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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
दुर्गाभुवन वर्णन
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ५१ में दुर्गारहस्य में मन्त्रविद्या निरूपण तथा श्लोक १६ से ४३ में दुर्गाभुवन
वर्णन के विषय में बतलाया गया है।
दुर्गाभुवनवर्णनम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् एकपञ्चाशत्तमः
पटलः दुर्गारहस्यम्
Shri Devi Rahasya Patal 51
देवीरहस्य पटल ५१- दुर्गा भुवन वर्णन
अथैकपञ्चाशत्तमः पटलः
दुर्गारहस्यप्रस्तावः
श्रीशैलराजशिखरे नानाद्रुमसमाकुले ।
वसन्तलक्ष्मीनिलये समासीनमुमापतिम्
।।१।।
एकदा देवमीशानं शशिशेखरमीश्वरम् ।
उमाश्रितार्धवपुषं देवदानवसेवितम् ॥
२ ॥
ध्यानासक्ताक्षित्रितयं जटाजूटलतारुणम्
।
भस्माङ्गरागधवलं नारायणनमस्कृतम् ॥
३ ॥
ब्रह्मादिदेवप्रणतं गान्धर्वजनवन्दितम्
।
यक्षराक्षसनागेन्द्रनगेन्द्रकुलपूजितम्
॥ ४ ॥
दुर्गारहस्य प्रस्ताव - श्री शैलराज
का शिखर विविध वृक्षों से शोभित है। वह वसन्त ऋतु और लक्ष्मी का आवास है। उसी शिखर
पर उमापति शिव विराजमान हैं। एक समय देव ईशान, शशिशेखर,
ईश्वर उमा के साथ बैठे थे। देव-दानव सेवा में लगे थे। उनके तीनों
नेत्र ध्यान में उन्मीलित थे। मस्तक पर जटाजूट अरुण लतातुल्य था। भस्म के अङ्गराग
से शरीर श्वेत वर्ण का था। नारायण नमस्कार कर रहे थे। ब्रह्मादि देवता प्रणत थे।
गन्धर्वगण वन्दना कर रहे थे। यक्ष, राक्षस, नाग, नगेन्द्र सभी उनकी पूजा कर रहे थे ।। १-४ ।।
भैरवं भैरवाकारं गिरीशं परमेश्वरम्
।
उत्थाय विनता भूत्वा पर्यपृच्छत
पार्वती ॥५॥
भगवन् सर्वलोकेश सर्वलोकनमस्कृत ।
गुणातीत गुणाध्यक्ष भूतेश्वर महेश्वर
॥ ६ ॥
सृजत्यवति नित्यान्ते संहरत्यमितं
जगत् ।
चराचरं भवानेव किं पुनर्जपसि प्रभो
॥७॥
किं ध्यायसि महादेव सततं भक्तवत्सल
।
वद शीघ्रं दयाम्भोधे यद्यहं प्रेयसी
तव ॥८॥
आसन से उठकर प्रणाम करके भैरवाकार
भैरव गिरीश परमेश्वर से पार्वती ने पूछा- हे भगवन्! आप सभी लोकों के ईश्वर हैं।
सभी लोक आपको प्रणाम करते हैं। आप गुणातीत और गुणों के अध्यक्ष हैं। भूतों के
स्वामी महेश्वर हैं। आप जगत् की सृष्टि, स्थिति
और संहार करते हैं। चराचर जगत् की सृष्टि भी आप ही करते हैं तब आप किसका जप करते
हैं? हे भक्तवत्सल महादेव! आप किसका ध्यान करते हैं? दया के सागर यदि मैं आपको प्रिय हूँ तो यह मुझे शीघ्र बतलाइये।।५-८।।
श्रीभैरव उवाच
देवि किं ते प्रवक्ष्यामि
रहस्यमिदमद्भुतम् ।
सर्वस्वं सारभूतं मे सर्वेषां
तत्त्वमुत्तमम् ॥ ९ ॥
लक्षवारसहस्त्राणि वारितासि पुनः
पुनः ।
स्त्रीस्वभावान्महादेवि पुनस्त्वं
परिपृच्छसि ॥ १० ॥
अद्य भक्त्या तव स्नेहाद्वक्ष्यामि
परमाद्भुतम् ।
देवीरहस्यतन्त्राख्यं तन्त्रराजं महेश्वरि
।। ११ ।।
सर्वागमैकमुकुटं सर्वसारमयं ध्रुवम्
।
सर्वमन्त्रमयं दिव्यं
पटलैर्दशभिर्युतम् ॥१२॥
श्री भैरव ने कहा—
हे देवि! मैं कैसे कहूँ। वह अद्भुत रहस्य है, सर्वस्व
सारभूत है। सभी तत्त्वों में उत्तम है। लाखों बार मेरे मना करने पर भी स्त्रीस्वभाववश
फिर वही प्रश्न कर रही हो। लेकिन तुम्हारी भक्ति से विवश मैं परम अद्भुत
देवीरहस्यतन्त्र नामक तन्त्रराज का वर्णन करता हूँ। यह तन्त्र सभी आगमों का मुकुट
है। निश्चित ही यह सर्व सारमय, एवं सर्वमन्त्रमय है। यह
तन्त्रराज दिव्य दश पटलों में विभक्त है ।। ९-१२ ।।
अनुक्रमणिकां दिव्यां शृणु
तन्त्रस्य पार्वति ।
यस्याः श्रवणमात्रेण कोटिपूजाफलं
लभेत् ॥ १३ ॥
श्रीविद्यानिर्णयो देवि
मन्त्रसाधनकोऽपरः ।
शिवमन्त्रप्रकाशाख्यो
दीक्षाविधिरनुत्तमः ॥ १४ ॥
पुरश्चर्याविधिर्देवि पञ्चरत्नेश्वरीक्रमः
।
होमसाधनकश्चैव चक्रपूजाविधिः परः ।।
१५ ।।
आचारनिर्णयो देवि दशमो दशमीविधिः ।
हे देवी पार्वति! अब इस तन्त्र की
दिव्य अनुक्रमणिका का वर्णन सुनो; जिसके
श्रवणमात्र से ही करोड़ पूजा करने का फल प्राप्त हो जाता है। इन दश पटलों में पहले
में श्रीविद्या का निर्णय, दूसरे में मन्त्र-साधन, तीसरे में शिवमन्त्रप्रकाश, चौथे में उत्तम दीक्षा
की विधि, पाँचवें में पुरश्चरण विधि, छठे
में पञ्चरत्नेश्वरी क्रम, सातवें में हवन- विधान, आठवें में चक्रपूजनविधि, नवें में आचार निर्णय एवं
दसवें में दशमी विधि वर्णित है ।। १३-१५।।
अब आगे श्लोक १६ से ४३ में दुर्गाभुवन वर्णन है।
दुर्गाभुवन वर्णन
Durga bhuvan varnan
दुर्गाभुवननिर्णयः
तत्रादौ देवि वक्ष्येऽहं दुर्गा
भुवनमद्भुतम् ॥ १६ ॥
जयं नाम महादिव्यं
बहुविस्तारविस्तृतम् ।
नानारत्नसमाकीर्णं
सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥१७॥
इन्द्रगोपकवर्णं च चन्द्रकोटिमनोहरम्
।
अप्रमेयमसंख्येयमगम्यं सर्ववादिनाम्
॥ १८ ॥
इदं दिव्यं जयं नाम भुवनं परमेश्वरि
।
तत्रैव वसते दुर्गा नवरूपात्मिका
परा ॥ १९ ॥
या देवदेवी वरदा सर्वलोकैकसुन्दरी ।
या दुर्गेति स्मृता लोके
ब्रह्माण्डोदरवर्तिनी ॥ २० ॥
विष्णुना तपसा पूर्वमाराध्य
परमेश्वरीम् ।
महिषस्यासुरेन्द्रस्य
वधार्थायावतारिता ॥ २१ ॥
योगमाया महामाया सर्वदा परमेश्वरी ।
तामेवाहर्निशं ध्याये श्रीविद्यां
परमां जपे ॥ २२ ॥
दुर्गाभुवननिर्णय - सबसे पहले मैं
अद्भुत दुर्गाभुवन का वर्णन करता हूँ। हे परमेश्वरि! जय नामक दुर्गाभुवन महादिव्य
एवं बहुत विस्तार में विस्तृत है। भाँति-भाँति के रत्नों से समाकीर्ण करोड़ों
सूर्य की प्रभा से युक्त है। इन्द्रगोप वर्ण का यह भुवन करोड़ों चन्द्रमा से मनोहर
है। यह मापयोग्य नहीं है, गिनती करने लायक
नहीं है, सभी वादियों से अगम्य है। 'जय'
नामक यह भुवन दिव्य है। इसी भुवन में नव रूपात्मिका परा दुर्गा का
निवास है। यह देवदेवी वरदायिनी सभी लोकों की एकमात्र सुन्दरी है। इस
ब्रह्माण्डोदरवर्त्तिनी देवी को संसार में 'दुर्गा' कहते हैं। इस परमेश्वरी का आराधन विष्णु ने तप के द्वारा किया था।
दानवेन्द्र महिषासुर के वध के लिये इन्होंने अवतार ग्रहण किया था। दिन-रात मैं
इन्हीं योगमाया महामाया परमेश्वरी का ध्यान करता हूँ और इन्हीं की परमा विद्या का
जप करता हूँ ।। १७-२२ ।।
दुर्गागुप्तविद्यानिर्णयः
तामद्याहं प्रवक्ष्यामि
विद्याचरणदायिनीम् ।
यां श्रुत्वा स शिवो जातः
पञ्चनादात्मकः शिवः ॥ २३ ॥
यदाभूद्धरिहीना सा दुर्गा
निष्कलरूपिणी ।
साक्षाद्भुवनरूपापि महाज्योतिः
स्वरूपिणी ॥ २४ ॥
तदा शहककाले तु ज्योतीरूपो महेश्वरि
।
शिवः प्रभामण्डलतो निर्गतोऽचेतनो विभुः
॥ २५ ॥
अशृणोन्नादमाधारं जगतां बीजमुत्तमम्
।
अपि संस्मर मायां त्वं सृष्टोऽग्रमनुनायकः
॥ २६ ॥
इति श्रुत्वा परानादं
तारमित्यभिधीयते ।
शिवो जजाप सहसा बीजं त्रिजगतां शिवे
॥ २७ ॥
दुर्गा गुप्तविद्या निरूपण –
उस देवीचरण को प्राप्त कराने वाली विद्या का वर्णन आज मैं करता हूँ।
इसे सुनकर मनुष्य पञ्चनादात्मक शिवतुल्य हो जाता है। यद्यपि वह देवी साक्षात्
भुवनरूपा हैं, तथापि भुवनों से परे वह निष्कलरूपिणी
महाज्योतिस्वरूपा हैं। हे महेश्वरि ! सृष्टिकाल में ज्योतिरूप शिव के प्रभामण्डल
से चेतन विभु रूप में निर्गत हुई और शिव ने जगत् के आधार उत्तम नादबीज का श्रवण
किया। तब देवी ने कहा तुम अब ॐ का स्मरण करो। यह मन्त्रनायक है और यही पहले
बना है। तब शिव ने 'ॐ' नामक
परानाद को सुना। तीनों लोकों के बीज का जप किया ।। २३-२७।।
तेन मायेतिशब्दं स शुश्राव
गगनात्ततः ।
दुमं भज महेशान सदानन्दालयं परम् ॥
२८ ॥
बिन्दुनादमयो देवः शिवोऽभूत्
परमेश्वरः ।
ततो नादं स शुश्राव
दुष्टवर्णविवर्जितम् ॥ २९ ॥
दुर्गा भजेति स शिवः
पञ्चनादात्मकोऽभवत् ।
ततो जप्त्वा परां
विद्यामसृजज्जगदम्बिके ॥ ३० ॥
आदौ वायुं शिवः सृष्ट्वा ततः
सृष्टिर्यथेच्छया ।
इच्छामात्रं शिवे विश्वं
विश्वेश्वरि चराचरम् ॥३१ ॥
ससर्ज लवमात्रं स शितिकण्ठः शिवः
शिवे ।
उसी 'ॐ' से उत्पन्न 'ह्रीं' शब्द को आकाश से ध्वनित शिव ने श्रवण
किया। तब शिव ने श्रेष्ठ सदानन्द निलय 'दुं' का स्मरण किया। बिन्दु- नादमय इसके जप से शिव परमेश्वर हो गये। तब शिव ने
दुष्ट वर्णविवर्जित नाद का श्रवण किया। दुर्गा नाम के भजन से शिव पञ्चनादात्मक हो
गये। तब पराविद्या का जप करके जगत् की उन्होंने सृष्टि की। सबसे पहले शिव ने वायु
को बनाया। तब इच्छा के अनुसार इच्छामात्र से चराचरों से पूर्ण विश्व का निर्माण
नीलकण्ठ शिव ने क्षणमात्र में किया। यह गुप्त विद्या मुझे गुरु की पादसेवा से
प्राप्त हुई है। यह गुप्त विद्या स्पष्ट है – ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः ।।
२८-३१।।
दुर्गाभुवनप्रशंसा
इतीमां गुप्तविद्यां तु लब्ध्वा
गुरुपदार्चनात् ॥३२॥
किं किं न साधयेल्लोके साधको मन्त्रसाधकः
।
वस्त्रं वह्निं च कामं च धनं वृत्तं
च साधकः ॥ ३३ ॥
वशीकुर्याद्यथाबुद्ध्या येन
तुर्याकुलं भवेत् ।
श्रीचक्रमिदमाधारं देव्या
विभवकारणम् ।। ३४ ।।
गुह्यं सर्वस्वमम्बायाः पूज्यं
साधकसत्तमैः ।
चक्रं लिखेन्महादेवि
पूज्यमब्जार्कयोर्दलैः ॥३५॥
येन देवी महामाया श्रीदुर्गाशु
प्रसीदति ।
चक्रे सम्पूजयेद्यस्तु नीलाभां
दाहनीं द्युतिम् ॥ ३६ ॥
वह्नीन्दुसूर्याम्बरजं
मण्डलाकारमर्चयेत् ।
लसन्मुकुटरोचिष्णुः स भवेत्
साधकोत्तमः ॥३७॥
दुर्गाभुवनार्चा प्रशंसा- इस संसार
में साधक इस मन्त्र की साधना से क्या-क्या नहीं प्राप्त कर सकता है?
अर्थात् सब कुछ वस्त्र, वह्नि, काम, धन, वृत्त आदि प्राप्त कर
सकता है। अपनी बुद्धिबोध के अनुसार इससे चौथा पद-समाधि प्राप्त कर सकता है।
श्रीदेवी का यह चक्र वैभवकारक आधार हैं। वह साधकसत्तम का पूज्य, गुह्य एवं अम्बा का सर्वस्व हैं। इसके चक्र को अङ्कित करके कमल और मदार के
दलों से पूजन करना चाहिये। इस प्रकार के पूजन से महामाया श्रीदुर्गा प्रसन्न होती
हैं। चक्र में पूजन के समय देवी का ध्यान नीलाभ अग्निज्योति के रूप में करना
चाहिये। सूर्य, चन्द्र, अग्नि की
रश्मिमण्डल के आकार में चमकीले शोभित मुकट वाली देवी का अर्चन करे। इससे साधक
साधकों में श्रेष्ठ होता है।। ३३-३७।।
तस्य शङ्खनिभा कीर्तिर्भ्रमते
भुवनत्रये ।
ससुरासुरगन्धर्व वशं याति महेश्वरि
॥ ३८ ॥
शरासवरसानन्दमयो भूत्वा जपेन्मनुम्
।
खेटकास्तस्य तुष्यन्ति
साधकस्याङ्गपूजनात् ॥ ३९ ॥
तस्य रोगा विनश्यन्ति सर्वे
शूलादयोऽचिरात् ।
तर्जनीं तस्य वीक्ष्यापि रिपवो
यान्ति विद्रुताः ॥ ४० ॥
तस्य गेहे धनं गावो महिष्या विष्टरं
गजाः ।
दुर्गा रत्नवती भूमिस्तस्य पीठं
मनोहरम् ॥ ४१ ॥
उस साधक की शङ्ख-जैसी धवल कीर्ति
तीनों लोकों में भ्रमण करती है। उसके वश में देव-दैत्य गन्धर्व आदि होते हैं।
मैथुन और मद्य के रस से आनन्दित होकर जप करे। साधक जब अङ्गपूजन करता है तब खेटक
सन्तुष्ट होते हैं और अल्प काल में ही उसके रोगजनित पीड़ा का विनाश हो जाता है।
उसकी तर्जनी अङ्गुली को देखते ही शत्रु तुरन्त भाग जाते हैं। उस साधक के घर में धन,
गाय, भैंस, विस्तर और
हाथी सहित रत्नवती मनोहर भूमि होती है ।। ३८-४१ ।।
साधकस्य भवेदेवं
सम्पत्तिर्बहुधार्चनात् ।
एवं ध्यायेन्महादेवीं दुर्गा
दुर्गतिनाशिनीम् ॥ ४२ ॥
ध्यानेन येन देवेन्द्रो भविष्यति हि
साधकः ।
इतीदं देवि तत्त्वं ते कथितं परमाद्भुतम्
।
अवक्तव्यमदातव्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥४३॥
अर्चन करने से साधक को बहुत प्रकार
की सम्पत्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार का ध्यान दुर्गतिनाशिनी महादेवी दुर्गा का
करना चाहिये। इस प्रकार के ध्यान से साधक देवेन्द्र हो जाता है। इस प्रकार इस परम
अद्भुत तत्त्व का कथन समाप्त हुआ। यह न किसी से कहने के योग्य है और न ही किसी को
बतलाने के योग्य है अपितु यह अपनी योनि के समान गुप्त रखने योग्य है ।। ४२-४३ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये मन्त्रविद्यानिरूपणं नामैकपञ्चाशत्तमः पटलः ॥ ५१ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में मन्त्रविद्या निरूपण नामक एकपञ्चाशत्तम पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 52
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