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कर्मकाण्ड

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भूतडामर तन्त्र पटल ५

भूतडामर तन्त्र पटल ५    

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल ४ में श्मशानवासिनी साधन, विविध मुद्राएँ को दिया गया, अब पटल ५ में चण्डकात्यायनी साधन, कात्यायनी मन्त्र, भूतकात्यायनी मन्त्र का वर्णन हुआ है।

भूतडामर तन्त्र पटल ५

भूतडामरतन्त्रम् पञ्चम: पटल: 

भूतडामर तन्त्र पटल ५    

भूतडामरतन्त्र पांचवां पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ पञ्चमं पटलम्

उन्मत्त भैरव्युवाच

भगवन् ! सर्वभूतेश ! प्रमथाद्यैर्नमस्कृत ! ।

यदि तुष्टोऽसि देवेश ! चण्डकात्यायिनीं वद ।।

चण्डकात्यायनी रौद्री भूतिनी या प्रकीर्तिता ।

मनुं तस्याः प्रवक्ष्यामि नत्वा क्रोधाधिपं पुनः ॥

बीजं हालाहलं कूर्चनतिमस्त्रद्वयं शिवः ।

सुरकात्यायनीमन्त्रमीरितञ्चातिदुर्लभम् ॥१॥

उन्मत्त भैरवी कहती हैं- हे सर्वभूतेश्वर ! प्रथमगण आपको सदा नमस्कार करते हैं । यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब मुझे चण्डकात्यायनी मन्त्र का उपदेश करें ।। १ ।।

विषं कालं वदेद्बीजं ज्वालान्तं कूर्चसंज्ञितम् ।

अस्त्रान्तोऽयं मया प्रोक्तो महाकात्यायनीमनुः ॥ २ ॥

उन्मत्तभैरव कहते हैं- चण्डकात्यायनी, रौद्री भूतिनी प्रभृति जो देवता कहे गये हैं, मैं क्रोधभैरव को प्रणाम करके उन देवताओं का मन्त्र कहता हूँ ॥ २ ॥

विषाद्रौद्रयुगं कालयुग्मं हालाहलस्ततः ।

चामुण्डालिङ्गितं व्योमद्वयं मन्त्रद्वयं शिवः ।

रौद्रकात्यायनी प्रोक्ता सर्वसिद्धिप्रदायिनी ॥ ३ ॥

कात्यायनी मन्त्र – “ ॐ हुं नमो नमः हौं " ।

महाकात्यायनी मन्त्र—“ॐ हुं ज्वाला हुं फट्। यह मन्त्र अति दुर्लभ है,जिसे तुमको बतला रहा हूँ।

रौद्रकात्यायनी मन्त्र- "ॐ ह्रीं ह्रीं हुं हुं ॐ इं लृ इं फट् फट् स्वाहा। यह रौद्रकात्यायनी मन्त्र समस्त सिद्धि देने वाला है।

आदिबीजं समुद्धृत्य ततो रुद्रभयङ्करि ।

अट्टाट्टहासनि साधकप्रिये पदमुद्धरेत् ॥

महाविचित्ररूपकरि सुवर्णहस्ते ततः ।

यमनिकृन्तनि पदं सर्वदुः खपदन्ततः ।।

प्रशमनि पदमुच्चार्य त्रिविधं हुं चतुष्टयम् ।

ततः शीघ्रश्व सिद्धि मे प्रयच्छेति पदं ततः ।

रौद्रबीजं विसर्गाढ्यं ततश्च वह्निसुन्दरी ।

चण्डकात्यायनी प्रोक्ता महाभूतेश्वरीमनुः ।

प्रोक्ताभीष्टप्रदा लोके जम्बूद्वीपे कलौ युगे ॥ ४॥

ॐ रुद्रभयङ्करि अट्टहासिनि साधकप्रिये महाविचित्ररूपकरि सुवर्णहस्ते यमनिकृन्तनि सर्वदुःखप्रशमनि ॐ ॐ ॐ हुं हुं हुं हुं शीघ्रं सिद्धि मे प्रयच्छ हौं अ: स्वाहा' । यह है महाभूतेश्वरी चण्डकात्यायनी का मन्त्र। यह कलियुग में जम्बूद्वीप के निवासियों को समस्त सिद्धियाँ देता है ॥ ४ ॥

हालाहलं समुद्धृत्य ततो यमनिकृन्तनि ।

अकालमृत्युनाशिनीति खड्गत्रिशूलहस्ते ।

ततः शीघ्रपदं प्रोच्य सिद्धि मे देहि भोः पदम् ॥

साधकं समाज्ञापय बीजं प्राथमिकं ततः ।

द्विष्ठान्तोऽयं मया प्रोक्तो वज्रकात्यायनीमनुः ॥ ५ ॥

ॐ यमनिकृन्तनि अकालमृत्युनाशिनि खड्गत्रिशूलहस्ते शीघ्रं सिद्धि मे देहि भोः साधकं समाज्ञापय ह्रीं स्वाहा'। यह वज्रकात्यायनी मन्त्र है ।। ५ ।।

पञ्चरश्मि समुद्धृत्य हेमकुण्डलिनीपदम् ।

धीरद्वयं ज्वलयुगं ततो दिव्यमहापदम् ॥

कुण्डलविभूषिते पदं वारणमथिनीति च ।

भगवन्नाज्ञापयसि च शिवोऽन्तमनुमुद्धरेत् ।

इति कुण्डलपूर्वश्व प्रोक्तः कात्यायनीमनुः ॥ ६ ॥

'ॐ हेमकुण्डलिनि धीर धीर ज्वल ज्वल दिव्यमहाकुण्डलविभूषिते वारणमथिनि भगवन्नाज्ञापयसि स्वाहा'। यह कुण्डलकात्यायनी का समस्त सिद्धि- प्रदायक मन्त्र है ।। ६ ॥

विषमुद्धृत्य द्विकुटीद्विठः कुटुयुगं ततः ।

धीरयुग्मं ज्वलयुगं स्वाहा कुलमुखी ततः ॥

गच्छ वेताल उपरि अनिशम्पादतःपुनः ।

कुण्डलद्वयमतः पाशद्वयं भगवन् पदम् ॥

आज्ञापय ततो रौद्रं सविसर्गं समुद्धरेत् ।

वह्निप्रियान्तः कथितो जयकात्यायनीमनुः ॥ ७ ॥

ॐ कुटी कुटी स्वाहा कुटु कुटु धीर धीर ज्वल ज्वल स्वाहाशनिमुखि गच्छ वेताल उपरि अनिशं कुण्डल कुण्डल आं आं आं भगवन् आज्ञापय अ: स्वाहा' । यह है जयकात्यायनी का मन्त्र ॥ ७ ॥

विषमुद्धृत्यापि सुरतप्रिये दिव्यलोचनि ।

कामेश्वरि जगन्मोहिनि ततश्च सुभगे पदम् ॥

ततः काञ्चनमालेति भूषणीति पदं वदेत् ।

ततो नूपुरशब्देन प्रविशद्वयमुद्धरेत् ॥

ततः पुरद्वयं साधकप्रिये पदमुद्धरेत् ।

आदिबीजं विसर्गाढ्यं शिवोऽन्तो भूतिनीमनुः ॥ ८ ॥

ॐ सुरतप्रिये दिव्यलोचनि कामेश्वरि जगन्मोहिनि सुभगे काञ्चनमाले भूषणि नूपुरशब्देन प्रविश प्रविश पुर पुर साधकप्रिये ॐ अ: स्वाहा' । यह सर्वकार्यसिद्धिप्रद भूतिनी मन्त्र है ॥ ८ ॥

विषं मातृपदाद् भ्रातृमद्भगिनीपदं क्रमात् ।

ततः कटुद्वयं प्रोक्तं जययुग्मं समुद्धरेत् ॥

सर्वासुरपदात् प्रेतपूजिते समुदीरयेत् ।

हालाहलं व्योमवक्त्रं सविसर्गं समुद्धरेत् ।

वह्निजायान्त उक्तोऽसौ शुभकात्यायनीमनुः ॥ ९ ॥

ॐ मातृ-भ्रातृ-मद्भगिनी कटु कटु जय जय सर्वासुरप्रेतपूजिते ॐ हुं अः स्वाहा' । यह शुभकात्यायनी मन्त्र है, जिससे शुभकात्यायनी सिद्ध होती हैं ॥९॥

इयं कात्यायनी विद्या स्मृता सिद्धिप्रदायिनी ।

अस्या मुद्राविधि वक्ष्ये भूतिनीसिद्धिदायकम् ।। १० ।।

यह कात्यायनी विद्या कही है, जिससे साधक के सभी कार्य सिद्ध होने लगते हैं। अब इस विद्या की मुद्राओं का वर्णन किया जा रहा है, जिससे भूतिनी सिद्ध होती है ॥ १० ॥

मुष्टिमन्योन्यमास्थायाङ्गुलीनावेष्ट्य तत्परम् ।

प्रसार्या कुश्वयेत्तत्र तर्जनीं सिद्धिमाप्नुयात् ॥

देहे मन्त्रे च सिद्धे च मनावाकर्षकर्मणि ।

भूतिनीं कर्षयेत् क्रोधमन्त्रयोगसहस्रकम् ।।

जुहुयाद्वश्यतां याति भूतिनी नात्र संशयः ।

श्रद्धाभक्तियुतोऽनेन मन्त्रेणावाहयेदम् ।

सुरकात्यायनी मुद्रा ह्यसाध्यार्थप्रदायिनी ॥ ११॥

दोनों हाथों की मुट्ठियों को परस्पर मिलाकर एक मुट्ठी की उँगलियों से दूसरी मुट्ठी की उँगलियों को लपेट कर दोनों तर्जनियों को तनिक प्रसारित करके पुनः सिकोड़े। इससे सिद्धि मिलती है। देहशोधन, मन्त्रसिद्धि तथा आकर्षण में यह मुद्रा विहित है। क्रोधभैरव मन्त्र का १००० जप करके इस मुद्रा के प्रदर्शन से भूतिनी आकर्षित होती है। तदनन्तर होम आदि से वह वशीभूत हो जाती है । अतः भक्तियुक्त होकर क्रोधभैरव मन्त्र द्वारा भूतिनी का आकर्षण करें। इस सुरकात्यायनी मुद्रा से असाध्य कार्य भी साधित हो जाता है ।। ११ ।।

मुष्टि विधाय चान्योन्यं कुश्वयेत्तर्जनीद्वयम् ।

इयं कात्यायनी मुद्रा भूतिनी सर्वसिद्धिदा ॥ १२ ॥

दोनों हाथों की मुट्ठियों को मिलाकर बन्द करके दोनों तर्जनियों को सिकोड़ें रहना कात्यायनी मुद्रा है। जिससे भूतिनी समस्त सिद्धि प्रदान करती हैं ।। १२ ।।

अस्या एव तु मुद्राया मध्यमे मुखसङ्गते ।

कनिष्ठे द्वे निवेश्याथ निर्दिष्टा साधकप्रिया ॥

कुलभूतेश्वरीमुद्रा भूतिनी कुलवासिनी ।

अनया बद्धया शीघ्र सिद्धि यच्छति भूतिनी ॥ १३ ॥

ऊपर कही गयी कात्यायनी मुद्रा में दोनों मध्यमांगुलियों के मुखों को आपस में मिलाकर दोनों कनिष्ठा अंगुलियों के साथ जोड़ें। यह मुद्रा साधक का हित करती है। इसका नाम है- कुलभूतेश्वरी मुद्रा इस मुद्रा का निवास भूतिनी कुल में होता है। इस मुद्रा को बाँधने से भूतिनी शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करती है ॥ १३ ॥

मुष्टिद्वयं पृथक्कृत्वा तर्जनीच प्रसारयेत् ।

भद्रकात्यायनीमुद्रा वाञ्छितार्थप्रदायिनी ॥ १४ ॥

दोनों हाथों की अलग-अलग मुट्ठियाँ बाँधकर दोनों तर्जनियों को फैलायें । इसका नाम 'भद्रकात्यायनी मुद्रा' है। यह साधक को मनोवांछित सिद्धि प्रदान करती है ।। १४ ।।

उभे मुष्टी विधायाथ वेष्टयेत्तर्जनीद्वयम् ।

कुलकात्यायनी मुद्रा भूतिनीरक्षणक्षमा ॥

ख्यातेयं चण्डपूर्वाया जयमुख्यार्थसाधिनी ।

द्राविणी कुलगोत्राणां सर्वभूतभयङ्करी ।। १५ ।।

एक साथ दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधकर दोनों की तर्जनी को एक दूसरे में लपेटे । यह है कुलकात्यायनी मुद्रा । इससे भूतिनी रक्षा करती हैं। चण्डकात्यायनी साधन में यह विहित है। यह मुद्रा समस्त शत्रुओं के कुल तथा गोत्र आदि का नाश तथा समस्त भूतों में भयोत्पादन करती है ।। १५ ।।

बद्ध्वा मुष्टि ततोऽन्योऽन्यं कनिष्ठे वेष्टयेदुभे ।

प्रसार्योभे च तर्जन्यो प्रकुर्यात् कुण्डलाकृती ॥

त्रैलोक्याकर्षिणी मुद्राऽजविष्णुरुद्रसाधिनी ।

किं पुनः सर्वभूतिन्याः सिद्धिरस्याः प्रसादतः ।

शुभकात्यायनी मुद्रा प्रोक्तेयं वज्रपाणिना ।

पूजिता गन्धपुष्पाद्यैर्मत्स्यमांसादिभिस्तथा ।

सिद्धि यास्यन्ति भूतिन्यो दास्यतां यान्ति तत्क्षणात् ।। १६ ।।

दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधकर दोनों कनिष्ठा को एक-दूसरे में लपेटे । तदनन्तर दोनों तर्जनियों को प्रसारित करके कुण्डलाकृति बनाये। इस मुद्रा से तीनों लोक आकर्षित हो जाते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, शिव तक सिद्ध हो जाते हैं। इस शुभकात्यायनी मुद्रा से भूतिनी-सिद्धि मिलती है । इसे देवराज वज्रपाणि ने कहा है । इस मुद्रा के प्रयोग से गन्ध-पुष्प-धूप-दीप-मछली तथा मांसादि उपहार से पूजन करने पर भूतिनी तत्क्षण दासत्व स्वीकार करके सिद्ध हो जाती है।।१६।।

अथ वक्ष्ये दरिद्राणां हिताय क्रोधभूपतिम् ।

भूतकात्यायनी सिद्धिसाधनं परमाद्भुतम् ।

पितृभूमी त्र्यहं स्थित्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

भूतकात्यायनी देवी शीघ्रमायाति सन्निधिम् ।

रक्तपूर्ण कपालेन भक्तितोऽर्घ्यं प्रदापयेत् ।

किङ्करोमि वदेत्तुष्टा भव मातेति साधकः ।

राज्यं ददाति भोग्यच सर्वाशाः पूरयत्यपि ।

पालयेन्मातृवत् पञ्चसहस्राब्दानि जीवति ।

मृते राजकुले जन्म नान्यथा क्रोधभाषितम् ॥ १७ ॥

अब दरिद्रों के हितार्थ भूतकात्यायनी का परम अद्भुत सिद्धि-साधन कहा जा रहा है। श्मशान में रहकर ३ दिनों में ८००० जप करें। इस मुद्रा से त्रिभुवन तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव तक भी आकर्षित तथा सिद्ध हो जाते हैं। ऐसा करने पर देवी भूतकात्यायनी साधक के पास तुरन्त आती है । तदनन्तर साधक नरकपाल में रक्त भरकर उन्हें अर्घ्य प्रदान करें। ऐसा करने पर देवी साधक से कार्य पूछती हैं । तब साधक कहे- 'देवी मुझे राज्य तथा भोग्य पदार्थ दो और मेरी इच्छाएँ पूर्ण करो'। इस साधन में सिद्धि मिलने पर देवी साधक का प्रतिपालन माँ के समान करती हैं और साधक की सत्ता ५००० वर्ष पर्यन्त रहती है । मरण के अनन्तर राजा के कुल में जन्म होता है, ऐसा क्रोधभूपति ने कहा है ॥ १७ ॥

वज्रपाणिगृहं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

क्रोधराजं नमस्कृत्य दिवा कुर्यात् पुरस्क्रियाम् ।

ततो रात्रावेकलिङ्ग गत्वा सम्पूज्य भक्तितः ।

जपेदष्टसहस्रन्तु दिव्यपुष्प प्रदानतः ।

यच्छति प्रार्थितं देवी क्रोधभूपप्रसादतः ॥ १८ ॥

वज्रपाणि के गृह ( मन्दिर ) में जाकर ८००० जप करें। दिन में प्रात:- काल का कृत्य करके रात्रि में शिवलिंग के पास जाकर क्रोधभैरव को प्रणाम करके ८००० जप करें एवं दिव्य पुष्प चढ़ाकर देवी से प्रार्थना करें। देवी क्रोधभूपति की कृपा से साधक को इच्छित वर प्रदान करती हैं ।। १८ ।

गत्वकलिङ्गं यामिन्यां जपेदष्टसहस्रकम् ।

मञ्जीरशब्दितं तत्र श्रूयते प्रथमे दिने ।

दृश्यते च द्वितीयेऽह्नि द्रष्टव्या न च भाषते ।

वक्त तृतीये सा वाचं किमिच्छसि वद स्फुटम् ।

भवोपस्थापिका यावज्जीवमित्याह साधकः ।

धनान्यानीय दिव्यां स्त्रीं कन्यां राजाङ्गनामपि ।

सुमेरुशृङ्गं नयति पृष्ठमारोप्य जीवति ।

सहस्रार्द्धश्व वर्षाणां जन्म राजकुले पुनः ॥ १९ ॥

रात्रि में शिवलिंग के पास ८००० जप करें। पहले दिन नूपुर का शब्द सुनाई पड़ेगा। दूसरे दिन पुनः ८००० जप द्वारा देवी का दर्शन मात्र मिलेगा किन्तु उनसे बातचीत नहीं होगी। तीसरे दिन पुनः ८००० जप करने पर देवी उससे उसकी इच्छा पूछती हैं। तब साधक कहे- 'तुम आजीवन मेरी परिचारिका बनकर रहो'। तब देवी साधक को धन, रत्न आदि एवं दिव्य स्त्री लाकर देती हैं और उसे पीठ पर बैठाकर सुमेरु पर्वत शिखर पर ले जाती हैं। इस प्रकार से साधक ५०० वर्ष जीवित रहकर मरने पर राजकुल में जन्म लेता है ।। १९ ।।

नीचगासङ्गमं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

परिवारान्विता दिव्यं भूतिन्यायाति सन्निधिम् ।

आगता मन्त्रिता तु स्त्रीभावेनापि च कामिता ।

उपस्थायी भवेन्नित्यं दीनारद्वयदायिनी ।

गत्वोद्यानश्च यामिन्यां जपेदष्टसहस्रकम् ।

दिनानि त्रीणि मञ्जीरशब्दस्य श्रवणं भवेत् ।

चतुर्थे दृश्यते देवी पञ्चमे दृश्यते पुनः ।

षष्ठसङ्ख्यादिने पच दीनाराणि प्रयच्छति ।

सप्तमेऽह्नि शिवस्थाने विधाय मण्डलं शुभम् ।

धूपञ्च गुग्गुलुं दत्त्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

भूतिनी कन्यकागत्य गृहं स्वागतमाचरेत् ।

कामिता सा भवेद्भार्या प्रत्यहं रतिमाचरेत् ।

मुक्ताहारं परित्यज्य शयने याति नित्यशः ।

गहीतव्यं न तद्वारं ग्रहणाभावतोऽपि च ।

पञ्चविंशतिदीनारं वस्त्रद्वयमनुत्तमम् ।

शत्रु नाशयते शीघ्र सहस्रायुः करोति च ।

मृते राजकुले जन्म साधकस्य न संशयः ॥ २० ॥

किसी नदीसंगम पर जाकर ८००० जप करें। इससे परिवार के साथ देवी भूतिनी प्रकट होती हैं तथा स्त्रीभाव से साधक के पास आकर प्रतिदिन २ स्वर्णमुद्रा प्रदान करती हैं।

किसी बाग में रात्रि में ८००० जप करें। ३ दिन जप करने से नूपुर शब्द श्रुतिगोचर होता है । चौथे दिन देवी का दर्शन होता है। पाँचवें दिन पुनः देवी का दर्शन मिलता है। छठे दिन देवी साधक को ५ स्वर्णमुद्रा देती हैं। सातवें दिन शिवलिंग के पास दिव्य आभूषण, धूप, दीप रखकर पुन: ८००० जप करे । इससे भूतिनी युवती के वेश में आकर साधक का मंगलाचरण करके साधक की भार्या बनकर रात्रि में प्रतिदिन उसके साथ विहार करती हैं । प्रातःकाल शय्या पर मोती का हार रखकर चली जाती हैं। उसके हार को नहीं लेना चाहिए, उसे न लेने पर वह साधक को प्रतिदिन २५ स्वर्णमुद्रा तथा २ वस्त्र देती हैं। साधक के समस्त शत्रु विनष्ट हो जाते हैं। ऐसा साधक १००० वर्ष जीवित रहता है। मरने पर राजकुल में जन्म लेता है ॥ २० ॥

वज्रपाणिगृहं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

अन्यं देवालयं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

पुनारात्री जपेदष्टसहस्रं त्र्यहमेव च ।

शताष्टपरिवाराढ्या शीघ्रमायाति भूतिनी ।

सतोयचन्दनार्येण तुष्टा यच्छति कामिकम् ।

परिवारशतान्यष्टवस्त्रालङ्कारभूषणैः।

रस रसायनं पश्ञ्चसहस्राब्दानि जीवति ।

मृते राजकुले जन्म भवेत् क्रोधप्रसादतः ।। २१ ।।

वज्रपाणि के मन्दिर में ८००० जप करे तथा अन्य देवालय में भी ८००० जप करे । तदनन्तर रात्रि में भी ८००० जप करें। ऐसे ३ दिन करने पर १०८ परिवार-जन के साथ भूतिनी आती हैं। साधक देवी को जल-चन्दनादि से अर्घ्य दे । देवी प्रसन्न होकर वस्त्रालंकार से साधक की कामना पूरी करती हैं। साधक ५००० वर्ष पर्यन्त नाना प्रकार की रसकेलि के साथ सुखभोग करके मरणोपरान्त राजकुल में जन्म लेता है ।। २१ ।।

वज्रपाणिगृहं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

पूर्वसेवा भवेदस्याः पुरश्चरणपूर्विका ।

द्वितीयायां समारभ्य चतुर्थ्यान्तु समापयेत् ।

रात्रियोगे च पञ्चम्यां हुनेदष्टसहस्रकम् ।

करवीरभवेर्वह्नो दधिक्षोद्रघृतान्वितैः ।

मालती कुसुमैरष्टसहस्रकं शतद्वयम् ।

सहस्रार्द्धसहायाढ्या महाभूतेश्वरी द्रुतम् ।

एति नूपुरशब्देन देयोऽर्घ्यः पुष्पवारिणा ।

जननी भगिनी भार्या स्वेच्छया कामिता भवेत् ।

माता स्वर्णाद्यलङ्कारं भोजनच प्रयच्छति ।

भगिनी स्त्रियमानीय राज्यं यच्छति कामिकम् ।

दिव्यरूपा भवेद्भार्या सर्वाशाः पूरयत्यपि ।

ददाति भोजन वायुर्दशवर्षसहस्रकम् ।

मृते राजकुले जन्म वज्रपाणिप्रसादतः ।

अयुतं हि जपेन्मन्त्रं पौर्णमास्यां पुरष्क्रिया ।

रात्रौ देवालयं गत्वा द्वारपूजां विधाय च ।

सकलां प्रजपेद्रात्रि प्रातरागच्छति ध्रुवम् ।

दत्त्वाध्यं रुधिरेणैव तुष्टा भवति किङ्करी ।

प्रत्यहं भोजनं पश्च दीनाराणि प्रयच्छति ।

शतमेकं पञ्चवर्षं जीवतीति न संशयः ॥ २२ ॥

वज्रपाणि के गृह में जाकर रात को ८००० जप करे तथा विधान क्रम से पुरश्चरण करते हुए द्वितीया से प्रारम्भ करके चतुर्थी को जप का समापन करे । तदनन्तर पंचमी की रात्रि में दधि, मधु तथा घी मिश्रित कनेर के फूलों से १००८ तथा मालती को घी मिश्रित करके १२०० होम करें। इस प्रकार करने से ८००० परिवार से आवृत महाभूतेश्वरी नूपुर-ध्वनि करते हुए आती हैं। उन्हें आते ही पुष्प तथा जल से अर्घ्य दे । अब साधक इच्छा से जननी, भगिनी किंवा भार्या किसी एक सम्बन्ध द्वारा उन्हें सम्बोधित करे । माता बनाने पर वे अलंकार तथा नाना भोजनीय द्रव्य देती हैं। बहन बनाने पर वे उत्तमा स्त्री तथा भोग्य वस्तु देती हैं। भार्या बनाने पर वे साधक की समस्त इच्छा पूर्ण करके उत्तमोत्तम भोजनीय द्रव्य देती हैं। ऐसा साधक १०००० वर्ष जीवित रहता है और मरने पर राजकुल में जन्म लेता है । इतना करके पूर्णिमा को १०००० मन्त्र जपे । यही है मन्त्र-साधन का पूर्व- कृत्य । रात्रि में देवमन्दिर में द्वार की पूजा करे। समस्त रात्रि मन्त्र जप करे । सुबह देवी आती हैं, तब उन्हें अर्घ्य दे । वे प्रसन्न होकर किंकरी बन जाती हैं। वे प्रतिदिन विविध भोजन तथा ५ स्वर्णमुद्राएँ देती हैं। ऐसा साधक १०५ वर्ष जीवित रहता है ॥ २२ ॥

विषबीजं ततो वर्म तोयघ्नश्व समुद्धरेत् ।

मांसं मे पदमाभाष्य प्रयच्छानल वल्लभा ।

रात्री पितृभुवं गत्वा जपेदष्टसहस्रकम् ।

पिशिताकर्षिणी देवी सिद्धा भवति निश्चितम् ।

नीत्वा मांसपलान्यष्टौ विलोक्य च चतुर्दिशम् ।

योषिद्ब्रह्मस्वरूपेण पुरस्तिष्ठति भूतिनी ।

ततो मांसं प्रदातव्यं भुक्त्वा मांसं प्रयच्छति ।

मांसादानेन म्रियते अक्षि-कुक्षिः स्फुटत्यपि ॥ २३ ॥

इति भूतडामरमहातन्त्रेऽष्टकात्यायनी साधनं नाम पश्चमं पटलम् ।

'ॐ तोयध्नं मांसं मे प्रयच्छ स्वाहा' । रात्रि में श्मशान में यह मन्त्र ८००० बार जपे । इससे मांसाकर्षिणी भूतिनी सिद्ध हो जाती हैं। तदनन्तर ३२ तोला मांस हाथ में लेकर चारों ओर देखने पर भूतिनी देवी दीखने लगती हैं। तत्क्षण देवी को माँस दे । समस्त मांस न देने पर साधक की मृत्यु होती है या आँखें अथवा पेट फूट जाता है।।२३।।

भूतडामर महातन्त्र का पञ्चम पटल समाप्त ।

आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल ६ 

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