Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2023
(355)
-
▼
January
(28)
- नागदमनी कल्प
- रुद्रयामल तंत्र पटल ३०
- कालिपावन स्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २९
- ब्रह्मदेव स्तोत्र
- उच्चटा कल्प
- नृसिंह स्तुति
- ब्रह्मा स्तुति
- अपराजिता कल्प
- लक्ष्मी चरित्र
- भुवनेश्वरी कवच
- मायातन्त्र पटल ११
- मृत्युञ्जय स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल १०
- गायत्री कवच
- मायातन्त्र पटल ९
- नृसिंह स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ८
- कुलामृत स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ७
- मृत्य्ष्टक स्तोत्र
- श्राद्ध सम्बन्धी शब्दावली
- भीष्म स्तवराज
- योनि कवच
- मायातन्त्र पटल ६
- योनि स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ५
- योनि स्तवराज
-
▼
January
(28)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
मायातन्त्र पटल ८
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ८ में विश्वसारोक्त कुलपूजा विधान से
जप आदि के द्वारा वाक्पतित्व लाभ बताया है। अर्थात् उक्त कुलपूजा विधान से मनुष्य
वाणी का स्वामी बन जाता है। अर्थात् वह बहुत ही अच्छा वक्ता वन जाता है। इस प्रसंग
में अनेकों प्रयोगों का वर्णन किया है।
मायातन्त्रम् अष्टमः पटलः
माया तन्त्र पटल ८
Maya tantra patal 8
मायातन्त्र आठवां पटल
अथाष्टमः पटलः
श्रीदेवी उवाच
कथितः परेशान! मन्त्रयन्त्रस्त्वनेकधा
।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि साधनं
परमेश्वर ! ॥
पुरविधिं देव! कथयस्वानुकम्पया ॥ 1 ॥
श्रीदेवी पार्वती ने शंकर जी से
कहा कि परमेशान ! महादेव! आपने इस समय मुझे अनेक प्रकार के मन्त्र-यन्त्र बताये
हैं। अब मैं हे परमेश्वर ! अब साधन सुनना चाहती हूँ। अतः हे देव! मुझे कृपया
सिद्धि करने की प्रक्रिया बताने की कृपा करें॥
श्रीमहादेव उवाच
गोपितं सर्वतन्त्रेषु विश्वसारे
प्रकाशितम् ।
तत्रैव गुह्यं यद् यत् ते कथयामि
शृणुष्व तत् ॥2 ॥
श्री महादेव ने
कहा कि हे देवि ! विश्वसार में प्रकाशित सब तन्त्रों में गोपित जो गूढ़ तत्त्व हैं,
उसे में तुम्हें कह रहा हूँ, उसे तुम सुनो।।2।।
पृथिवीमृतुमतीं वीक्ष्य सहस्त्रं
यदि नित्यशः ।
जपेदेकाग्रमनसा कुलपूजारतः सुधीः॥3॥
आषोडशदिनं यावद् वाक्पतिर्भवति
ध्रुवम् ।
शंकर जी ने कहा
कि हे देवि ! यदि सुबुद्धि रखने वाला साधक पृथ्वी को मरणशील मानकर
एकाग्रचित्त होकर जप करे तो सोलह दिन में ही वाक्पति हो सकता है। वाक्पति अर्थात्
वाणी का स्वामी । उसके मुख से जो भी वाणी निकल जायेगी,
वह सत्य होकर रहेगी। 3 ॥
मधुपानरतो रात्रौ चन्द्रबिम्बं
प्रचक्ष्य च ॥4॥
पुनः पुनः साधकाग्रयो भवेत् कविवरः
क्षणात् ।
शंकर जी ने कहा
कि हे पार्वति ! यदि मदिरापान किया हुआ कोई साधक रात्रि में चन्द्र बिम्ब को देखकर
पुनः पुनः साधना करे तो क्षण भर में श्रेष्ठ कवि हो जाना चाहिए। 14 ॥
मर्दयन् गिरियुगं देव! तत आलिङ्ग्य
यत्नतः॥5॥
एवमष्टोत्तरशतं कृत्वा धनपतिर्भवेत्
।
आगे बताते हैं कि पार्वति ! यदि
साधक कुलपूजा में उपस्थित सुन्दरी के दोनों स्तनों का मर्दन करता हुआ यत्नपूर्वक
आलिङ्गन करे तथा ऐसा यदि 108 बार करे तो धनपति
(कुबेर) अर्थात् अथाह दौलतवाला हो जाना चाहिए।।5।।
कुण्डगोलोद्भवं पुष्पं समादाय
प्रयत्नतः ॥ 6 ॥
निवेदयेन्महादेव्यै प्रसीदेति
क्रमाचरेत् ।
शताभिमन्त्रितं कृत्वा होमयेदखिलं
जगत् ॥ 7 ॥
क्रोधे कालमयो नित्यं दाने वासववत्
प्रिये ।
बृहस्पतिसमो वक्ता कामवत् कामिनीषु
च ॥ 8 ॥
किमन्यैर्बहुधालापैः स शिवो नात्र
संशयः ।
हे देवि! यदि कोई साधक कुलपूजा क्रम
में कुण्डगोल से उत्पन्न हुए पुष्प को लेकर अर्थात् स्त्री की योनि से निकलने वाले
रज को लेकर महादेवी को निवेदन करे कि हे महादेवी प्रसन्न हो जाओ। इस प्रकार यह सब
क्रम से करे, उसके बाद 100 बार उसको अभिमन्त्रित कर उस रज का होम करे तो वह समस्त संसार में क्रोध
में नित्यकाल के समान और दान में इन्द्र के समान हो जाना चाहिए तथा वह वृहस्पति के
समान वक्ता और कामनियों में कामदेव के समान हो जाना चाहिए। बहुत बोलने से क्या
देवि ! वह साधक शिव ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥6-8॥
कुलपूजाविधियुतो ध्यात्वा च
परमेश्वरीम् ॥9 ॥
अयुतं यदि जप्त्चैवं कुमारीं
भोजयेत् ततः ।
गुरवे दक्षिणां दद्याद् भवेत्
सर्वजनप्रियः ॥10॥
शंकर जी कहते हैं कि हे देवि !
कुलपूजा विधियुक्त साधक परमेश्वरी का ध्यान करके इसी प्रकार अर्थात् सम्भोगरत रहते
हुए अयुत (10000) बार जप करे और उसके बाद
कुमारी को भोजन कराये, उसके बाद गुरु को दक्षिणा दे तो वह
सभी लोगों का प्रिय हो जाना चाहिये ॥9-10॥
विशेष-
यहाँ यह कौलाचार का वर्णन है, जो सबको
ग्राह्य नहीं है।
प्रतिपद्दिनमारभ्य जपेत्
प्रतिपदन्तरम् ।
सहस्त्रं प्रत्यहं हुत्वा जप्त्वा च
परमं मनुम् ॥11॥
शक्त्याऽनुज्ञां गृहीत्वा च रिपून्
हत्यान्न संशयः ।
प्रतिपदा (एकम) के दिन से आरम्भ
करके प्रतिपद (एकम) के दिन तक एक हजार बार हवन करके और परममनु का जप करके शक्ति की
अनुमति लेकर शत्रु को मार सकता है, इसमे
कोई सन्देह नहीं है ।।11।।
प्रातः प्रातः पिबेत्
तोयमष्टोत्तरशतं जपेत् ॥12 ॥
अनेन मूको दुष्टात्मा जडः पाषाणवत्
तथा ।
अनेन जपपानेन साक्षाद्
वाक्पतिसन्निभः॥13॥
जायते नात्र सन्देहः सत्यं सत्यं न
संशयः ।
प्रातः काल ही जल पिये और 108 बार जप करे तो उससे मूक (गूंगा), दुष्ट आत्मा तथा पत्थर के समान जड़ व्यक्ति साक्षात् वाक्पति (वृहस्पति) के
समान हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥12-13॥
लक्षं जप्त्वा ततो ध्यात्वा
त्रैलोक्यवशकारिणीम् ॥14॥
शत्रुतो न भयं तस्य राजतो
दस्युतोऽपि वा ।
न तस्य विद्यते भीतिः कदाचिदपि
सुव्रते ॥15 ॥
वश्या भवन्ति सर्वेऽपि देवतापि च
शङ्करि ! ।
तीनों लोकों को वश में करने वाली
देवी का एक लाख बार जाप कर उसके बाद ध्यान करने वाले को व्यक्ति न शत्रु से भय
रहता है,
न राजा से रहता है और न चोर से भय रहता है तथा हे शङ्करि ! सभी
देवता भी उसके वश में हो जाते हैं ॥14-15॥
ध्यात्वा हृतपद्ममध्ये यो दुर्गा
त्रैलोक्यमोहिनीम् ॥16॥
जपेदयुतसाहस्त्रं वृष्टिमाप्नोत्यसंशयः
।
हृदय कमल के मध्य में तीनों लोकों
को मोहित करने वाली दुर्गा का ध्यान करके जो अयुत (10000)
हजार जप करे तो वह निःसन्देह वर्षा को प्राप्त करता है अर्थात्
वर्षा हो जाती है ।।16।।
मालती-मल्लिका-जाती-कुसुमैर्मधुमिश्रितैः
॥17॥
धृतैस्तु हवनाद् देवि ! वागीशत्वं
प्रजायते ।
मूकस्यापीह मूढस्य शिलारूपस्य
नान्यथा ॥ 18॥
मालती मल्लिका जाति के फूलों से मधु
मिश्रित घृत से हवन करने से मूढ तथा पत्थर तुल्य मनुष्य में वागीशत्व पैदा हो जाता
है अर्थात् उसमें उच्चतम वक्तृत्वकला आ जाती है ॥17-18॥
जपापुष्पैराज्ययुक्तैः
करवीरैस्तथाविधैः।
हवनान्मोहयेन्मन्त्री लोकत्रयनिवासिनः॥19॥
घी के साथ जपा (जवासे) के फूलों से
और घी से युक्त करवीर (करौंदा) के फूलों से
हवन करने से मन्त्री तीनों लोक के निवासियों को मोह ले सकता है ।।19।
विशेष
- करवीर कनेर को भी कहा जाता है।
कर्पूरं कुङ्कुमं देवि मिश्रं
मृगमदेन हि ।
हवनान्मदनो देवि! मन्त्रिणा विजितो
भवेत् ॥20॥
शङ्कर जी ने
कहा कि हे देवि ! कपूर, कुङ्कुम और कस्तूरी
से हवन करने से मन्त्री द्वारा कामदेव भी जीत लिया जाना चाहिए ॥20॥
सौभाग्येन विकासेन सामर्थ्येनापि
सुव्रते ! ।
चम्पकैः पाटलैर्हुत्वा श्रियं
प्राप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ 21 ॥
प्राप्नोति मन्त्री महतीं
स्तम्भयेज्जगतीमिमाम् ।
श्रीखण्डं गुग्गुलं चन्द्रमगुरुं
होमयेत् ततः ॥ 22 ॥
नागेन्द्रासुरदेवानां
पुरन्ध्रीर्वशमानयेत् ।
सर्वलोकवशास्तस्य भवत्येव न संशयः ॥23॥
शंकर जी ने
कहा कि हे सुन्दर व्रत वाली पार्वति ! सौभाग्य से, विलास से और अपने सामर्थ्य से चम्पक के तथा पाटल (गुलाब) के फूलों से हवन
करके मनुष्य अत्यन्त उत्तम लक्ष्मी ( धन-दौलत ) को प्राप्त करता है और उस
मन्त्र का जाप करने वाले द्वारा इस विशाल भूमण्डल को स्तम्भित कर देना चाहिए।
अर्थात् वह भूमण्डल को स्तम्भित कर सकता है। श्रीखण्ड (मिश्री) गुग्गुल, चन्द्र (कपूर) अगरु से यदि होम करे तो वह तीनों लोक, नागेन्द्र, असुर, देवताओं और
पुरन्ध्री (इन्द्र) को वश में करे अर्थात् उसके वश में सब लोक हो जाते हैं,
इसमें कोई सन्देह नही है ॥21-23॥
लक्षहोमाल्लभेद्राज्यं
दरिद्रभयपीडितः ।
दुर्गोपशमनं देवि ! पलत्रिमधुहोमतः
॥24 ॥
शंकर भगवान् कहते हैं कि हे देवि !
गरीबी आने के भय से पीड़ित व्यक्ति यदि एक लाख बार हवन करे तो वह राज्य प्राप्त
करे अथवा राजा होगा तथा हे देवि! पलत्रि और मधु से हवन करने से दुर्गा मां
की शान्ति होती॥24॥
विशेष
- पलत्रि शब्द कोश में नहीं है; परन्तु पल
शब्द का अर्थ मांस तब पलत्रि का अर्थ होगा- तीन मांस। अतः अर्थ होगा कि तीन प्रकार
के मांस और मधु (मदिरा)।
रुधिराक्तेन छागस्य मांसेन निशि
होमतः ।
मधुरत्रययुक्तेन गुरुणोक्तविधानतः ॥25 ॥
परराष्ट्रं महादुर्गं समस्तं स्मरणं
भवेत् ।
बकरे के रुधिराक्त मांस और मधुर इन
तीनों होम करने से द्वारा रात्रि में गुरु द्वारा बताये गये तरीके से दूसरे देश के
समस्त महादुर्ग का स्मरण होवे । अर्थात् ऐसा मनुष्य दूसरे देश के दुर्ग को भी जीत
सकता है ॥25॥
गोक्षीरं मदुदध्याज्यं पृथग् हुत्वा
वरानने ॥26॥
आयुर्धनं महारोग्यं समृद्धिर्जायते
नृणाम् ।
गाय के दूध,
दही और घी से अलग-अलग होम करके सुमुखि पार्वति ! मनुष्यों को आयु,
धन महान् आरोग्य और समृद्धि हो जाती है ॥26॥
क्रमेणाब्जेन गोक्षीरमधुभ्यां
मूलनाशनम् ॥27॥
दधिमाक्षिकहोमेन
सौभाग्यधनमाप्नुयात् ।
शीतया केवलं होमो वैरिस्तम्भनकारकः
॥28॥
होम दधिमधुक्षीरलाजैश्च वीरवन्दिते
।
रोगहन्ता कालहन्ता मृत्युहन्ता न
संशयः ॥29॥
कमलैर्वरुणैर्होमः सम्यक्
सम्पत्तिकारक; ।
रक्तोत्पलं जगद्वश्यं राजानश्च वशाः
क्षणात् ॥ 30 ॥
नीलोत्पलैर्महादुष्टा वशमायान्ति
नान्यथा ।
श्वेतोत्पलैः प्रियं राज्यं लभते
हवनात् प्रिये ॥31॥
क्रमशः कमल से तथा गाय के दूध से और
मधु से हवन करने से मूलनाशन होता है। दही और माक्षिक (मधु) द्वारा होम करने से
सौभाग्य और धन प्राप्त करे। केवल शीत (कपूर) द्वारा होम करने से शत्रु का स्तम्भन
हो जाता है। दही, मधु, खीर और खीलों से किया गया होम रोग को नष्ट करने वाला, बुरे समय को नष्ट करने वाला और मृत्यु का नाश करने वाला होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। कमल और वरुणों से किया गया होम सम्पत्ति कारक
होता है। लाल कमल से किया गया हवन संसार को वश में करने वाला होता है और इससे
क्षणभर में राजा वश में हो जाते हैं। नील कमलों से हवन करने से महान् दुष्ट लोग वश
में हो जाते हैं। इसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है तथा हे प्रिये! श्वेत कमलों से हवन
करने से मनचाहा राज्य मिलता है ।।27-31।
विशेष-शीत,
कपूर, दालचीनी, नीलवृक्ष
और जल को भी कहा जाता है।
अक्षमालां प्रपूज्याथ चन्दनेन
प्रपूजिताम् ।
समाश्रित्य जपेद् विद्यां
लक्षमात्रं सदा प्रिये ॥32॥
योधितो भ्रामयत्येव मनस्तस्य
सुनिश्चितम् ।
तदा द्वितीयलक्षं तु जपेत्
साधकसत्तमः ॥33॥
पातालतलनागेन्द्रकन्यकाः क्षोभयन्ति
तम् ।
तासां कटाक्षजालैस्तु सम्मोहयन्ति
साधकंम् ॥34॥
शंकर भगवान् ने कहा कि हे पार्वति !
रुद्राक्ष की माला से भलीभांति पूजा करके चन्दन से अच्छी तरह पूजित विद्या का
सहारा लेकर एक लाख बार जप करे तो युद्ध करता हुआ व्यक्ति अपने शत्रु के मन को
भ्रमित कर देता है, जिससे शत्रु पराजित
हो जाता है तथा जब दो लाख बार जप करे तो श्रेष्ठ साधक पाताल, पृथ्वीतल तथा नागेन्द्र कन्यायें उसको चाहने लगती हैं, वे अपनी तिरछी निगाहों से साधक को सम्मोहित कर लेती हैं ॥32-34॥
तदा लक्षत्रयं जप्यात् साधकः
स्थिरमानसः ।
तृतीयलक्षे संजप्ते भ्रामयन्ति
पुराङ्गनाः ॥35॥
अतिमानेन सौन्दर्यसौभाग्यमतकारिणा ।
साधको भ्रामयत्येव तत्रासौ
स्थिरमानसः ॥36॥
तदा लक्षत्रयं साधु
सर्वपापनिकृन्तनम् ।
एवं लक्षत्रये जप्ते साधकः
स्थिरमानसः ॥37॥
सम्मोहयन्ति स्वर्लोकं
भूर्लोकतलवासिनः ।
पुरुषा योषितो वश्याश्चराचरजनाः
प्रिये ॥38 ॥
ऐसा तब होता है,
जब कि 3 लाख बार यदि स्थिर मन से साधक जप करे
तो 3 लाख बार जप करने पर पुराङ्गना ( नगर की स्त्रियां)
भ्रमित हो जाती हैं। अर्थात् पुराङ्गना उस पर मोहित हो जाती हैं। उस समय वहाँ
स्थिर चित्तवाला साधक 3 लाख बार जप करता है। इस प्रकार 3 लाख बार जप करने पर स्थिर मन वाला साधक भूलोक, स्वर्गलोक
और पाताल के वासियों को भी सम्मोहित कर लेता है और तब इन लोकों के पुरुष और
स्त्रियां वश में हो जाती है और चेतन और जड़ तथा मनुष्य भी वशीभूत हो जाते हैं ॥35-38॥
गोरोचनादिद्रव्यैश्च चक्रराजं
समालिखेत् ।
वन्द्यां वसुन्धरां रम्यां तन्मध्ये
प्रतिमां पराम् ॥39॥
ज्वलन्तीं नामसहितां
महाबीजविदर्भिताम् ।
चिन्तयेत् तु ततो देवीं योजनानां
सहस्रतः ॥40॥
शंकर भगवान् ने कहा कि हे प्रिये! गोरोचन
आदि द्रव्यों से यदि कोई साधक श्रीचक्र को वन्दनीय रम्य पृथ्वी पर लिखे,
उसके मध्य में परा प्रतिमा स्थापित करे, वह
प्रतिमा जलती हुई नामबीज के सहित तथा महावीज मन्त्र से युक्त होनी चाहिए। उसके बाद
दुर्गा देवी का सहस्त्रों योजन से चिन्तन करे ॥39-40॥
या दृष्टपूर्वा देवेशि क्रमशोऽत्र
सुदुर्लभा ।
राजकन्याऽथवा भार्या
भयलज्जाविवर्जिता ॥41॥
आयाति साधकं सम्यग् मन्त्रमूढा सती
प्रिये ।
चक्रमध्यगतो भूयः साधकश्चिन्तयेत्
सदा ॥ 42 ॥
शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! जिसको
पहले से देखा हो, जिसको क्रमशः यहाँ
आना बहुत ही दुर्लभ हो अर्थात् जो नहीं आ सकती है, वह चाहे
राजकन्या हो अथवा अपनी पत्नी हो तथा भय और लज्जा रहित हो, वह
मन्त्र से मोहित होकर साधक के पास चली आयेगी । उसको श्रीचक्र के मध्य रखकर साधक को
सदा चिन्तन करना चाहिए ॥41-42॥
उद्यत्सूर्यसहस्राभमात्मानमरुणं तथा
।
साध्यमप्यरुणीभूतं चिन्तयेत्
परेश्वरि ! ॥43 ॥
शंकर जी ने कहा कि हे परमेश्वरि !
उस समय निकलते हुए सूर्य की आभा के समान अपने को अरुण हुए साध्य का सदा
चिन्तन करना चाहिए अर्थात् साधक को साधना काल में स्वयं को और साध्य देवी को
उदयकालीन आभा के समान कल्पित कर चिन्तन करना चाहिये ॥43॥
अनेन क्रमयोगेन स्वयं
कन्दर्परूपभाक् ।
सर्वसौभाग्यसुभगः सर्वलोकवशङ्करः ॥44॥
इस प्रकार क्रमशः करने पर मनुष्य
(साधक) स्वयं कामदेव के समान आभा वाला, सब
प्रकार से सौभाग्यशाली और सब लोकों को वश में करने वाला हो जाता है ॥44॥
सर्वरक्तोपचारैश्च मुद्रासहितविग्रहः
।
चक्रं संपूजयेद् यो हि यस्य नाम
विदर्भितम् ॥ 45 ॥
स भवेद् वासवो देवि ! धनाढ्यो वापि
भूपतिः ।
इदं गुह्यं महेशानि! यदुक्तं तव
सन्निधौ ।
न कस्मैचित् प्रवक्तव्यं प्राणे
संशयमागते ॥46 ॥
मुद्रा सहित शरीर वाला जो मनुष्य
सभी लाल रंग के पुष्प आदि साधनों से चक्र की सम्यक् प्रकार से पूजा करे और जिसका
नाम विदर्भित हो गया है, वह हे देवि! इन्द्र
होना चाहिए या बहुत धनाढ्य होना चाहिए अथवा राजा होना चाहिए। अतः हे महेशानि! यह
अत्यन्त गुप्त रहस्य है, जिसको मैंने तुम्हारे सामने कहा है
। अत: इसे प्राण संकट आने पर भी किसी को नहीं कहना चाहिए ॥45-46॥.
विशेष-
विदर्भित का आशय यहाँ यह है कि जिसका नाम मिट गया हो।
।। इतिश्री मायातन्त्रे अष्टमः पटलः
।।
।।इस प्रकार श्री मायातन्त्र में
आठवां पटल समाप्त हुआ ।।
आगे पढ़ें ............ मायातन्त्र पटल 9
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: