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कर्मकाण्ड

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तोटकाष्टक

तोटकाष्टक

त्रोटकाष्टक अथवा तोटकाष्टक एक गुरु स्तुति है। जिसे तोटकाचार्य जी ने अपने गुरु आदि शंकराचार्यजी की प्रशंसा और सम्मान में रचना किया है । 

तोटकाचार्य की कथा

आदि शंकराचार्य जी के चार मुख्य शिष्य थे, जिन्हें आगे जाकर आदि शंकराचार्यजी ने चार पीठों की व्यवस्था सौंपी । उनमें से एक थे तोटकाचार्य । तोटकाचार्य जी ने उत्तर भारत के ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य जब शृंगेरी में थे, तब उनकी भेंट एक बालक से हुई। बालक का नाम गिरी था। शंकराचार्यजी ने उसे अपना शिष्य स्वीकार लिया।

गिरी बडा श्रमी था और अन्य शिष्यों की भाँति अपना पूरा समय ग्रंथपठन में नहीं लगाता था। उसका अधिकांश समय सद्गुरू शंकराचार्य जी की काया, वाचा, मन से सेवा करने में ही व्यतीत होता था। इसी कारण अन्य शिष्य उसे शास्त्राभ्यास में बहुत कच्चा मानते थे । वह उनके लिए एक हँसी का पात्र बना रहता था।

एक दिन जब गिरी, आदि शंकराचार्यजी के वस्त्र नदी में धो रहा था, उसी समय आदि शंकराचार्यजी ने मठ में अद्वैत वेदान्त की कक्षा आरंभ की। परंतु गिरी को वहाँ न देख आदि शंकराचार्य उसकी प्रतिक्षा करने लगे । तब एक शिष्य ने कहाँ, कि आचार्य गिरी को सिखाना तो किसी दिवार को सिखाने जितना निरर्थक है।

शंकराचार्यजी समझ गए की अन्य शिष्यों का अहं व भ्रम दूर करने का यहीं समय है । आचार्य ने मन के द्वारा ही गिरी को शास्त्रों का समस्त ज्ञान दे दिया । वहाँ नदीतट पर गिरी को ज्ञानप्राप्ती से आत्मिक आनंद की अनुभूती हुई । वह उसी भाव में तल्लीनता की अवस्था में अपने श्रीगुरू के समक्ष चले आये। सद्गुरू के प्रत्यक्ष सहज कृतार्थ भाव से उन्होंने तोटकाष्टक इस गुरूस्तुती की मन में रचना कर उसका गायन किया ।

पूरे समय गुरुसेवा में रत रहने वाले गिरी के मुख से शास्त्रों का ज्ञान सुन बाकी शिष्य हतप्रद और शर्मसार हुए । तोटक वृत्त में सर्वोत्तम रचना करने के कारण आचार्यजी ने उनका नाम तोटकाचार्य रखा।

शंकरदेशिकाष्टकम् अथवा तोटकाष्टकम् अथवा त्रोटकाष्टकम्

शंकरदेशिकाष्टकम् अथवा तोटकाष्टकम् अथवा त्रोटकाष्टकम्

विदिताखिलशास्त्रसुधाजलधे

महितोपनिषत् कथितार्थनिधे ।

हृदये कलये विमलं चरणं

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥१॥

हे पवित्रशास्त्र रूपी सागर के पारखी, महान उपनिषदिक खजाने के प्रदर्शक, आपके निर्दोष चरणों में मैं अपने हृदय से ध्यान करता हूँ, हे गुरु, शंकर, मुझे शरण दीजिये ।

करुणावरुणालय पालय मां

भवसागरदुःखविदूनहृदम् ।

रचयाखिलदर्शनतत्त्वविदं

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ २॥

हे करुणा के सागर, मुझे भवसागर से बचा लो, जिसका हृदय इस मृत्यु लोक पर जन्म के दुख से तड़प रहा है, मुझे दर्शनशास्त्र के सभी तत्वों की सच्चाइयों को समझाओ, हे गुरु, शंकर! मुझे अपनी शरण दीजिये।

भवता जनता सुहिता भविता

निजबोधविचारण चारुमते ।

कलयेश्वरजीवविवेकविदं

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ३॥

आपने सम्पूर्ण जगत को खुश किया है, हे महान बुद्धि वाले, आत्म-ज्ञान की खोज में कुशल! मुझे ईश्वर और आत्मा से संबंधित ज्ञान को समझने दो, हे गुरु, शंकर! मुझे अपनी शरण दीजिये।

भव एव भवानिति मे नितरां

समजायत चेतसि कौतुकिता ।

मम वारय मोहमहाजलधिं

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ४॥

यह जानकर कि आप वास्तव में जगद्गुरु हैं, मेरे हृदय में अपार आनंद उत्पन्न होता है। मोह के विशाल महासागर से मेरी रक्षा करो। हे गुरु शंकर! मुझे अपनी शरण में लीजिये।

सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो

भविता समदर्शनलालसता ।

अतिदीनमिमं परिपालय मा

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ५॥

आपके माध्यम से एकता में अंतर्दृष्टि की कामना तभी जन्म लेगी, जब पुण्य कर्म बहुतायत में और विभिन्न दिशाओं में किए जाएंगे। इस अत्यंत असहाय व्यक्ति की रक्षा करें। हे गुरु, शंकर! मुझे अपनी शरण दीजिये।

जगतीमवितुं कलिताकृतयो

विचरन्ति महामहसश्छलतः ।

अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ६॥

विश्व को बचाने के लिए महान व्यक्ति विभिन्न रूप धारण करते हैं और अनेकों भेष बनाकर घूमते हैं। हे शिक्षक! आप उनमें से भी सूर्य के समान चमकते है। अतः हे गुरु, शंकर! आप मेरा आश्रय बने ।

गुरुपुंगव पुंगवकेतन ते

समतामयतां नहि कोऽपि सुधीः ।

शरणागतवत्सल तत्त्वनिधे

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ७॥

हे श्रेष्ठ गुरु! हे सर्वोच्च गुरु आपके पास वृषध्वज है, कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपके समान नहीं है,  हे शरणागत वत्सल! हे सत्यरूपी निधी! हे गुरु, शंकर! मुझे अपनी शरण दीजिये।

विदिता न मया विशदैककला

न च किंचन काञ्चनमस्ति गुरो ।

द्रुतमेव विधेहि कृपां सहजां

भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ८॥

मैं अल्पज्ञानी ज्ञान की एक शाखा भी नहीं समझ नहीं पाता हूँ, मुझ निर्धन के पास सम्पति भी नहीं है अर्थात मैं  धन और ज्ञान दोनों रूपों से निर्धन हूँ, अतः हे गुरुदेव मुझे अपनी ममतामयी छाया में आश्रय दीजिये, हे गुरु, शंकर! मुझे अपनी शरण दीजिये।

इति: तोटकाचार्यकृत तोटकाष्टकम्॥

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