रुद्रयामल तंत्र पटल २५

रुद्रयामल तंत्र पटल २५                  

रुद्रयामल तंत्र पटल २५ में सृष्टि की प्रक्रिया में उत्पत्ति, पालन एवं संहार का निरूपण है । अव्यक्त रूप प्रणव से ही सृष्टि होती है। अ उ म- ये तीनों अक्षर आकाश में सदैव भासित होते रहते हैं। अतः सूक्ष्म अकार से सृष्टि और  स्थूल कला वाले निरक्षर से उस पर विजय (ॐ) का विनाश होता है। मायादि के वशीकरण से योगप्रतिष्ठा होती है। काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य एवं लोभादि से योग की पराकाष्ठा होती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, मिताहार, प्रपञ्चार्थवर्जन, शौच, ब्रह्मचर्य, आर्जव, क्षमा एवं धैर्य आदि साधक के लिए आवश्यक है । योगी का चरमावस्था में ब्रह्मज्ञान परमावश्यक है - 

शृणुष्व योगिनां नाथ धर्मज्ञो ब्रह्मसञ्ज्ञक ।

अज्ञानध्वान्तमोहानां निर्मल ब्रह्मसाधनम्‌ ॥

ब्रहमज्ञानसमो धर्मों नान्यधर्मो विधीयते ।

यदि ब्रह्मज्ञानधर्मी स सिद्धो नात्र संशयः ॥

कोटिकन्याप्रदानेन कोटिजापेन किं फलम्‌ ।

ब्रह्यज्ञानसमो धर्मो नान्यधर्मो विधीयते ।॥ (रुद्र०\ २५.३४- ३६)

इसी ब्रह्यज्ञान के प्रसङ्ग में योगियों के सूक्ष्म तीर्थ की चर्चा की गई है -

ईडा च भारती गङ्गा पिङ्गला यमुना मता ।

ईडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।

त्रिवेणीसङ्गमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।

त्रिवेणीसङ्गम वीरश्चालयेत्तान्‌ पुनः पुनः ॥

सर्वपापाद् विनिर्मुक्तः सिद्धो भवति नान्यथा ।

पुनः पुनः भ्रामयित्वा महातीर्थे निरञ्जने ॥ (रुद्र० २५.४५-- ४७)

फिर प्राणायाम का तीनों सन्ध्याओं में विधान किया गया है (५७--६९) । फिर योगाभ्यास की प्रशंसा कर प्राणायाम के अन्य प्रकार कहे गए हैं (७०-८१) । फिर योगियों के जप के नियम (८२-९७) बताकर खेचरीमुद्रा तथा शाङ्करीविद्या का निरूपण है। अन्त में अध्यात्म तत्त्व का निरूपण करके प्राणायाम को ही सर्वोपरि कहा गया है।

रुद्रयामल तंत्र पटल २५

रुद्रयामल तंत्र पटल २५                  

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल – सूक्ष्मसृष्टिस्थितिसंहार कथन

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः - सूक्ष्मसृष्टिस्थितिसंहारकथनम्

षट्‍चक्रसारसंकेते योगशिक्षाविधिनिर्णयः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ पञ्चविंशं पटल:

आनन्दभैरव उवाच

वद कान्ते रहस्यं मे तत्त्वावधानपूर्वकम् ।

यद् यज्ज्ञात्वा महायोगी प्रविशत्यनलाम्बुजे ॥ १ ॥

यदि स्नेहदृष्टिरस्ति मम ब्रह्मनिरूपणम् ।

योगसारं तत्त्वपथं निर्मलं वद योगिने ॥ २ ॥

आनन्दभैरव ने कहाहे कान्ते ! निश्चयपूर्वक तत्त्वों के रहस्यों को कहिए, जिसे जानकर महायोगी वायुरूप में पद्म में प्रवेश करता है। यदि मुझमें आपका स्नेह है, तो योग का सारभूत तत्त्व का प्रदर्शक सर्वथा निर्मलब्रह्म निरूपण मुझ योगी के लिए कहिए ।। १-२ ॥

आनन्दभैरवी उवाच

शृणु प्राणेश वक्ष्यामि योगनाथ क्रियागुरो ।

योगाङ्गं योगिनामिष्टं तत्त्वब्रह्मनिरूपणम् ॥ ३ ॥

एतत् सृष्टिप्रकारञ्च प्रपालनविधिं तथा ।

असंख्यसृष्टिसंहारं वदामि तत्त्वतः शृणु ॥ ४ ॥

आनन्दभैरवी ने कहाहे योगनाथ ! हे क्रियागुरो ! हे प्राणेश ! योगिजनों के लिए इष्टसाधनभूत योग का अङ्गत्तत्त्व ब्रह्मनिरूपण कहती हूँ, सुनिए इस जगत् की सृष्टि का प्रकार उसके प्रकृष्ट रूप से पालन का विधान तथा इस असंख्य सृष्टि का संहार तत्त्वतः कहती हूँ, इसे सुनिए । ३-४ ।।

सूक्ष्मसृष्टिस्थितिसंहारकथनम्

त्वमेव संहारकरो वरप्रियः प्रधानमेषु त्रितयेषु शङ्कर ।

संहारभावं मलभूतिनाशनं प्रधानमाद्यस्य जगत्प्रपालनम् ॥ ५ ॥

हे शङ्कर ! सृष्टि, पालन और संहार इन तीनों के क्रम में आप ही संहार करने वाले वरदाता तथा प्रधान हैं। त्रिलोक के मलभूत विभूतियों का विनाश ही संहार का लक्षण है। इसके बाद जगत् का पालन प्रधान है ॥ ५ ॥

तत्राधनं मेरुभुजङ्गमङ्ग सृष्टिप्रकारं खलु तत्र मध्यमम् ।

तत्पालनञ्चेति मयैव राज्ये संहाररूपं प्रकृतेर्गुणार्थकम् ॥ ६ ॥

मेरु के समान अङ्ग को भुजङ्ग के समान रखना यह सृष्टि का प्रकार अधम है। उसका पालन करना मध्यम है प्रकृति के गुणों के अर्थ को बाहर कर देना 'संहार' है ।। ६ ।।

एतत्त्रयं नाथ भयादिकारणं तन्नाशनाम्ने' प्रणवं गुणात्मकम् ।

त्रयं गुणातीतमनन्तमक्षरं सम्भाव्य योगी भवतीह साधकः ॥ ७ ॥

हे नाथ! सृष्टि, पालन और संहार ये तीनों ही योगयों के लिए भयप्रद हैं इसके नाश हो जाने पर गुणात्मक प्रणव ही शेष रहता है। यह तीन अक्षरों वाला प्रणव गुणातीत है, अनन्त है और अक्षर है। अतः उस प्रणव का ध्यान करने से योगी सच्चा साधक बन जाता है ।। ७ ।

अव्यक्तरूपात् प्रणवाद्धि सृष्टिस्तल्लीयते व्यक्ततनोः समासा ।

सूक्ष्माद्यकारात् प्रतिभान्ति खे सदा प्रणश्यति स्थूलकलान्निरक्षरात् ॥ ८ ॥

अव्यक्त रूप प्रणव से ही सृष्टि होती है उस प्रणव के व्यक्त आकार होने पर सृष्टि संक्षिप्त होकर उसी में लीन हो जाती है। आदि में रहने वाले 'अ उ म' ये तीनों अक्षर आकाश में सर्वदा भासित होते हैं, निरक्षर स्थूल कला से वह '' नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥

अतीव चित्रं जगतां विचित्रं नित्यं चरित्रं कथितुं न शक्यते ।

हंसाश्रितास्ते भववासिनो जना ज्ञात्वा न देहस्थमुपाश्रयन्ते ॥ ९ ॥

जगत् के इस विचित्र नित्य चरित्र का वर्णन करना अशक्य है। संसारी मनुष्य इस हंसमन्त्र का आश्रय ले लेने पर पुनः देहबन्धन के झञ्झट में नहीं पड़ते ।। ९ ।।

देहाधिकारी प्रणवादिदेव मायाश्रितो निद्रित एष कालः ।

प्रलीयते दीर्घपथे च काले तदा प्रणश्यन्ति जगत् स्थिता जनाः ॥ १० ॥

कालो जगद्भक्षक ईशवेशो तरी तु जीर्णा पतिहीनदीना ।

स एव मृत्युर्विहितं चराचरं प्रभुञ्जति श्रीरहितं पलायनम् ॥ ११ ॥

प्रणव रूप ये आदिदेव ही इस देह के अधिकारी हैं, जब देहधारी जीव माया का आश्रय ले लेता है तब वह काल उसके निद्रा का काल कहा जाता है। जब जीव इस दीर्घमार्ग वाले ( माया रूप) काल में अपने को लीन कर लेता है तब उसके लिए जगत् में स्थित समस्त जन लीन हो जाते हैं। जब 'आप डूबे तो जग डूबा' ईश्वर रूप धारण करने वाला यह काल जगत् का भक्षक हो जाता है। स्वामी विहीन मेरी जीर्ण नाव दीन हीन है और वही चराचर जगत् का मृत्यु है। श्री से हीन, अहितकारी एवं भगने वाले को वह माया खा जाती है ।। ११ ।

पञ्चेन्दुतत्त्वेन महेन्द्रसृष्टिः प्रतिष्ठिता यज्ञविधानहेतुना ।

सदैव यज्ञं कुरुते भवार्णवे निःसृष्टिकाले वरयज्ञसाधनम् ॥ १२ ॥

यज्ञों के विधान के लिए महेन्द्र से लेकर मनुष्य पर्यन्त यह सारी सृष्टि पञ्च शून्य तत्त्व से रची गई है। योगी जन इस संसार सागर में नित्य यज्ञ करते रहते हैं, क्योंकि निःसृष्टि काल में यज्ञ ही उत्तम साधन कहा गया है ।।१२।।

हिताहितं तत्र महार्णवे भयं विलोक्य लोका भयविह्वलाः सदा ।

विशन्ति ते कुत्सितमार्गमण्डले अतो महानार किबुद्धिहीनाः ॥ १३ ॥

इस संसार रूप समुद्र में हित और अहित दोनों ही महाभय हैं, फिर भी लोक में अभय होने के लिए व्याकुल वे जन इसी भय को देखकर लोग भयविह्वल हो जाते हैं और कुत्सित मार्ग मण्डल में प्रवेश करते हैं। ऐसे लोग महानारकी एवं बुद्धिहीन हैं ॥ १३ ॥

मायामये धर्मकुलानले भवे लीनो हरेर्याति पथानुसारी ।

म्रियेत कालानलतुल्यमृत्युना कथं तु योगी कथमेव साधकः ॥ १४ ॥

यह संसार मायामय है । मानव अधर्म समूह रूप अग्नियों से घिरा हुआ है, ऐसा सोचकर जो भगवत्प्राप्ति के पथ से जाकर उसमें लीन हो जाता है, वही श्रेष्ठ है । किन्तु जो कालाग्नि के समान मृत्यु से मर जाता है, भला वह किस प्रकार योगी हो सकता है तथा किस प्रकार साधक हो सकता है ॥ १४ ॥

यः साधकः प्रेम-कलासुभक्त्या स एव मूर्खो यदि याति संसृतौ ।

संसारहीनः प्रियचारुकाल्याः सिद्धो भवेत् कामदचक्रवर्ती ॥ १५ ॥

जो साधक प्रेम कला सुभक्ति के होते हुए भी इस संसृति में भटकता है वही मूर्ख है किन्तु जो संसार की वासना से हीन है, अत्यन्त सुन्दरी महाकाली का प्रेमी है, वही कामद चक्रवर्ती साधक सिद्ध होता है ।। १५ ।।

वसेन्न सिद्धो गृहीणीसमृद्ध्यां महाविपदुःखविशोषिकायाम् ।

यदीह काले प्रकरोति वासनां तदा भवेन्मृत्युरतीव निश्चितम् ॥ १६ ॥

सिद्ध साधक को कभी भी गृहिणी की समृद्धि में निवास नहीं करना चाहिये क्योंकि वह समृद्धि महाविपत्ति दुःख तथा शरीर का शोषण करने वाली है। यदि इस संसार में गृहिणी विषयक कामना हुई तो मृत्यु भी निश्चित है ।। १६ ।।

कृपावलोक्यं वदनारविन्दं तदैव हे नाथ ममैव चेद्यदि ।

सदैव यः साधुगणाश्रितो नरो ध्यात्वा निगूढमतिभागगद्वतः ॥ १७ ॥

हे नाथ! यदि साधक का मुखारविन्द मेरी कृपा के अवलोकन का पात्र बना, तो वह सदैव सज्जनों का समाश्रित हो जाता है और मेरा ध्यान कर गुप्त रहस्य में मतिमान् हो जाता है ।। १७ ।।

स एव साधुः प्रकृतेर्गुणाश्रितः कृती वशी वेदपुराणवक्ता ।

सत्त्वं महाकाल इतीह चाहं प्रणिश्चयं ते कथितं श्रिये मया ॥ १८ ॥

वही साधु है, प्रकृति के गुणों से आश्रित, कृती, वशी और पुराण वक्ता है। हे महाकाल ! मैं सत्त्वगुण स्वरूपा हूँ । मैने श्रीप्राप्ति के लिए यहाँ पर यह सब आप से कहा ॥ १८ ॥

गुणेन भक्तेन्द्रगणाधिकानां साक्षात् फलं योगजपाख्यसङ्गतिम् ।

अष्टाङ्गभेदेन शृणुष्व कामप्रेमाय भावाय जयाय' वक्ष्ये ॥ १९ ॥

भक्तेन्द्र गुणों में सब से श्रेष्ठ होने वाला फल योगजय की सङ्गति है। अब उस योग के अष्टाङ्ग भेद से होने वाले फलों को सुनिए। यह काम प्रेम के लिए, भावना के लिए तथा जय के लिए कहती हूँ ॥ १९ ॥

मायादिकं यः प्रथमं वशं नयेत् स एव योगी जगतां प्रतिष्ठितः ।

रविप्रकारं यमवासनावशे शृणुष्व तं कालवशार्थकेवलम् ॥ २० ॥

जो इस जगत् में रह कर सर्वप्रथम माया को अपने वश में कर लेता है, वही योगी प्रतिष्ठा का पात्र है।निम्नलिखित १२ प्रकार के यम से ( द्र० २५ २३-२५ ) माया को अपने वश में करना चाहिए। अब उन यमों का समय आने पर केवल श्रवण करना चाहिए ॥ २० ॥

सर्वत्र कामादिकमाशु जित्वा जेतुं समर्थो यमकर्मसाधकः ।

कामं तथा क्रोधमतीव लोभं मोहं मदं मात्सरितं सुदुष्टकृतम् ॥ २१ ॥

यम क्रिया को सिद्ध करने वाला साधक ही कामादि दोषों को अपने वश में कर माया पर विजय प्राप्त कर सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद ( अहङ्कार), मत्सरादि ये सभी बड़े दुर्घट पाप हैं ॥ २१ ॥

अतो मया द्वादश शब्द घातकं वशं समाकृत्य महेन्द्रतुल्यम् ।

सर्वत्र वायोर्वशकारणाय करोति योगी सचलान्यथा भवेत् ॥ २२ ॥

इनको विनष्ट करने वाला द्वादश प्रकार का यम ही है। ये इन्द्र के समान बलवान् है, अतः इन्हे अपने वश में करे। शरीर में सर्वनाम वायु को वश में करने के लिए यम का अनुष्ठान अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा योगी अस्थिर हो जाता है ।।२२।।

अहिंसनं सत्यसुवाक्यसुप्रियमस्तेयभावं कुरुते वसिष्ठवत् ।

सुब्रह्मचर्यं सुदृढार्ज्जवं सदा क्षमाधृतिं सेवसुसूक्ष्मवायुनः ॥ २३ ॥

तथा मिताहारमसंशयं मनः शौचं प्रपञ्चार्थविवर्जनं प्रभो ।

करोति यः साधकचक्रवर्ती वाद्योत्सवाज्ञानविवर्जनं सदा ॥ २४ ॥

प्रथम यम अहिंसा है, दूसरा सत्य और प्रिय वाक्य है, तीसरा अस्तेय 'अदत्तानामु- पादानम्' है। साधक को इन्हें वशिष्ठ के समान संयम करना चाहिए । चौथा ब्रह्मचर्य, पाँचवा अत्यन्त ऋजुता, छठवाँ क्षमा, सातवाँ धैर्य, आठवाँ सुसूक्ष्मवायु की सेवा ( प्राणायाम), नवाँ मिताहार का सेवन, दसवाँ मन में किसी प्रकार का संशय न आने देना, ग्यारहवाँ शौच, बारहवाँ प्रपञ्चार्थ का विवर्जन ये द्वादश संख्या वाले यम हैं। जो इनका अनुष्ठान करता है, वह साधक चक्रवर्ती है। इसके अतिरिक्त उस साधक को वाद्य, उत्सव तथा अज्ञान का त्याग करना चाहिए ।। २३-२४ ।।

वशी यमद्वादशसंख्ययेति करोति चाष्टाङ्गफलार्थसाधनम् ।

वरानना श्रीचरणारविन्दं सत्त्वादशाच्छन्नत्रिनेत्रगोचरम् ॥ २५ ॥

जितेन्द्रिय साधक को योग के अष्टाङ्ग के फल की प्राप्ति के लिए उसके साधन भूत १२ यमों का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से वरानना महाश्री के चरणारविन्द उसके नेत्र के सामने प्रकट हो जाते हैं ।। २५ ।।

तपश्च सन्तोषमनस्थिरं सदा आस्तिक्यमेवं द्विजदानपूजनम् ।

नितान्तदेवार्चनमेव भक्त्या सिद्धान्तशुद्धश्रवणं च हीर्मतिः ॥ २६ ॥

जपोहुतं तर्पणमेव सेवनं तद्भावनं चेष्टनमेव नित्यम् ।

इतीह शास्त्रे नियमाश्चतुर्दशा भक्तिक्रियामङ्गलसूचनानि ॥ २७ ॥

१. तप, २. संतोष, ३ मन की स्थिरता, ४ आस्तिक्य, ५ द्विजदम्पती की पूजा, ६. मन लगाकर देवार्चन, ७. भक्तिपूर्वक शुद्ध सिद्धान्त का श्रवण, ८. लज्जा, ९. बुद्धि, १०. जप, ११. होम, १२. तर्पण, १३. भगवान् की सेवा और १४. भावनापूर्वक चेष्टाये १४ नियम हैं, जो शास्त्र प्रतिपादित हैं और भक्ति, क्रिया तथा मङ्गल के सूचक हैं ।। २६-२७ ।।

पूर्वोक्तयोन्यासनमेव सत्यं भेकासनं बद्धमहोत्पलासनम् ।

वीरासनं भद्रसुभकासनं च पूर्वोक्तमेवासनमाशु कुर्यात् ॥ २८ ॥

सर्वाणि तन्त्राणि कृतानि नाथ सूक्ष्माणि नालं वशहेतुना मया ।

तथापि मूढो यदि वायुपान माहत्य योनौ भ्रमतीह पातकी ॥ २९ ॥

पूर्व में कहा गया योन्यासन भेकासन, बद्धपद्मासन, वीरासन, भद्रासन, सुभकासन तथा अन्य पूर्वोक्त आसनों को करना चाहिए। हे नाथ! मैंने सभी सूक्ष्म तन्त्रों का निर्माण किया, किन्तु कोई भी मन को वश में करने के लिए समर्थ नहीं है, फिर भी मूर्ख व पापी वह है जो वायु पान को छोड़कर ८४ लक्ष योनियों में भटकता रहता है ।। २८-२९ ।।

प्राणानिलानन्दवशेन मत्तो गजेन्द्रगामी पुरुषोत्तमं स्मृतम् ।

तस्यैव सेवानिपुणो भवेद्वशी ब्रह्माण्डलोकं परिपाति यो बली ॥ ३० ॥

जो प्राण वायु के आनन्द के वश में हो कर मस्ती में गजेन्द्र के समान चलता है वही पुरुषोत्तम है। ब्रह्माण्ड लोक का परिपालन करने वाला, महाबलवान् वशी परमात्मा उसी की सेवा सर्वोत्तम मानता है ॥ ३० ॥

वदामि देवादिसुरेश्वर प्रभो सूक्ष्मानिलं प्राणवशेन धारयेत् ।

सिद्धो भवेत् साधकचक्रवर्ती सर्वान्तरस्थं परिपश्यति प्रभुम् ॥ ३१ ॥

हे देवादि सुरेश्वर ! हे प्रभो ! मैं कहती हूँ कि सूक्ष्मवायु को अपने प्राण द्वारा धारण करे। ऐसा साधक साधन चक्रवर्ती तथा सिद्ध हो जाता है और सभी की अन्तरात्मा में परमात्मा प्रभु को देखता है ॥ ३१ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २५                  

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः – ब्रह्मज्ञान कथनम्

आनन्दभैरव उवाच

वद कान्ते महाब्रह्मज्ञानं सर्वत्र शोभनम् ।

येन वायुवशं कृत्त्वा खेचरो भूभृतां पतिः ॥ ३२ ॥

साधको ब्रह्मरूपी स्यात् ब्रह्मज्ञानप्रसादतः ।

ब्रह्मज्ञानात् परं ज्ञानं कुत्रास्ति वद सुन्दरि ॥ ३३ ॥

श्री आनन्दभैरव ने कहाहे कान्ते ! अब सर्वत्र शोभा देने वाले उस महा ब्रह्मज्ञान को कहिए, जिससे साधक वायु को अपने वश में कर राजाधिराज बन जाता है। जिस ब्रह्मज्ञान की कृपा से ब्रह्मज्ञान द्वारा ब्रह्मरूप हो कर साधक पर ज्ञान प्राप्त कर लेता है, हे सुन्दरि ! ऐसा ज्ञान कहाँ प्राप्त होता है ।। ३२-३३ ॥

आनन्दभैरवी उवाच

शृणुष्व योगिनां नाथ धर्मज्ञो ब्रह्मसञ्ज्ञक ।

अज्ञानध्वान्तमोहानां निर्मलं ब्रह्मसाधनम् ॥ ३४ ॥

ब्रह्मज्ञानसमो धर्मों नान्यधर्मो विधीयते ।

यदि ब्रह्मज्ञानधर्मी स सिद्धो नात्र संशयः ॥ ३५ ॥

श्री आनन्दभैरवी ने कहा आप धर्मज्ञ हैं। अतः हे योगेश्वर! हे ब्रह्म संज्ञा वाले! अज्ञान रूपी अन्धकार से मोहित होने वालों के लिए ब्रह्मसाधन अत्यन्त निर्मल मार्ग है। ब्रह्मज्ञान के धर्म के समान अन्य धर्म का कहीं कोई विधान नहीं प्राप्त होता । यदि साधक ब्रह्मज्ञान का धर्मवेत्ता हो गया तो वह सिद्ध है इसमें संशय नहीं ।। ३४-३५ ॥

कोटिकन्याप्रदानेन कोटिजापेन किं फलम् ।

ब्रह्मज्ञानसमो धर्मों नान्यधर्मो विधीयते ॥ ३६ ॥

सरोवरसहस्रेण कोटिहेमाचलेन च ।

कोटिब्राह्मणभोज्येन कोटितीर्थेन किं फलम् ॥ ३७ ॥

करोड़ों कन्यादान से, करोड़ों संख्या के जप से क्या फल है, जब कि ब्रह्मज्ञान की बराबरी करने वाला कोई अन्य धर्म नहीं है। हजारों तीर्थों में करोड़ों सुवर्ण पर्वत से, करोड़ों ब्राह्मण के भोजन से, तथा करोड़ों तीर्थों से क्या फल है, जबकि ब्रह्मज्ञान सबसे श्रेष्ठ है ।। ३६-३७ ॥

कामरूपे महापीठे साधकैर्लभ्यते यदि ।

ब्रह्मज्ञानसमो धर्मो नान्यधर्मो विधीयते ॥ ३८ ॥

ब्रह्मज्ञानं तु द्विविधं प्राणायामजमव्ययम् ।

भक्तिवाक्यं शब्दरसं स्वरूपं ब्रह्मणः पथम् ॥ ३९ ॥

प्राणायामं तु द्विविधं सुगर्भञ्च निगर्भकम् ।

जपध्यानं सगर्भ तु तदा युक्तं निगर्भकम् ॥ ४० ॥

अव्यया लक्षणाक्रान्तं प्राणायामं परात् परम् ।

ब्रह्मज्ञानेन जानाति साधको विजितेन्द्रियः ॥ ४१ ॥

कामरूप महापीठ में साधक को भले ही लाभ प्राप्त हो जावे, फिर भी ब्रह्मज्ञान के समान कोई अन्य धर्म का विधान नहीं है। ब्रह्मज्ञान दो प्रकार का हैएक अव्यय प्राणायाम जन्य है तथा दूसरा भक्ति वाक्य जो शब्द रस से परिप्लुत ब्रह्म का स्वरूप है। प्राणायाम भी दो प्रकार का हैपहला सुगर्भ तथा दूसरा अगर्भ । मन्त्र, जप, ध्यान सहित प्राणायाम सगर्भ है। बिना जप ध्यान के जो प्राणायाम है वह अगर्भ है। अव्ययालक्षण से आकान्त प्राणायाम सबसे श्रेष्ठ है। जितेन्द्रिय साधक ब्रह्मज्ञान होने पर उसका ज्ञान कर पाता है ।। ३८-४१ ।।

तत्प्रकारद्वयं नाथ मालावृत्तिं जपक्रमम् ।

मालावृत्ति द्वादशकं जपक्रमं तु षोडश ॥ ४२ ॥

नासिकायां महादेव लक्षणत्रयमनुत्तमम् ।

पूरकं कुम्भकं तत्र रेचकं देवतात्रयम् ॥ ४३ ॥

एतेषामप्यधिष्ठाने ब्रह्मविष्णुशिवाः प्रजाः ।

त्रिवेणी सङ्गमे यान्ति सर्वपापापहारकाः ॥ ४४ ॥

उस प्राणायाम के भी दो भेद हैपहला मालावृत्ति तथा दूसरा जपक्रम । मालावृत्ति में द्वादश संख्या तथा उपक्रम में षोडश संख्या होती हैं। हे महादेव ! नासिका में प्राणायाम के तीन लक्षण हैंपहला पूरक, दूसरा कुम्भक तथा तीसरा रेचक है। इनके तीन देवता हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा सदाशिव इन प्राणायामों के अधिष्ठातृ देवता हैं । जिस प्रकार प्रजा अपने समस्त पापों को विनष्ट करने के लिए त्रिवेणी सङ्गम में जाती है, उसी प्रकार साधक को इस त्रिवेणी में जाना चाहिए ।। ४२-४४ ।।

रुद्रयामल तंत्र पटल २५– योगियों का सूक्ष्मतीर्थ

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः

योगिनां सूक्ष्मतीर्थानि

ईडा च भारती गङ्गा पिङ्गला यमुना मता ।

ईडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ॥ ४५ ॥

योगियों के शरीर में ईडा भागीरथी गङ्गा है। पिङ्गला यमुना है। ईडा और पिङ्गला के मध्य में सुषुम्ना भारती सरस्वती हैं ।। ४५ ।।

त्रिवेणीसङ्गमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।

त्रिवेणीसङ्गमे वीरश्चालयेत्तान् पुनः पुनः ॥ ४६ ॥

सर्वपापाद् विनिर्मुक्तः सिद्धो भवति नान्यथा ।

पुनः पुनः भ्रामयित्वा महातीर्थे निरञ्जने ॥ ४७ ॥

वायुरूपं महादेवं सिद्धो भवति नान्यथा ।

चन्द्रसूर्यात्मिकामध्ये वह्निरूपे महोज्ज्वले ॥ ४८ ॥

वहाँ जहाँ त्रिवेणी का सङ्गम है उसे तीर्थराज कहा जाता है। यहाँ इस त्रिवेणी सङ्गम में साधक ईडा, पिङ्गला और सुषुम्ना का बारम्बार सञ्चालन करे । इस माया रहित महातीर्थ में बारम्बार इन तीन नाडियों का संचालन करने वाला साधक सभी प्रकारों के पाप से मुक्त हो जाता है और कोई अन्य उपाय नहीं है। चन्द्रात्मक नाडी ईडा, सूर्यात्मक नाडी पिङ्गला, इनके मध्य में रहने वाली अग्निस्वरूपा, महोज्वला सुषुम्ना में वायु स्वरूप महादेव का ध्यान करे, यही सिद्धि का उपाय है और कोई अन्य उपाय नहीं है ।। ४६-४८ ॥

ध्यात्वा कोटि (रवि) कर कुण्डलीकिरणं वशी ।

त्रिवारभ्रमणं वायोरुत्तमाधममध्यमाः ॥ ४९ ॥

यत्र यत्र गतो वायुस्तत्र तत्र त्र्यं त्रयम् ।

इडादेवी च चन्द्राख्या सूर्याख्या पिङ्गला तथा ॥ ५० ॥

सुषुम्ना जननी मुख्या सूक्ष्मा पङ्कजतन्तुवत् ।

सुषुम्ना मध्यदेशे च वज्राख्या नाडिका शुभा ॥ ५१ ॥

करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान कुण्डली की किरण का ध्यान कर तीन बार वायु का संचालन करे तो उत्तम, मध्यम तथा अधम प्राणायाम होता है ? जहाँ जहाँ वायु जाती है, वहाँ ये तीनों नाडियाँ भी जाती हैं। इडा नाडी चन्द्रा है, पिङ्गला सूर्या है, इन दोनों के मध्य में सुषुम्ना जननी मुख्या है और पङ्कज तन्तु के समान वह सूक्ष्म है। सुषुम्ना के मध्य में कल्याणकारिणी वज्रा नाम की नाडी है ।। ४९-५१ ॥

तत्र सूक्ष्मा चित्रिणी च तत्र श्रीकुण्डलीगतिः ।

तया सङ्ग्राह्य तं नाड्या षट्पद्यं सुमनोहरम् ॥ ५२ ॥

ध्यानगम्यापरं ज्ञानं षट्शरं शक्तिसंयुतम् ।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः ॥ ५३ ॥

ततः परशिवो नाथ षट्शिवाः परिकीर्तिताः ।

डाकिनी शकिणी शक्तिर्लाकिनी काकिनी तथा ॥ ५४ ॥

साकिनी २ तत्र षट्पचे शक्तयः षशिवान्विताः ।

मूलाधारं स्वाधिष्ठानं मणिपूरं सुपङ्कजम् ॥ ५५ ॥

उस वज्रा में अत्यन्त सूक्ष्मा चित्रिणी है । उसी में से कुण्डली जाती है । वह कुण्डलिनी उस नाडी से अत्यन्त मनोहर षट् पद्मों को ग्रहण कर चलती है। उन षट् पद्मों पर शक्ति से संयुक्त ६ शिव निवास करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा परशिव ये ६ शिव हैं। डाकिनी, राकिणी, शक्ति, लाकिनी, काकिनी तथा साकिनी ये षट् पद्मों पर षट् शिव के साथ निवास करने वाली उनकी शक्तियाँ हैं ।। ५२-५५ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २५

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल – प्राणायाम विधान

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः

अनाहतं विशुद्धाख्यमाज्ञाचक्रं महोत्पलम् ।

आज्ञाचक्रादिमध्ये तु चन्द्रं शीतलतेजसम् ॥ ५६ ॥

प्रपतन्तं मूलपद्ये तं ध्यात्वा पूरकानिलम् ।

यावत्कालं स्थैर्यगुणं तत्कालं कुम्भकं स्मृतम् ॥ ५७ ॥

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्र ये ६ महाचक्र रूप पद्म हैं। आज्ञाचक्र के आदि से लेकर मध्य के पद्मों में होते हुए शीतल तेज वाले चन्द्रमा को नीचे के मूलाधार में आते हुए ध्यान करे तथा पूरक प्राणायाम करे। जब तक वायु को खींचकर स्थिर रखे तब तक कुम्भक प्राणायाम कहा जाता है ।। ५६-५७ ।।

पिङ्गलायां प्रगच्छन्तं रेचकं तं वशं नयेत् ।

अङ्गुष्ठैकपर्वणा च दक्षनासापुटं वशी ॥ ५८ ॥

धृत्वा षोडशवारेण प्रणवेन जपं चरेत् ।

एतत्पूरकमाकृत्य कुर्यात्कुम्भकमद्भुतम् ॥ ५९ ॥

साधक पिङ्गला में जाते हुए रेचक को अपने वश में करे । अंगूठे के किसी एक पर्व से दाहिने नासिका का छिद्र पकड़कर सोलह बार प्रणव का जप करते हुए वायु को खींचे । यह पूरक प्राणायाम है । इसके बाद अत्यन्त अद्भुत कुम्भक प्राणायाम करे ।। ५८-५९॥

चतुःषष्टिप्रणवेन जपं ध्यानं समाचरेत् ।

कुम्भकानन्तरं नाथ रेचकं कारयेद् बुधः ॥ ६० ॥

द्वात्रिंशद्वारजापेन मूलेन प्रणवेन वा ।

द्विनासिकापुटं बद्ध्वा कुम्भकं सर्वसिद्धिदम् ॥ ६१ ॥

चौंसठ बार प्रणव का जप तथा ध्यान करते हुए वायु को रोके । हे नाथ ! इस प्रकार कुम्भक प्राणायाम करने के बाद बुद्धिमान् साधक रेचक प्राणायाम करे । यह प्राणायाम बत्तीस बार प्रणव का जप करते हुए अथवा ध्यान करते हुए करना चाहिए। कुम्भक प्राणायाम के समय दोनों नासिकाच्छिद्र बन्द रखे, यह प्राणायाम सब प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है ।। ६०-६१ ॥

कनिष्ठानामिकाभ्यां तु वाममङ्गुष्ठदक्षिणम् ।

पुनर्दक्षिणनासाग्रे वायुमापूरयेद् बुधः ॥ ६२ ॥

मनुषोडशजापेन कुम्भयेत् पूर्ववत्ततः ।

ततो वामे रेचकञ्च द्वात्रिंशत्प्रणवेन तु ॥ ६३ ॥

पुनः कनिष्ठा और अनामिका से बायें नासिका छिद्र को बन्द कर दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिना नासिका पुट पकड़े हुए दाहिनी नासिका से वायु को पूर्ण कर पूरक करे । तदनन्तर १६ बार मन्त्र का जप करते हुए पूर्ववत् कुम्भक करें, फिर बत्तीस बार प्रणव का जप करते हुए बायीं नासिका से रेचक प्राणायाम करे ।। ६२-६३ ।।

पुनर्वामेन सम्पूर्य षोडशप्रणवेन तु ।

पुनर्दक्षिणनासाग्रे द्वादशाङ्गुलमानतः ॥ ६४ ॥

कुम्भयित्वा रेचयेद्यः सर्वत्र पूर्ववत् प्रभो ।

प्राणायामत्रयेणैव प्राणायामैकमुत्तमम् ॥ ६५ ॥

द्विवारं मध्यमं प्रोक्तं मध्यमं चैकवारकम् ।

त्रिकालं कारयेद्यनात् अनन्तफलसिद्धये ॥ ६६ ॥

इसके बाद फिर सोलह प्रणव का जप कर बाईं नासिका से वायु खींचे फिर दाहिनी नासिका से बारह अंगुल पर्यन्त वायु को रोक कर हे प्रभो ! पूर्ववत् रेचक करे ( द्र०. २५, ६०-६१ ) । तीन बार पूरक, कुम्भक, रेचक प्राणायाम से एक उत्तम प्राणायाम होता है। केवल दो बार का ( पूरक कुम्भक ) प्राणायाम मध्यम तथा केवल एक बार मात्र पूरक प्राणायाम अधम कहा जाता है। किन्तु साधक को अनन्त फल की सिद्धि के लिए तीन बार वाला उत्तम प्राणायाम यत्नपूर्वक करना चाहिए ।। ६४-६६ ।।

प्रातर्मध्याह्नकाले च सायने नियतः शुचिः ।

जपध्यानादिभिर्मु (र्यु)क्तं सगर्भ यः करोति हि ॥ ६७ ॥

मासात् सल्लक्षणं प्राप्य षण्मासे पवनासनः ।

तालुमूले समारोप्य जिह्वाग्रं योगसिद्धये ॥ ६८ ॥

साधक को प्रातः काल, मध्याहन काल तथा सायङ्काल, नियमपूर्वक पवित्र हो कर प्राणायाम करना चाहिए । जो जप ध्यान से युक्त सगर्भ प्राणायाम करता है, एक महीने के बाद उसे प्राणायाम सिद्धि के लक्षण मालूम पड़ने लगते हैं। इसके बाद योगसिद्धि प्राप्त करने के लिए वायु पान करना चाहिए। जिह्वा के अग्रभाग को तालु के मूल में स्थापित करना चाहिए ।। ६७-६८ ।।

रुद्रयामल तंत्र पटल २५

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः – योगाभ्यास प्रशंसनम्

त्रिकाले सिद्धिमाप्नोति प्राणायामेन षोडश ।

सदाभ्यासी वशीभूत्त्वा पवनं जनयेत् पुमान् ॥ ६९ ॥

षण्मासाभ्यन्तरे सिद्धिरिति योगार्थनिर्णयः ।

योगेन लभ्यते सर्व योगाधीनमिदं जगत् ॥ ७० ॥

योगाभ्यास प्रशंसा १६-१६ प्राणायाम तीनों काल में करने से साधक सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार जितेन्द्रिय हो कर सदाभ्यास करने के बाद मनुष्य वायु पान करे। ऐसा करने से ६ महीने में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। यह योगशास्त्र का निर्णय है। क्योंकि योग से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, यह सारा जगत् योग के आधीन है।। ६९-७० ।।

तस्माद् योगं परं कार्यं यदा योगी तदा सुखी ।

बिना योगं न सिद्धेऽपि कुण्डली परदेवता ॥ ७१ ॥

अथ योगं सदा कुर्यात् ईश्वरीपाददर्शनात् ।

योगयोगाद् भवेन्मोक्ष इति योगार्थनिर्णयः ॥ ७२ ॥

इसलिए सर्वश्रेष्ठ योग सदैव करना चाहिए। इससे योगी सर्वदा सुखी रहता है । बिना योग के परदेवता कुण्डली सिद्ध नहीं होती। यह योग ईश्वर पद प्राप्ति कराने वाला है। इस कारण सर्वदा योग करना चाहिए। योग से युक्त होने पर ही मोक्ष होता है ऐसा योग के अर्थ का निर्णय है ।। ७१-७२ ।।

मन्त्रसिद्धीच्छुको यो वा सैव योगं सदाभ्यसेत् ।

मात्रावृत्तिं प्रवक्ष्यामि काकचञ्चुपुटं तथा ॥ ७३ ॥

सूक्ष्मवायु भक्षणं तत् चन्द्रमण्डलचालनम् ।

त्र्यावृत्तिञ्चैव विविधं तन्मध्ये उत्तमं त्रयम् ॥ ७४ ॥

जो मन्त्र के सिद्धि की इच्छा रखता हो उसे योगाभ्यास सदैव करते रहना चाहिए । अब (प्राणायाम के अन्य प्रकार ) मालावृत्ति ( द्र०. २५ ४२) तथा काकचञ्चुपुट कहती हूँ । मालावृत्ति वह है जिसमें सूक्ष्म वायु का भक्षण किया जाता है, वायु भक्षण से चन्द्रमण्डल का संचालन होता है। उसकी तीन आवृत्तियाँ हैं तथा प्रकार अनेक हैं, उसमें भी तीन उत्तम हैं ।। ७३-७४ ।।

वर्णं चन्दं संयुक्तं मूलं त्र्यक्षरमेव वा ।

जानुजगामध्यदेशे तत्तत्सर्वासनस्थितः ॥ ७५ ॥

१. अनुस्वार युक्त वर्ण, मूलमन्त्र का जप, अथवा त्र्यक्षर ( ॐकार) का जप ये तीन उत्तम हैं । जानु, जंघा के मध्य में जो जो आसन है, उनमें से किसी एक पर स्थित होकर इसका जप करना चाहिए ।। ७५ ।।

वामहस्ततालुमूलं भ्रामयेद् द्वादशक्रमात् ।

द्वादशक्रमशः कुर्यात् प्राणायामं हि पूर्ववत् ॥ ७६ ॥

२. बायाँ हाथ तथा तालु का मूल भाग क्रमशः बारी बारी से घुमावें और इसी क्रम से बायें से दाहिने तथा दाहिने से बायें १२ प्राणायाम भी करे ।। ७६ ।।

मात्रावृत्तिक्रमेणैव जपमष्टसहस्रकम् ।

प्राणायामद्वादशैकैर्भवेत्तदष्टसहस्रकम्

कृत्वा सिद्धीश्वरो नाम निष्पापी चैकमासतः ॥ ७७ ॥

त्रिसन्ध्यं कारयेद्यत्नाद् ब्रह्मज्ञानी निरञ्जनः ।

भवतीति न सन्देहः सदाभ्यासी हि योगिराट् ॥ ७८ ॥

३. मालावृत्ति का क्रम से आठ हजार जप करना चाहिए। यह आठ हजार जप उक्त १२ प्राणायाम को करते हुए करे, ऐसा एक मास करने से साधक सिद्धिश्वर बन जाता है तथा निष्पाप हो जाता है। इस क्रिया को तीनों सन्ध्या में करने से साधक माया से रहित ब्रह्मज्ञानी हो जाता है तथा सदैव अभ्यास करने से योगिराज बन जाता है इसमें संदेह नहीं । ७७-७८ ।।

योगाभ्यासाद्भवेन्मुक्तो योगाभ्यासात् कुलेश्वरः ।

योगाभ्यासाच्च संन्यासी ब्रह्मज्ञानी निरामयः ॥ ७९ ॥

सदाभ्यासाद् भवेद्योगी सदाभ्यासात् परन्तपः ।

सदाभ्यासात् पापमुक्तो विधिविधाशकृत् शकृत् ॥ ८० ॥

काकचञ्चुपुटं कृत्वा पिबेद्वायुमहर्निशम् ।

सूक्ष्मवायुक्रमेणैव सिद्धो भवति योगिराट् ॥ ८१ ॥

योगाभ्यास से साधक मुक्त हो जाता है । योगाभ्यास से कुलेश्वर ( महाशाक्त ) हो जाता है, योगाभ्यास से सन्यासी ब्रह्मज्ञानी और नीरोग हो जाता है। सदैव योग के अभ्यास से योगी, सदैव योगाभ्यास से उत्तम तपस्वी अथवा शत्रुहन्ता तथा सदैव योगाभ्यास से वह निष्पाप हो जाता है। काक के समान चञ्चुपुट बना कर दिन रात वायु पान करे। सूक्ष्म वायु के क्रम से साधक सिद्ध तथा योगिराज बन जाता है। ।। ७९-८१ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २५– योगियों के जपनियम

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रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः 

बद्धपद्मासनं कृत्वा योगिमुद्रां विभाव्य च ।

मूले सम्पूरयेद् वायुं काकचञ्चुपुटेन तु ॥ ८२ ॥

पद्मासन लगाकर योगीमुद्रा प्रदर्शित कर मूलाधार में काकचञ्चुपुट से वायु को पूर्ण करे ।। ८२ ॥

मूलमाकुञ्च्य सर्वत्र प्राणायामे मनोरमे ।

प्रबोधयेत् कुण्डलिनीं चैतन्यां चित्स्वरूपिणीम् ॥ ८३ ॥

ओष्ठाधरकाकतुलं दन्ते दन्ताः प्रगाढकम् ।

बद्ध्वा वा यद् यजेद् योगी जिह्वां नैव प्रसारयेत् ॥ ८४ ॥

राजदन्तयुगं नाथ न स्पृशेज्जिह्वया सुधीः ।

काकचञ्चुपुटं कृत्वा बद्ध्वा वीरासने स्थितः ॥ ८५ ॥

तदनन्तर मूलाधार को संकुचित कर उत्तम प्राणायाम से चैतन्या चित्स्वरूपिणी कुण्डलिनी को उबुद्ध करे। कौवे के तुण्ड के समान अपने ओष्ठ और अधर को तथा दाँतों को दाँत पर प्रगाढ़ रूप से बाँधकर स्थापित करे । जीभ को न प्रसारे इस प्रकार काकचञ्चुपुट से वायु पान करे । हे नाथ! सुधी साधक गजदन्त ( आगे के प्रधान दो दाँत) जिह्वा से स्पर्श न करे। वीरासन पर स्थित होकर काक के चञ्चुपुट के समान ओष्ठाधर को स्थापित करे ।। ८३-८५ ॥

तालुजिह्वामूलदेशे चान्यजिवां प्रयोजयेत् ।

तदुद्भूतामृतरसं काकचञ्चुपुटे पिबेत् ॥ ८६ ॥

यः काकचञ्चुपुटके सूक्ष्मवायुप्रवेशनम् ।

करोति स्तम्भनं योगी सोमरो भवति ध्रुवम् ॥ ८७ ॥

तालु तथा जिह्वा के मूल स्थान में अन्य जिह्वा को संयुक्त करे और उससे गिरते हुए अमृत रस को काकचञ्चुपुट में पान करे। जो काकचञ्चुपुट में सूक्ष्म वायु का प्रवेश कर उसका संस्तम्भन करता है वह योगी निश्चित रूप से अमर हो जाता है ।। ८६-८७ ।।

एतद्योगप्रसादेन जीवन्मुक्तस्तु साधकः ।

जराव्याधि महापीडारहितो भवति क्षणात् ॥ ८८ ॥

अथवा मात्रया कुर्यात् षोडशस्वरसम्पुटम् ।

स्वमन्त्रं प्रणवं वापि जप्त्वा योगी भवेन्नरः ॥ ८९ ॥

अथवा वर्णमालाभिः पुटितं मूलमन्त्रकम् ।

मालासंख्याक्रमेणैव जप्त्वा कालवशं नयेत् ॥ ९० ॥

इस योग की क्रिया के सिद्ध हो जाने पर साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और क्षण भर में जरा व्याधि तथा महापीड़ा से रहित हो जाता है। अथवा मातृका वर्णों से षोडश स्वर का सम्पुट करे, अथवा अपने मन्त्र को अथवा प्रणव को सम्पुटित करे ऐसा जप करने से मनुष्य योगी हो जाता है । अथवा वर्णमाला से मूलमन्त्र को सम्पुटित करे, वर्णमाला के संख्या के क्रम से मूलमन्त्र को सम्पुटित करने से साधक काल को अपने वश में कर लेता है ।। ८८-९० ।।

वदने नोच्चरेद्वर्णं वाञ्छाफलसमृद्धये ।

केवल जिह्वया जप्यं कामनाफलसिद्धये ॥ ९१ ॥

नाभौ सूर्यो वह्निरूपी ललाटे चन्द्रमास्तथा ।

अग्निशिखास्पर्शनेन गलितं चन्द्रमण्डलम् ॥ ९२ ॥

तत्परामृतधाराभिः दीप्तिमानोति भास्करः ।

सन्तुष्टः पाति सततं पूरकेण च योगिनाम् ॥ ९३ ॥

मनोरथ फल की समृद्धि के लिए मुख से वर्णों का ( वैखरी) उच्चारण न करे, कामना फल सिद्धि के लिए केवल जिह्वा से ही जप करे। नाभि में अग्निरूप से सूर्य का निवास है, ललाट में चन्द्रमा का निवास है । प्राणवायु की अग्नि शिखा के स्पर्श से चन्द्रमण्डल द्रवित होता है । उस चन्द्र मण्डल से चूने वाली अमृतधारा से सूर्य प्रकाशित होता है। जब वह संतुष्ट रहता है तो पूरक से योगी की रक्षा करता है ।। ९१-९३ ॥

ततः पूरकयोगेन अमृतं श्रावयेत् सुधीः ।

कुर्यात्प्रज्वलितं वह्निं रेचकेन वराग्निना ॥ ९४ ॥

अथ मौनजपं कृत्वा ततः सूक्ष्मानिलं मुदा ।

सहस्रारे गुरुं ध्यात्वा योगी भवति भावकः ॥ ९५ ॥

प्राणवायुस्थिरो यावत् तावन्मृत्युभयं कुतः ।

ऊर्ध्वरता भवेद्यावत्तावत्कालभयं कुतः ॥ ९६ ॥

तदनन्तर पूरक प्राणायाम के द्वारा सुधी साधक अमृत को गिरावे और रेचक रूप श्रेष्ठ अग्नि से वह्नि को प्रज्वलित करे। इसके बाद मौन हो कर जप करे फिर सूक्ष्म वायु को सहस्रार चक्र में ले जाकर गुरु का ध्यान करे, ऐसा करने से साधक योगी हो जाता है। जब तक प्राणवायु स्थिर है तब तक भला मृत्यु का भय किस प्रकार हो सकता है। जब तक ऊर्ध्वरेता है तब तक भला काल का भय किस प्रकार हो सकता है ।। ९४-९६ ।।

यावबिन्दुः स्थितो देहे विधुरूपी सुनिर्मलः ।

सदागलत्सुधाव्याप्तस्तावन्मृत्युभयं कुतः ॥ ९७ ॥

जब तक चन्द्रमण्डल से गिरे हुए अमृत से व्याप्त वीर्य शरीर में स्थित है, तब तक किस प्रकार मृत्यु का भय हो सकता है ।। ९७ ।।

रुद्रयामल तंत्र पटल २५

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रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल– खेचरी तथा शाङ्करी विद्या

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः 

आनन्दभैरव उवाच

वद कान्ते कुलानन्दरसिके ज्ञानरूपिणि ।

सर्वतेजोऽग्रदेवेन येन सिद्धो भवेन्नरः ॥ ९८ ॥

महामृता खेचरी च सर्वतत्त्वस्वरूपिणी ।

कीदृशी शाङ्करीविद्या श्रोतुमिच्छामि तत्क्रियाम् ॥ ९९ ॥

अध्यात्मविद्यायोगेशी कीदृशी भवितव्यता ।

कीदृशी परमा देवी तत्प्रकारं वदस्व मे ॥ १०० ॥

आनन्दभैरव ने कहाहे कुलानन्दरसिके ! हे ज्ञान स्वरूपिणि ! हे कान्ते ! जिस सर्वगा सर्वतेजोग्र देवता से मनुष्य सिद्ध होता है उसे कहिए । सर्वतत्त्वस्वरूपिणी महामृता खेचरी तथा शाङ्करी विद्या क्या है मैं उसकी क्रिया सुनना चाहता हूँ। समस्त योगों की अधीश्वरी वह अध्यात्म विद्या क्या है? परमा देवी भवितव्यता क्या है? उसका प्रकार मुझसे कहिए ।। ९८- १०० ॥

आनन्दभैरवी उवाच

यस्य नाथ मनस्थैर्य महासत्त्वे सुनिर्मले ।

भक्त्या सम्भावनं यत्र विनावलम्बनं प्रभो ॥ १०१ ॥

यस्या मनश्चित्तवशं स्वमिन्द्रियं

स्थिरा स्वदृष्टिर्जगदीश्वरीपदे ।

न खेन्दुशोभे च विनावलोकनं

वायुः स्थिरो यस्य बिना निरोधनम् ॥ १०२ ॥

त एव मुद्रा विचरन्ति खेचरी पापाद्विमुक्ताः प्रपिबन्ति वायुम् ।

यथा हि बालस्य च तस्य वेष्टी निद्राविहीनाः प्रतियान्ति निद्राम् ॥ १०३ ॥

खेचरी मुद्रा –

आनन्दभैरवी ने कहाहे नाथ! जो साधक बिना अवलम्बन वाले मन को भक्तिपूर्वक सुनिर्मल महासत्त्व में भक्तिपूर्वक स्थापित कर उसका ध्यान करता है, जगदीश्वर पद में उस भक्ति से मन, चित्त तथा समस्त इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, आकाश स्थित इन्दु के बिना जो देखने में समर्थ है तथा वायु के निरोध के बिना ही जिसका वायु स्थिर है, वही खेचरी मुद्रा है। पाप से विमुक्त साधक उसी खेचरी मुद्रा में वैसे ही विचरण करता है और वायु का पान करता है जिस प्रकार बालक ( विचरण करता है) ।। १०१-१०३ ॥

शाङ्करी-विद्यानिरूपणम्

पथापथज्ञानविवर्जिता ये धर्मार्थकामाद्धि विहीनमानसाः ।

विनावलम्बं जगतामधीश्वर एवैव मुद्रा विचरन्ति शाङ्करी ॥ १०४ ॥

शाङ्करी मुद्रा- हे जगत् के अधीश्वर ! जिन्हें मार्ग कुमार्ग का ज्ञान नहीं है तथा जिनका मन धर्म, अर्थ तथा काम से रहित है, ऐसे लोग जिसमें बिनावलम्ब के विचरण करते हैं, वही शाङ्करी मुद्रा है ॥ १०४ ॥

विमर्श - जिस प्रकार बक निद्राविहीन होकर जगत् के प्रति जागरूक नहीं रहता उसी प्रकार शाङ्करी मुद्रा में योगी हो जाता है। (पथापथज्ञानविवर्जिता ) पथे गतौ इत्यस्मात् कर्तरि पचाद्यच्, पथम् इति सिध्यति, तच्चापथं चेति पथापथे, ताभ्यां विहीनाः ॥ १०४ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २५

Rudrayamal Tantra Patal 25

रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः – आध्यात्मनिरूपणम्

ज्ञाने साध्यात्मविद्यार्थं जानाति कुलनायकम् ।

अध्याज्ञाचक्रपद्मस्थं शिवात्मानं सुविद्यया ॥ १०५ ॥

अध्यात्मज्ञानमात्रेण सिद्धो योगी न संशयः ।

षट्चक्रभेदको यो हि अध्यात्मज्ञः स उच्यते ॥ १०६ ॥

अध्यात्मशास्त्रसङ्केतमात्मना मण्डितं शिवम् ।

कोटिचन्द्राकृतिं शान्तिं यो जानाति षडम्बुधे ॥ १०७ ॥

अध्यात्म के सहित महाविद्या के लिए ज्ञान सम्पन्न होने पर साधक आज्ञा चक्र रूप पद्म में रहने वाले कुल नायक शिव स्वरूप आत्मा को जान लेता है। ऐसा योगी मात्र अध्यात्म के ज्ञान से सिद्ध हो जाता है इसमें संशय नहीं । अध्यात्म का ज्ञाता वह है जो षट्चक्र का भेदन करना जानता है। वह षट्चक्र रूप समुद्र में रहने वाले, अध्यात्म शास्त्र के सङ्केत से जानने योग्य, आत्मा से मण्डित, करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतल सदाशिव को जान लेता है और अन्ततः वह शान्ति प्राप्त कर लेता है ।। १०५-१०७ ॥

स ज्ञानी सैव योगी स्यात् सैव देवो महेश्वरः ।

स मां जानाति हे कान्त विस्मयो नास्ति शङ्कर ॥ १०८ ॥

मम सर्वात्मकं रूपं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।

सृष्टिस्थितिप्रलयगं यो जानाति स योगिराट् ॥ १०९ ॥

हे कान्त ! हे सदाशिव ! वही ज्ञानी है। वही योगी है। वही महेश्वर देव है और वही मुझे जानता है इसमें विस्मय नहीं करना चाहिए। स्थावर जङ्गमात्मक सारा जगत् मेरा सर्वात्मक रूप है, जो सृष्टि में उसकी स्थिति में तथा उसके प्रलय काल में भी विद्यमान रहता है, ऐसा जो जानता है, वह योगिराज है ।। १०८-१०९ ॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २५– आध्यात्मज्ञाननिरूपण

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रुद्रयामल तंत्र पच्चीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र पञ्चविशः पटलः

अध्यात्मविद्यां विज्ञाप्य नानाशास्त्रं प्रकाशितम् ।

तच्छासजालयुग्मा ये तेऽध्यात्मज्ञाः कथं नराः ॥ ११० ॥

त्रिदण्डी स्यात्सदाभक्तो वेदाभ्यासपरः कृती ।

वेदादुद्भवशास्त्राणि त्यक्त्वा मां भावयेद्यदि ॥ १११ ॥

अध्यात्म विद्या को उद्देश्य कर अनेक शास्त्र प्रकाशित किए गए हैं। किन्तु जो उस शास्त्र जाल में उलझ गए हैं वे मनुष्य किस प्रकार अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । जो त्रिदण्ड धारण करे सर्वदा मुझ में भक्ति रखे, वेदाभ्यास करे, कृतज्ञ हो, ऐसा पुरुष यदि वेद से उत्पन्न समस्त शास्त्रों का त्याग कर मेरा ध्यान करे, तो वह अध्यात्मज्ञ हो सकता है ।। ११०-१११ ॥

वेदाभ्यासं समाकृत्य नानाशास्त्रार्थनिर्णयम् ।

समुत्पन्नां महाशक्तिं समालोक्य भजेद्यतिः ॥ ११२ ॥

सर्वत्र व्यापिकां शक्तिं कामरूपां निराश्रयाम् ।

व्यक्ताव्यक्तां स्थिरपदां वायवीं मां भजेद्यतिः ॥ ११३ ॥

वेदाभ्यास का आचरण करते हुए नाना शास्त्रों के अर्थ के निर्णय से उत्पन्न मुझ महाशक्ति को जान कर यति मेरा भजन करे। सब जगह व्यापक रूप से रहने वाली बिना किसी आधार के अधिष्ठित इच्छानुसार रूप धारण करने वाली, व्यक्त तथा अव्यक्त सर्वथा स्थिर मुझ वायवी शक्ति का यति भजन करे ।। ११२-११३ ।।

यस्या आनन्दमतुलं ज्ञानं यस्य फलाफलम् ।

योगिनां निश्चयज्ञानमेकमेव न संशयः ॥ ११४ ॥

यस्याः प्रभावमात्रेण तत्त्वचिन्तापरो नरः ।

तामेव परमां देवीं सर्पराजसु कुण्डलीम् ॥ ११५ ॥

तामेव वायवीं शक्तिं सूक्ष्मरूपां स्थिराशयाम् ।

आनन्दरसिकां गौरीं ध्यायेत् श्वासनिवासिनीम् ॥ ११६ ॥

जिसके आश्रय में अतुल आनन्द है, जिसमें ज्ञान है, जो फलाफल देने वाली है, जो योगियों में निश्चय ज्ञान देने वाली है, वह तत्त्व एक ही है। जिसके प्रभाव मात्र से मनुष्य तत्त्व की चिन्ता में लग जाता है। सर्पराज पर अधिष्ठित वह परमा देवी कुण्डली वायवीशक्ति हैं, सूक्ष्मस्वरूपा हैं, स्थिर रहने वाली हैं और आनन्द की रसिका हैं। ऐसी श्वास में रहने वाली उस गौरी का ध्यान करे ।। ११४-११६ ।।

आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तत्त्वदेहे व्यवस्थितम् ।

तस्याभिव्यञ्जकं द्रव्यं योगिभिः परिपीयते ॥ ११७ ॥

आनन्द ही ब्रह्मा का स्वरूप हैं, वह तत्त्व साक्षात्कर्ता के देह में निवास करता है। उस आनन्द के अभिव्यञ्जक द्रव्य को योगीजन पान करते हैं ।। ११७ ।।

तद्द्द्रव्यस्थां महादेवीं नीलोत्पलदलप्रभाम् ।

मानवीं परमां देवीमष्टादशभुजैर्युताम् ॥ ११८ ॥

कुण्डलीं चेतनाकान्तिं चैतन्यां परदेवताम् ।

आनन्दभैरवीं नित्यां घोरहासां भयानकाम् ॥ ११९ ॥

तामेव परमां देवीं सर्ववायुवशङ्करीम् ।

मदिरासिन्धुसम्भूतां मत्तां रौद्री वराभयाम् ॥ १२० ॥

योगिनीं योगजननीं ज्ञानिनां मोहिनीसमाम् ।

सर्वभूत सर्वपक्षस्थितिरूपां महोज्ज्वलाम् ॥ १२१ ॥

षट्चक्रभेदिकां सिद्धिं तासां नित्यां मतिस्थिताम् ।

विमलां निर्मलां ध्यात्त्वा योगी मूलाम्बुजे यजेत् ॥ १२२ ॥

उन द्रव्यों में रहने वाली, नीलकमल पत्र के समान कान्ति वाली, मन्त्रस्वरूपा, अष्टादशभुजा से युक्त परमा महादेवी ही हैं। उस चैतन्या, चेतना से संयुक्त कान्ति वाली, परदेवतास्वरूपा कुण्डली आनन्दभैरवी नित्य घोर हास करने वाली, भयानक, समस्त वायु मण्डल को अपने वश में करने वाली, मदिरा समुद्र से उत्पन्न मस्ती से युक्त, रुद्र स्वरूपा, वर तथा अभय धारण करने वाली योगिनी, योगीजनों की जननी, ज्ञानियों को भी मोह के फन्दे में डालने वाली, सब में समभाव से विराजमान, समस्त प्राणियों में तथा समस्त पक्षों में रहने वाली महान् उज्ज्वल स्वरूपा, षट्चक्रों का भेदन करने वाली सिद्धि, नित्या, बुद्धि में स्थित रहने वाली विमला एवं निर्मला का ध्यान कर योगी मूलाधार में उनका यजन करे ।। ११८-१२२ ।।

एतत्पटलपाठे तु पापमुक्तो विभाकरः ।

यथोर्ध्वरेता धर्मज्ञो विचरेत् ज्ञानसिद्धये ॥ १२३ ॥

एतत्क्रियादर्शनेन ज्ञानी भवति साधकः ।

ज्ञानादेव हि मोक्षः स्यान्मोक्षः समाधिसाधनः ॥ १२४ ॥

इस (२५ वें ) पटल के पाठ से साधक पाप मुक्त हो जाता है। सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है। जिस प्रकार ऊर्ध्वरेता विचरण करता है, उसी प्रकार वह धर्मज्ञ भी ज्ञान सिद्धि के लिए विचरण करता है। इस क्रिया को देखने से भी साधक ज्ञानी हो जाता है। ज्ञान से ही मोक्ष होता है। जो मोक्ष समाधि के साधन से प्राप्त होता है ।। १२३-१२४ ।।

यदुद्धरति वायुश्च धारणाशक्तिरेव च ।

तन्मन्त्रं वर्द्धयित्वा प्राणायामं समाचरेत् ॥ १२५ ॥

प्राणायामात् परं नास्ति पापराशिक्षयाय च ।

सर्वपापक्षये याते किन्न सिद्धयति भूतले ॥ १२६ ॥

जो मन्त्र वायु को धारण कराता है, जिससे धारणा शक्ति उत्पन्न होती है, उस मन्त्र के जप को बढ़ाकर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। पापराशि के क्षय के लिए प्राणायाम से बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। जब सभी पापों का क्षय हो जाता है तब वह कौन सा पदार्थ है जो इस पृथ्वी पर सिद्ध न हो ? ।। १२५-१२६ ।।

प्राणवायुं महोग्रं तु महत्तेजोमयं परम् ।

प्राणायामेन जित्वा च योगी मत्तगजं यथा ॥ १२७ ॥

प्राणायामं विना नाथ कुत्र सिद्धो भवेन्नरः ।

सर्वसिद्धिक्रियासारं प्राणायामं परं स्मृतम् ॥ १२८ ॥

प्राणायामं त्रिवेणीस्थं यः करोति मुहुर्मुहुः ।

तस्याष्टाङ्गसमृद्धिः स्याद्योगिनां योगवल्लभः ॥ १२९ ॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावनिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे प्राणायामोल्लासे भैरवी भैरवसंवादे पञ्चविंशः पटलः ॥ २५ ॥

प्राणवायु बड़ा प्रचण्ड है। महातेजस्वी है। योगी उस प्राणवायु को मत्त गजेन्द्र के समान प्राणायाम द्वारा अपने वश में कर लेता है। हे नाथ ! प्राणायाम के बिना कौन मनुष्य कब सिद्ध हुआ है। यह प्राणायाम सभी क्रियाओं की सिद्धि का सार है तथा सबसे श्रेष्ठ है। जो साधक त्रिवेणी में रहने वाले इस प्राणायाम का बारम्बार अभ्यास करते हैं, उन्हें अष्टाङ्ग सिद्धि प्राप्त हो जाती है और वे योगियों के प्रेमपात्र हो जाते हैं ।। १२७-१२९ ।।

॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में भावनिर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्रप्रकरण में प्राणायामोल्लास में भैरवी भैरव संवाद के मध्य पच्चीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीयकृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २५ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल २६

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