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- ब्रह्महृदय स्तोत्र
- अग्निपुराण अध्याय १५५
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- ब्रह्म कवच
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- अग्निपुराण अध्याय १४७
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- लक्ष्मीनारायण सहस्रनाम
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
दुर्गा मूलमन्त्र स्तोत्र
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ५० में श्रीदुर्गापञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत् दुर्गा मूलमन्त्र स्तोत्र के
विषय में बतलाया गया है।
श्रीदुर्गामूलमन्त्रस्तोत्रम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् पञ्चाशत्तमः
पटलः
Shri Devi Rahasya Patal 50
देवीरहस्य पटल ५० दुर्गा मूलमन्त्र स्तोत्र
अथ पञ्चाशत्तमः पटलः
दुर्गा मूलमन्त्र स्तोत्रम्
श्रीभैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्यामि
दुर्गास्तोत्रं मनोहरम् ।
मूलमन्त्रमयं दिव्यं
सर्वसारस्वतप्रदम् ॥ १ ॥
दुःखार्तिशमनं पुण्यं साधकानां
जयप्रदम् ।
दुर्गाया अङ्गभूतं तु स्तोत्रराजं
परात्परम् ॥२॥
दुर्गास्तोत्र माहात्म्य –
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि ! अब मैं मनोहर दुर्गास्तोत्र का वर्णन
करता हूँ। यह मूल मन्त्रमय, दिव्य और सभी सारस्वत गुणों का
प्रदायक है। यह दुःखार्ति का नाशक, पुण्यप्रद और साधकों के
लिये जयप्रद है। दुर्गापञ्चाङ्ग का अङ्गभूत यह स्तोत्रराज पर से भी पर है।।१२।।
दुर्गास्तोत्रर्ष्यादिकथनम्
श्रीदुर्गास्तोत्रराजस्य ऋषिर्देवो महेश्वरः
।
छन्दोऽनुष्टुब् देवता च
श्रीदुर्गाष्टाक्षरा शिवे ॥३॥
दुं बीजं च परा शक्तिर्विश्वं
कीलकमद्रिजे ।
धर्मार्थकाममोक्षार्थे विनियोगः विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥४॥
श्रीदुर्गामूलमन्त्रस्तोत्रम्
अस्य श्रीदुर्गास्तोत्रराजस्य
श्रीमहेश्वर ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीदुर्गाष्टाक्षरा देवता, दुं बीजं, ह्रीं शक्तिः, नमः कीलकम्, धर्मार्थकाममोक्षार्थे
पाठे विनियोगः ।
इस श्रीदुर्गास्तोत्रराज के ऋषि
महेश्वर कहे गये हैं, छन्द अनुष्टप् है
एवं श्रीदुर्गाष्टक्षरा देवता कहे गये हैं। हे शिवे इसका बीज 'दुं' है, शक्ति 'ह्रीं' है, कीलक 'नमः' है एवं धर्म, अर्थ,
काम तथा मोक्ष की प्राप्ति हेतु इसका विनियोग कहा गया है।। ३-४।।
श्रीदुर्गा ध्यानम्
दूर्वानिभां त्रिनयनां विलसत्किरीटां
शङ्खाब्जखड्गशरखेटकशूलचापान् ।
सन्तर्जनीं च दधतीं महिषासनस्थां
दुर्गां नवार कुलपीठगतां भजेऽहम्
॥५॥
ध्यान - श्री दुर्गा का वर्ण दूर्वा
के समान है। तीन नेत्र हैं। माथे पर किरीट शोभित है। आठ हाथों में- शङ्ख,
कमल, खड्ग, बाण, खेटक, शूल, धनुष और तर्जनी
हैं। वे महिष के आसन पर विराजित हैं। यह दुर्गा नवयोन्यात्मक मण्डल में स्थित हैं।
इनका ध्यान मैं करता हूँ ।। ५ ।।
श्रीदुर्गामूलमन्त्रस्तोत्रम्
तारं हारं मन्त्रमालासु बीजं
ध्यायेदन्तर्योऽम्ब लम्बालकान्तः ।
तस्य स्मारं स्मारमङ्घ्रिद्वयीं
द्राग् रम्भायाति स्वर्गता कामवश्या ॥६॥
मायां जपेद्यस्तव मन्त्रमध्ये
दुर्गे सदा दुर्गतिखेदखिन्नः ।
भवेत् स भूमौ
नृपमौलिमालामाणिक्यनिर्घृष्टपदारविन्द ॥७॥
चाक्रिकं यदि जपेत्तवाम्बिके
चक्रमध्यगत ईश्वरेश्वरि ।
साधको भवति चक्रवर्तिनां नायको
नयविलासकोविदः ॥८॥
चक्रिबीजमपरं स्मरेच्छिवे
योऽरिवर्गविहिताहितव्यथः ।
आजिमण्डलगतो जयेद्रिपून्
वाजिवारणरथाश्रितो नरः ॥ ९ ॥
मन्त्रमाला के हार 'ॐ' बीज का हृदय में ध्यान जो दुर्गा की कान्ति के
रूप में करता है, उसके चरणकमलों का बार-बार यदि स्मरण करता
है तो स्वर्ग से रम्भा अप्सरा भी कामातुर होकर उसके पास आ जाती है। दुर्गति खेद से
खिन्न साधक दुर्गामन्त्र के मध्य में स्थित 'ह्रीं' का जप यदि स्तोत्र में करता है तो वह भूपाल हो जाता है। उसके पावों में
माणिक्यमाला मौलिधारी राजा लोग प्रणाम करते हैं। चक्रमध्यगत ईश्वरेश्वरी अम्बिका
के 'दुं' बीज का जो साधक जप करता है,
वह चक्रवर्ती राजाओं का नायक होता है और नयविलासकोविद होता है जो
दुर्गा-मन्त्र के प्रथम अक्षर 'दुं' का
जप करता है, वह शत्रुओं के द्वारा किए गये अहित से यदि
व्यथित हो तो वह घोड़े-हाथी - रथ से युक्त शत्रु को भी जीत लेता है।।६-९।।
दूर्वाबीजं यो जपेत् प्रेतभूमौ सायं
मायाभस्मना लिप्तकायः।
गीर्वाणानां नायको देवि मन्त्री
भूत्वा राज्यं प्राज्यमाढ्यं करोति ॥ १० ॥
वायव्यबीजं यदि साधको जपेत्
प्रियाकुचद्वन्द्वविमर्दनक्षमः ।
समस्तकान्ताजननेत्रवागुराविलासहंसो
भविता स पार्वति ॥ ११ ॥
विश्व विश्वेश्वरि यदि जपेत्
कामकेलीकलान्ते
रात्रौ मात्राक्षरविलसितन्यास
ईशानिवासः ।
तस्य स्मेराननसरसिजा
भ्राजमानाङ्गलक्ष्मी-
र्वश्यावश्यं
सुरपुरवधूमौलिमालौर्वशी सा ॥१२॥
जो साधक शाम में श्मशान में 'ह्रीं' से भस्म लगाकर 'गौं'
बीज का जप करता है, वह देवताओं का नायक होकर
अपने राज्य को अत्यन्त सम्पन्न बनाता है जो साधक प्रिया के कुचों का मर्दन करते
हुए 'यैं' बीज का जप करता है, वह सभी रमणियों के नत्रों में प्रीति विलास करने वाला हंस होता है। रात
में मैथुन के बाद मन्त्रवर्णों से न्यास करके जो 'नमः'
का जप करता है, उसके मुस्कानयुत मुख में ईश का
निवास होता है और उसके वश में स्मेरानना कमलासना लक्ष्मी होती है। उसके वश में
स्वर्ग की अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी भी हो जाती है।। १०-१२ ।।
भूगेहाञ्चितवह्निवृत्तविलसन्नागारवृत्ताञ्चितद्व्यग्न्या-
रोल्लसिताग्निकोणविलसच्छ्रीबिन्दुपीठस्थिताम्
।
ध्यायेच्चेतसि शर्वपत्नि भवतीं
माध्वीरसाघूर्णितां
यो मन्त्री स भविष्यति स्मरसमः
स्त्रीणां धरण्यां दिवि ॥ १३ ॥
भूपुर,
वृत्तत्रय, अष्टदल, षट्कोण,
त्रिकोण के मध्य बिन्दु में स्थित माध्वी मद्यपान से चञ्चल आँखों
वाली शर्वपत्नी का ध्यान जो साधक करता है, वह पृथ्वी पर
रमणियों के लिये कामदेव के समान होता है।। १३ ।।
दुर्गास्तवं मनुमयं
मनुराजमौलिमाणिक्यमुत्तमशिवाङ्गरहस्यभूतम् ।
प्रातः पठेद्यदि जपावसरेऽर्चनायां
भूमौ भवेत्स नृपतिर्दिवि देवनाथः ॥ १४ ॥
यह मन्त्रमय दुर्गास्तोत्र
दुर्गापञ्चाङ्गरहस्य की मौलि के श्रेष्ठ माणिक्यतुल्य मन्त्रराज है। प्रातः काल
अर्चन जप के अवसर पर जो साधक इसका पाठ करता है, वह
पृथ्वी पर नरेश और स्वर्ग में देवपति होता है ।। १४ ।।
श्रीदुर्गामूलमन्त्रस्तोत्रम् फलश्रुतिः
इति स्तोत्रं महापुण्यं पञ्चाङ्गैकशिरोमणिम्
।
यः पठेदर्धरात्रे तु तस्य वश्यं
जगत्त्रयम् ॥ १५ ॥
इदं पञ्चाङ्गमखिलं श्रीदुर्गाया
रहस्यकम् ।
सर्वसिद्धिप्रदं गुह्यं
सर्वाशापरिपूरकम् ।। १६ ।।
गुह्यं मन्त्ररहस्यं तु तव भक्त्या
प्रकाशितम् ।
अभक्तायाप्रदातव्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी
॥ १७ ॥
फलश्रुति –
यह महा पुनीत स्तोत्र पञ्चाङ्ग का शिरोमणि है। जो इसका पाठ आधी रात
में करता है, उसके वश में तीनों लोक होता है। यह पञ्चाङ्ग
दुर्गारहस्य का सर्वस्व है। यह सभी सिद्धियों का दाता, गुह्य
और सभी आशाओं को पूरा करने वाला है। इस गुह्य मन्त्ररहस्य को तुम्हारी भक्ति के वश
में होकर मैंने प्रकाशित किया है। हे परमेश्वरि! मेरा आदेश है कि अभक्तों को इसे न
दिया जाय ।। १५-१७।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् भवतानेन कथनेन महेश्वर ।
श्रीपञ्चाङ्गस्य दुर्गाया ह्यद्य
क्रीतास्म्यहं परम् ।। १८ ।।
श्री देवी ने कहा कि हे भगवन्! इस
दुर्गा पञ्चाङ्ग रहस्य के कथन से मैं आपकी खरीदी हुई दासी हो गयी ।।१८।।
श्रीभैरव उवाच
इदं रहस्यं परमं
दुर्गासर्वस्वमुत्तमम् ।
पञ्चाङ्गं वर्णितं गोप्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ १९ ॥
श्री भैरव ने कहा कि यह दुर्गारहस्य
श्रेष्ठ है, दुर्गासर्वस्व है। यह पञ्चाङ्ग
गोप्य है और इसे अपनी योनि के समान गुप्त रखना चाहिये ।। १९ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये दुर्गास्तोत्रनिरूपणं नाम पञ्चाशत्तमः पटलः ॥५०॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दुर्गास्तोत्र निरूपण नामक पञ्चाशत्तम पटल पूर्ण
हुआ।
समाप्तमिदं दुर्गापञ्चाङ्गम्
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 51
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