श्राद्ध सम्बन्धी शब्दावली
श्राद्धादि पितृकर्म की पद्धतियाँ
प्रायः संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध हैं, जिसके
कारण सामान्य जनों का इससे अनभिज्ञ रहना भी स्वाभाविक है। श्राद्ध की क्रियाएँ
इतनी सूक्ष्म हैं कि इन्हें सम्पन्न करने में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता है।
इसके लिये इससे सम्बन्धित बातों की जानकारी होना भी परम आवश्यक है। इस दृष्टि से
श्राद्ध से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली लिखी जा रही हैं जो सभी के लिये उपादेय
हैं।
श्राद्धसम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली
[ अकारादि क्रम से ]
१-अक्षय्योदकदान-
श्राद्धान्त में अक्षयतृप्ति के लिये दिया जानेवाला अन्न-जलादि का दान ।
२--अग्न्युत्तारण- अवघातादि
दोषनिवारण के लिये किया जानेवाला प्रतिमा का संस्कार।
३-अग्नौकरण- अन्नपरिवेषण के
पूर्व जल में दी जानेवाली दो आहुतियाँ।
४- अर्घदान- पूजा के अंगरूप में
जल प्रदान करना ।
५- अर्घसंयोजन— पितरों के अर्घों का परस्पर मेलन ।
६- अनुकल्प- विकल्प ।
७- अन्तर्जानु – हाथों को घुटने के
भीतर करना ।
८- अपकर्षण- आगे होनेवाले कृत्यों को
पहले ही कर लेना।
९- अपराह्ण – दिन में १ बजकर १२
मिनट से ३ बजकर ३६ मिनट तक का समय ।
१०- अपसव्य- जनेऊ तथा उपवस्त्र को
दाहिने कन्धे पर डालकर बायें हाथ के नीचे कर लेना ।
११- अवगाहन- श्राद्ध में परोसे हुए
अन्न आदि का अंगूठे से स्पर्श करना।
१२- अवनेजन- श्राद्ध में पिण्डस्थान
को पवित्र करने के लिये पितृतीर्थ से वेदी पर दिया जानेवाला जल ।
१३- अहोरात्र- एक सूर्योदयसे लेकर
दूसरे सूर्योदयतकका समय ।
१४ - आभ्युदयिक श्राद्ध - विवाह आदि
मांगलिक अवसरों पर प्रारम्भ में किया जानेवाला श्राद्ध । यह वृद्धिश्राद्ध या
नान्दीश्राद्ध भी कहलाता है।
१५- आमान्न- कच्चा अन्न
(अनग्निपाकान्न) ।
१६- आलोडन- जल को घुमाना ( हिलाना)
।
१७- उत्तमषोडशी – सपिण्डन के पूर्व
तथा एक वर्षपर्यन्त दिये जानेवाले ऊनमासिकादि सोलह पिण्ड ।
१८- उत्तरापोशन- नैवेद्य-अर्पण के
उपरान्त आचमन के लिये जल प्रदान करना ।
१९- उदकालम्भन- जलस्पर्श ।
२०- उद्यापन- व्रत आदि सत्कर्मो की
सम्पन्नता के लिये किया जानेवाला पूजा अनुष्ठान ।
२१- एकतन्त्र- एकजातीय अनेक
क्रियाओं का एक साथ सम्पादन ।
२२-एकोदिष्ट- पिता आदि केवल एक
व्यक्ति के उद्देश्य से किया जानेवाला श्राद्ध यह विश्वेदेवरहित होता है। इसमें
आवाहन तथा अग्नौकरण की क्रिया नहीं होती । एक पिण्ड, एक अर्घ तथा एक पवित्रक होता है।
२३- और्ध्वदेहिक कर्म- देहान्त के
बाद सद्गति के लिये किये जानेवाले कर्म ।
२४-करोद्वर्तन- पूजा में
नैवेद्य-अर्पण के बाद दोनों हाथों की अनामिका अंगुष्ठ से चन्दन का समर्पण।
२५- कर्मपात्र- पात्र में मन्त्र द्वारा
जल को संस्कारितकर पूजायोग्य बनाना ।
२६-कव्य- पितरों के उद्देश्य से
दिया जानेवाला द्रव्य ।
२७-काम्य-किसी कामना की पूर्ति के
उद्देश्य से किया जानेवाला कर्म ।
२८- कुम्भक (प्राणायाम ) - श्वास
रोकना।
२९- कुतप- दिनमान में कुल १५
मुहूर्त होते हैं उनमें से कुतप आठवाँ मुहूर्त है। कु—
कुत्सित (पाप)+तप (संतप्त ) – पाप को संतप्त
करने के कारण यह समय कुतप कहलाता है। (दिन में ११ बजकर ३६ मिनट से १२ बजकर २४ मिनट
तक का समय), खड्गपात्र (गैंडे के सींग से बना पात्र),
नेपाली कम्बल, चाँदी, कुश,
तिल, जौ और दौहित्र (कन्या का पुत्र)— ये आठों कुतप कहलाते हैं।
३०- कुशकण्डिका- हवन से पूर्व वेदी
आदि का किया जानेवाला कुशास्तरण आदि संस्कार ।
३१- कुशवटु- पार्वण आदि श्राद्धों
में पितृ ब्राह्मण के प्रतिनिधि के रूप में आसन पर रखने के लिये ग्रन्थि लगा हुआ
कुशत्रय ।
३२- कुशास्तरण - वेदी पर आवरण के
रूप में कुश बिछाना ।
३३- गजच्छायायोग- जब हस्त नक्षत्र पर
सूर्य हो और मघायुक्त त्रयोदशी हो तो ऐसे योग को वैवस्वती या गजकुंजर गजच्छायायोग
कहते हैं। इसमें श्राद्ध करने का विशेष फल होता है ।
३४- गोपुच्छोदक- गाय की पूँछ के
माध्यम से तर्पण आदि में दिया जानेवाला जल ।
३५ घटी-२४ मिनट का समय। इसी को नाडी
अथवा दण्ड भी कहते हैं।
३६ - चन्दनदान —पितरों को सदैव तर्जनी से ही चन्दन देना चाहिये।
३७- जान्वाच्य- बायाँ घुटना मोड़कर
बैठना ।
३८-तर्पण- शास्त्रोक्त विधि से
देवता,
ऋषि तथा पितरों को जल प्रदान करना ।
३९- तिलतोयपूर्ण पात्र — तिल से युक्त जलभरा पात्र ।
४० - तिलतोयांजलि – मृत्यु के
उपरान्त प्राणी के निमित्त अंजलि द्वारा तिल सहित जल प्रदान करना ।
४१- दशोपचार—
पाद्य, अर्घ, आचमन,
स्नान, वस्त्र, गन्ध,
पुष्प, धूप, दीप और
नैवेद्य ।
४२-दर्श— अमावास्या ।
४३- दुर्मरण- शास्त्रविधि से विपरीत
अवस्था में मृत्यु ।
४४-देवतीर्थ- अँगुलियों के आगे का
भाग दैवतीर्थ या देवतीर्थ कहलाता है। यह देवकार्य के लिये प्रशस्त है।
४५-दौहित्र– पुत्री का पुत्र, खड्गपात्र गैंडे के सींग से बना
पात्र तथा कपिला गाय का घी ।
४६- नन्दातिथि- प्रतिपदा,
षष्ठी तथा एकादशी- ये तिथियाँ नन्दा कहलाती हैं।
४७-नारायणबलि—
शास्त्रोक्त विधि से मृत्यु न होने पर दुर्गति से बचने के लिये किया
जानेवाला प्रायश्चित्त- अनुष्ठान ।
४८ - नित्यकर्म- अवश्य करणीय कर्म ।
४९ - निष्क्रय- किसी वस्तु के मूल्य
के रूप में दिया जानेवाला द्रव्य ।
५०-निवीती (माल्यवत् ) –
जनेऊ को गले में माला की तरह कर लेना ।
५१- नीवीबन्धन- श्राद्ध में रक्षा के
लिये तिल,
कुशत्रय को पत्ते में रखकर श्राद्धकर्ता द्वारा कटि में बाँधना।
५२ - न्युब्जीकरण—श्राद्ध में अर्घपात्र को उलटा (अधोमुख) रखना।
५३- पंचकशान्ति- धनिष्ठार्ध,
शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद
तथा रेवती – इन पाँच नक्षत्रों में मृत्यु और दाह से
होनेवाले अनिष्ट की शान्ति के लिये किया जानेवाला अनुष्ठान।
५४- पंच-भूसंस्कार—
भूमि का प्रोक्षण आदि पाँच प्रकार का संस्कार ।
५५-पंचोपचार— गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य ।
५६ - पवित्री— कुशा से बनायी हुई विशेष प्रकार की अँगूठी जो अनामिका में धारण की जाती
है।
५७ - पवित्रक- अर्घपात्र में
स्थापित किया जानेवाला ग्रन्थि लगा हुआ कुशपत्र ।
५८- परिवेषण- पित्रादिकों के लिये
भोजन परोसना ।
५९-पातितवामजानु—
बायें घुटने को टिकाकर जमीन में लगाकर बैठना ।
६० - पात्रालम्भन- श्राद्ध में
अन्नपरिवेषण के अनन्तर किया जानेवाला अन्नपात्र का स्पर्श ।
६१- पात्रासादन – कृत्य के पूर्व
पात्रों को यथास्थान रखना ।
६२-पाद्य- पूजन में पाद- प्रक्षालन के
लिये प्रतीक रूप में दिया जानेवाला जल ।
६३ - पितृतीर्थ- अँगूठे और
प्रदेशिनी (तर्जनी) अँगुली के बीच का स्थान पितृतीर्थ कहा जाता है। पितरों के
उद्देश्य से द्रव्यत्याग इसी पितृतीर्थ से किया जाता है।
६४- पूरक- श्वास खींचना।
६५- प्रत्यवनेजन—
पिण्डदान के अनन्तर पितृतीर्थ से पोषणार्थ पिण्ड पर दिया जानेवाला
जल ।
६६ - प्राजापत्यतीर्थ— कनिष्ठिका अँगुलीमूल के पास का स्थान प्राजापत्यतीर्थ या कायतीर्थ कहा
जाता है, ऋषि तर्पण में इसका प्रयोग होता है।
६७- प्रोक्षण- जल द्वारा पवित्र
करना ।
६८- ब्राह्मतीर्थ- हाथ के
अंगुष्ठमूल के पास के भाग को ब्राह्मतीर्थ कहा जाता है ।
६९ - भूस्वामी- श्राद्धभूमि के
अधिष्ठातृदेव ।
७० - मध्यमषोडशी – एकादशाह के दिन
विष्णु आदि देवताओं तथा प्रेत के निमित्त किये जानेवाले सोलह पिण्डदान ।
७१- मध्याह्न- दिन में १० बजकर ४८
मिनट से १ बजकर १२ मिनट तक का समय ।
७२ - मन्वादि तिथि - चौदह मन्वन्तरों
के प्रारम्भ की तिथियाँ ।
७३- मलिनषोडशी- मृत्यु के उपरान्त
दस दिनों के अंदर अशौचकाल में दिये जानेवाले सोलह पिण्ड (मृतस्थान से लेकर
अस्थिसंचयन तक के छः पिण्ड तथा दशगात्र के शिर:पूरकादि दस पिण्ड ) ।
७४-महालय- भाद्रपद शुक्लपक्ष
पूर्णिमा से आरम्भ होकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावास्या – तक का काल (अपरपक्ष -
पितृपक्ष ) ।
७५ - महैकोद्दिष्ट श्राद्ध- एकादशाह
के दिन किया जानेवाला आद्यश्राद्ध ।
७६-मार्जन- जल का छींटा देकर पवित्र
करना ।
७७-मोटक- पितृकार्य में प्रयुक्त
होनेवाला दोहरा बँटा हुआ कुशविशेष (द्विगुणभुग्नकुशत्रय) ।
७८- यज्ञपात्र - प्रणीता,
प्रोक्षणी, स्रुवा आदि हवन के पात्रविशेष,
पूर्णपात्र (ब्रह्मा को देने का पात्र), चरुस्थाली
(चरु पकाने का पात्र), आज्यस्थाली-हवन के लिये घृत रखने का
पात्र ।
७९-युगादि तिथि— सत्य आदि चारों युगों के आरम्भ की तिथियाँ ।
८० - रेचक (प्राणायाम ) - श्वास
छोड़ना ।
८१- रौहिण- दिन का नौवाँ मुहूर्त
(दिन में १२ बजकर २४ मिनट से ४८ मिनट तक का समय अर्थात् १ बजकर १२ मिनट तक का
समय)।
८२- लेपभागभुक् पितर- तीन पीढ़ी से
पूर्व के पितर ।
८३- वपन - क्षौरकर्म (मुण्डन)।
८४- वरण- यजमान के प्रतिनिधि के रूप
में कार्य करने के लिये ब्राह्मणों का शास्त्रीय विधि से मनोनयन ।
८५ - विकिरदान- जिनकी जलने से
मृत्यु हो गयी हो अथवा जिनका दाह-संस्कार नहीं हुआ हो,
उनके निमित्त श्राद्ध में दिया जानेवाला अन्न ।
८६ - वृषोत्सर्ग- मृत प्राणी की
सद्गति के निमित्त एकादशाह के श्राद्ध में विशिष्ट विधि से बछियासहित वृषभ (साँड़)
छोड़ना ।
८७- वैधृतियोग- एक योगविशेष।
८८ - व्यतीपातयोग- सत्ताईस योगों में
एक योगविशेष ।
८९ - षोडशोपचार- पाद्य,
अर्घ, आचमन, स्नान,
वस्त्र, आभूषण, गन्ध,
पुष्प, धूप, दीप,
नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल,
स्तवपाठ, तर्पण और नमस्कार ।
९० - संक्रान्ति- सूर्य का एक राशि से
दूसरी राशि में संक्रमण (प्रवेश) करना ।
९१- संगव- प्रातःकाल के अनन्तर तीन
मुहूर्त तक – दिन में ८ बजकर २४ मिनट से २ घंटा २४ मिनट अर्थात् दिन में १० बजकर
४८ मिनट से पूर्व का काल संगव कहलाता है।
९२- सपिण्ड- स्वयं से लेकर पूर्व की
सात पीढ़ी तक के पूर्वपुरुष ।
९३-सोदक–
पूर्व की आठवीं पीढ़ी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के पूर्वपुरुष ।
९४-सगोत्र— पूर्व की पंद्रहवीं पीढ़ी से लेकर इक्कीसवीं पीढ़ी तक के पूर्वपुरुष ।
९५ - सव्य (उपवीती ) —
जनेऊ को बायें कन्धे पर डालकर दाहिने हाथ के नीचे कर लेना ।
९६-सपिण्डीकरण— मृतप्राणी को पितरों की पंक्ति में सम्मिलित करने हेतु विशेष प्रकार की
पिण्डदान की प्रक्रिया।
९७-समिधा- हवन के लिये यज्ञीय काष्ठ
(आम,
पलाश, पीपल आदि की लकड़ी) ।
९८ - सांगतासिद्धि- कर्म के सभी
अंगों की पूर्णता के लिये किया जानेवाला संकल्प।
९९-सिद्धान्न- अग्नि पर पकाया गया
अन्न ।
१०० - स्वस्त्ययन- स्वस्तिवाचन ।
१०१ - हव्य- देवतोद्देश्यक द्रव्य ।
श्राद्ध सम्बन्धी शब्दावली समाप्त ।
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