दुर्गा वज्र पंजर कवच

दुर्गा वज्र पंजर कवच

जो व्यक्ति मायातन्त्र पटल ३ के श्लोक २३ से ३८ में वर्णित माँ दुर्गा के इस वज्र पंजर कवच का जो नित्य पाठ या श्रवण करता है उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होता है तथा उनके और परिवार की रक्षा माता रानी स्वयं ही कराती है तथा उन्हें अभीष्ट फल की प्राप्ति होता है ।

                                               दुर्गा वज्र पंजर कवच

दुर्गा वज्रपञ्जर कवचम् 

Durga vajra panjar kavacham

ॐ अस्य श्रीजगद्धात्री दुर्गाकवचस्य नारदऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीजगद्धात्रीदुर्गा देवता चतुर्वर्गसिध्यर्थे विनियोगः ।

अब यहाँ संसार को धारण करने वाली दुर्गा के कवच का धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए विनियोग किया जाता है, जिसके रचयिता नारद हैं। अनुष्टुप छन्द है और इस कवच की देवता संसार को धारण करने वाली देवी दुर्गा हैं। अब यह जो कवच हैं, उसमें मां दुर्गा से शरीर के समस्त अंगों की रक्षा करने की प्रार्थना की गयी है।

अथ दुर्गावज्रपञ्जरकवचम्

ओंकारो मे शिवः पातु ह्रीङ्कारः पातु भालकम् ।

दुं पातु वदनं दुर्गा ङेयुक्ता पातु चक्षुषी ॥१ ॥

ओंकार शिर की रक्षा करें, ह्रींकार मस्तक की रक्षा करें, दुं मुख की रक्षा करें, ङे चतुर्थी विभक्ति द्वारा जो दुर्गायै होता है, वह ङे प्रत्यय वाली चतुर्थी विभक्ति नेत्रों की रक्षा करें।

नासिकां मे नमः पातु कर्णावष्टाक्षरी सदा ।

प्रणवो मे गलं पातु केशान् श्रीबीजमन्ततः ॥२ ॥

'ओं ह्रीं दुर्गायै नमः' में जो नमः शब्द है, वही मेरी नासिका की रक्षा करे। अष्टाक्षरी सदा दोनों कानों की रक्षा करें 'प्रणव मेरे गले की रक्षा करें और अन्ततः श्रीबीज केशों की रक्षा करें ।

लज्जा दन्तान् समारक्षेज्जिह्वां दुर्गा सदाऽवतु ।

यै नमः पातु वक्त्रान्तं तालुं दुङ्काररूपिणी ॥ ३ ॥

लज्जा देवी दाँतों की रक्षा करें, जिह्वा की रक्षा सदा दुर्गा करें। यैः नमः मुख के अन्त भाग की रक्षा करे और तालु की रक्षा दुंकाररूपिणी दुर्गा करें।

एकाक्षरी महाविद्या वक्षो रक्षतु सर्वदा ।

कूर्चाद्या विविधा विद्या बाहू मे परिरक्षतु ॥ ४ ॥

एकाक्षरी महाविद्या सर्वदा वक्षः स्थल की रक्षा करें, कूर्चाद्या जो अनेकों प्रकार की विद्यायें हैं, वे मेरी भुजाओं की रक्षा करें ।

ॐ दुर्गे पातु जङ्घे द्वे दुर्गा रक्षतु जानुनी ।

द्वावुरू पातु युगलं रक्षिणि स्वाहयान्विता ॥५ ॥

ॐ दुर्गा मेरी दोनों जंघाओं की रक्षा करें, दुर्गा मेरे जानुओं (घुटनों) की रक्षा करें, स्वाहा से युक्त मां दुर्गा मेरे दो ऊरुस्थलों की रक्षा करें।

जयदुर्गा सदा पातु गुल्फे द्वे चण्डिकाऽवतु ।

कटिं जया पातु सदा नाभि मे विजयाऽवतु ॥ ६ ॥

ॐ जय दुर्गा सदा मेरे जंघाओं की रक्षा करें, जया देवी सदा कटि (कमर) की रक्षा करे और विजया मेरी नाभि की रक्षा करें।

उदरं पातु मे कीर्तिः पृष्ठं प्रीतिः सदाऽवतु ।

प्रभा पादाङ्गुलीः पायात् श्रद्धा स्कन्धौ सदाऽवतु ॥७ ॥

कीर्ति देवी मेरे उदर की रक्षा करें, प्रीति देवी मेरी पीठ की सदैव रक्षा करें। प्रभा देवी पैरों की अंगुलियों की सदा रक्षा करें, श्रद्धा देवी दोनों कन्धों की रक्षा करें। 

मेधा कराङ्गुलीः सर्वा नखरान् श्रुतिमेव च ।

शङ्खो गुल्कं तु पायान्मे चक्रं लिङ्गे सदाऽवतु ॥ ८ ॥

मेधा देवी दोनों हाथों की अंगुलियों की रक्षा करें और सब नाखूनों की रक्षा करें, शंख मेरे गुल्फों की रक्षा करे और चक्र लिंग में वीर्य की सदा रक्षा करे ।

सर्वाङ्गं मे सदा पातु शङ्खो रक्षतु सर्वतः ।

दुर्गा मां पातु सर्वत्र जयदुर्गा च दारकान् ॥९ ॥

शंख मेरे समस्त शरीर की सब ओर से रक्षा करें और दुर्गा मेरी सर्वत्र रक्षा करे और जय दुर्गा मेरी पत्नियों की रक्षा करें।

यद् यदङ्गं महेशानि वर्जितं कवचेषु च ।

तत् सर्वं रक्ष मे देवि ! पतिपुत्रान्विता सती ॥१० ॥

हे मां दुर्गे! जो-जो शरीर के अंग इस कवच में नहीं कहे गये हैं अर्थात् जो छूट गये हैं, हे देवि ! उन समस्त अंगों की पति और पुत्रों के साथ रक्षा करें। अर्थात् अंगों के साथ-साथ पति और पुत्रों की भी रक्षा कीजिये।

दुर्गा वज्र पञ्जर कवच फलश्रुति:  

इति ते कथितं देवि! कवचं वज्रपञ्जरम् ।

धृत्वा रक्षोभयाच्छक्रो दिवि दैत्यगणान् बहून् ॥११ ॥

भगवान् शंकर ने कहा कि हे देवि ! इस प्रकार मैंने तुम्हे वज्र पञ्जर कवच को कहा है। हे देवि ! इस कवच को धारण करके अथवा इस कवच का ध्यान करके देवराज इन्द्र ने बहुत से दैत्यों को दुःखी कर दिया था ।

विधृत्य कवचं वाणी दुन्दुभिं च सहानुजम् ।

हत्वा सर्वत्र कपिराड् विजयी वानरोत्तमः ॥१२ ॥

इस कवच को धारण करने वाली ने दुन्दुभि नामक राक्षस को उसके भाई के साथ मार दिया था और उसे मारकर कपिराज श्रेष्ठ वानर बाली सर्वत्र विजयी हुआ। अतः उसकी सर्वत्र विजय में इसी कवच का प्रभाव था ।

सयन्त्रं कवचं चैव लिखित्वा भूर्जपत्रके ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा ॥१३ ॥

अभीष्टं लभते मर्त्यो वत्सरान्नात्र संशयः ।

काकवन्ध्या च या नारी मृतवत्सा च या भवेत् ॥१४ ॥

बह्वपत्या जीववत्सा बन्ध्या धृत्वा प्रसूयते।

इस संयन्त्र और कवच को भोजपत्र पर लिखकर पुरुष अपने गले में या दक्षिण भुजा में धारण करे और नारी वामभुजा में धारण करे तो मनुष्य एक वर्ष में अभीष्ट फल को प्राप्त करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है तथा जो नारी एक पुत्र वाली होती है और जिसके पुत्र मर गये हों या जिसके एक ही पुत्र हैं, वह अनेकों पुत्रों को प्राप्त करेगी और जिसके पुत्र मर जाते हैं, उसके पुत्र जीवित रहेंगे। फिर नहीं मरेंगे। यही नहीं यदि बांझ स्त्री इसे अपनी वाम भुजा में धारण करेगी तो उसके भी पुत्र अवश्य उत्पन्न होंगे।

शतमष्टोत्तरावृत्तिः पुरश्चर्या विधीयते ॥१५ ॥

षण्मासतो भवेत् सिद्धिर्यथावत् परिचारतः ।

अज्ञात्वा कवचं चैतद् दुर्गामन्त्रांस्तु यो जपेत् ।

अल्पायुर्निर्धनो मूर्खो भवत्येव न संशयः ॥ १६ ॥

जो व्यक्ति 108 बार इनके इस कवच का पाठ करेगा तो यदि वह परिचार से यथावत् करता है तो छः माह में ही सिद्धि हो जानी चाहिए तथा जो बिना जानकार इस दुर्गा मन्त्र का जाप करेगा, वह कम आयु वाला निर्धन और मूर्ख होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।  

इति मायातन्त्रे दुर्गावज्रपञ्जरकवचम्  तृतीयः पटलः ॥

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