recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

कुलामृत स्तोत्र

कुलामृत स्तोत्र

प्राचीन काल में देवर्षि नारद के पूछने पर वृषभध्वज शिव ने श्रीविष्णु के इस कुलामृत स्तोत्र का वर्णन किया था। जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक नित्य इस स्तुति का पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्म में किये गये पाप नष्ट हो जाते हैं। महादेव के द्वारा कही गयी यह स्तुति बड़ी दिव्य है जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक इस स्तुति का नित्य पाठ करता है, वह अमृतत्त्व अर्थात् परम वैष्णव पद को प्राप्त कर लेता है। हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान करने से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, वह एकाग्रचित होकर विष्णु का क्षणमात्र ध्यान करने से प्राप्त होनेवाले फल के सोलहवें भाग की भी समानता करने में समर्थ नहीं है।

कुलामृत स्तोत्र

कुलामृतस्तोत्रम् 

Kulamrit Stotram

नारद उवाच ।

यः संकारे सदा द्वन्द्वैः कामक्रोधैः शुभाशुभैः ।

शब्दादिविषयैर्बद्धः पीड्यमानः स दुर्मतिः ॥ १ ॥

क्षणं विमुच्यते जन्तुर्मृत्युसंसारसागरात् ।

भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तो हि त्रिपुरान्तक ॥ २ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य त्रिलोचनः ।

उवाच तमृषिं शम्भुः प्रसन्नवदनो हरः ॥ ३ ॥

नारदजी ने कहा- हे त्रिपुरान्तक भगवन्! जो दुर्मतिपूर्ण मनुष्य संसार में काम-क्रोध और शुभाशुभ द्वन्द्वों से तथा शब्दादि विषयों से बँधकर सदा से पीड़ित हो रहे हैं, उनकी जन्म-मृत्युरूपी संसार सागर से जिस उपाय द्वारा क्षणमात्र में विमुक्ति हो जाय, उसको हम आपसे सुनना चाहते हैं।

महेश्वर उवाच ।

ज्ञानामृतं परं गुह्यं रहस्यमृषिसत्तम ।

वक्ष्यामि शृणु दुः खघ्नं भवबन्धभयामहम् ॥ ४ ॥

तृणादि चतुरास्यान्तं भूतग्रामं चतुर्विधम् ।

चराचरं जगत्सर्वं प्रसुप्तं यस्य मायया ॥ ५ ॥

तस्य विष्णो प्रिसादेन यदि कश्चित्प्रबुध्यते ।

स निस्तरति संसारं देवानामपि दुस्तरम् ॥ ६ ॥

भोगैश्वर्यमदोन्मत्तस्ततत्त्वज्ञानपराङ्मुखः ।

पुत्रदारकुटुम्बेषु मत्ताः सीदन्तिजन्तवः ॥ ७ ॥

सर्व एकार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव ।

यस्त्वाननं निबध्नाति दुर्मतिः कोशकारवत् ॥ ८ ॥

तस्य मुक्तिं न पश्यामि जन्मकोटिशतैरपि ।

तस्मान्नारद सर्वेषां देवानां देवमव्ययम् ।

आराधयेत्सदा सम्यगध्यायेद्विष्णुं मुदान्वितः ॥ ९ ॥

इस पर भगवान् शंकर बोले-हे ऋषिश्रेष्ठ! भव- बन्धन को नष्ट करनेवाले और दुःख का विनाश करनेवाले परम गोपनीय रहस्य को मैं कहता हूँ सुनो-तिनके से लेकर ब्रह्मा तक चार प्रकार की चराचर सृष्टि इस जगत्में जिन प्रभु की माया से अज्ञान के वशीभूत होकर सदैव सोती रहती है, उन विष्णु की कृपा से यदि कोई जग जाता है तो वही संसार से पार होता है। यह संसार देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुस्तर है। भोग और ऐश्वर्य के मद में उन्मत्त तथा तत्त्वज्ञान से पराङ्मुख, स्त्री, पुत्र और कुटुम्बियों के व्यामोह में भ्रमित होकर सभी प्राणी नाना प्रकार के दुःख झेलते हैं। इस व्यामोह में फँसे हुए सभी जीवों की वैसी ही गति होती है, जैसी गति समुद्र में स्नान करने के लिये आये हुए वृद्ध जंगली हाथियों की होती है जो मनुष्य हरि कीर्तन करने के समय अपने मुख को बंद रखता है अर्थात् हरिकीर्तन से पराङ्मुख रहता है, वह कोश में स्थित कीड़े के समान होता है उसकी मुक्ति तो करोड़ों जन्म लेने पर भी सम्भव नहीं है। अतः हे नारद! प्रसन्न चित्त होकर सदैव देवदेवेश अव्यय भगवान् विष्णु की प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् आराधना करनी चाहिये।

कुलामृत स्तोत्रम्

यस्तु विश्वमनाद्यन्तमजमात्मनि संस्थितम् ।

सर्वज्ञमचलं विष्णुं सदा ध्यायेत्समुच्यते ॥ १ ॥

जो विश्वरूप, अनादि, अनन्त, अजन्मा तथा हृदय में स्थित, अविचल, सर्वज्ञ भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करता है, वह मुक्त हो जाता है।

देवं गर्भोचितं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ।

अशिरीरं विधातारं सर्वज्ञानमनोरतिम् ।

अचलं सर्वगं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ २ ॥

शरीररहित, विधाता, सर्वज्ञानसम्पन्न, मन के रमण के अनन्य आश्रय, अचल, सर्वत्र व्याप्त भगवान् विष्णु का सदा ध्यान करनेवाला मुक्त हो जाता है।

निर्विकल्पं निराभासं निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।

वासुदेवं गुरुं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ३ ॥

निर्विकल्प (निर्विशेष), निराभास, निष्प्रपञ्च तथा निर्दोष, वासुदेव, परम गुरु भगवान् विष्णु का ध्यान करने से मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।

सर्वात्मकञ्च वै यावदात्मचैतन्यरूपकम् ।

शुभमेकाक्षरं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ४ ॥

सर्वात्मक एवं प्राणिमात्र के ज्ञान के एकमात्र प्रतिनिधि, शुभ, एकाक्षर (एक अक्षर '' मात्र से बोध्य ) विष्णु का  ध्यान करने से मुक्ति हो जाती है।

वाक्यातीतं त्रिकालज्ञं विश्वेशं लोकसाक्षिणम् ।

सर्वस्मादुत्तमं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ५ ॥

वाक्यातीत (किसी भी वाक्य से अवर्णनीय), तीनों कालों को जाननेवाले, लोकसाक्षी, विश्वेश्वर तथा सभी से श्रेष्ठ विष्णु का सदा ध्यान करने से मुक्ति हो जाती है।

ब्रह्मादिदेवगन्धर्वैर्मुनिभिः सिद्धचारणैः ।

योगिभिः सेवितं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ६ ॥

ब्रह्मा आदि देव, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, चारण एवं योगियों के द्वारा सदा सेवित श्रीविष्णु का ध्यान करने से मुक्ति प्राप्त होती है।

संसारबन्धनामुक्तिमिच्छंल्लोको ह्यशेषतः ।

स्तुत्वैवं वरदं विष्णुं सदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ७ ॥

संसार-बन्धन से मुक्ति चाहनेवाले सभी लोगों को वरद श्रीविष्णु की इसी प्रकार सदा स्तुति करनी चाहिये।

संसारबन्धनात्कोऽपि मुक्तिमिच्छन्समाहितः ।

अनन्तमव्ययं देवं विष्णं विश्वप्रतिष्ठितम् ।

विश्वेश्वरमजं विष्णुं संदा ध्यायन्विमुच्यते ॥ ८ ॥

यदि कोई भी संसार- बन्धन से मुक्ति चाहता है तो उसे समाहितचित्त होकर अनन्त, अव्यय, देवाधिदेव, अनन्त ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च देव के रूप में सुप्रतिष्ठित, समस्त जगत्‌ के नियन्ता, अज श्रीविष्णु का सदा ध्यान करना चाहिये।

इति श्रीगारुडे महापुराणे कुलामृतस्तोत्रं सम्पूर्ण: ॥

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]