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दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र
ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड के ६६ वें अध्याय में श्रीनारायण,नारदजी को यह दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र सुनाते हैं, जो सम्पूर्ण विघ्नों के नाश करने वाला है। इसके फलश्रुति में श्रीकृष्ण कृत इस देवी स्तुति या स्तोत्र के लाभ को बतलाया गया है।
दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र
॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी
। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका ॥
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो
निर्गुणा स्वयम् । परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ॥
तेजःस्वरूपा परमा
भक्तानुग्रहविग्रहा । सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा ॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या
निराश्रया । सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला ॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च
सर्वशक्तिस्वरूपिणी । सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी ॥
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने
स्वधा स्वयम् । दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ॥
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा
त्वं चात्मनः प्रिया । क्षुत्क्षान्तिः शान्तिरीशा च कान्तिः सृष्टिश्च शास्वती ॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा
शोभा दया तथा । सतां सम्पत्स्वरूपा च विपत्तिरसतामिह ॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां
कलहाङ्कुरा । शश्वत्कर्ममयी शक्तिः सर्वदा सर्वजीविनाम् ॥
देवेभ्यः स्वपदोदात्री धातुर्धात्री
कृपामयी । हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी ॥
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च
योगिनाम् । सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धयोगिनी ॥
ब्रह्माणी माहेश्वरी च विष्णुमाया च
वैष्णवी । भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयङ्करी ॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी
गृहे गृहे । सतां कीर्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा ॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी
। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी ॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च
ब्रह्मादीनां च सर्वदा । ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम् ॥
विद्या विद्यावतां त्वं च
बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम् । मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम् ॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी
। सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने ॥
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य
विश्वपूजिते । कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी ॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया
सम्मोहितं जगत् । यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति ॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया
दुर्गनाशनम् । पूजाकाले पठेद्यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्छिता ॥
दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र भावार्थ सहित
॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी
। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका ॥
(श्रीब्रह्मवैवर्ते,
प्रकृतिखण्ड 66। 7-26) श्रीकृष्ण
बोले– देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति
ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टि कार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी
बनी हुई हो।
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो
निर्गुणा स्वयम् । परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ॥
कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो।
वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या,
सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो।
तेजःस्वरूपा परमा
भक्तानुग्रहविग्रहा । सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा ॥
परमा तेजःस्वरूपा हो। भक्तों पर
कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा,
सर्वेशा, सर्वाधारा, परात्परा।
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या
निराश्रया । सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला ॥
सर्वबीजस्वरूपा,
सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा,
सर्वतोभद्रा (सब ओर से मंगलमयी), सर्वमंगलमंगला।
सर्वबुद्धिस्वरूपा च
सर्वशक्तिस्वरूपिणी । सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी ॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा,
सर्वशक्तिस्वरूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी,
सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो।
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने
स्वधा स्वयम् । दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ॥
देवताओं के लिये हविष्य दान करने के
निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये
श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब
प्रकार के दान यज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्तियाँ तुम्हारा ही स्वरूप हैं।
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा
त्वं चात्मनः प्रिया । क्षुत्क्षान्तिः शान्तिरीशा च कान्तिः सृष्टिश्च शास्वती ॥
तुम निद्रा,
दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी,
कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो।
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा
शोभा दया तथा । सतां सम्पत्स्वरूपा च विपत्तिरसतामिह ॥
तुम्हीं श्रद्धा,
पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा,
शोभा और दया हो। सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में
विपत्ति भी तुम्हीं हो।
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां
कलहाङ्कुरा । शश्वत्कर्ममयी शक्तिः सर्वदा सर्वजीविनाम् ॥
तुम्हीं पुण्यवानों के लिये
प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अंकुर
हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो।
देवेभ्यः स्वपदोदात्री धातुर्धात्री
कृपामयी । हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी ॥
देवताओं को उनका पद प्रदान करने
वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा) का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं
हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो।
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च
योगिनाम् । सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धयोगिनी ॥
तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा
स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं
हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो।
ब्रह्माणी माहेश्वरी च विष्णुमाया च
वैष्णवी । भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयङ्करी ॥
ब्रह्माणी,
माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी
तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न
करती हो।
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी
गृहे गृहे । सतां कीर्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा ॥
गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर
में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों
की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है।
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी
। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी ॥
तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी
महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो।
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च
ब्रह्मादीनां च सर्वदा । ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम् ॥
ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा
तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की
है। ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो।
विद्या विद्यावतां त्वं च
बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम् । मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम् ॥
विद्वानों की विद्या,
बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और
स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है।
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां
वाणिज्यरूपिणी । सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने ॥
राजाओं का प्रताप और वैश्यों का
वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी,
पालनकाल में रक्षारूपिणी तुम्हीं हो।
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य
विश्वपूजिते । कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी ॥
संहारकाल में विश्व का विनाश करने
वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि,
महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो;
दुरत्यया मे माया त्वं यया
सम्मोहितं जगत् । यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति ॥
तुम मेरी दुर्लंघ्य माया हो,
जिसने सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान
पुरुष भी मोक्ष मार्ग को नहीं देख पाता।
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया
दुर्गनाशनम् । पूजाकाले पठेद्यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्छिता ॥
इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण किये
गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र का जो पूजा काल में पाठ करता है,
उसे मनोवांछित सिद्धि प्राप्त होती है।
दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र समाप्त।
दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र का महत्व
जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ़ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ़, महाभयंकर शूल और महान ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्नी के भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र को पढ़े तो निस्संदेह विद्वान और धनवान हो जाता है।
दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र समाप्त।
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