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- रुद्रयामल तंत्र पटल २८
- अष्ट पदि ३ माधव उत्सव कमलाकर
- कमला स्तोत्र
- मायातन्त्र पटल ४
- योनितन्त्र पटल ८
- लक्ष्मीस्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २७
- मायातन्त्र पटल ३
- दुर्गा वज्र पंजर कवच
- दुर्गा स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ७
- गायत्री होम
- लक्ष्मी स्तोत्र
- गायत्री पुरश्चरण
- योनितन्त्र पटल ६
- चतुःश्लोकी भागवत
- भूतडामरतन्त्रम्
- भूतडामर तन्त्र पटल १६
- गौरीशाष्टक स्तोत्र
- योनितन्त्र पटल ५
- भूतडामर तन्त्र पटल १५
- द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र
- गायत्री शापविमोचन
- योनितन्त्र पटल ४
- रुद्रयामल तंत्र पटल २६
- मायातन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल १४
- गायत्री वर्ण के ऋषि छन्द देवता
- भूतडामर तन्त्र पटल १३
- परापूजा
- कौपीन पंचक
- ब्रह्मगायत्री पुरश्चरण विधान
- भूतडामर तन्त्र पटल १२
- धन्याष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २५
- भूतडामर तन्त्र पटल ११
- योनितन्त्र पटल ३
- साधनपंचक
- भूतडामर तन्त्र पटल १०
- कैवल्याष्टक
- माया तन्त्र पटल १
- भूतडामर तन्त्र पटल ९
- यमुना अष्टक
- रुद्रयामल तंत्र पटल २४
- भूतडामर तन्त्र पटल ८
- योनितन्त्र पटल २
- भूतडामर तन्त्र पटल ७
- आपूपिकेश्वर स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ६
- रुद्रयामल तंत्र पटल २३
- भूतडामर तन्त्र पटल ५
- अवधूत अभिवादन स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ४
- श्रीपरशुराम स्तोत्र
- भूतडामर तन्त्र पटल ३
- महागुरु श्रीकृष्ण स्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल २२
- गायत्री सहस्रनाम
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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
योनितन्त्र पटल २
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में आगमतन्त्र से योनितन्त्र पटल १ को आपने पढ़ा अब पटल २ में योनिपीठ पूजा वर्णित
है।
योनितन्त्रम् द्वितीयः पटलः
योनितन्त्र पटल २
Yoni tantra patal 2
योनि तन्त्र दूसरा पटल
श्रीदेव्युवाच-
देव देव जगन्नाथ सृष्टि
स्थित्यन्तकारकः
त्वां विना जनकः कोऽपिमां विना जननी
परा ।। १।।
संक्षेपात् कथिता
योनि-पूजाविधि-रनुत्तमा ।
कस्या योनिः पूजितव्या योनिश्च की
दृशी शुभा ।। २।।
देवि ने कहा-
हे देवदेव जगन्नाथ! आप सृष्टि स्थिति एवं प्रलयकर्ता हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि का
जनक और कोई जननी नहीं है, तथा मेरे अतिरिक्त
कोई नहीं है। संक्षेप में आप योनिपूजा की प्रत्युत्तम विधि जानते है; तथापि किसकी योनिपीठ पूजा करना विधेय है तथा किस प्रकार की योनि शुभदायिका
है, इसका वर्णन करिए ।।१-२।।
श्रीमहादेव उवाच-
नटी कापालिनी वेश्या रजकी
नापिताङ्गना ।
ब्राह्मणी शूद्रकन्या च तथा
गोपालकन्यका ।। ३।।
मालाकारस्य कन्या च नव कन्याः
प्रकीर्त्रिताः ।
अथवा सर्वजातीया विदग्धा लोललोचना
।। ४।।
महादेव ने कहा-
नटी,
कापालिका, वेश्या, रजकी,
नापितङ्गना, ब्राह्मणी, शूद्रकन्या,
गोपयुवती, मालाकार कन्या, इन्हीं नव जातीया युवतियों की शुभयोनि एवं योनिपीठ पूजा के योग्य प्रशस्त
होती है। अथवा सर्व्वजातीया विदग्धा एवं लोललोचना (पुनः पुनः परिभ्रामित तथा
इधर-उधर घूमने वाली चंचल नयना) कुलयुवती इस उद्देश्य के लिए प्रशस्त होती है।। ३-४
।।
मातृयोनिं परित्यज्य सर्व्वयोनिञ्च ताड़येत्
।
द्वादशाब्दाधिका-योनिं यावत् षष्टीं
समापयेत् ।। ५ ।।
प्रत्यहं पूजयेद योनिं पञ्चतत्त्व
विशेषतः ।
योनिदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलम्
लभेत् ।। ६ ।।
तिलकं योनितत्त्वेन नस्त्रञ्च
कुलरूपकम् ।
आसनं कुलरूपञ्च पूजनञ्च कुलोचितम्
।। ७।।
केवलमात्र मातृयोनि का परित्याग
करके अन्य समस्त कुलयुवतियों की योनि ताड़ना-योग्य है। साधक बारहवर्ष से अधिक
युवतियों की योनिपीठ को साठ वर्ष पर्यन्त पञ्चतत्व द्वारा यथाविधान पूजा करे योनिपीठ
के दर्शनमात्र से कोटितीर्थ दर्शन का फल लाभ होता है।। ५-७।।
प्रथमं मर्दनं तस्याः कुन्तला कर्षणादिकम्
।
तद्धस्ते च स्वालिङ्गञ्च दद्यात्
साधक-सत्तमः ।।८ ।।
योनिपूजां विधायाथ लिङ्ग -
पूजनभुत्तमम् ।
चन्दनं कुङ्कुमं दद्यात् लिङ्गोपरि
वरानने ।। ९ ।।
योनितत्त्व के द्वारा तिलक प्रदान
करना चाहिए। कुलाचार प्रथानुयायी वस्त्र एवं आसन ग्रहण करके कुलोचित विधानपूर्वक
इष्टदेवी की पूजा करे। पहले कुलयुवती का कुचमर्दन करके उसके कुन्तलादि को आकर्षित
करे। तत्पश्चात् साधक श्रेष्ठ उसके हाथ में रच-लिंङ्ग अर्पण करे। पहले योनिपीठ की
पूजा करने के पश्चात लिंङ्ग, पीठ की पूजा
सर्वोत्तम पूजा मानी गई है। हे वरानने ! लिंङ्ग ऊपर चन्दन एवं कुङ्कुम प्रदान करना
चाहिए।। ८-९।।
योनौलिङ्ग समाक्षिप्य
ताड़यद्बहुयत्नतः ।
ताड्यमाने पुनस्तस्या जायते
तत्त्वमुत्तमम् ।। १० ।।
तत्त्वेन पूज्येद्देव
योनिरूपांजगन्मयीम् ।
भौमावास्यां निशाभागे चतुष्पथ गतो
नरः ।। ११।।
श्मशाने प्रान्तरे गत्वा दग्धमीन
समन्वितः ।
पायसानं बलिं दत्त्वा कुबेर इव
पारगः ।। १२ ।।
योनि में लिंग का निक्षेप करके
सर्वप्रयत्नपूर्वक ताड़ना करना चाहिए। उस अवस्था में कुलयुवती उत्तम तत्त्व ग्रहण
करके उसके द्वारा योनिरूपा (अर्थात) आद्याशक्तिस्वरूपा जगन्माता की पूजा करे।
मंगलवार अमावस्या तिथि को चौराहे, श्मशान अथवा
प्रान्तर में गमन करके पूजा के अन्त में दग्धमीन (मत्स्य) एवं पायसान्न की बलि
प्रदान करने से साधक कुबेर के समान हो जाता है।। १०-१२।।
चितायां भौमवारे च यो जपेद्
योनिमण्डले ।
पठित्वा कवचं देवि पठेन्नामसहस्रकम्
।। १३ ।।
स भवेत कालिका पुत्रो मुक्तः
कोटिकुलैः सह ।
मंगलवार के दिन चिता पर अवस्थित
होकर जो साधक पूजा के अन्त में प्रथमतः शक्तिपीठ का जप,
कवच-पाठ और तदनन्तर कालिका का सहस्रनाम पाठ करे, वह स्वयं कालिका के
पुत्र-तुल्य हो जाता है और अपने कोटि कुल के साथ मुक्तिलाभ करता है।
सामिषान्नं बलिं दत्त्वा शून्यगेहे
अथवा गृहे ।। १४।।
जपित्वा च पाठित्वा च भवेद्
योगीश्वरो नरः ।
विजन-गृह-अथवा स्वगृह में आमिष
संयुक्त बलि प्रदान करने और मन्त्रजप एवं कवच सहस्रनाम पाठ करने से साधक शिवतुल्य
हो जाता है।
रजरचलाभगं दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा
साधकः स्पयम् ।। १५ ।।
अठोत्तरशतं जदवा भवेत् भुवि
पुरन्दरः ।
रजस्वला कुलयुवती (शक्ति) की
योनिपीठ का दर्शन और स्पर्श करने के बाद जो साधक अष्टोत्तर शतबार इष्ट मन्त्र का
जप करे,
वह धरातल पर इन्द्र के समान हो जाता है।
स्वशुक्र योनिपुष्पैश्च बलिं
दत्त्वा जपेन्मनुमा ।। १६।।
दग्धमीनं कुक्कुटान्डं मूषकं महिषं
नरं ।
मधु मांसं पिष्टकानं बलिं दत्त्वा
निशामुखे ।। १७ ।।
यत्र तत्र महास्थाने स्वयं नृत्य
परायणः ।
दिगम्बरो मुक्तकेशः स भवेत्
सम्पदाम्पदम् ।। १८ ।।
जो व्यक्ति अपने शुक्र एवं स्वयम्भु
कुसुम द्वारा बलि प्रदान करके रात्रि काल मन्त्र जप करे अथवा जो व्यक्ति निशामुख
दग्ध मत्स्य, कुक्कुटांड, मेष, महिष, नर, मधु, मांस और पिष्टकान्न द्वारा किसी महाश्मशान पर
बलि प्रदान कर स्वयं दिगम्बर, मुक्तकेश एवं नृत्यनरायण हो
जाय, वह व्यक्ति समस्त सम्पदा का अधीश्वर जो जाता है।
परयोनौ जपेन्मन्त्रं सर्वकाले च
सर्वदा ।
देवी बुद्धया यजेद् योनिं तां
शक्तिं शक्तिरूपिणीम् । १९ ।।
धर्म्मार्थकाममोक्षाथी चतुर्व्वर्ग
लभेन्तरः I
मद्यं मांसं बलिं दद्यात् निशायां
साधकोत्तमः ।। २० ।।
तत्नतस्ताडयेद् योनिं
कुचमर्द्दन-पूर्व्वकम् ।
शक्तिरूपा च सा देवी विपरीतरता यदि
।। २१।।
तदा कोटि कुलैः सार्द्धं जीवितञ्च
सुजीवितम् ।
योनिक्षालन-तोयेन लिङ्ग-प्रक्षालनेन
च ।। २२ ।।
पूर्जायत्वा महोदेवीं अर्घ दद्यात् विधानतः
।
तत्तीयं त्रिविधं कृत्वा भागं शक्तयै
निवेदयेत् ।। २३ ।।
भागद्वयं तथा मन्त्री कारणेन
व्यवस्थितम् ।
मिश्रयित्वा महादेवि पिवेत्
साधकसत्तमः ।। २४ ।।
सदैव तथा सभी स्थान पर परकीया
कुलयुवती की योनि पर (शक्तिपीठ अर्थात् दंव्यङ्ग ) जप करना चाहिए योनिपीठ को
आद्याशक्तिरूपिणी (कुलयुवती को आद्याशक्तिरूपिणी) अर्थात् इष्टदेवी मानकर पूजा
करना चाहिए। इस रूप में आराधना करने धर्म अर्थ, काम
एवं मोक्ष-चतुर्व्वर्ग फल लाभ होता है। साधक को रात को मद्य मीस द्वारा बलि प्रदान
करना चाहिए। बलि प्रदान करने के बाद संयत्न कुचमर्द्दन करते हुए योनि की ताड़ना
करना चाहिए। शक्तिरूपा वह देवी यदि विपरीत रति में प्रवृत्त हो जाय तो साधक अपने
कोटिकुल के साथ धन्य हो जाता है। योनि एवं लिंग प्रक्षालन द्वारा प्राप्त जल से
महाशक्ति की पूजा तथा यथाविधान अर्घ्य प्रादन करना चाहिए। इस जल का तीन भाग करके
एक भाग शक्तिरूपिणी कुलयुवती को निवेदन करना चाहिए। अन्य दो भाग कारणों के साथ
मिश्रित करके साधक श्रेष्ठ को स्वयं पान करना चाहिए।। १६-२४।।
वस्त्रालङ्कार-गन्धाद्यै-स्तोषयेत्
परसुन्दरीम् ।
तद योनौ पूजयेद् विद्यां निशाशेषे
विधनतः।। २५ ।।
भगलिङ्गै भगक्षालै र्भगशब्दभिधानकैः
।
भगलिङ्गामृतैः कुर्य्यान्नैवेद्यं
साधकोत्तमः ।। २६ ।।
इसके पश्चात् वस्त्रालङ्कार एवं
गन्धादि प्रदान करके उस शक्तिरूपा कुलयुवती को संतुष्ट करना चाहिए। रात्रि व्यतीत
हो जाने पर कुलयुवती की योनिपीठ पर विधानानुसार परमाप्रकृति आद्याशक्ति की पूजा
करनी चाहिए। पूजाकाल के समय भग लिंग द्वारा भगप्रक्षालित जल एवं भगलिङ्गामृत द्वारा
साधक श्रेष्ठ को नैवेद्य प्रदान करना चाहिए।।२५-२६।।
इति योनितन्त्रे द्वितीयः पटलः ।।
योनि तन्त्र के द्वितीय पटल का
अनुवाद समाप्त ।
आगे जारी............ योनितन्त्र पटल ३
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