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कर्मकाण्ड

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मायातन्त्र पटल ४

मायातन्त्र पटल ४ 

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ४ में पुरश्चर्या विधि, माला विधान और सूत्रविधान को बतलाया गया है।

मायातन्त्र पटल ४

मायातन्त्रम् चतुर्थः पटलः

माया तन्त्र पटल ४ 

Maya tantra patal 4

मायातन्त्र चौथा पटल

अथ चतुर्थःपटलः

श्रीईश्वर उवाच

शृणु पार्वति ! मन्त्राणां पुरश्चर्याविधिं प्रिये ! ।

जपेदष्टाधिकं लक्षं पुरश्चरणासिद्धये ॥ 1

भगवान् शंकर ने कहा कि हे पार्वति! हे प्रिये ! अब तुम मन्त्रों की पुरश्चर्या विधि को सुनो-अतः पुरश्चरण सिद्धि के लिए एक लाख आठ बार मन्त्र का जाप करना चाहिए ।। 1 ।।

दशांशं होमयेदाज्यैस्तिलमिश्रैः सुसाधकः ।

तर्पणं चाभिषेकं च तद्दशांशत आचरेत् ॥2

हे पार्वति ! एक लाख जाप करना चाहिए, उसका दशवां अंश अर्थात् दस हजार बार मन्त्र से हवन करना चाहिए तथा अच्छे साधक को घी और तिल की आहुतियां देनी चाहिए तथा उसका दशवां भाग तर्पण और देवी का अभिषेक करना चाहिये अर्थात् एक हजार बार मन्त्र से अभिषेक और तर्पण करना चाहिए ।। 2 ।।

ब्राह्मणान् भोजयेदन्ते दक्षिणां गुरवे ददेत् ।

एवं सिद्धमनुर्मन्त्री प्रयोगांस्तु समाचरेत् ॥3

और अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और गुरु को दक्षिणा देनी चाहिए। इस प्रकार मन्त्रों को सिद्ध करने वाले व्यक्ति को प्रयोगों को अच्छी प्रकार करना चाहिए ।। 3 ।।

विशेष :- यह श्लोक (ग) पाण्डुलिपि में नहीं है। अतः ब्रह्मभोज को टाला जा सकता है।

मत्स्यमांसैः सूपपूपैर्मृगैः शशकशल्लकैः।

पूजयेत् परया भक्त्या दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् ॥4

उसके बाद मछली और मांस सूपपूप मृगों के मांस शशक (खरगोश) शल्लक (कांटेदार सराई नामक जंगली पशु) के मांसों से पराभक्ति द्वारा दुर्गति को नष्ट करने वाली दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। अर्थात् बलि देकर साधक को खाना चाहिए और खिलाना चाहिए।।4।।

विशेषः मत्स्य मांसैः के स्थान पर (ग) पाण्डुलिपि में 'मद्य जावा पाठ है तथा (च) पाण्डुलिपि में 'मद्यमांस प्रसूनैः' है और (ङ) में सुरामांसैः बहुविधैः पाठ है। यहाँ सबसे उचित "सुरामांसै: बहुविधैःक्योंकि इसमें सुरा और मांस दोनों आ जाते हैं।

स्वयम्भुकुसुमैः शुक्रैः सुगन्धिकुसुमान्वितैः ।

जपायावकसिन्दूररक्तचन्दनसंयुतैः॥5

नानामांसैः शुभैर्द्रव्यैर्गन्धद्रव्यादिसंस्कृतैः ।

काकैः शुक्रः पेचकैश्च मेषैच्छागैर्नरैरपि ॥6

गजैरुष्टैः खरैर्गृधैः पूजयेद् विधिनाऽमुना ।

तदा भवेन्महासिद्धिर्नात्र कार्या विचारणा ॥ 7

उसके बाद स्वयम्भु कुसुमों (सफेद) सुगन्धित फूलों से युक्त जपा पुष्प यावक (महावर) सुन्दर- लालचन्दन युक्त अनेकों प्रकार के मांसों और गन्धयुक्त द्रव्यादि से संस्कृत (शुद्ध किये गये) कौए, तोते, पेचक, भेंड़, और बकरों के मांसों यहाँ तक कि हाथियों, ऊंटों, गधों, गीधों द्वारा इस विधि से पूजा करनी चाहिए। तब ही महासिद्धि होती है। यहाँ इस कार्य में विचार नहीं करना चाहिए। अर्थात् इसमें बुरा न मानकर करना चाहिए ।। 5-7।।

मालाविधानं परमं शृणुष्व कमलानने! ।

अकारादिक्षकारान्ताः पञ्चाशबिन्दुसंयुताः ॥8 ॥

महादेव ने पार्वती जी से कहा कि हे कमल मुखी अब तुम माला के विधान को सुनो। अकार से लेकर क्ष तक 50 अक्षर होते हैं, जो बिन्दु से संयुक्त होने चाहिए। अर्थात् अं, आं, इं, ईं, उं, ऊं, ऋं, ऋृं, लृं, लॄं, एं, ऐं, ओं, औं, अं, कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं, डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, बं, भं, मं, यं, रं, लं, वं, शं, षं, सं, हं क्षं ॥ 8

क्षमेरुका महीप्रान्ता वर्णमाला सुसिद्धिदा ।

प्रथिता शक्तिसूत्रेण चारोहप्रतिरोहतः ॥9

(क्षमेरुक) यह वर्णमाला पृथ्वी पर्यन्त सुन्दर सिद्धि का प्रदान करने वाली है। इन 50 अक्षरों को शक्तिसूत्र ( धागे द्वारा) आरोह प्रतिरोह क्रम से ग्रथित करना चाहिए ॥ 9

जपेदेकाग्रमनसा साष्टवर्गाक्षरान् क्रमात् ।

पुच्छादिषु महादेवि ! यावन्मुखमतन्त्रतः ॥ 10

एकाग्रचित्त होकर माला का जप करना चाहिए तथा वह जाप आठ वर्गों के क्रम से करना चाहिए और हे महादेवी ! उसकी पूंछ से लेकर मुख तक अर्थात् शुरू से आखिर तक माला का जाप करना चाहिए ॥10

कारं तु मुखं देवि मेरुं तद् विद्धि पार्वति ! ।

पद्मबीजादिभिर्माला बहिर्योगे शृणुष्व ताः ॥11

हे देवि ! माला में पचास अक्षर हैं, उनमें क्षकार (क्ष) उस माला का मुख है, उसे ही हे पार्वति ! मेरु समझना चाहिए अर्थात् उसे सबसे ऊंचा मेरु पर्वत समझो। अब कमल के बीज आदि से जो माला बनती है, जो याग (यज्ञ) से बाहर होती है,उसके बारे में सुनो वह कैसी होनी चाहिए, यह मैं बताता हूँ।।11।।

पद्माक्षशङ्खरुद्राक्ष पुत्रजीवकमौक्तिकैः।

स्फटिकैर्मणिरत्नैश्च सौवर्णैर्विद्रुमैस्तथाः ॥12

राजतैः कुशमूलैश्च गृहस्थाक्षरमालिका ।

अङ्गुलीगणनादेकं पर्वण्यष्टगुणं भवेत् ॥13

पद्माक्ष-कमल के बीजों की माला, शंखों की माला, रुद्राक्ष की माला, पुत्री जीवक की माला, मोतियों की माला, स्फटिकों की माला, मणियों की माला, रजत की माला, कुश की जड़ों की माला, गृहस्थ अक्षरों की माला । इस प्रकार इतने द्रव्यों की माला होनी चाहिए तथा उनकी संख्या अंगुली की गणना एक और आठ मिलाकर 9 पर्व होनी चाहिए अर्थात् 'अं' अंगुली के पर्वों को नौ बार होनी चाहिए; क्योंकि अंगुली में 12 गांठ होती है। अतः उन्हें यदि 9 बार पढ़ेंगे तो 108 होंगे। इस प्रकार 108 बार ही जाप करना द्योतित हो रहा है।।12-131

पुत्रजीवैर्दशगुणं शतं शङ्खैः सहस्रकम् ।

प्रवालैर्मणिरत्नैश्च दशसहस्रकं मतम्॥14

पुत्रजीव (कमल बीजों) द्वारा दश गुने सौ के अर्थात् हजार जाप करना चाहिए। शंखों की माला से एक हजार बार जाप करना चाहिए। मूंगों की मणियों की और रत्नों की माला से दश हजार बार जापकरना चाहिए। ऐसा माना गया है॥14

तदेव स्फटिकैः प्रोक्तं मौक्तिकैर्लक्षमुच्यते ।

पद्माक्षैर्दशलक्षं स्यात् सौवर्णैः कोटिरुच्यते ॥

कुशग्रंथ्या कोटिशतं रुद्राक्षै स्यादनन्तकम् ॥15

स्फटिक (संगमरमर की माला से वही अर्थात् दश हजार बार जाप करना चाहिए तथा मोतियों की माला से एक लाख बार जाप करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है तथा पद्माक्षे (कमल दण्ड) की माला से दश लाख बार और सौवर्ण की माला से एक करोड़ बार जाप करना कहा जाता है। कुश की गांठों से सौ करोड़ (एक अरब) बार तथा रुद्राक्षों से अनन्त बार जाप करने चाहिए ॥15

प्रवालैर्विहिता माला प्रयच्छेत् पुष्कलं धनम् ।

वैष्णवे तुलसीकाष्ठैर्गजदन्तैर्गणेश्वरे ॥16

मूंगों द्वारा बनायी गयी माला पुष्कल धन प्रदान करती है। वैष्णव (विष्णु के लिए) तुलसी की लकड़ियों से बनी माला का प्रयोग होना चाहिए। गणेश्वर (गणेश) जी को प्रसन्न करने के लिए हाथी दांतकी माला का जाप किया जाना चाहिए ॥16

त्रिपुराया जपे शस्ता रुद्राक्षै रक्तचन्दनैः ।

भुवनेश्याः प्रवालैश्च तद्भेदेषु च पार्वति ॥17

महात्रिपुरसुन्दरी को प्रसन्न करने के लिए रुद्राक्ष और चन्दन से बनी मालाओं द्वारा जाप करना चाहिए और भुवनेशी को प्रसन्न करने के लिए मूंगों की माला का जाप करना चाहिए ॥17

शिवे रुद्राक्षभद्राक्षैः काष्ठैर्वापि सुनिर्मितैः ।

राजपटैर्मञ्जुघोषैः कथिता मालनिर्णयः ॥ 18

भगवान शिव ने कहा कि हे पार्वति ! रुद्राक्ष और लकड़ियों से अच्छी तरह बनायी गयी और राजपटों और मञ्जुघोषों वाली माला का निर्णय कहा गया है ।।18 ।।

मालाविधिरिति प्रोक्त शृणु सूत्रविधिं प्रिये! ।

पृथिवीदेवेन्द्रपुण्यस्त्रीकीर्तिग्रन्थिवर्जितम् ॥19

भगवान् शिव ने कहा कि हे पार्वति ! इस प्रकार मैंने तुम्हे माला विधि बतायी है। अब तुम सूत्रविधि सुनो- अर्थात् कैसे उन सबके दानों को धागे में पिरोना है, उस विधि को सुनो-माला के धागे में पृथ्वी, इन्द्र, पुण्य, स्त्री, कीर्ति और ग्रन्थि (गांठ) नहीं होनी चाहिए ॥19

त्रिगुणं त्रिगुणीकृत्य पट्टसूत्रमथापि वा ।

मुखे मुखं तु संयोज्य पुच्छे पुच्छं नियोज्य च ॥20

धागे को पहले तीन गुना कीजिये तीन गुणा कर उसे भानिये और फिर उस तीन गुने का तीन गुना कर भानिये। धागा कपड़े का होना चाहिए। फिर धागे के मुख को मुख में मिलाकर पूंछ में पूंछ को मिलाना चाहिए।।20।। 

ग्रथयेन्निर्जने मन्त्री ततः शोधनमाचरेत् ।

क्षालयेत् पञ्चगव्येन सद्योजातेन तज्जलैः ॥21

मन्त्र पढ़ने वाले को निर्जन स्थान में माला को गूंथना चाहिए, उसके बाद माला का शोधन करना चाहिए। पंचगव्य अर्थात् गौ के घी, दही, दूध, मूत्र और गोबर से उस माला को धोना चाहिए, उसके बाद ताजे जल से धोना चाहिए॥21

चन्दनागुरुगन्धाढ्यैर्वामदेवेन घर्षयेत् ।

धूपयेत् तामघोरेण लेपयेत् तत्पुरुषेण तु ॥ 22

उसके बाद चन्दन, अगरु की गन्ध आदि द्रव्यों से वामदेव द्वारा घर्षण करना चाहिए अर्थात् घिसना चाहिए और अघोर मार्ग द्वारा उसे धूप देना चाहिए और उस पर गन्धादि का लेप करना चाहिए ॥22

मन्त्रयेत् पञ्चमेनैव प्रत्येकं तु सकृत् सकृत् ।

मेरुं च मन्त्रयेत् तेन मूलेनापि पृथक् पृथक् ॥23

पञ्चम द्वारा ही प्रत्येक दाने को मन्त्रित करना चाहिए माला के मेरु(ऊपर) के भाग को और उसके पुञ्छ भाग को अलग- अलग मन्त्रित करना चाहिए ॥23

विशेष-पञ्चम का अर्थ यहाँ पाँचवां मकार मैथुन भी अर्थ लिया जा सकता है।

संस्कृत्यैवं ततो मालां तत्प्राणांस्तत्र योजयेत् ।

मूलमन्त्रेण तां मालां पूजयेत् साधकोत्तमः ॥24

उसके बाद माला को संस्कृत करके, उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिए। अर्थात् उसके सभी दानों में प्राणों को डालना चाहिए और उत्तम साधक को उस माला को मूल मन्त्र से पूजना चाहिए ।।24।।

देवप्राणांस्तु तत्रैव प्रतिष्ठाप्य यजेच्च ताम् ।

ॐ माले माले महामाले सर्वतत्त्वस्वरूपिणि ॥ 25

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ।

मायाबीजादिकां कृत्वा रक्तैः पुष्पैः समर्चयेत् ॥26

गोमुखादौ ततो मालां गोपयेन्मातृजारवत् ।

अक्षमालां स्वमन्त्रं तु गुरु नैव प्रकाशयेत् ॥27

उस माला में वहीं देवता के प्राणों की प्रतिष्ठा कर उसकी यज्ञ करनी चाहिए अर्थात् हवन में उस पर आहुति देनी चाहिए और उस समय

ॐ माले- माले - महामालेः सर्वतत्त्वस्वरूपिणि ।

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव'

इस मन्त्र की आहुति देनी चाहिए। उसके बाद मायाबीज आदि करके लालरंग के फूलों से उसकी सम्यक् पूजा करनी चाहिए, उसके बाद उस माला को गोमुख (गोरोचन) आदि में उसी प्रकार छिपा कर रख देना चाहिए। जिस प्रकार माता के जार (यार) को पुत्र छिपाकर रखता है।।25-27।।

।। इति मायातन्त्रो चतुर्थ: पटलः ।।

।।इस प्रकार मायातन्त्र में चौथा पटल समाप्त हुआ ।।

आगे पढ़ें ............ मायातन्त्र पटल 5 

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