recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम्

तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम्

दुर्गासप्तशती के अध्याय १ में श्लोक ७०-९० तक तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम् कहलाता है। इसमें दैत्य मधु-कैटभ को मारने के लिए, ब्रह्माजी द्वारा श्रीविष्णुजी को नींद से उठाने के लिए योगनिद्रा (योगमाया) जी की स्तुति किया गया है।

तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम्

तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्

Tantrokta Ratri suktam

भगवती योगनिद्रा स्तुति रात्रिसूक्तम्

तन्त्रोक्त रात्रिसूक्तम् योगनिद्रास्तुतिः

तन्त्रोक्त रात्रि सूक्तम्

अथ तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्

ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ।

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ॥ १ ॥

जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत्‌ को धारण करनेवाली, संसार का पालन और संहार करनेवाली तथा तेज: स्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे ॥ १॥

ब्रह्मोवाच

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ।

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ॥ २ ॥

ब्रह्माजी ने कहा- देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो । स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं । तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो॥ २॥

अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।

त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा ॥ ३ ॥

तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो ॥ ३॥

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत् ।

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥ ४ ॥

देवि! तुम्हीं इस विश्व – ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है । तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो ॥ ४ ॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।

तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥ ५ ॥

जगन्मयी देवि! इस जगत्की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करनेवाली हो ॥ ५ ॥

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ।

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ॥ ६ ॥

तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो ॥ ६ ॥

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ।

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ॥ ७ ॥

तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो । भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो ॥ ७ ॥

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं हीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ।

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥ ८ ॥

तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो । लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो ॥ ८ ॥

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ।

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ॥ ९ ॥

तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो । बाण, भुशुण्डी और परिघ - ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं ॥ ९ ॥

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥ १० ॥

तुम सौम्य और सौम्यतर हो - इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो । पर और अपर - सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो ॥ १० ॥

यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ।

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा ॥ ११ ॥

सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? ॥ ११ ॥

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ।

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ १२॥

जो इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान्‌ को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ १२ ॥

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ।

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ॥ १३ ॥

मुझको, भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? ॥ १३ ॥

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ।

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥ १४॥

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ।

बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥ १५ ॥

देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो । ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो ॥ १४-१५ ॥

॥ इति तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तं सम्पूर्णम् ॥

॥ इस प्रकार तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त सम्पूर्ण हुआ ॥

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]