recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्

ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्  

ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम् ब्रह्मवैवर्त, के गणपतिखण्ड 393-23 में वर्णित है। इस कवच के विषय में नारद जी द्वारा भगवान् श्री हरि से पूछने पर नारायण ने इसे बतलाया है।

नारद जी ने कहा प्रभो ! महालक्ष्मी के मनोहर कवच का वर्णन तो आपने कर दिया । ब्रह्मन ! अब दुर्गतिनाशिनी दुर्गा के उस उत्तम कवच को बतलाइये, जो पद्माक्ष के प्राणतुल्य, जीवनदाता, बल का हेतु, कवचों का सार-तत्त्व और दुर्गा की सेवा का मूल कारण है ।

ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्

ब्रह्माण्ड विजय दुर्गा कवचम्  

॥ नारायण उवाच ॥

श्रृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् ।

श्रीकृष्णेनैव यद्द त्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥ १॥  

ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा ।

जघान त्रिपुरं रुद्रो यद् धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥२॥   

हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः ।

यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥३॥   

यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ज्ञानवान् शक्तिमान् भुवि ।

शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।

शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥४ ॥

ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनी ॥५॥   

ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।

पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ॥६॥   

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

ॐ ह्रीं मे पातु कपालं च ॐ ह्रीं श्रीमिति लोचने ॥७॥   

पातु मे कर्णयुग्मं च ॐ दुर्गायै नमः सदा ।

ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥ ८ ॥

ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तानि पातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् ।

क्रीं क्रीं क्रीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतु गण्डकम् ॥९ ॥  

स्कन्धं दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा पातु निरन्तरम् ।

वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥१०॥   

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।

दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥११॥   

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्ग मे सदाऽवतु ॥१२ ॥   

प्राच्यां पातु महामाया आग्नेय्यां पातु कालिका ।

दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋत्यां शिवसुन्दरी ॥ १३ ॥

पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा ।

कुबेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥ १४ ॥

ऊर्ध्वे नारायणी पातु अम्बिकाधः सदाऽवतु ।

ज्ञाने ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥१५॥   

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १६ ॥

सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत् फलम् ।

सर्वव्रतोपासे च तत् फलं लभते नरः ॥ १७ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥ १८ ॥

स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः ।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् दुर्गतिनाशिनीम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥१९ ॥  

कवचं काण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सुन्दरम् ।

यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥२० ॥  

।।इति श्रीब्रह्म-वैवर्ते गणपतिखण्डे 393-23 ब्रह्माण्ड-विजयं नाम दुर्गा-कवचं सम्पूर्णम्।।

ब्रह्माण्ड विजय दुर्गा कवच भावार्थ सहित  

॥ नारायण उवाच ॥

श्रृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् । श्रीकृष्णेनैव यद्द त्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥

श्री नारायण बोले नारद ! प्राचीन काल में श्रीकृष्ण ने गोलोक में ब्रह्मा को दुर्गा का जो शुभप्रद कवच दिया था, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो ।

ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा । जघान त्रिपुरं रुद्रो यद् धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥

पूर्वकाल में त्रिपुर-संग्राम के अवसर पर ब्रह्मा जी ने इसे शंकर को दिया, जिसे भक्तिपूर्वक धारण करके रुद्र ने त्रिपुर का संहार किया था ।

हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः । यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥

फिर शंकर ने इसे गौतम को और गौतम ने पद्माक्ष को दिया, जिसके प्रभाव से विजयी पद्माक्ष सातों द्वीपों का अधिपति हो गया ।

यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ज्ञानवान् शक्तिमान् भुवि । शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।

शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥

जिसके पढ़ने एवं धारण करने से ब्रह्मा भूतल पर ज्ञानवान और शक्तिसम्पन्न हो गये । जिसके प्रभाव से शिव सर्वज्ञ और योगियों के गुरु हुए और मुनिश्रेष्ठ गौतम शिवतुल्य माने गये ।

ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनी ॥

ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।

इस ब्रह्माण्डविजयनामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं । गायत्री छन्द है । दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी हैं और ब्रह्माण्डविजय के लिये इसका विनियोग किया जाता है ।

पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ॥

यह परम अद्भुत कवच महापुरुषों का पुण्यतीर्थ है ।

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् । ॐ ह्रीं मे पातु कपालं च ॐ ह्रीं श्रीमिति लोचने ॥

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहामेरे मस्तक की रक्षा करे । ॐ ह्रींमेरे कपाल की और ॐ ह्रीं श्रींनेत्रों की रक्षा करे ।

पातु मे कर्णयुग्मं च ॐ दुर्गायै नमः सदा । ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥

ॐ दुर्गायै नमःसदा मेरे दोनों कानों की रक्षा करे । ॐ ह्रीं श्रींसदा सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करे ।

ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तानि पातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् । क्रीं क्रीं क्रीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतु गण्डकम् ॥  

ह्रीं श्रीं हूंदाँतों की और क्लींदोनों ओष्ठों की रक्षा करे । क्रीं क्रीं क्रींकण्ठ की रक्षा करे । दुर्गेकपोलों की रक्षा करे ।

स्कन्धं दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा पातु निरन्तरम् । वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥

दुर्गविनाशिन्यै स्वाहानिरन्तर कंधों की रक्षा करे ।विपद्विनाशिन्यै स्वाहासब ओर से मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे ।

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा नाभिं सदाऽवतु । दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥

दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहासदा नाभि की रक्षा करे । दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्षसब ओर से मेरी पीठ की रक्षा करे ।

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु । ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्ग मे सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहासदा हाथ-पैरों की रक्षा करे । ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहासदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे ।

प्राच्यां पातु महामाया आग्नेय्यां पातु कालिका । दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋत्यां शिवसुन्दरी ॥

पूर्व में महामायारक्षा करे । अग्निकोण में कालिका’, दक्षिण में दक्षकन्याऔर नैर्ऋत्यकोण में शिवसुन्दरीरक्षा करे ।

पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा । कुबेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥

पश्चिम में पार्वती’, वायव्यकोण में वाराही’, उत्तर में कुबेरमाताऔर ईशानकोण में ईश्वरीसदा-सर्वदा रक्षा करें ।

ऊर्ध्वे नारायणी पातु अम्बिकाधः सदाऽवतु । ज्ञाने ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥

ऊर्ध्वभाग में नारायणीरक्षा करें और अधोभाग में सदा अम्बिकारक्षा करें । जाग्रत्-काल में ज्ञानप्रदारक्षा करें और सोते समय निद्रासदा रक्षा करें ।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥

वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह ब्रह्माण्डविजयनामक कवच बतला दिया । यह परम अद्भुत तथा सम्पूर्ण मन्त्र-समुदाय का मूर्तिमान स्वरूप है ।

सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत् फलम् । सर्वव्रतोपासे च तत् फलं लभते नरः ॥

समस्त तीर्थों में भली-भाँति गोता लगाने से, सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान करने से तथा सभी प्रकार के व्रतोपवास करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल मनुष्य इस कवच के धारण करने से पा लेता है ।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥

जो विधिपूर्वक वस्त्र, अलंकार और चन्दन से गुरु की पूजा करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है।

स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः । इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् दुर्गतिनाशिनीम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥

वह सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला तथा त्रिलोकविजयी होता है । जो इस कवच को न जानकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का भजन करता है, उसके लिए एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।

कवचं काण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सुन्दरम् । यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥

नारद ! यह काण्वशाखोक्त सुन्दर कवच, जिसका मैंने वर्णन किया है, परम गोपनीय तथा अत्यन्त दुर्लभ है । इसे जिस किसी को नहीं देना चाहिये ।  

।।इति श्रीब्रह्म-वैवर्ते गणपतिखण्डे 393-23 ब्रह्माण्ड-विजयं नाम दुर्गा-कवचं सम्पूर्णम्।।

ब्रह्मवैवर्त गणपतिखण्ड 393-23 ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम्  समाप्त।  

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]