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कर्मकाण्ड

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मायातन्त्र पटल ५

मायातन्त्र पटल ५  

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ५ में दुर्गा के नाम के फल को बतलाया गया है।

मायातन्त्र पटल ५

मायातन्त्रम् पञ्चमः पटलः

माया तन्त्र पटल ५  

Maya tantra patal 5

मायातन्त्र पांचवां पटल

अथ पञ्चमः पटलः

श्रीदेवी उवाच

कथयेशान सर्वज्ञ दुर्गानामफलं प्रभो ।

श्रुतं किञ्चिन्मया पूर्व यदुक्तं सुरसंसदि ॥ 1 ॥

अब श्रीदेवी पार्वती ने भगवान् शंकर से कहा कि ईशान! हे सब कुछ जानने वाले प्रभो! अब मुझे दुर्गा के नाम के फल को बताइये। इसका कुछ फल मैंने पहले देवों की सभा में सुना था। कृपया संसार के कल्याण के लिए फिर बताइये ॥ 1 ॥

श्रीईश्वर उवाच

शृणु प्रिये प्रवक्ष्यामि गुह्याद् गुह्यतरं महत् ।

यदुक्तं ब्रह्मणा पूर्वं सदेवासुरसङ्गरे।। 2 ।।

भगवान् शंकर ने कहा कि हे प्रिये ! जिसको पहले देवासुर संग्राम के समय ब्रह्मा जी ने कहा था, उस गुप्त से गुप्त महान् दुर्गा नाम के फल को तुम्हें बताऊंगा, ध्यान देकर के सुनो।।2।।

धन्यं यशस्यमायुष्यं प्रजापुष्टिविवर्द्धनम् ।

सहस्रनामाभिस्तुल्यं दुर्गानामवरानने ॥3॥

इस दुर्गा नाम के जाप से धन, यश और आयु की प्राप्ति होती है तथा इस नाम से सन्तान की पुष्टि का वर्धन होता है अर्थात् सन्तान हृष्ट-पुष्ट होती है। अतः सुन्दर मुख वाली पार्वति ! यह दुर्गा नाम हजारों नामों के समान है॥3 ॥

महापदि महादुर्गे आयुषो नाशमागते ।

जातिध्वंसे कुलोच्छेदे महानिगडबन्धने ॥4॥

व्याधिशरीरसम्पाते दुश्चिकित्सामयेऽपि वा ।

शत्रुभिः समनुप्राप्ते बन्धुभिस्त्यक्तसौहृदे ॥ 5 ॥

जपेद् दुर्गायुतं नाम ततस्तस्मात् प्रमुच्यते ।

महान् आपत्ति में, महा कठिनाइयों में तथा आयु का नाश उपस्थित हो जाने पर अर्थात् मृत्यु के समय में, जातियों का नाश होने में, कुल का नाश होने में और महानिगड के बन्धन में अर्थात् महाजाल में फंसने पर, कठिनाई से चिकित्सा होने वाले शरीर में, रोग पैदा हो जाने में, शत्रुओं द्वारा घेर लिए जाने पर, भाई बन्धुओं द्वारा प्रेम के छोड़ने में, दुर्गायुक्त नाम का जाप करना चाहिए। अतः वह नाम उपर्युक्त सभी प्रकार के दुःखों से प्रमुक्त कर देता है ॥4 - 6

दुर्गेति मङ्गलं नाम यस्य चेतसि वर्तते ॥6॥

स मुक्तो देवि संसारात् स नम्यः सुरकैरपि ।

दुर्गेति द्वयक्षरं मन्त्रं जपतो नास्ति पातकम् ॥7॥

दुर्गा इस प्रकार का मङ्गल नाम जिसके चित्त में वर्तमान है हे देवि ! वह संसार सागर से मुक्त हो जाता है और देवों द्वारा भी नम्य हो जाता है। दुर्गा यह दो अक्षर वाला मन्त्र जपने से मनुष्य का कोई पाप नही रहता अर्थात् उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं॥6 - 7

कार्यारम्भे स्मरेद् यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः ।

दुर्गेति नाम जप्तव्यं कोटिमात्रं सुरेश्वरि ॥8॥

किसी भी कार्य के प्रारम्भ में जो दुर्गा देवी का नाम स्मरण करे, उसकी सिद्धि शीघ्र हो जाती है अर्थात् दूर नहीं होती। अतः हे देवस्वामिनि पार्वति ! दुर्गा इस नाम को करोड़ों बार जपना चाहिए ॥ 8 ॥

तत्तद्दशांशतो हुत्वा तर्पयित्वा तदंशतः ।

अभिषिव्य च विप्रेन्द्रान् भोजयित्वा दशांशतः ॥9॥

उसका दशवां भाग अर्थात् दश लाख बार हवन करना चाहिए और उसको भी दशांश अर्थात् एक लाख बार तर्पण करना चाहिए। उसका दशवां भाग अर्थात् दश हजार बार ब्राह्मणों का अभिषेक कर उन्हें भोजन कराना चाहिए ॥ 9 ॥

असाध्यं साधयेद् देवि ! साधको नात्र संशयः ।

होमाद्यशक्तो देवेशि ! द्विगुणं जपमाचरेत् ॥10॥

शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! पार्वति ! दुर्गा का नाम लेने से साधक असाध्य कार्य को भी सिद्ध कर लेता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है तथा हे देवेश ! यदि कोई व्यक्ति जप हवन ब्राह्मण भोजन तर्पण नहीं कर सके तो उसे दूना अर्थात् दो करोड़ बार दुर्गा के नाम का जप करना चाहिए । यहाँ पर यह साधन ऐसे व्यक्ति के लिए बताया है, जो गरीब है, हवन ब्राह्मण भोज नहीं करा सकता, उसे दो करोड़ बार दुर्गा नाम का जप करना चाहिए। अतः जो फल जप, हवन, ब्रह्मभोज से होगा; वही फल दो करोड़ नाम जपने से होगा ।।10।।

अथवा ब्राह्मणान्तं च साधकानां च भोजनात् ।

व्यङ्गं साङ्गं भवेत् सर्वं नात्र कार्या विचारणा ॥11॥

अथवा अन्त में ब्राह्मणों और साधकों को भोजन कराने से सब व्यंग और सांग होना चाहिए। इसमें विचार नहीं करना चाहिए ।।11।।

एतत्कल्पसमा देवि नाश्वमेधादयः परे ।

दुर्गानामजपात् तुल्यं नान्यदस्ति कलौ भुवि ॥12॥

भगवान् शंकर ने कहा कि हे देवि ! यह कल्प के समान है। इससे बढ़कर अश्वमेध आदि यज्ञ भी नहीं है तथा हे देवि ! इस पृथ्वी पर कलियुग में दुर्गा के नाम को जपने के समान अन्य कोई जप तप साधन नही है।।12।।

शरत्काले तु दुर्गायाः पुरतो जपमाचरेत् ।

अगणया च चन्द्रादिग्रहणे जपमाचरेत् ॥13॥

शरत्काल (जाड़े के दिनों) में दुर्गा का पुरतः (प्रात: काल ) जप करना चाहिए और बिना गिनती किए हुए सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय जप करना चाहिए ।।13 ।।

विशेष :- अन्य पाण्डुलिपियों में कुछ अधिक पाठ है। जैसे कि

किमन्यैः कर्म विस्तारैः कथितं तेऽद्रिसम्भवे ।

सर्वान्कामानवाप्नोति यद्यदिष्टतमं भुवि ।।

रवीन्द्रोर्ग्रहणे देवि पुरश्चरणमाचरेत् ।

सूर्येन्दुपर्वसदृशः कालोनास्ति महीतले ।।

यदि वा लभ्यते देवि बहुभिः पुण्यसंचयैचः ।

यहाँ पर शंकर जी पार्वती जी से कहते है कि हे देवि ! पर्वतपुत्री पार्वति! मैं अन्य कर्म विस्तार से क्या कहूँ । दुर्गा के जप से मानव संसार में जो अच्छी से अच्छी कामनायें हैं, उन सभी को प्राप्त करता है। अतः हे देवि ! सूर्य और चन्द्रग्रहण के समय जब तक ग्रहण रहे तब तक दुर्गा नाम का जप करना चाहिए। अतः हे देवि! सूर्य-चन्द्रग्रहण के समान कोई भी अच्छा इस भूतल पर समय नहीं है। यह समय बड़े ही पुण्यों के संचय से प्राप्त होता है। अतः जो व्यक्ति इस समय के महत्त्व को समझकर इस काल में जप करे तो समझो उसके अनेको पुण्य हैं, जिनके कारण वह ऐसा कर रहा है।

गणनं स्नानदानादौ न जपे परमेश्वरि ।

रवीन्द्वोर्ग्रहणे पृथ्व्यां जपतुल्या न च क्रिया ॥14॥

तस्मात् सर्वं परित्यज्य जपमात्रं समाचरेत् ।

तेनैव सर्वसिद्धिः स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥15॥

शंकर जी ने कहा कि हे परमेश्वरि ! स्नान दान आदि में और जप में गणना नहीं होनी चाहिए। अतः सूर्य-चन्द्रग्रहण के समय में जप करने के समान अन्य कोई क्रिया नहीं है। इसलिए सूर्य-चन्द्रग्रहण के समय सब कुछ छोड़कर के दुर्गा के नाम का जप करना चहिए। उसी से सब प्रकार की सिद्धि हो जाती है। इस कार्य में विचार नहीं करना चाहिए अर्थात् इस कार्य को बिना विचार किये ही करना चाहिए ।।14-15।।

उपरागो यदाकाशे तदा देवीं प्रकाशते ।

सुषुम्णान्तस्तथैवासौ दृश्यते नगनन्दिनि ।।16 ।।

अब भगवान् शंकर बताते हैं कि जिस समय सूर्य अथवा चन्द्रमा पर ग्रहण पड़ता है, उस समय आकाश में जो उपराग अर्थात् एक दिव्य प्रकार का प्रकाश होता है, उस समय दुर्गा (प्रकृति) देवी प्रकाशित होती है। अत: उस समय हे पर्वतपुत्रि ! सुषुम्णा के अन्तर्गत वह दुर्गा दिखाई देती है ।।16।।

मनस्तत्रैव संन्यस्य ध्यात्वा तत् परमाद्भुतम् ।

जपेदेकाग्रमनसा नाकाशमवलोकयेत् ॥17॥

उस समय हे देवि! मन को वहीं सुषुम्णा नाड़ी में अच्छी तरह स्थित करके उस परम अद्भुत दुर्गा का ध्यान करके एकाग्र मन से जप करना चाहिए और उस समय आकाश को नहीं देखना चाहिए ॥17॥

विदधीत जपं तावन्मुक्तिर्यावद् भवेत् तयोः ।

ततः स्नात्वा च होमादि ग्रहणान्ते समाचरेत् ॥ 18 ॥

और फिर उस समय तक जप करना चाहिए, जिस समय सूर्य अथवा चन्द्रमा की मुक्ति न हो जाये । अर्थात् जब राहु सूर्यग्रहण में सूर्य को और चन्द्रग्रहण में चन्द्रमा को मुक्त न कर दे; क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि राहु जब सूर्य अथवा चन्द्रमा को ग्रहण करते हैं, तभी सूर्य अथवा चन्द्रमा का ग्रहण होता है, यह पौराणिक धारणा है। जो भी हो, यह एक गूढ़ रहस्य है। अतः जब ग्रहण समाप्त हो जाये, तब ग्रहण के अन्त में स्नान करके होम आदि करना चाहिए ॥18॥

साधकान् भोजयेद् विप्रान् मिष्ठान्नैर्बहुविस्तरैः।

युवतीः कुलकन्याश्च शिवाः सम्भोजयेच्छिवे ॥ 19 ॥

ग्रहण के बाद स्नान करके होमादि करना चाहिए और फिर उसके बाद साधकों और ब्राह्मणों को बहुत अधिक मिष्ठान्नों के साथ भोजन कराना चाहिए तथा हे पार्वति! युवतियों, कुल कन्याओं और साधुओं को भोजन कराना चाहिए ।।19 ॥

ततस्तु दक्षिणां दद्याद् विभवस्यानुसारतः ।

गुरुभ्यस्तदभावे तु साधकेभ्यः प्रदापयेत् ॥20॥

उसके बाद अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरुओं को तथा गुरु न हों तो साधकों को दक्षिणा देनी चाहिए ॥ 20॥

एवं सिद्धमनुर्मन्त्री साधयेत् सकलेप्सितान् ।

एतत्ते कथितं देवि ! रहस्यं परमाद्भुतम् ॥21॥

इस प्रकार मन्त्र का जाप करने वाला सिद्ध मनुष्य समस्त इच्छित वस्तुओं को सिद्ध कर लेता है। इस प्रकार हे देवि ! पार्वति ! मैंने यह तुम्हें परम आश्चर्य जनक रहस्य कहा है ।। 21।।

नैतत् त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च ।

शिवाभक्ताय दुष्टाय द्वेष्टे चैव विशेषतः ॥ 22 ॥

अशुश्रूषवेऽभक्तायंदुर्विनीताय दीयताम् ।

इति ते कथितं गुह्यं किमन्यत् श्रोतुमिच्छसि ॥23॥

हे देवि! तुम इस परम अद्भुत रहस्य को घमण्डी, नास्तिक, दुष्ट, शिव का भक्त न हो उसको, दुष्ट पुरुष को और जो सबसे वैर रखता हो उसको, जो सुनने की इच्छा न रखता हो, उसको और जो किसी का भक्त न हो, उसको कभी मत बताना। इस प्रकार हे देवि । मैंने यह गुह्य तथ्य कहा है, अब और क्या सुनना चाहती हो? ।।22-23।।

॥ इति श्री माया तन्त्रे पञ्चमः पटलः ।।

।। इस प्रकार मायातन्त्र में पांचवां पटल समाप्त ।।

आगे पढ़ें ............ मायातन्त्र पटल 6 

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