितस्य सृष्टी पतनं भवति ॥२३॥
जो योगी तुरीयावस्था को प्राप्त
करता हुआ तुरीयातीत का लाभ नहीं करता है, तो
ऐसी मध्य की स्थिति में कुत्सित विचारों की सृष्टि होने से वह पतित हो जाता है।
२४. मात्रास्वप्रत्ययसंधाने नष्टस्य
पुनरुत्थानम्
मात्रासु पदार्थेषु रूपादिनामकेषु
यदा अहमेवेदं सर्वम्
इति प्रत्ययानुसन्धानं पुनः
पुनश्चिन्तनं करोति तदा
पूर्वोक्तात् पतनात् नष्टस्य
लुप्तस्य तुर्यानन्दस्य
उम्मज्जनमाविर्भावो जायते ॥२४॥
रूपादि पदार्थों में (मात्राओं में)
स्वप्रत्यय का अनुसंन्धान, अर्थात् 'अहमेवेदं सर्वम्' इस प्रत्यय का पुनः पुनः अनुसंधान
करने से पूर्वोक्त पत्तन से बच कर तुरीयानन्द का पुनः आविर्भाव होता है। अर्थात्
स्वप्रत्यय के चिन्तन से नष्ट तुरीयानन्द को पुनः पुनः उठाना चाहिये।
२५. शिवतुल्यो जायते
तुरीयाभ्यासप्रकर्षेण
प्राप्ततुरीयातीतो योगी सच्चिदानन्दघनेन
भगवता शिवेन तुल्यो यौगिकशरीरेण
सार्धं समो जायते
देहकलाया अविलयनात् तद्विगलिते शिव
एव ।
“निरञ्जनः परमं
साम्यमुपैतीति" श्रुतेः ॥२५॥
तुरीयाभ्यास के प्रकर्ष से प्राप्त
तुरीयातीत योगी सच्चिदानन्दधन शिव तुल्य हो जाता है। अर्थात् इसी शरीर में योगिक
शरीर द्वारा देह-कला के विगलन से शिवस्व की प्राप्ति होती है।
“निरञ्जनः परमं
साम्यमुपैतीति"श्रुतेः - अर्थात् निरञ्जन तत्व से उसका परमसाम्य हो जाता है।
२६. शरीरवृत्तिर्व्रतम्
शिवोहम्भावेन वर्तमानस्य योगिनः
शरीरे वृत्तिर्वतनं
यत्तदेवव्रत्तम् अनुष्ठातव्यं
नान्यदुपयुक्तम ।
उक्तञ्च –
"अन्तरुल्लस दच्छाच्छ
भक्तिपीयूष पोषितम् ।
भवत्पूजोपयोगाय शरीरमिदमस्तु मे ।”
इति ॥ २६ ॥
शरीर की वृत्ति ही वृत्त है। 'अन्तर आनन्द से उल्लसित, भक्ति सुधा से परिपोषित यह
शरीर तुम्हारी पूजा के उपयोग में ही लगा रहे, इसकी कदापि
तुच्छ धारणा न हो इस प्रकार की शरीर वृत्ति का व्रत करता रहे अथवा शिवोहम की सतत्
भावना करता रहे। इसका अनुष्ठान करना चाहिये, इसी का नाम व्रत
है। इसके अतिरिक्त कुछ भी उपयुक्त नहीं है।
स्वरूप प्राप्त योगी का वर्णन करते
हैं-
२७. कथाजपः
ईदृशस्य परमभावनाभावितस्य योगिनः
वार्तालापादिकं जपकार्य भवति ।। २७
।।
ऐसे योगी की जो बार-बार परम भाव से
भावित होता रहता है। बातचीत ही जप है।
२८. दानमात्मज्ञानम्
स शिष्येभ्यो दानम् आत्मज्ञानं
ददाति समर्थत्वात् ।
दीयते इति दानम् ॥२८॥
इस प्रकार का योगी अपने परिपूर्ण
स्वरूप को, अथवा शिवात्म ज्ञान को शिष्यों
में दान रूप में वितरण करता है।
२९. योऽविपस्थ ज्ञाहेतुश्च
तस्य माहेश्वर्यादपःशक्तपः - अवीन्
पशुजनान् पातीति
अविषं शक्तिमण्डलं –
कवर्गाय धिष्ठाभ्यो देव्यो भवन्ति ।
तासां प्रभुत्वेन यः स ज्ञानशक्ति
हेतु:, ज्ञानशक्त्या विनेयान्
बोधयितुं च निश्चयेन समर्थो भवति ॥
२९ ॥
उसकी माहेश्वरादि शक्तियों और
कवर्गादि अधिष्ठात्री देवियों के प्रभाव से ज्ञान की उत्पत्ति होती है और
ज्ञान-शक्ति के अवश्यम्भावी परिणाम से उसे शिव का बोध होने की सामर्थ्य उत्पन्न
होता है। माहेश्वरादि शक्तियों का प्रभाव ज्ञान की उत्पत्ति का कारण है तथा ज्ञान शक्तिबोध
के निश्चय का कारण है।
३०. स्वशक्तिप्रचयोऽस्य विश्वम्
तस्य स्वशक्त्यात्मक संवेदनस्य
स्फुरणात्मको विकास एवं जगत् ।
उक्तञ्च -
" शक्तयोऽस्य जगत्कृत्स्न
शक्तिमांस्तु महेश्वरः ।" इति ।
शक्तिप्रचयः क्रियाशक्तिस्फुरणरूपो
विकासो विश्वमित्युच्यते ॥३०॥
उसकी स्वशक्ति- आत्मसंवेदन का
स्फुरण रूप विकास (प्रसाद) ही विश्व हो जाता है । प्रसाद अर्थात् क्रिया शक्ति का
स्फुरण रूप विकास ही विश्व रूप हो जाता है ।
३१. स्थितिलयौ
तस्मिन् चिन्मया हन्तायाः स्थिति,
तथात्मविश्रान्तिरूपोलयोऽपि भवति
॥३१॥
उसमें चिन्मय अहंता की स्थिति तथा
आत्मविश्रान्ति रूप लय भी होता है।
३२. तत्प्रवृत्तावप्यनिरासः
सवेतृभावात्
ये विकासा संकोचा अपि
स्वशक्तिविकासात् आत्मसंविदि एवं जायन्ते ।
ननु
सृष्टिस्थितिध्वंसानामन्योऽन्यभेदेन योगिनः स्वरूपे एवान्यथाभावः
परिणाम आगच्छतीति चेन्न
तत्प्रवृत्तावपि स्वरूपच्युतेरभावात् ज्ञानस्वरूपत्वात् ॥३२॥
ये विकास और संकोच स्वशक्ति के
विकास से 'आत्मसंविद्' में ही होते हैं। यहां यह शंका होती है कि सृष्टि, स्थिति,
ध्वंस में इनके अन्योन्य भेद से योगी के स्वस्वरूप में अन्यथा भाव आ
सकता है। इसका उतर है कि सृष्ट्यादि भावों में प्रवृत्त होते हुए भी वह योगी
स्वरूप में स्थित होने से एवं ज्ञान स्वरूप होने से कदापि च्युत नहीं होता है।
३३. सुखासुखयोर्बहिर्मननम्
लोकवत्तस्य योगिनः सुखदुःखयोः
संवेदनं न भवति ।
स तु नीलपीतादि- वदनयोर्बहिरेव मनन
करोति ।
प्रशान्तमातृताभावो योगी
सुखदुःखाभ्यां कथमपि न सम्बध्यते ॥ ३३॥
उसे लोकवत् सुख-दुःख का अन्तसंवेदन
नहीं होता, वह तो नील-पीतादि के समान इनका
बहिर्मनन करता है। अज्ञान धन वाला शुभाशुभ से कलंकित होता है तथा जिसकी मात्रता या
संकोच समाप्त हो गया है ऐसा योगी सुख-दुःख से सम्बद्ध नहीं होता ।
३४. तद्विमुक्तस्तु केवली
सुखदुःखाभ्यां
विमुक्तस्तत्संस्कारैश्चास्पृष्टो
योगी केवली चिन्मय इत्युच्यते
।।३४।।
सुख-दुःख से मुक्त संस्कारों से
अस्पृष्ट योगी चिन्मय 'केवली' कहलाता है ।
३५. मोहप्रतिसंहतस्तु कर्मात्मा
मोहेन अज्ञानेन
प्रतिसंहतस्तादात्म्यमापन्न
स एव कर्मात्मा संसारीति कथ्यते ।
उक्तञ्च—
“अज्ञानैकघनो नित्यं
शुभाशुभकलङ्घितः ।" इति ॥३५॥
मोह (स्वख्याति) के प्रति संहत वही
तादात्म्य प्राप्त योगी 'कर्मात्मा' बनता है । अज्ञान से मूढ़ होकर वह संसारी बन जाता है, तथा शुभ और अशुभ से कलङ्कित हो जाता है ।
३६. भेदतिरस्कारे सर्गान्तर
कर्मत्वम्
देहप्राणादौ यः अहन्तारूपौ
भेदस्तस्य तिरस्कारात्
शुद्धचैतन्याविर्भावातसर्गान्तरकर्मत्वम्
अभिलषितदस्तु
निर्मातृत्वं भवति ॥३६॥
देह प्राणादि में अहन्ता रूपी भेद
के तिरस्कार से शुद्ध चैतन्य के आविर्भाव होने पर सर्गान्तर में कर्मत्व की
प्राप्ति होती है, अर्थात् देह को
अभिलाषित वस्तु के निर्माण की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
३७. करणशक्तिः स्वतोऽनुभवात्
यथा स्वप्नसङ्कल्पादौ स्वतः
करणसामर्थ्यस्य दर्शनात्
करणशक्तिरनुभूयते तथैव स्वानुभवे
सततं संल्लग्नाद्
योगिनः करणशक्तिर्भवति ॥ ३७॥
जैसे स्वप्न - सङ्कल्पादि में स्वतः
ही करण के सामर्थ्य के दर्शन से करणशक्ति का अनुभव होता है,
उसी प्रकार स्वानुभव में सतत् संलग्न रहने से योगियों को करण शक्ति
का अनुभव होता है ।
३८. त्रिपदाद्यनुप्राणनम्
स योगी दृढभावनातः स्वप्नसङ्कल्पेन
तुल्यसृष्टि करोति ।
अनया स्वतन्त्रकरणशक्त्या
अवस्थात्रयं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्यं
घृत्वा अनुप्राणिति
यद्यपितुर्याख्यं पदं माययाच्छादितं तथापि
विषयभोगाद्यवसरेषु विद्युद्वदवभासनं
तेन अनुप्राणनं स्वात्मनः
उत्तेजनं कर्तव्यम् ॥३८॥
वह अपनी दृढ़ भावना से स्वप्न
संकल्प के समान सृष्टि निर्माण करता है । तथा इस स्वतन्त्र करण-शक्ति से योगी
जाग्रत्,
स्वप्न, सुषुप्ति - इन तीनों पदों को धारण कर
अनुप्राणित करता है। यद्यपि इस अवस्था में तुरीय पद माया से आच्छादित रहता है
तथापि विषय भोगादि के अवसर पर विद्युत प्रकाश की तरह वह उत्तेजित होता है। अर्थात्
अनुभव में आता ही है । अर्थात् विषयभोग अवसर में भी उस तुरीय से स्वयं को
अनुप्राणित करना चाहिये ।
३९. चित्तस्थितिवच्छरीरकरणं बाह्यषु
इयं स्वतन्त्राशक्तिः चित्त स्थितितुल्यं
शरीरं बाह्यं
करणमिन्द्रियं तद्विषयं
च अनुप्राणिति तन्मयो च भवति ॥ ३९ ॥
यह स्वतन्त्र लक्षणा शक्ति चित्त
स्थिति के समान ही शरीर के बाह्य करणों (इन्द्रिय तथा उनके विषय) को भी अनुप्राणित
करती है और तन्मय हो जाती है।
इस अवस्था में भी योगी को अल्प
अहंकार से सचेत किया जाता है-
४०. अभिलाषाद्वहिगंतिः संवाह्यस्य
यदि योगी तुरीयावस्थातो देहादिषु
प्रच्युतो भवति
तेषु अहंमयाभिमन्यते तहि
अपूर्णमान्यतारूपया अनया
अभिलाषया जन्मजन्मान्तरेषु
भ्रमणशीलस्य पशुत्वस्य केवला
बहिर्गतिरेव भवति ॥४०॥
यदि योगी तुरीयावस्था से देहादि में
प्रच्युत हो जाता है अर्थात् तुरीयावस्था में स्थित योगी का देहपात हो जाता है और
उसे शरीर में अहंमय भावना शेष रह जाती है तो अपूर्ण मन्यता रूप इस अभिलाषा से
जन्मजन्मातर में भ्रमण करते हुए पशुत्व की केवल बाह्यगति प्राप्त होती है,
अर्थात् बन्धन की व्याप्ति अन्तरआत्मा में नहीं होती है इसी
अभिप्राय को स्पष्ट आगामी सूत्र में कहा गया है।
४१. तदारूढ
प्रमितेस्तत्क्षयाज्जीवसंक्षयः
सावित्परामर्शसंलग्नस्य योगिनः
अभिलाषक्षयात् जीवत्वभावना
अपि विनश्यति केवलं चिन्मात्ररूपेण
स्फुरतीत्यर्थः ॥४१॥
उस तुरीयावस्थित परिमित पर आरूढ़
योगी की अभिलाषा के क्षय होने पर जीवत्व का विनाश हो जाता है। तुरीयावस्था के
ज्ञान के परामर्श से युक्त योगी की अभिलाषा के क्षय होने पर जीवत्व का नाश हो जाता
है। अतः केवल चिन्मात्र रूप से उसका स्फुरण होता है।
४२. भूतकच की तदाविमुक्तो भूयः पतिसमः
परः
प्रपञ्चरूपात्पञ्चकञ्चुकात्
विमुक्तो योगी पतिसमः शिवतुल्यः परः उत्कृष्टः
स भवति ॥४२॥
प्रपंच रूप पांच कंचुकों (आवरणों)
से विमुक्त योगी शिव तुल्य उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त कर लेता है। कंचुक प्रपंच
के द्वारा भौतिक आवरणों का त्याग यहां योगी को आवश्यक बतलाया है।
४३. नैसर्गिकः प्राणसम्बन्धः
यद्यपि शिवत्वमनुभवति तथापि
पाञ्चभौतिकशरीरेण सम्बन्धयुक्त
एव भवति यतस्तस्य प्राणसम्बन्धस्य
स्वाभाविकत्वात् ॥ ४३ ॥
यद्यपि भूत सम्बन्ध त्याग से योगी
को शिवत्व की प्राप्ति हो जाती है। तथापि पांच भौतिक मायामय शरीर से सम्बन्ध रहने
के कारण प्राण सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से बना रहता है।
४४.
नासिकान्तर्मध्यसंयमात्किमत्रसव्यापस त्यसौषुम्णेषु
नासिकान्तर्वर्तिन्याः
प्राणशक्तेश्चन्द्रसूर्य सुषुम्णात्मिकायाः
संयमादेकीकरणात् परायां संविदि
विमर्श सततरता आन्तर
मध्यं प्रधानमन्तरतमं विमर्शरूपं
संयच्छन्तो ये महात्मानो
विद्यन्ते तेषां कृते किमवशिष्यते न
किमपीत्यर्थः ॥ ४४ ॥
नासिका के मध्य संचार करने वाली
प्राण शक्ति के जो चन्द्र-सूर्य तत्त्वात्मक है, उसके सुषुम्ना मार्ग में (कुण्डलिनीरूप) संयमन करने से परासंविद् (
आत्मज्ञान ) प्राप्ति में निरन्तर ध्याननिष्ठ योगिजनों को अन्तःकरण के अन्त:- मध्य
तथा प्रधान तत्त्वों का प्रतिबोध हो जाता है, अर्थात् वे
ब्रह्मज्ञानी पद प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे महान् आत्माओं को सर्वज्ञता स्वयं सुलभ
हो जाती है।
४५. भूयः स्यात् प्रतिमीलनम्
ते योगिनो जीवन्मुक्ता अहरहः
परमानन्दमेवास्वादयन्ति
चैतन्यात्मरूपोम्मी- लनरूपं तेषां
भवतीति ॥४५॥
पूर्वोक्त ब्रह्मसाक्षात्कार
प्राप्त योगीजन जीवन्मुक्तावस्था को प्राप्तकर प्रति- दिन परमानन्द का आनन्दोपभोग
करते हुए नित्य चैतन्य स्वरूप हो जाते हैं।
इति श्रीशिवसूत्राणां आणवोपाय
प्रकाशननामक स्तृतीय उन्मेषः समाप्तः ।
इति शिवसूत्र: समाप्त ॥
शिव सूत्र
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